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Saturday, March 28, 2009

सोने का पिंजर (10)

दसवां अध्याय

अमेरिका के कुत्ते बच्चों से ज़्यादा प्यार पाते हैं....

अमेरिका में रेस्ट्राज की भरमार आपको मिलेगी, सभी तरह के खाने आपको मिल जाएँगे। एक लाइन से रेस्ट्रा है, थाई, मलेशियायी, चीनी, इण्डियन, वियतनामी आदि आदि। लेकिन भारतीय स्वाद का जवाब नहीं। किसी भी भारतीय रेस्ट्रा में चले जाइए आपको ढेर सारे अमेरिकी मिल जाएँगे। समोसा और नान सबसे अधिक पसंदीदा खाद्य पदार्थ हैं। वहाँ ऐसा कुछ नहीं है जो नहीं मिलता, लेकिन स्वाद और साइज़ में बहुत अंतर। भारतीयों के लिए सबसे मुश्किल है रोटी। बाजार में बनी-बनाई भी खूब मिलती है लेकिन अपने यहाँ की मालपुए-सी रोटी वहाँ नसीब नहीं होती। आप ठीक सोच रहे हैं कि घर पर क्यों नहीं बना लेते? घर पर सभी बनाते हैं रोटी, लेकिन आटे में स्वाद हो तब तो बने अपने जैसी रोटी। एक घटना याद आ गई, उदयपुर के बहुत बड़े उद्योगपति का समाचार था कि वे जब भी यूरोप जाते हैं, अपने साथ आटा लेकर जाते हैं। एक बार कस्टम वालों ने पकड़ लिया और काफी कठिनाई का उन्हें सामना करना पड़ा। तब मन में प्रश्न आया था कि आटा जैसी चीज वे क्यों ले जाते हैं? फिर सोचा था कि शायद वहाँ भी बाजार में मैदे का आटा ही मिलता होगा। एक बात और मन में आयी कि भई बड़े लोग हैं, तो उनके चोंचले भी बड़े ही होंगे। ये पता नहीं था कि वहाँ अपने जैसा आटा नहीं मिलता। पहले दिन घर में रोटी खायी, स्वाद ही नहीं आया। तो बेटे से कहा कि आटा कुछ अजीब है, उसने उसे बदल दिया और बाजार से दूसरा ले आया। अब भी वही स्थिति। फिर हमने जुबान पर ताला लगा लिया। एक-दो जगह गए और धीरे से आटे के बारे में पूछ लिया तो मालूम पड़ा कि यह तो सभी की परेशानी का सबब है। फिर लगा कि उन उद्योगपति का चोंचला सही था। कृषि क्षेत्र में बहुत प्रयोग किए हैं अमेरिका ने। शायद ऐसा ही कोई प्रयोग गैंहू में किया हो, क्योंकि उन्हें रोटी का स्वाद पता नहीं, वे तो ब्रेड खाते हैं। अतः जो ब्रेड में अच्छा स्वाद दे, वैसा ही गैंहू बना दो, शायद।
सेब और आडू को मिलाकर कई फल तैयार हो गए, ऐसे ही अनेक संकर फल आपको वहाँ मिल जाएंगे। किसी में स्वाद है और किसी में नहीं। अब जब संकर प्रजातियों की बात ही आ गयी है तो एक और मजे़दार मानसिकता वहाँ दिखायी दी। कुत्तों को लेकर वे बहुत प्रयोगवादी हैं। कॉलोनी में अक्सर प्रत्येक व्यक्ति सुबह-शाम कुत्ते घुमाता हुआ दिखायी दे जाएगा। एक-एक व्यक्ति के पास तीन-तीन कुत्ते। मजेदार बात यह है कि सारे ही कुत्ते एक दूसरे से अलग। स्ट्रीट डॉग वहाँ नहीं हैं, लेकिन घरों में कुत्तों और बिल्लियों की भरमार है। बाज़ार में उनके लिए बड़े-बड़े मॉल है, जहाँ उनका खाना से लेकर बिस्तर तक उपलब्ध हैं। उनके सेलून भी हैं और अस्पताल भी।
