बहुत पुरानी बहस है। बचपन में एक निबंध लिखा करते थे-"विज्ञान-वरदान या अभिशाप"। छोटे हुआ करते थे इसलिये ज्यादा समझ भी नहीं आता था। अभी भुवनेश्वर से दिल्ली वापस आ रहा था। हवाई सफर २ घंटे के भीतर ही तय हो गया। ९.३० बजे उड़ान भरी और ११.३० बजे दिल्ली। मैं मन ही मन सोच रहा था कि विज्ञान ने कितनी तरक्की कर ली है जो १३०० किमी का सफ़र २ घंटे में पूरा किया जा सकता है। फिर अचानक ही मेरा मन दिल्ली की तरफ मुड़ गया। भई, मन पर किसका ज़ोर चलता है। एक यही है जो कभी भी, कहीं भी, बिना वीज़ा और टिकट के जा सकता है। तो मैं सोचने लगा कि दिल्ली से नोएडा जाने में भी तो मुझे कईं बार २ घंटे लगते हैं। ऐसा कैसे मुमकिन है कि ४५ किमी और १३०० किमी पूरा करने में एक ही समय लगता हो।
पर सच तो सच है। दिल्ली में ट्रैफिक इतना बढ़ गया है कि अब स्थिति बेकाबू सी लगती है। शायद सितम्बर-अक्टूबर की बात है जब अखबार में पढ़ा कि दिल्ली की सड़कों पर हर रोज़ औसतन ९५० नईं गाड़ियाँ आती हैं। सोच कर देखिये तो ज़रा... अब एक और आँकड़ा देखिये.. सन १९७५ में जितने लोग दिल्ली में थे आज उतनी ही गाड़ियाँ सरपट दौड़ती हैं। शादियों के मौसम में जगह ट्रैफिक जाम और फिर बंद, चक्का जाम..उस पर देश की राजधानी होने के कारण रैलियाँ। दिल्ली की कमर तोड़ देता है सब कुछ। पर इस परिस्थिति के लिये जिम्मेदार कौन? हम!!! विज्ञान ने हमारा क्या बिगाड़ा। उसने हमें गाड़ी दी, हमें हवाई जहाज दिया। हमने उसका दुरुपयोग किया। इसका अर्थ ये हुआ कि विज्ञान तो हमारा मित्र ही है..हम खुद अपने आप के शत्रु बन बैठे हैं। जहाँ एक की जरूरत है वहाँ दो गाड़ियाँ, जहाँ दो चाहिये वहाँ तीन। मंदी का दौर है इसलिये आजकल केवल २५० गाड़ियाँ ही प्रतिदिन बिकती हैं। मंदी ने एक तो अच्छा काम किया!!
आज इंसान परेशान है तेज़ भागती ज़िन्दगी से। ऐसा क्यों होता है कि इंसान जो चीज़ विज्ञान की सहायता से बना लेता है उसके साइड इफेक्ट पर ध्यान नहीं देता। कार के धुएं और एयरकंडीशनर के इस्तेमाल से ओज़ोन की परत पतली हो रही है। ग्लोबल वार्मिंग नामक शब्द पिछले ४-५ सालों में ही लोगों की ज़ुबान पर क्यों आया? अमरीका जैसा बड़ा, और वैज्ञानिक दृष्टि से सशक्त देश ओज़ोन को नुकसान पहुँचाने में सबसे आगे है। ऐसा क्यों है कि वहाँ के लोग इन सब बातों को पहले नहीं सोच सके? क्या सुविधाओं के सामने हम अँधे हो जाते हैं और सही-गलत की पहचान नहीं कर पाते। पॉलीथीन का इस्तेमाल जब शुरु हुआ तो क्या उस समय ये किसी ने नहीं सोचा कि इस सब का हश्र क्या होगा? यदि तभी लगाम लग जाती तो कोर्ट को इसकी रोक का आदेश नहीं देना पड़ता। हर बार हमें तभी अक्ल आती है जब पानी सर से ऊपर चढ़ जाता है। अब हिमालय पर जमे ग्लेशियर पिघल रहे हैं तो थोड़ी बहुत समझ आने लगी है। वैज्ञानिक मान रहे हैं हैं २०२९ तक सारी बर्फ पिघल जायेगी। इसका मतलब साफ है कि पहले बाढ़ आयेगी और फिर पड़ेगा सूखा। बढ़ते औद्योगिकीकरण ने यमुना को भी मैली कर रखा है। पर यमुना के लिये क्या किया जा रहा है? यमुना नदी बोलते हुए भी अब अजीब लगता है। आकाश से देखने पर काली और गंदे नाले की तरह दिखाई पड़ती है।
हमें कुछ बातों का अभी से ध्यान रखना होगा। सरकार के भरोसे न बैठें। क्योंकि आने वाली पीड़ियाँ हमें ही गालियाँ देंगी। उनके रहने के लिये जमीन और साँस लेने के लिये हवा व पीने का पानी तो साफ रखें। पर्यावरण स्वच्छ रखने के लिये बहुत से अभियान शुरु हुए हैं। जो हो चुका है उसे हम बदल नहीं सकते, लेकिन जो हम भविष्य में नहीं चाहते उसे तो रोक सकते ही हैं। आइये हम भी वो बदलाव बनें जो बदलाव हम समाज व पर्यावरण में चाहते हैं। विज्ञान को वरदान ही रहने दें।
तपन शर्मा
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3 बैठकबाजों का कहना है :
लोकतंत्र में लोक ही, होता जिम्मेवार.
वही बनाता देश की भली-बुरी सरकार.
छोटे-छोटे स्वार्थ हित, जब तोडे कानून.
तभी समझ लो कर रहा, आजादी का खून.
भारत माँ को पूजकर, हुआ न पूरा फ़र्ज़.
प्रकृति माँ को स्वच्छ रख, तब उतरे कुछ क़र्ज़.
'सलिल' न दूषित कर प्रकृति, मत कर आत्म-विनाश.
अमी-विमल नर्मदा सम, सबको बाँट प्रकाश.
विज्ञान 5 प्रतिशत के लिए वरदान और 95 प्रतिशत के लिए अभिशाप है।
हो सकता है तपन जी के आप और मैं दोनों ही गलत हो,,,
पर जितना देखा है यमुना को ,,वाकई नदी कहते अजीब सा लगता है,,,
नदी वाला रूप कहीं और हो तो मालूम नहीं,,,
बहुत सोचने को बाध्य करता लेख है
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