उस दिन मैं अचानक क्या कह गया, यह मेरी भी समझ में नहीं आया। अवसर था स्त्री-विमर्श पर केंद्रित ब्लॉग ‘चोखेर बाली’ की पहली वर्षगांठ पर दिल्ली विश्वविद्यालय में आयोजित एक विचार बैठक का। मधु किश्वर और सुकृता पॉल बोल चुकी थीं। दोनों के ही भाषण बहुत अच्छे थे। दोनों ने ही स्त्री अस्मिता के मुद्दों पर गहराई से विचार किया था। उनके बाद अपनी बात कहते हुए मैंने पहले तो इस पर आश्चर्य व्यक्त किया कि यहां मैं अकेला पुरुष वक्ता हूं। इस पर ‘चोखेर बाली’ की संचालिकाओं में एक सुजाता ने स्पष्ट किया कि हमारे ब्लॉग पर पुरुष भी लिखते हैं। मुझे यह बात मालूम थी, क्योंकि मैं भी उनमें एक हूं। फिर, मैंने कहा कि स्त्री विमर्श सिर्फ पुरुषों का मामला हो भी नहीं सकता, क्योंकि अगर यह सभ्यता विमर्श और सभ्यता समीक्षा है, तो पुरुषों की सहभागिता के बिना यह काम कैसे पूरा हो सकता है? आगे मैंने कहा कि यह भी उल्लेखनीय है कि नारी अधिकारों को प्रतिष्ठित करने में पुरुष लेखको, नेताओं और सामाजिक कार्यकर्ताओं की मूल्यवान भूमिका रही है। यह भी कि ऐसे असंख्य पुरुष हुए हैं जिनमें स्त्री के गुण थे और ऐसी स्त्रियां भी कम नहीं हुई हैं जिनका व्यक्तित्व पुरुष गुणों के कारण विकृत हुआ है। इसी संदर्भ में मैंने कहा कि स्त्री विमर्श में पुरुषों को खुल कर सहभागी बनाइए और बनने दीजिए, लेकिन स्त्री-पुरुष संबंधों के इतिहास को देखते हुए पुरुषों पर विश्वास कभी मत कीजिए। वे कभी भी धोखा दे सकते हैं और अगर यह धोखा उन्होंने मित्र बन कर दिया, तो यह और भी बुरा होगा।
बात कुछ हंसी की थी और हंसी हुई भी, पर विचार करने पर लगा कि बात में दम है। एक बहुत पुरानी मान्यता है कि स्त्री-पुरुष का साथ आग और फूस का साथ है। दोनों निकट आएंगे, तो फूस का भभक उठना तय है। आजकल के लोग इस तरह की मान्यताओं की खिल्ली उड़ाते हैं। उनका कहना है कि यह बेहूदा बात इसलिए फैलाई गई है ताकि स्त्रियों को बंधन में रखा जा सके। मैं इस स्थापना से पूरी तरह सहमत नहीं हूं। पुरुष से अधिक कौन जानता होगा कि स्त्री को देख कर पुरुषों के मन में सामान्यत: किस प्रकार की भावनाएं पैदा होती हैं। इसलिए अगर उन्होंने आग और फूस को दूर-दूर रखने का फैसला किया, तो यह बिलकुल निराधार नहीं था। इसके साथ-साथ होना यह चाहिए था कि ऐसी समावेशी संस्कृति का विकास किया जाता जिसमें स्त्री-पुरुष के बीच की सामाजिक और सांस्कृतिक दूरी घटे और दोनों मित्र भाव से जी सकें। दुर्भाग्यवश ऐसा हो नहीं सका। पुरानी, रूढ़िवादी संस्कृति चलती रही, बल्कि कहीं-कहीं उग्र भी हो गई, और उसके प्रति विद्रोहस्वरूप आधुनिक संस्कृति का भी विकास होता रहा, जिसमें स्त्री-पुरुष के साथ को खतरनाक नहीं, बल्कि अच्छा माना जाता है। पुरानी संस्कृति में स्त्री के शील की रक्षा उस पर पहरे बिछा कर, उसे उपमानव बना कर की जाती थी, जैसा आज के तालिबान चाहते हैं, तो दुख की बात यह भी है कि आधुनिक संस्कृति में स्त्री का उपयोग उपभोक्तावाद को बढ़ाने और कामुकता का प्रचार करने में हो रहा है तथा बलात्कार या इसकी आशंका से उसे परिमित और खामोश करने की कोशिश की जा रही है। जरूरत बीच का रास्ता निकालने की है, जहां प्रेम भी हो, निकटता भी हो और मानव अधिकारों का सम्मान भी।
‘चोखेर बाली’ की विचार-बैठक के हफ्ते भर बाद सुजाता ने उनके अपने ब्लॉग ‘नोटपैड’ पर किसी अज्ञात व्यक्ति द्वारा भेजी गई यह टिप्पणी मुझे अग्रेषित की : ‘सविता भाभी के बहाने स्त्री विमर्श का डंका पीटनेवाले ब्लॉगर पत्रकार आकाश (मूल नाम बदल दिया गया है) जी के सारे स्त्री विमर्श की कलई उस समय खुल गई, जब उन्होंने माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय की एक छात्रा के साथ, जहां अभी कुछ दिनों पहले वे क्लास लेने जाते थे, के साथ जबरदस्ती करने की कोशिश की। लड़की की तबीयत ठीक नहीं थी। उन्होंने उसे किसी काम के बहाने ऑफिस में बुलाया और फिर उसके लाख मना करने के बावजूद उसे अपनी