कुछ घरों में तो केवल कुत्ते-बिल्ली ही हैं, बच्चे नहीं। वहाँ व्यक्ति पहले कुत्ता पालता है और उसके बाद उसके पास आर्थिक सामर्थ्‍य होता है तब बच्चे पैदा करता है। शायद सुरक्षित सुख इसी में है। जिम्मेदारी रहित सुख। किसी को दो दिन के लिए बाहर जाना है तो पड़ौस में कुत्ते को बाँध गए या फिर अपने परिचित से कह दिया कि ध्यान रख लेना। बच्चे के साथ तो ऐसा नहीं कर सकते न? कुत्ता दूसरे पर भौंकता है जबकि बच्चा अपनों पर। भौंकने की बात पर ध्यान आया कि हमारे यहाँ जब भाग्य से कभी-कभार रात को कुछ शोरगुल थमता है तब कुत्तों के भौंकने की आवाजे आप बड़े मनोयोग पूर्वक सुन सकते हैं। ये आवाज़ें जरूरी नहीं कि गली के कुत्तों की हो, वे पालतू कुत्तों की भी होती है। वैसे अमेरिका में लोग इतने प्यार से कुत्ते पालते हैं कि मुझे यहाँ उनके लिए कुत्ते शब्द का प्रयोग खल रहा है। तो वहाँ कुत्ते भी भौंकते नहीं है और दूसरे को देखकर झपटते नहीं हैं। यहाँ तो गोद मे चढ़ा पिल्ला भी दूसरे को देखकर गुर्रा लेता है और फिर मालिक उसे प्यार से थपथपाता है और चुप कराता है तब वह शान से अपनी अदा बिखेरता हुआ कूं-कूं कर देता है। मालिक की गर्दन भी गर्व से तन जाती है, कि देखो मेरा पिल्ला भी कैसा जागरूक है? लेकिन वहाँ ऐसा कुछ नहीं था, लोग चुपचाप अपने कुत्तों को घुमाते रहते हैं, आप पास से निकल जाएं कुत्ता कोई हरकत नहीं करता। जहाँ के कुत्ते तक इतने शान्त हो, वहाँ के व्यक्ति का क्या कहना? तभी तो वे एशियन्स को देखते ही घबरा जाते हैं, आ गए आतंकवादी। पाकिस्तान और हिन्दुस्तान का बहुत अन्तर नहीं है वहाँ, उनके लिए सब ही लड़ाका हैं।
एक मजे़दार किस्सा है, किस्सा क्या है सत्य घटना है। पोता अभी पाँच महिने का ही था, घुटनों के बल चलता था। बेटे का एक अमेरिकन दोस्त है-मार्टिन, उसने एक बिल्ली पाल रखी थी। एक दिन बेटा मार्टिन से मिलने गया, साथ में अपने नन्हें से बेटे को भी ले गया। मन में डर भी था कि कहीं बिल्ली से बच्चा डर नहीं जाए। घर पहुँचकर पोता खेलने लगा और दोनों दोस्त बातों में रम गए। कुछ देर बाद रोने की आवाज सुनाई दी, तब बेटे को होश आया। अरे कहीं चुन्नू को तो बिल्ली ने नहीं मारा है? लेकिन यह क्या बिल्ली एक कोने में दुबकी हुई चुन्नू को देखकर रो रही थी। हमारे यहाँ बिल्ली घाट-घाट का पानी पीती है, घर-घर जाकर दूध साफ करती है। लेकिन वहाँ घर में बंद रहती है। सुबह-शाम मालिक घुमाने ले जाता है, तब कोई भी सड़क पर घुटने चलता बच्चा नजर नहीं आता। बेचारी बिल्ली ने कभी बच्चों को घुटने चलते देखा ही नहीं तो उसने समझा कि कौन सा जानवर आ गया है, इतना बड़ा?
