आठवां अध्याय
अमेरिका में बच्चे खुद लोन लेते हैं,चुकाते हैं
अमेरिका का नारा है स्वतंत्रता - लिबर्टी। इसलिए ही स्टेच्यू ऑफ लिबर्टी न्यूयार्क में बड़ी शान से खड़ी है। सेन फ्रांसिस्को के रेड-वुड फारेस्ट में एक जगह एक स्लोगन लिखा था जिसका भावार्थ यह है ‘स्वतंत्रता तभी प्राप्त होती है जब हम अपनी रेस्पोन्सबिलिटी पूरी करते हैं।’ यहाँ के वासियों ने अपनी जिम्मेदारी को भलीभांति समझा है और अपने देश के निर्माण में योगदान किया है। भारत में नारा दिया जाता है कि पोलीथीन छोड़ो, लेकिन यहाँ पोलीथीन का भरपूर प्रयोग होता है। क्या मजाल जो एक कतरन भी कहीं सड़क पर दिखाई दे जाए। यहाँ गन्दगी फैलाना अपराध है और इसे प्रत्येक नागरिक समझता है। दुनिया में यदि हम छोड़ने का ही नारा देते रहे तब हम किसी को भी नहीं छोड़ पाएंगे। किसी भी वस्तु का प्रयोग कैसे करें, उसको डिस्पोज कैसे करें? यह प्रबन्ध हमें सीखना चाहिए। यदि हम मानव देह का भी अंतिम संस्कार नहीं करेंगे तब वो भी हानिकारक सिद्ध होगी। अतः आवश्यकता है अपना उत्तरदायित्व समझने की।
भारत का व्यक्ति क्या देश के लिए या अपने समाज के लिए या अपने परिवार के लिए अपनी जिम्मेदारी समझता है? शायद नहीं। कुछ केवल अपना परिवार अपनी बीबी-बच्चों को ही मानते हैं और उनकी जिम्मेदारी में ही अपनी इतिश्री मान लेते हैं। कुछ समाज के नाम पर अपने दोस्तों को मानते हैं और उनके ही दुख और सुख के साझीदार बनते हैं। मेरा समाज जिसने मुझे पहचान दी है, वह आज कहाँ खड़ा है, इसके बिना मेरी पहचान क्या होगी? इसकी चिन्ता करना हम फिजूल और दकियानूसी समझते हैं। जिस देश के सुरक्षा चक्र से हम हर पल सुरक्षित रहते हैं, उस देश की उन्नति के बारे में हम कितना सोचते हैं? केवल हम अपनी स्वतंत्रता के बारे में सोचते हैं। हमें कैसे स्वतंत्रता मिले, अपने परिवार से, अपने समाज से, अपने देश से। शायद भारत के लोग स्वतंत्रता के मतलब भूल गए हैं। यहाँ जो भारतीय बसे हैं, वे भी नहीं जान पाए स्वतंत्रता का अर्थ। इसी कारण वे दो राहे पर खड़े हैं, अपने आप से जुड़े हुए और अपने आप से दूर। यहाँ आकर मैं भी स्वतंत्रता का अर्थ समझने की कोशिश कर रही हूँ और अपनी जिम्मेदारियों को पूर्ण करने का प्रयास भी।
जिनके बच्चे यहाँ आकर बस गए हैं या रह रहे हैं, उनकी बहुत बड़ी जिम्मेदारी आज है। वे तो आज स्वतंत्रता के बारे में सोच भी नहीं सकते। भारत में वानप्रस्थ आश्रम में आते-आते व्यक्ति अपनी जिम्मेदारी पूर्ण कर लेता है और स्वतंत्रता का अनुभव करता है। अपने व्यापार की, अपने परिवार का उत्तरदायित्व वे अपनी संतानों को सुपुर्द कर देते हैं। संन्यास आश्रम में वे पूर्ण स्वतंत्र हो जाते हैं। अर्थात् 75 वर्ष की आयु के बाद आम भारतीय केवल आध्यात्मिक उन्नति का ही चिंतन करते हैं। विगत काल में तो अक्सर वे वनवास ले लेते थे, वर्तमान में सामाजिक कार्य, धार्मिक कार्य करते हुए अपना जीवन बिताते हैं।