नई कार से उसे घर छोड़ने गए। फिर वहां उसे चुपचाप छोड़ कर आने के बजाय लगभग जबरदस्ती करते हुए उसका घर देखने के बहाने उसके साथ कमरे में गए। लड़की मना करती रही, लेकिन संकोचवश सिर्फ ‘रहने दीजिए सर, मैं चली जाऊँगी’ जितना ही कहा। वे उसकी बात को लगभग अनसुना करते हुए खुद ही आगे आगे गए और उसका घर देखने की जिद की। लड़की को लगा कि पांच मिनट बैठेंगे और चले जाएंगे। लेकिन उनका इरादा तो कुछ और था। उन्होंने घर में घुसने के बाद जबरदस्ती उसका हाथ पकड़ा, उसके लाख छुड़ाने की कोशिश करने के बावजूद उसे जबरदस्ती चूमने की कोशिश की। लड़की डरी हुई थी और खुद को छुड़ाने की कोशिश कर रही थी। लेकिन इनके सिर पर तो जैसे भूत-सा सवार था। आकाश ने उस लड़की को नारी की स्वतंत्रता का सिद्धांत समझाने की कोशिश की, ‘तुम डर क्यों रही हो। कुछ नहीं होगा। टिपिकल लड़कियों जैसी हरकत मत करो। तुम्हें भी मजा आएगा। मेरी आंखों में देखो, ये जो हम दोनों साथ हैं, उसे महसूस करने की कोशिश करो।’ डरी हुई लड़की की इतनी भी हिम्म्त नहीं पड़ी कि कहती कि जा कर अपनी बहन को क्यूं नहीं महसूस करवाते। लड़की के हाथ पर ख्ररोंचों और होठ पर काटने के निशान हैं। लड़की अभी भी बहुत डरी हुई है।’
यह घटना कितनी सत्य है और कितनी मनगढ़ंत, पता नहीं। लेकिन भारत में ही नहीं, दुनिया के एक बड़े भूभाग में इस तरह की घटनाएं सहज संभाव्य हैं और होती ही रहती हैं। इसीलिए मेरा यह विश्वास बना है कि स्त्रियों को पुरुषों पर कभी विश्वास नहीं करना चाहिए – चाहे वे गुरु हों, शिक्षक हों, चाचा, मामा, मौसा-ताऊ हों, मुंहबोले भाई हों, पड़ोसी हों, मेहमान हों, शोध गाइड हों, संपादक हों, प्रकाशक हों, अकादमीकार हों, नियोक्ता हों, मैनेजर हों, पुजारी हों, पंडे हों – कुछ भी क्यों न हों। कई हजार वर्षों की मानसिकता जाते-जाते ही जाएगी। इस संक्रमण काल में स्त्री को बहुत अधिक सावधान रहने की जरूरत है – खासकर अपने शुभचिंतकों से। इसका मतलब यह नहीं है कि हर पुरुष को संदेह की नजर से देखो। इससे तो सब कुछ कबाड़ा हो जाएगा। नहीं, किसी पर भी अनावश्यक संदेह मत करो। विश्वास का अवसर हरएक को दिया जाना चाहिए। लेकिन सावधानी का दीपक हाथ से कभी नहीं छूटना चाहिए। दीपक बुझा कि परवाना लपका।
वैसे, जीवन के एक सामान्य सिद्धांत के तौर पर भी यह सही है। पुरुष पुरुष पर कितना विश्वास करते हैं? स्त्री स्त्री पर कितना विश्वास करती हैं? जहां आत्मीयता होती है, वहां भी लोग ठगे जाने से बचने की कोशिश करते हैं। यह सावधानी स्त्री-पुरुष व्यवहार में और ज्यादा अपेक्षित है, क्योंकि अब तक के इतिहास की सीख यही है। इसलिए माता-पिता और अभिभावकों का यह एक मूल कर्तव्य है कि वे लड़की को लड़की के रूप में विकसित होते समय ही उन फंदों और गड्ढों से अवगत कराते रहें जो आगे उसकी राह में आनेवाले हैं। इसके साथ ही, उसे निर्भय होने और स्व-रक्षा में सक्षमता की शिक्षा भी देनी चाहिए। लेकिन इस कीमत पर नहीं कि मानवता में ही उसका विश्वास डिग जाए। बहुत ही प्रेम और समझदारी से उसमें यह बोध पैदा करना होगा कि लोग सभी अच्छे होते हैं, पर हमेशा सचेत रहना चाहिए कि वे बुरे भी हो सकते हैं। लड़कियों को यह सीख भी दी जानी चाहिए कि यह बहुत गलत होगा अगर अति सावधानी के परिणामस्वरूप वे किसी पुरुष से आत्मीय रिश्ता बना ही न पाएं। घृणा तो किसी से भी न करो – ज्ञात पापी से भी नहीं, सभी को प्रेम और विश्वास दो, पर अपनी सुरक्षा की कामत पर नहीं। हर संबंध की तरह स्त्री-पुरुष संबंध भी एक जुआ है, लेकिन यह जुआ खेलने लायक है, क्योंकि इसी रास्ते हम अपने मनपसंद साथी खोज सकते हैं। इस प्रक्रिया में दुर्घटनाएं होती हैं, तो होने दो। डरो नहीं, न परिताप करो। लेकिन आंख मूंद कर उस रास्ते पर कभी मत चलो जिसके बारे में तुम्हें पता नहीं कि उस पर आगे क्या-क्या बिछा और फेंका हुआ है। यह संतुलन साधना मामूली बात नहीं है, लेकिन अच्छा जीवन जी पाना भी क्या मामूली बात है?