भारत की भूमि पर घर-घर में कृष्ण के बाल रूप के दर्शन हो जाते हैं। सुबह उन्हें नहलाया जाता है, भोग लगता है, झाँकी होती है और सारा दिन कहाँ बीत जाता है पता ही नहीं चलता। वहाँ सारा दिन कुत्तों और बिल्लियों के साथ कब बीत जाता है पता ही नहीं चलता। वहाँ कुत्तों-बिल्लियों तक ही लोग सीमित नहीं है, छिपकली तक पाल लेते हैं। शहरों में कहीं भी पशु-पक्षियों के दर्शन नहीं होते तो वीकेंड पर कैंप लगाकर जंगलों की खाक छानते रहते हैं, जानवरों को देखने के लिए। एक ऐसे ही जंगल में हम भी गए। घूमते-घूमते मालूम पड़ा कि यहाँ भालू है। बस फिर क्या था, हम भी घुस पड़े जंगल में। वहाँ देखा पहले से ही दसेक लोग भालू को निहारने के लिए खड़े हैं। भालू मजे से पेड़ पर चढ़कर सेव खा रहा था। हम और अंदर चले गए, हमें दो और भालू दिख गए। दो-तीन लोग तो ज्यादा ही अंदर चले गए। लेकिन हम समय पर बाहर आ गए, हमारे बाहर आते ही रेंजर काफिले सहित आ गया और सभी को ऐसा नहीं करने की हिदायत देने लगा। हम तो सबकुछ देखकर चुपचाप खिसक आए।
जंगलों में भी वहाँ जानवर दिखायी नहीं देते। वहाँ होटल परिसर में मोटी-ताजी गिलहरी घूम रही थी बस वे ही सब के आकर्षण का केन्द्र बनी हुई थीं। जंगल भी जानवरों से रिक्त कैसे हैं, यह हमें समझ नहीं आया। शहर तो सारे ही कीड़े-मकोड़ों से रिक्त हैं ही। वहाँ लगा कि वास्तव में आदमी ने दुनिया में अपना प्रभुत्व जमा लिया है। अभी भारत इस बात में पिछड़ा हुआ है। यहाँ सारे ही जीव-जन्तु भी साथ-साथ पलते हैं। इस धरती पर मनुष्य ही स्वेच्छा से विचरण करे शायद इसे ही विकास कहते हैं। हमारे जंगलों में, शहरों में कितने जीव मिलते हैं? सुबह पेड़ों पर तोते अमरूद खाते मिल जाएंगे, बंदर छलांग लगाते, हूप-हूप बोलते हुए दिख जाएंगे। कौवा तो जैसे पाहुने का संदेशा लाने के लिए ही मुंडेर पर आकर बैठता है। कोयल सावन का संदेशा ले आती है। चिड़िया, कबूतर तो घर में घोंसला बनाने को तैयार ही रहते हैं। रेगिस्तानी क्षेत्र में चले जाइए, मोर नाचते आपको मिल जाएंगे।
हम मानते हैं कि देश का विकास दो प्रकार का होता है, एक सभ्यता का विकास और दूसरा संस्कृति का विकास। अमेरिकी भौतिक स्वरूप का विकास अर्थात सभ्यता का विकास पूर्ण रूप में है और भारत इस मायने में विकासशील देश कहलाता है। अमेरिका पूँजीवादी देश है और उन्होंने अपनी अर्थव्यवस्था इतनी सुदृढ़ कर ली है कि वे सारी दुनिया को पैसा उधार देते हैं और ब्याज के बदले में सारी जीवनोपयोगी वस्तुएं प्राप्त करते हैं। सारा बाजार एशिया की वस्तुओं से भरा हुआ है। 