Friday, August 06, 2010

हाँ जी हाँ, हम तो छिनाल हैं ही

पिछला हफ्ता छिनाल-प्रकरण का था। प्रेमचंद सहजवाला इस मुद्दे पर जितनी मुँह, उतनी बात लेकर आये थे। आज पढ़िए रंगकर्मी और कथाकार विभा रानी के विचार॰॰॰॰

लोग बहुत दुखी हैं। एक पुलिसवाले ने हम लेखिकाओं को छिनाल क्या कह दिया, दुनिया उसके ऊपर टूट पडी है। इनिस्टर-मिनिस्टर तक मुआमला खींच ले गए। अपने यहां भी ना। लोग सारी हद्द ही पार कर देते हैं। भला बताइये कि जब हम बंद कमरे में किसी को गलियाते हैं, तब सोचते हैं कि हम क्या कर रहे हैं?

अपने शास्त्रों में तो कहा ही गया है कि मन और आत्मा को शुद्ध रखो. इसका सबसे सरलतम उपाय है अपने मन की बात उजागर कर दो, मन को शान्ति मिल जाएगी. सो पुलिसवाले ने कर दिया. वह डंडे के बल पर भी यह कर सकता था. आखिर रुचिका भी तो लडकी थी ना.
अब अपने विभूति भाई स्वनाम धन्य हैं. अपने कुल खान्दान के विभूति होंगे, अपनी अर्धांगिनी के नारायण होंगे, अपनी पुलिसिया रोब से कभी कभार उतर कर कुछ कुछ राय भी दे देते होंगे. अब इसी में एक राय दे दी कि हम “छिनाल” हैं तो क्या हो गया भाई? कोई पहाड टूट गया कि ज्वालामुखी फट पडी.
छम्मकछल्लो तो खुश है कि उन्होंने इस बहाने से अपनी पहचान भी करा दी. नही समझे? भई, गौर करने की बात है कि हमलोगों को छिनाल या वेश्या या रंडी कौन बनाता है? हमसे खेलने के लिए, हमसे हमारे तथाकथित मदमाते सौंदर्य और देह का लुत्फ उठाने के लिए, हम पर तथाकथित जान निछावर करने के लिए हमारे पास क्या किसी गांव घर से कोई लडकी या औरत आती है? वे सब ही तो बनाते हैं हमें छिनाल या रंडी. तो अपने इस सृजनकारी ब्रह्मा के स्वरूप को उन्होंने खुद ही ज़ाहिर किया है भाई? पुलिसवाले आदमी हैं, इसलिए कलेजे में इतना दम भी है कि इसे बता दिया. वरना अपने स्वनाम धन्य लेखक लोग तो कहते -कहते और करते- करते स्वर्ग सिधार गए कि “भई, दारू और रात साढे नौ बजे के बाद मुझे औरतों की चड्ढियां छोडकर और कुछ नहीं दिखाई देता." इतने ही स्वनाम धन्य लेखकों की ही अगली कडी हैं अपने विभूति भाई.
इतना ही नहीं, अपने लेखकों की जमात जब एक दूसरे से मिलती है तो खास पलों में खास तरीके से टिहकारी-पिहकारी ली जाती है, “क्यों? केवल लिखते ही रहे और छापते ही रहे कि किसी को भोगा भी? और साले, भोगोगे ही नहीं तो भोगा हुआ यथार्थ कहां से लिख पाओगे?”
मूढमति छम्मकछल्लो को इसके बाद ही पता चल सका कि भोगे हुए यथार्थ की हक़ीक़त क्या है? वह तो अपने लेखन की धुन में सारा आकाश ही अपने हवाले कर बैठी थी और मान बैठी थी कि भोगा हुआ यथार्थ लिखने के लिए स्थितियों को भोगने की नहीं, उसे सम्वेदना के स्तर पर जीने की ज़रूरत है. वह तर्क पर तर्क देती रहती थी कि भला बताइये, कि कातिल पर लिखने के लिए किसी का कत्ल करना ज़रूरी है? बलात्कृता पर लिखने के लिए क्या खुद ही बलात्कार की यातना से गुजर आएं? छम्मकछल्लो ने अपनी कायरता में इन लोगों से सवाल नहीं किए. अब समझ में आया कि नहीं जी नहीं, पहले अपना बलात्कार करवाइये, फिर उस पर लिखिए और फिर देखिए, भोगे हुए यथार्थ के दर्द की सिसकी में उनकी सिसकारी भरती आवाज़! आह! ओह!