राजकिशोर
(लेखक इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज में वरिष्ठ फेलो हैं)
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6 बैठकबाजों का कहना है :
bahut hi umda lekh ,aapka shaayad
pahla lekh padha hai aur kahne ka
man kiya hai ,kya likha hi dost.magar avishwas kiye bina bi to saavdhan raha jaa sakta hai ,aurat agar satark hai,jaagruk hai ,to koi bhi use kisi kism ki chot nahi pahuncha sakta hai .
lekh to achcha hai ,par sheershak
galat hai ,dono ek doosre ke sahyogi hain ,hain na ??????????????
राजकिशोर जी आपने बहुत अच्छा लेख लिखा है, असल में आजकल "कपड़े उतारना" ही आधुनिकता समझा जाता है, पुरुष तो तैयार ही रहता है इस प्रकार की हरकत को बढ़ावा देने के लिये… लेकिन जो भी लड़की या महिला पुरुषों से व्यवस्थित और मर्यादित दूरी बनाये रखती है उसे खुद उनके समूह की महिलायें ही "पिछड़ी हुई" और "दीदी किस्म की" कहकर सम्बोधित करती हैं फ़िर पुरुषों की लम्पटता को और मौका मिल जाता है… स्त्री-पुरुष की तुलना आपने फ़ूस और आग से की है इसे मक्खन और गर्म छुरी से भी किया जाता है कभी-कभार… पहले भी मैंने एक बार टिप्पणी की थी कि "स्त्री के खुले जिस्म को देखकर जिस पुरुष में वासना ना जागे वह या तो महापुरुष होगा या पुरुष ही नहीं होगा…" लेकिन आजकल "खुलेपन" के इस दौर में लड़कियाँ इस बात को समझने को तैयार ही नहीं है जबकि अन्त में कष्ट भी सबसे अधिक उन्हें ही भुगतना पड़ता है, लड़के/पुरुष तो "मजे" लूटकर किनारे हो लेता है… आपका आलेख पसन्द आया… धन्यवाद…
दुर्भाग्य से सर जी अभी कोई मशीन ऐसी नहीं बनी है जो एक्स रे की माफिक किसी का करेक्टर एक दो तीन करके बता दे.....समझ लीजिये जब तक इंसान रहेगे ...अपराध भी होगे ओर ऐसी घटनाएं भी....यानी कितना कितना क्या सिखायेंगे ?
पुरुष और प्रकृति के मेल से सकल श्रृष्टि का निर्माण हुआ. दोनों एक दूसरे के पूरक हैं, शोषक भी. स्त्री के हाथों छला गया पुरुष जीवन भर अधूरेपन का दर्द भोगता है पर सहज प्रकृतिवश रो नहीं पाता. स्त्री का रुदन ही उसका सबसे बड़ा हथियार है जिसके प्रयोग का कोई अवसर वह हाथ से नहीं जाने देती. कुसूर दोनों का हो तब भी, स्त्री का हो तब भी और पुरुष का हो तब भी पुरुष को ही संदेह और लांछन का शिकार होना पड़ता है. स्त्री तो सदा सब की सहानुभूति पा ही लेती है.
आग अपने आप नहीं लगती. पहले चिंगारी सुलगाने का कार्य और क्रिया कोई अन्य संपन्न करता है. जब फूस चिंगारी के निकट आये तभी जलती-झुलसती है और फिर सारा आरोप आग के माथे...अस्तु. आपने जो ठीक समझा लिखा... पर सिक्के का दूसरा पहलू भी है..
बहुत सधे तरीके से आपने अपनी बात रखी। हम हाज़ारों वर्षों की मानसिकता को कुछ महीनों में नहीं बदल सकते? इसलिक सतर्कता का दीपक महिलाओं को ज़रूर थामना चाहिए।
बहुत सही बात रखी आपने...कोई भी इंसान या रिश्ता बुरा नहीं होता पर सचेत रहने की जरुरत है क्योंकि कभी भी कोई भी बुरा बन सकता है...वैसे भी अगर लड़कियां खुद के व्यवहार को थोडा संयत बना लें काफी कुछ समस्याएं तो ऐसे ही ख़त्म हो सकती हैं...
आलोक सिंह "साहिल"
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