25 प्रतिशत एशियायी उनके भौतिक स्वरूप के विकास में भागीदार हैं। वहाँ का प्रत्येक व्यक्ति टैक्स देता है, जबकि हमारे यहाँ टैक्स देने वालों का प्रतिशत क्या है? एक सज्जन ने बताया कि यहाँ टैक्स की आमदनी ही इतनी है कि इन्हें समझ नहीं आता कि इस पैसे को कहाँ खर्च करें? परिणाम सारी दुनिया को खैरात बाँटना और फिर उनकी प्रकृति-प्रदत्त संसाधनों का उपयोग करना। अमेरिका के पास भी प्राकृतिक संसाधन की प्रचुरता है लेकिन वह इनका उपयोग नहीं करता। जब दुनिया के संसाधन समाप्त हो जाएँगे तब हम उनका उपभोग करेंगे, यह है उनकी मानसिकता। इसलिए ही खाड़ी के देशों से तैल की लड़ाई लड़ी जा रही है। उनकी सभ्यता के विकास के पीछे है उनका अर्थप्रधान सोच है। दुनिया के सारे संसाधन, बौद्धिक प्रतिभा सब कुछ एकत्र करो और अमेरिका के लिए प्रयोग करो। ऐसा कौन करने में समर्थ होता है, निःसंदेह ताकतवर इंसान। जैसा कि मैंने पहले कहा था कि वे विज्ञान के इस सिद्धान्त को वरीयता देते हैं कि जो भी ताकतवर हैं वे ही जीवित रहेगा। अतः उनकी जीवनपद्धति का मूल मंत्र ताकत एकत्र करना है।
प्रकृति सारे ही जीव-जन्तुओं के सहारे सुरक्षित रहती है, लेकिन अमेरिका में सभी के स्थान निश्चित हैं, जहाँ मनुष्य रहेंगे, वहाँ ये नहीं रहेंगे। अर्थात सारी प्रकृति को गुलाम बनाने की प्रवृत्ति। भोग-विलास के लिए एकत्रीकरण की प्रवृत्ति। त्याग और समर्पण के लिए कहीं स्थान नहीं। टेक्स के रूप में देने का अर्थ भी क्लब जैसी मानसिकता के रूप में परिलक्षित होता है। देश का मेनेजमेंट सरकार के रूप में तुम देखते हो तो टेक्स लो और हमें सुविधाएं दो। उसमें त्याग की भावना नहीं है। भारत में त्याग ही त्याग है। हम टेक्स के रूप में कुछ नहीं देना चाहते लेकिन दान के रूप में सबकुछ दे देते हैं। इसलिए हमारा सांस्कृतिक विकास पूर्ण हैं। भारत की जनसंख्या सौ करोड़ से भी अधिक है, यदि भारत में भी लोग अमेरिका की तरह टैक्स देने लग जाएं तो शायद सर्वाधिक टेक्स हमारे देश में आएगा। फिर विकास की कैसी गंगा बहेगी, इसकी शायद हमें कल्पना नहीं है? हम केवल दान देकर स्वयं को भगवान बनाने में लगे रहते हैं। हमारे यहाँ भौतिक विकास का कभी चिंतन हुआ ही नहीं, बस आध्यात्मिक विकास के लिए ही हम हमेशा चिंतित रहते हैं। हम केवल अपने लिए ही नहीं, प्राणी मात्र के लिए, चर-अचर जगत के लिए चिंतन करते हैं। शायद हमारा यही सांस्कृतिक सोच कभी विश्व को बचाने में समर्थ बनेगा। आज नवीन पीढ़ी को यह दकियानूसी लगता है लेकिन कल यही सिद्धान्त सभी को आकर्षित करेगा।