छम्मकछल्लो तो बहुत खुश है कि पुलिस के नाम को उन्होंने और भी उजागर कर दिया. छम्मकछल्लो जब भी पुलिस पर और उसकी व्यवस्था पर विश्वास करने की कोशिश करती है, तभी उसके साथ ऐसा-वैसा कुछ हो जाता है. छम्मकछल्लो के एक फूफा ससुर हैं. दारोगा थे. अब सेवानिवृत्त हैं, कई सालों से. वे कहते थे कि रेप करनेवालों के तो सबसे पहले लिंग ही काट देने चाहिये, फिर आगे कोई कार्रवाई होनी चाहिये.” छम्मकछल्लो के एक औए रिश्तेदार आई जी हैं. वे कहते हैं कि बलात्कार से घृणित कर्म तो और कोई दूसरा हो ही नहीं सकता. छम्मकछल्लो के कुछ मित्र हैं जेल अधीक्षक. वे सब भी कहते हैं कि हमें सोच कर हैरानी होती है कि लोग कैसे ऐसा गर्हित कर्म कर जाते हैं. वे बताते हैं कि जेल में जब इसका आरोपी आता है तो सबसे पहले तो अंदर के दूसरे ही कैदी उसकी खूब ठुकाई कर देते हैं. कोई भी उससे बात नहीं करता. रेप के अक्यूज्ड को दूसरे कैदी भी अच्छी नज़रों से नहीं देखते.” छम्मकछल्लो ने जब रेप पर एक लेख लिखा था तो एक सह्र्दय पाठक ने बडे ठसक के साथ उससे पूछा था, “आप जो ऐसे लिखती हैं तो क्या आपका कभी बलात्कार हुआ है?” और अगर नहीं हुआ है तो कैसे लिख सकती हैं आप इस पर?” मतलब कि फिर से वही भोगा हुआ यथार्थ.
अब छम्मकछल्लो सगर्व कह सकती है कि हां जी हां, उसके साथ बलात्कार हुआ है. भाई लोग उसे लेखिका मानें या न मानें वह तो अपने आपको मानती ही है. वह यह भी मानती है कि जिस तरह से घरेलू हिंसा दिखाने के लिए शरीर पर जले, कटे या सिगरेट के दाग के निशान ज़रूरी नहीं, उसी तरह बलात्कार करने के लिए किसी के शरीर पर जबरन काबू करना जरूरी नही. इस मानसिक बलात्कार से विभूति भाई ने तो एक साथ ही साठ हज़ार रानियों और आठ पटरानियों का सुख उठा लिया. भाई जी, हम आपके नतमस्तक हैं कि आपने अपने करतब से हम सबको इतना ऊंचा स्थान बख्श दिया. जहां तक बात चटखारे लेने की है तो जब स्वनाम धन्य लेखक भाई लोग सेक्स पर लिखते हैं तब क्या लोग चटखारे नहीं लेते? सेक्स को हम सबने अचार, पकौडे, मुरब्बे की तरह ही चटखारेदार, रसीला, मुंह में पानी ला देनेवाला बना दिया है तो सेक्स पर कोई भी लिखेगा, मज़े तो लेगा ही. सभी मंटो नहीं बन सकते कि उनके सेक्स प्रधान अफसाने बदन को झुरझुरा कर रख दे और आप एक पल को सेक्स को ही भूल जाएं या सेक्स से घृणा करने लग जाएं.
इसलिए हे इस धरती की लेखिकाओं, माफ कीजिए, हिंदी की लेखिकाओं, अब इन सब बातों पर हाय तोबा करना बंद कीजिए. अपने यहां वैसे भी एक कहावत है कि “हाथी चले बाज़ार, कुत्ते भूंके हज़ार.” तो बताइये कि उनके भूंकने के डर से क्या हाथी बाज़ार में निकलना बंद कर दे? हिंदी के, जी हां हिंदी के ये सडे गले, अपनी ही कुंठाओं और झूठे अहंकार में ग्रस्त ये लेखक लोग इस तरह की बातें करते रहेंगे, अपना तालिबानी रूप दिखाते रहेंगे. हर देश में, हर प्रदेश में, हर घर में फंदा तो हम औरतों पर ही कसा जाता है ना! इससे क्या फर्क़ पडता है कि आप लेखिका हैं. लेखिका से पहले आप औरत हैं महज औरत, इसलिए छुप छुप कर उनकी नीयत का निशाना बनते रहिये, उनके मौज की कथाओं को कहते सुनते रहिये. बस अपने बारे में बापू के तीन बंदरों की तरह ना बोलिए, ना सुनिए, ना कहिए. हां, उनकी बातों को शिरोधार्य करती रहिए. आखिरकार आप इस महान सीता सावित्रीवाले परम्परागत देश की है, जहां विष्णु और इंद्र जैसे देवतागण वृन्दा और अहल्या के साथ छल भी करते रहने के बावज़ूद पूजे जाते रहे हैं, पूजे जाते रहेंगे. आखिर अपनी एक गलत हरक़त से सदा के लिए बहिष्कृत थोडे ना हो जा सकते हैं? यह मर्दवादी समाज है, सो मर्दोंवाली प्रथा ही चलेगी. हमारे हिसाब से रहो, वरना छिनाल कहलाओ.