लेकिन अब चिंतन का विषय यह है कि क्या हमने अपनी जिम्मेदारी पूर्ण कर ली? क्या इतनी भर ही थी हमारी जिम्मेदारी कि हमारे बच्चे पढ़े, कमाएँ और घर बसा लें। क्या उन्हें भी स्वतंत्र होते देखना हमारी जिम्मेदारी नहीं है? अमेरिका का भारतीयकरण होते देखना ही सबसे बड़ी त्रासदी है। मेरे शब्दों से चौंकिए मत। जितने भी भारतीय यहाँ बसे हैं, वे मन से स्वतंत्र नहीं हो पा रहे हैं। क्योंकि अमेरिका के शब्दों में ही जिसने अपना उत्तरदायित्व पूर्ण किया है वे स्वतंत्र हैं। अपने देश से भाग आना कैसे उत्तरदायित्व पूर्ति का सुख दे सकता है? मन तो कचोटता ही रहता है, अपराध-बोध तो संग रहता ही है।
उनका रहन-सहन, खाना-पीना सब अमेरिका जैसा है, लेकिन फिर भी जिस मिट्टी से शरीर बना है, उसकी माँग रोज़ होती है और हम फिर जुट जाते हैं अमेरिका को भारत बनाने में। हम रोज़-रोज़ मन को मारते हैं, अपनी जीभ को नए स्वाद से परिचित कराते हैं, फिर अपने स्वाद के लिए तड़प उठते हैं और एक भारतीय रेस्ट्रा खोल लेते हैं। तो बताइए कि कैसे यहाँ के भारतीय स्वतंत्र हैं? जब यह संघर्ष देखते हैं तब लगता है कि हमारी ज़िम्मेदारी पूर्ण नहीं हुई। परन्तु फिर यक्ष प्रश्न निकल आता है कि कैसे इन्हें स्वतंत्रता का अर्थ समझाएं? हमने एक बार वाक्य पढ़ा और अमेरिका की फिलासफी समझ आ गयी और लोग यहाँ बरसों से रह रहे हैं और उन्हें ज़िम्मेदारी का अर्थ नहीं मालूम। एक कथा याद आ गई, श्रीकृष्ण जब संदीपनी आश्रम में विद्या-अध्ययन कर रहे थे तब उनके गुरु ने उन्हें भारत भ्रमण कराया और उसी के माध्यम से शिक्षा देने का प्रयास किया। एक समुद्र तट पर गुरु दुखी हो उठे, उन्हें अपने पुत्र का स्मरण हो आया। श्रीकृष्ण को मालूम पड़ता है कि उनके पुत्र पुनर्दत्त को यहीं पर समुद्री डाकू उठा ले गए थे। कृष्ण समुद्र में जाते हैं और एक द्वीप में उन्हें पुनर्दत्त मिलता है। वह राजशी ठाट-बाट से अपना जीवन निर्वाह कर रहा था, लेकिन उसका जीवन वहाँ की महारानी का गुलाम था। कृष्ण उसे आजादी का मार्ग बताते हैं लेकिन वह इंकार कर देता है। कहता है कि मुझे इस सुख की आदत हो चुकी है और मैं स्वतंत्रता के अर्थ भूल चुका हूँ। आज यही बात यहाँ बसे भारतीयों पर लागू होती है, वे सुख के अधीन होकर स्वतंत्रता का अर्थ भूल चुके हैं। हम सभी को कृष्ण बनना होगा और उन्हें स्वतंत्रता का अर्थ अमेरिका की भाषा में ही समझाना होगा। उन्हें समझाना होगा कि भारत का नागरिक ज्यादा स्वतंत्र है या फिर अमेरिका का?