डॉ अजित गुप्ता

Saturday, March 21, 2009

सोने का पिंजर (9)

नौवां अध्याय

अमेरिका में हिंदुस्तानी शान से हिंदी बोलता है....

हम अमेरिका हिन्दी सम्मेलन के निमित्त गए थे तो हिन्दी की बात भी करनी होगी। सच तो यह है कि पूरा अमेरिका घूम आइए आपको हिन्दी ही हिन्दी दिखाई और सुनाई देगी। इतने हिन्दुस्तानी वहाँ बसे हुए हैं और सभी को अपनी पहचान भी स्थापित और सुरक्षित रखनी होती है तब हिन्दी का ही सहारा रहता है। फिर जहाँ भारतीय हों वहाँ भारतीय खाना तो अवश्य ही होगा। शहर में कई-कई भारतीय रेस्ट्रा, वहाँ खाना भी हिन्दुस्तानी और भाषा भी हिन्दी। भारतीय खाने का जवाब नहीं और इसी कारण क्या अमेरिकी और क्या अन्य सभी वहाँ आते हैं। जब खाना खाने आते हैं तब कुछ न कुछ तो हिन्दी के प्रति आकर्षण पैदा हो ही जाता है। हिन्दी वहाँ खाने और फिल्मों के कारण ही पसन्द नहीं की जाती है, उसका एक ठोस कारण भी है। युवा दंपति आकर बस गए अमेरिका, कुछ दिन मौज-मस्ती कर ली, फिर बच्चे हो गए। जैसे ही बच्चे बड़े होने लगे कि डर सताने लगता है। कहीं ये अपनी भाषा नहीं भूल जाएं, अपने संस्कार नहीं भूल जाएं? हम तो भारत में अपने घर-परिवार को छोड़कर यहाँ आकर बस गए लेकिन यदि हमारे बच्चे पूर्णतया अमेरिकी बन गए तो फिर हमारा भविष्य क्या होगा? जिस राम की कथा को उन्होंने भुला दिया था उसी राम की कथा को वे अपने बच्चों को पढ़ाना चाहते हैं। पिता का स्वार्थ है कि बच्चे अपने संस्कारों से जुड़े रहें इसलिए हिन्दी सीखे और बच्चों का स्वार्थ है कि हिन्दी फिल्में और गाना सुनना है तो फिर हिन्दी तो सीखनी ही पड़ेगी। बिना हिन्दी सीखे हिन्दी फिल्मों का आनन्द कैसे लिया जा सकता है?
इण्डियन कम्यूनिटी सेंटर पर कार्यक्रम चल रहा था, एक बच्चा बड़ा अच्छा गाना गा रहा था। उससे पूछा गया कि क्या तुम्हें हिन्दी आती है, तो वह बोला कि नहीं गाना याद कर लिया है। जब गाना याद हो गया है तब हिन्दी भी दबे पाँव उसके अन्दर उतर ही जाएगी। वहाँ सारा दिन हिन्दी और भारतीय ज्ञान की कक्षाएं लगती हैं। कोई हिन्दी सीख रहा है, कोई भारतीय शैली के विभिन्न नृत्य। फिर भारतीय बाजार इतना बड़ा है कि सभी को व्यापार करना है। इसलिए ही अमेरिका के प्रेसीडेन्ट कह उठते हैं कि हिन्दी नहीं सीखोगे तो पीछे रह जाओगे। हमारा युवा भारत में रहकर हिन्दी की उपेक्षा करता है, लेकिन वहाँ हिन्दी उसके लिए गौरव का विषय है। क्योंकि वही उसकी पहचान है।
विश्व हिन्दी सम्मेलन में सारे विश्व के प्रतिनिधि थे। जब चीन और जापान के प्रतिनिधि बोलने को खडे हुए तब आश्चर्य हुआ। मैंने मजाक में कहा कि यहाँ तो पता ही नहीं चलता कि कौन हिन्दी नहीं जानता, हम यदि किसी को ऐसा वैसा हिन्दी में कह दें तो ये तो सभी हिन्दी जानते हैं, फिर क्या होगा? मेरे साथ ही सम्मानित होने वालों की सूची में कोरिया की एक सुन्‍दर सी महिला थीं। मुझे उनसे हिन्दी में बात करने में संकोच हो रहा था। बड़ा अजीब सा लग रहा था, एक विदेशी महिला को हिन्दी बोलते हुए देखते। वहाँ कोई भी प्रतिनिधि अंग्रेजी में बात नहीं कर रहा था, जबकि हमारे भारत में लोग अंग्रेजी में बात करना अपनी शान समझते हैं। भारत में सभी को हिन्दी आती है लेकिन क्या टी.वी, क्या संसद सभी ओर अंग्रेजी छायी रहती है। वह तो व्यापारीकरण के कारण टी.वी. चैनलों को समझ आ गया है कि हिन्दी में ही सफलता का सूत्र छिपा है तो वे अब हिन्दीकरण में लगे हैं।