विभा रानी

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7 बैठकबाजों का कहना है :

Anonymous का कहना है कि -

ए छमक छल्लो तेरी भाषा ने तो पुलिस वालों को भी डरा दिया होगा. शालिनी शर्मा

सीमा सचदेव का कहना है कि -

Vibha jee aapka vyangya hilaa dene vaalaa hai . na jaane in purushon ko sabse samaannyye naaree ke lie aise shbdon kaa prayog karte hue jaraa bhee jhijhak kyon naheen hotee . hamnen isi par ek kavita likhi , aapke lekh par use tippnee ke roop men likh rahee hoon......

बातों से निकली बात बात बेगानी हो गयी
दबी थी जो मस्तक में , अब कहानी हो गयी
अनभव को जीकर छोड़ दो
हर गम से नाता तोड़ दो
बोला जो एक शब्द भी
तो नादानी हो गयी
तुम सहती हो बस सहती रहो
कुछ कहना हो खुद से कहती रहो
कह दी जो मन की बात
तो बदजुबानी हो गयी
न पार करो अपनी सीमा
मुश्किल हो जाएगा जीना
लांघा जो एक कदम तो
इज्जत पानी हो गयी
नारी का घूंघट उतरा
तो धमाल हो गयी
कह दी जो मन की बात
तो वो छिनाल हो गयी
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————————–
जो कहना हो खुलकर बोलो
जब चाहे जहां भी जो खोलो
कह दी जो अपनी बात
तो सोच विशाल हो गयी
जब पुरुष नें कह दी बात
तो बात कमाल हो गयी ,
जब नारी उसी पे बोली
तो वो छिनाल हो गयी ……….
???????????????

Shanno Aggarwal का कहना है कि -

और ऊपर से दावा किया जाता है कि नारी के लिये अब उस तरह के भेद-भाव नहीं रह गये हैं...उसकी परिस्थतियां बदल गयी हैं..आदि-आदि..और फिर उसके बाद ऐसी गालियाँ सुननी पड़ती हैं...इस तरह की बातें क्या सिद्ध करती हैं..? क्यों औरत की गतविधियों पर आलोचना होती है जब कि पुरुष समाज जो चाहे करता रहता है..चाहें लेखन हो या कुछ और...

Anonymous का कहना है कि -

औरतों को तो हर बात में रोने धोने की आदत पड़ गई है. औरतें चाहती हैं कि सारे काम छोड़ कर बस उनके ही थोप्ड़े देखते रहो. तौलिए उठा उठा कर उनके ही आंसू पोंछते रहो. आदमी तो कुछ है ही नहीं जी - अनुभव कुमार

Shanno Aggarwal का कहना है कि -

अनुभव जी,

अफ़सोस है जानकर कि आपका अनुभव रोने-धोने वाली औरतों का है...लेकिन अगर लोगों की गलतफहमियों व किसी अन्याय के विरुद्ध उठाई हुई आवाज़ को रोना कहते हैं..तो वह तो पुरुष भी कर रहे हैं...खाली औरत पर ही इल्जाम क्यों...सरासर गलत होगा ये कहना...

दिपाली "आब" का कहना है कि -

taaliyaan, aisa laga ek jordaar awaaz kaano mein goonj gai, padha nahi yeh lekh mano suna ho maine..
Par fir bhi farq kya pad jayega vibha ji, kya vibhuti maafi mangenge? Yeh prashn hai.. Jiska koi uttar nahi

Shishupal Prajapati का कहना है कि -

मैं पूर्वी उत्तर प्रदेश लखनऊ के आसपास का रहने वाला हूँ. हमारे यहाँ छिनार और छिनरिया शब्द आम बोलचाल की भाषा में अस्कर महिलायें ही लाती हैं, छोटे-मोटे लड़ाई-झगड़े में महिलायें एक-दूसरे को छिनार और छिनरपट्ट के आरोप-प्रत्यारोप लगाती रहती हैं. जंहा तक पुरुषों के सवाल है तो मैं पहली बार किसी संभ्रांत व्यक्ति और बहुमुखी लेखक से ये सुन रहा हूँ. जो महिलाओं की मर्यादा के खिलाफ हैं. जब हम किसी भी बात को सार्वजानिक रूप से प्रस्तुत करते हैं तो मान-और-मर्यादा का ध्यान रखना जरूरी हो जाता हैं जंहा तक उनके व्यक्तिगत विचारों की बात है तो हर इंसान के विचार अपने अलग अलग हो सकते हैं मसलन मैंने कही महिलाओं से सुना है कि पुरुष बहुत लम्पट, हरामी, रंडीबाज़ होते हैं, उस समय ये विचार किसी एक पुरुष के लिए होते हैं लेकिन सुनाने में तो यही लगता है संसार के सभी पुरुष इस श्रेणी में आते हैं.

मैं व्यक्तिगत तौर पर तो यही मानता हूँ कि राय साहब के साक्षात्कार को तिल का ताड़ बनाकर राजनीतिज्ञ और लेखकवर्ग चटकारे लेकर मजे ले रहा है. और अपने उदासी भरे जीवन में कुछ रंग भर रहा है.

http://www.iamshishu.blogspot.com/

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