अमेरिकन अपनी जिम्मेदारी पूर्ण करने को स्वतंत्रता कहता है और भारतीय किसी भी जिम्मेदारी को पूर्ण नहीं करने पर भी अपने देश में परतंत्र अनुभव करते हैं। शायद इस दुनिया में भारत जैसा देश नहीं मिलेगा। जहाँ के नागरिकों को देश से सब कुछ लेने की छूट है, लेकिन बदले में कुछ भी नहीं देने की भी छूट है। अमेरिका में बच्चे लोन लेकर पढ़ते हैं और स्वयं ही उसे चुकाते हैं। लेकिन भारत में बच्चे माता-पिता की दौलत से पढ़ते हैं और भारत सरकार उनके लिए सुविधाएं प्रदान करती है। पढ़ने के बाद विदेश गए बच्चे किस देश का टैक्स भरते हैं? भारत में ही इतनी स्वतंत्रता है कि आप सब कुछ लेकर, बिना कुछ वापस चुकाए कहीं भी जाकर बस जाओ। वास्तविक स्वतंत्रता किसे कहते हैं यह बात हमें अमेरिका से सीखनी चाहिए।
अमेरिका में पर्यटन के प्रति बहुत जागरूकता है। क्या दुनिया को दिखाना है और क्या नहीं दिखाना, यह वहाँ की सरकार तय करती है। अमेरिका में समुद्र और जंगल प्रकृति के उपहार हैं। हमारे यहाँ समुद्र किनारे गर्मी पड़ती है और वहाँ सर्दी। दर्शनीय स्थलों को प्रत्येक कोण से दिखाना यहाँ के उन्नत पर्यटन का नमूना है। समुद्र के एक तरफ पर्वत हैं, उसके लिए पृथक दर्शनीय स्थल है, दूसरी तरफ तट है, उसके लिए पृथक स्थल है। कहाँ से समुद्री जीव दिखायी देंगे और कहाँ से समुद्री पक्षी। वर्ष में दो महीने के लिए गर्मी पड़ती है बाक़ी समय सर्दी। कहीं बर्फ की भरमार है तो कहीं सामान्य तापक्रम। अमेरिका इतना बड़ा है कि उसे एकबारगी ही नापना सम्भव नहीं है। उत्तर की तरफ जाइए बर्फ मिलनी शुरू हो जाएगी और दक्षिण की तरफ केवल पानी। अमेरिका में धूल को दूब के आगोश में समेट रखा है। कुछ तो प्रकृति की मेहरबानी और कुछ वहाँ के बाशिंदों की मेहनत। साल में दो महीने ही नाम मात्र की जहाँ गर्मी पड़ती हो और पानी की प्रचुरता हो तब घास तो सर्वत्र उग ही आती है और टिक जाती है। धूल की इतनी हिम्मत नहीं होती कि वो घास का सीना चीर कर बाहर निकल आए। उसे तो उनकी जड़ों को ही मजबूती देनी होती है। फिर नवीन अमेरिका की बसावट ही सौ-डेढ़ सौ साल की है। शहर अभी भी बस रहे हैं, तो आधुनिकता और पूर्ण रूप से खुले और सुविधाजनक शहर ही बसाए जाते हैं। सड़के इतनी चौड़ी कि छः और आठ लाइनों में गाड़ियां दौड़ सकती हैं। फिर भी और चौड़ा करने की गुंजाइश बनी हुई रहती है।
सुंदर और पूर्ण आधुनिक शहरों को देखकर जहाँ अच्छा लगता है वहीं कुछ ही दिनों में नीरसता भी पसर जाती है। एक से शहर, एक ही बनावट, घर भी एक से और बाजार भी एक से। एक शहर देखो या फिर दस शहर देखो सब बराबर। बस कुछ शहरों में अन्तर दिखायी पड़ता है, न्यूयार्क में गगनचुम्बी इमारते हैं और वे एक दूसरे से सटी हुई हैं। सेनफ्रांसिस्को शहर पहाड़ पर बसा है, उसके एक तरफ समुद्र है और दूसरी तरफ पहाड़। सीधी खड़ी चढ़ाई पर कॉलोनी बसी हुई है, वह तो अच्छा है कि वहाँ अधिकतर गाड़ियां बिना गीयर की हैं तो उसे खड़ी चढ़ाई पर जाने में कोई कठिनाई नहीं होती। भारत के लिए कहा जाता है कि पचास साल बाद भी भारत अमेरिका जैसा नहीं बन सकता। मैं कहती हूँ कि पचास क्या सौ साल बाद भी भारत अमेरिका जैसा नहीं बन सकता। कारण है, हमारी सभ्यता हजारों वर्ष पुरानी है, शहरों की बसावट भी हजारों वर्ष पुरानी है। उन्हें नस्तनाबूद तो नहीं किया जा सकता? वहाँ सुविधाएं पहले विकसित हुईं और किस भूखण्ड पर पानी, बिजली, टेलीफोन की सुविधाएं दी जा सकती हैं, वहाँ ही शहर बसाए जाते हैं। हमारे यहाँ शहर पहले बसे और सुविधाएं बाद में आयीं। बस हमें तो आवश्यकता है गन्दगी पर नियन्त्रण करने की।