सम्पूर्ण अमेरिका में घूम आइए, उनकी संस्कृति के मूल चिंतन का दिग्दर्शन प्रत्येक क्रियाकलाप में आपको मिलेगा। वे प्रकृति के सिद्धान्त ‘सर्ववाइवल आफ द फिटेस्ट’ के पोषक हैं। वहाँ व्यक्ति अकेला है। उसे स्वयं को ही सारे कार्य करने हैं। आपका कोई सहयोगी नहीं। यदि आप ताकतवर नहीं, आत्मविश्वासी नहीं तो फिर आप वहाँ रह नही सकते। वहाँ पब्लिक ट्रांस्पोर्ट न के बराबर हैं अतः जब तक आप गाड़ी चलाना नहीं जानते आप घर से बाहर भी नहीं निकल सकते। कमसिन सी लड़कियां, जो हवा के झोंके से भी लहरा जाए, बड़ी-बड़ी गाड़ियां चलाती हैं। चलाती ही नहीं सरपट दौड़ाती हैं। वहाँ की अमूमन स्पीड है 80 मील प्रति घण्टा, कि.मी. की भाषा में कहें तो वहाँ गाड़ियां लगभग 125 से 150 कि.मी. प्रति घण्टे की रफ्‍तार से चलती हैं। सड़कों पर केवल गाड़ियां दौड़ती हैं, पुलिस भी दिखायी नहीं देती। आप रास्ता किसी से पूछ नहीं सकते, या तो आपकी गाड़ी में नेवीगेटर लगा हो या फिर आप मैप लेकर बैठे। वहाँ 99 प्रतिशत लोग अपनी गाड़ी रखते हैं केवल एक प्रतिशत लोग पब्लिक ट्रांस्पोर्ट का उपयोग करते हैं।
हम कई दिनों तक वहाँ घूमते रहे और हमें रेल कहीं दिखायी नहीं दी, आखिर हमने बेटे से पूछ ही लिया कि यहाँ की रेल तो दिखा दो। कुछ देर बाद ही उसने पास जाती दो डिब्बों की बस जैसी रेल दिखा दी। जो हमारे साथ ही शहर की सड़कों पर दौड़ रही थी, पटरी समानान्तर बिछी थी और रेल भी ग्रीन-रेड लाइट से रुकती-चलती थी। शहरों को भी आपस में जोड़ने के लिए रेलमार्ग है लेकिन वह बहुत ही कम है। उनमें भी यात्री गिने-चुने ही होते हैं। यही हाल बस का है, पूरी खाली या फिर एकाध सवारी को ले जाती हुई आपको दिख जाएगी। हमारे जैसा नहीं है कि घर से बाहर निकलो और रिक्शा, टेम्पो, बस सभी कुछ तैयार।
हाँ तो मैं वहाँ की संस्कृति के बारे में कह रही थी, जैसे वहाँ स्वयं को ही गाड़ी हाँकनी होती है वैसे ही आपको अपने पेट भरने के लिए सारे काम करने होते हैं। बाजार में न कोई दर्जी, न कोई जूते सीने वाला और न कोई मेकेनिक। यूज एण्ड थ्रो बस। हमारे यहाँ एक-दूसरे के लिए कार्य करने की प्रवृत्ति है, कोई कमाता है, कोई घर देखता है। अमेरिकन्स का तो खाना अलग तरह का होता है, तो सारी खटपट हो जाती है और शायद उन्हें तो आदत भी है। लेकिन भारतीयों की मुश्किल होती है, जब वे भारत से चलते हैं तब तक नौकर-चाकर, ड्राईवर आदि सभी होते हैं। लेकिन यहाँ अपना हाथ-जगन्नाथ। बुढ़ापे की कद्र वहाँ भी है, उनके लिए सुविधाएं भी खूब हैं लेकिन वे बूढ़े हैं इसलिए सरकार सुविधाएं देती हैं, वे परिवार के सम्मानित सदस्य हैं यह सोच नहीं है। लेकिन वे सब प्रसन्न हैं क्योंकि उन्होंने भारत नहीं देखा है। वे जब भारत के बारे में पढ़ते हैं तो उन्हें भी उत्सुकता होती है कि देखें कैसे परिवार होते हैं, जहाँ घर का मुखिया एक बूढ़ा दादा होता है।
कल तक वे भी परिवार के साथ ही रहते थे, लेकिन जैसे-जैसे आधुनिकता और अर्थ ने अपने पैर जमाए हैं, वैसे-वैसे परिवार टूटकर बिखरते जा रहे हैं। वहाँ एक आम नागरिक के जीवन में संघर्ष नहीं है। सभी कुछ उपलब्ध है। जो बनना चाहते हो, उस पर भी पाबंदी नहीं है। पढ़ाई के प्रति इतना आग्रह नहीं है। वहाँ का समाज अधिक पढ़ाकू बच्चे को पसन्द नहीं करता। इसीलिए खेलों के प्रति अधिक रूझान है। बच्चा खेले, कूदे या फिर कोई साहस का कार्य करे, वह ज्यादा अच्छा माना जाता है। पैसा जमा करना उनका शौक नहीं। क्या करेंगे पैसा जमा करके? सामाजिक उत्तरदायित्व कुछ नहीं। सरकार ही बुढ़ापे का सहारा है। पढ़ने के लिए लोन मिल जाता है। बस पाँच दिन कमाओ और दो दिन खर्च कर दो। आम अमेरिकी सोमवार से लेकर शुक्रवार तक काम करता है, लेकिन शुक्रवार की रात से रविवार तक पूर्ण आराम। शुक्रवार की रात जश्न की रात होती है। सड़कों पर गाड़ियां दौड़ती रहती है, पीछे बड़ी-बड़ी नावें बंधी हैं, साइकिले बंधी हैं, समुद्र किनारे कैम्प करेंगे, किसी जंगल में जाकर कैम्प करेंगे या फिर किसी होटल में जाकर दूसरे शहर रहेंगे। मुख्य शहर वहाँ डाउन टाउन कहलाता है, वहाँ शुक्रवार और शनिवार की रात को चले जाइए, दीवाली जैसा माहौल मिलेगा। लोग बैठे हैं, नाच रहे हैं, सिगरेट पी रहे हैं और क्लब में जाने के लिए लम्बी-लम्बी कतारों में लगे हैं। उस दिन दो-तीन बजे तक जश्न रहेगा। लेकिन सोमवार से फिर खामोशी, जीवन रात को आठ बजे ही थम जाएगा।
वहाँ नौकरी पर जाना भी मनमाना है, कोई सुबह सात बजे जा रहा है और फिर दिन में तीन बजे वापस आ रहा है और कोई दस बजे जाकर पाँच बजे। अधिकतर ऑफिस चौबीस घण्टे खुले रहते हैं तो काम अपने हिसाब से ही करते हैं। एक दिन रात्रि को हम भी बेटे के साथ उसके ऑफिस पहुँच गए। गेट पर कोई संतरी नहीं, चौकीदार नहीं। बस अपना कार्ड निकालिए और स्क्रेच कीजिए और गेट खुल जाएगा। वह हमें अपना ऑफिस दिखा रहा था, उसका एक साथी देर रात तक केबिन में बैठा था। वह बोला कि यार घर पर कोई है नहीं तो यहाँ ही आराम से बैठा हूँ, किताब पढ़ रहा हूँ। वहाँ अधिकतर सभी के केबिन होते हैं। मैंने पूछा कि तुम्हें कमरा कब मिलता है? वह बोला कि मेरे वाइस-प्रेसीडेन्ट भी बगल वाली केबिन में ही बैठते हैं। कोई छोटा नहीं कोई बड़ा नहीं। बस वेतन में बहुत अन्तर है। किसी को कुछ हजार डॉलर वेतन है तो कुछ को लाखों में। एक ही पद पर काम करने वाले लोगों में भी वेतन का अन्तर है। जिसका जैसा काम, उसका वैसा वेतन। कोई किसी का वेतन पूछता भी नहीं, क्योंकि यह आउट ऑफ एटिकेट है। क्या पता पूछ ले तो हमारे जैसे हड़ताल हो जाए? खैर हम सारा ऑफिस देखकर बाहर आ गए। जैसे ही उसके कक्ष से निकलकर गैलेरी में बाहर आए, मालूम पड़ा कि उसका कार्ड अन्दर ही रह गया। अब क्या हो? बाहर तो निकल सकते हैं, लेकिन वापस अन्दर नहीं जा सकते। उसने कहा कोई बात नहीं सुबह किसी के साथ भी अन्दर चला जाऊँगा। नहीं तो इमरजेन्सी में दूसरा कार्ड बनवाना पड़ेगा। वहाँ आपके पास कार्ड नहीं है तो आप कहीं भी प्रवेश नहीं कर सकते।