यहाँ का एक बड़ा शहर है सेनडियागो। यहाँ दो दर्शनीय स्थल हैं-एक सी-वर्ल्ड और दूसरा वाइल्ड लाइफ एनीमल सफारी। समुद्री जीवों को साधकर उनको जनता के सामने प्रस्तुत करना, एक आश्चर्य है। वोलरस जैसी विशालकाय मछली, डोल्फिन, सी लोयन, किलर फिश और अन्य प्रजातियों की मछलियों के वहाँ बड़े-बड़े स्टेज शो आयोजित किए जाते हैं। एक डोल्फिन है शामू, हाँ उसका नाम है शामू। वह किसी स्टार से कम नहीं। वह दुनिया की दूसरे नम्बर की सबसे बड़ी डोल्फिन है। उसका शो देखने के लिए हजारों लोग जुटते हैं और शायद दस हजार की संख्या वाला स्टेडियम अक्सर छोटा पड़ता है। जब वह उछलती है तो सोलह फीट तक उछल जाती है और जब अठखेलियां करती हुई पानी में चलती है तब स्टेडियम की कई दर्शक दीर्घाओं को भिगा देती है। ट्रेनर उसके साथ पानी में कूदती है और गहराई में चली जाती है, कुछ ही देर में शामू उछलकर सोलह फीट तक जाती है और उसके मुँह के ऊपर सीधे खड़ी हुई, हाथ हिलाती हुई ट्रेनर नज़र आती है। सारा स्टेडियम शामू-शामू की आवाज से गूँज उठता है। लोगों में इतना उत्साह होता है जैसे फुटबाल का मैच चल रहा हो।
एक और शो की बात बताती हूँ, आपने ‘थ्री डी’ फिल्में तो देखी होगी, लेकिन क्या कभी ‘फोर डी’ फिल्म देखी है? ऐसा करतब हमने वहीं देखा। कवर्ड हॉल में फिल्म प्रारम्भ होती है, ‘थ्री-डी’ की कल्पना थी अतः कभी भाला हमारे शरीर को बेधता हुआ सा लगता और कभी समुद्री तूफान हमारे पास से गुजरता हुआ। लेकिन हद तो तब हुई कि एक बूढ़ा थूक मारता है और सारे ही हॉल को भिगो देता है। कुछ देर में चूहें निकलने लगते है, तो लगता है कि हमारे पैरों के नीचे से निकल रहे हों। ऐसे ही रोमांच से भरी रहती है पूरी फिल्म। बाद में पता लगा कि उन्होंने हॉल में ही पानी और हवा छोड़ने का इंतजाम कर रखा था।
डॉ अजित गुप्ता
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बैठकबाज का कहना है :
अजित जी !
वन्दे मातरम.
आपने अमरीका यात्रा का बहुत सटीक विश्लेषण किया है. वनों में रह रहे हनुमान आदि वानरों और सोने की लंका में रह रहे दानवों से भारत और अमेरिका का साम्य प्रतीत होता है. श्री राम ने दशानन के आतंक का अंत किया पर लाक्स्मन को रावन से शिक्षा लेने भी भेजा. आपने भी अमेरिका से अच्छाई ग्रहण करने की सलाह उचित ही दी है. भारत की सारी बीमारियों की जड़ आयी. ए. एस. अधिकारी और नेता हैं जो स्वयं को कानून से ऊपर समझकर हर अधिकार भोगते हैं कोई कर्त्तव्य किया बिना. आम आदमी तो इनकी नक़ल कर अपने हाथों अपनी बर्बादी कर रहा है.
आपको जीवंत, सार्थक लेखन के लिए बधाई
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