रात्रि भोज का रिवाज नहीं, सब आठ बजे पहले-पहले खाना खा लेते हैं। अमेरिकन रेस्ट्रा आठ बजे बन्द। सूर्य छिपता है कहीं नौ बजे और कहीं साढ़े आठ बजे। यहाँ भी भारतीय अपनी चलाते हैं, उनके रेस्ट्रा बन्द होंगे रात्रि दस बजे। किसी भी अमेरिकन को रात्रि में आठ बजे बाद फोन करना अनुशासनहीनता कहलाती है। मन में प्रश्न उचक-उचक कर आता है, कि हम भारतीयों ने देर रात तक जागना किससे सीखा? क्यों हम कहते हैं कि पश्चिम की नकल कर रहे हैं? पश्चिम में केवल दो दिन देर रात तक जागने का रिवाज है, बाकि सब कुछ मर्यादित। हमारे यहाँ तो रोज ही रात्रि में दस बजे बाद दिन शुरू होता है। रोज ही हुल्लड़, वह भी सड़कों पर। वहाँ कहीं भी शोर नहीं। होर्न बजाना तो जैसे अपराध। न कोई लाउड-स्पीकर न कोई बैण्ड-बाजे। कॉलोनियों में तो सातों दिन ही सन्नाटा पसरा रहता है।
हम जैसे भारतीयों की तो जीभ ही सूख जाती है। आलोचना रस तो गोंद जैसे सूख कर हलक में अटक जाता है। किससे बात करें? सब आते-जाते केवल मुस्कराहट फेंकते हैं। ज्यादा से ज्यादा गुडमार्निग बस। भारतीय तो कुछ भी आदान-प्रदान नहीं करते। मैंने पूछ ही लिया इसका कारण कि अमेरिकन तो गुडमार्निंग करता है और भारतीय मुँह फेर कर क्यों चलता है? उत्तर बड़ा ही मजेदार था, यहाँ भारतीय एम.वे. वालो से बड़े डरे हुए हैं। जरा सा मुस्करा दो, एम.वे. वाला एजेन्ट आपको धर दबोचेगा। भई इनसे दूर ही रहो, अपनी नौकरी के लिए अपना देश छोड़कर आए हैं और यहाँ अपनी नौकरी छोड़कर इनके तैल-शैम्पू बेचो। एक पर्यटक स्थल है ‘येशूमिटी’ हम वहाँ गए। सुबह जल्दी उठकर पैदल ही पहाड़ पर चढ़ना था, रास्ते में अमेरिकन्स मिलते गए और गुडमार्निंग होती रही। हमने सोच लिया था कि भारतीय मिलने पर हम भी नमस्ते करेंगे। दो भारतीय लड़के मिल गए, हमने दूर से कहा कि ‘नमस्ते’। अब उनके चौंकने की बारी थी, उन्होंने भी बड़े गर्व से कहा नमस्ते। हिन्दी सुनकर लगा कि उनकी आत्मा तक खिल उठी है। मुझे लगा कि हमने नाहक ही संकोच बना लिया है और दूरियां भी। लेकिन पास लाने का काम मन्दिर और कम्यूनिटी सेन्टर कर रहे हैं। सारे भारतीय रोज ही एकत्र होते हैं और सब मिलकर सारे ही त्यौहार मनाते हैं। मज़ेदार बात तो यह है कि पाकिस्तानी भी वहाँ आ जाते हैं। एक दिन इण्डियन कम्यूनिटी सेंटर पर एक सज्जन गाना गाने खड़े हुए और गाना था ‘मेरा जूता है जापानी’ फिर परिचय दिया कि मैं पाकिस्तानी हूँ। वहाँ हिन्दुस्तान और पाकिस्तान से अधिक एशियन ज्यादा प्रचलित नाम है।

डॉ अजित गुप्ता

Saturday, March 07, 2009

सोने का पिंजर (7)

सातवां अध्याय

ऐसा भी कौन हैं कि सब अच्छा कहें जिसे...

भारत की निन्दा स्तुति मेरे जेहन में उभर-उभर आती है कि भारतीय रेल और बस का कोई समय नहीं। देर से आना इनकी नियति है। लेकिन जब हमने न्यूयार्क से सेनफ्रांसिसको की हवाई उड़ान ली, तब पहले से ही एक घण्टे विलम्ब से चले. हवाईजहाज में बैठने के बाद अनाउन्स हुआ कि यात्रा में एक घण्टे का विलम्ब और होगा। क्योंकि हमारे आगे अभी चालीस विमान उड़ने की कतार में हैं। यहाँ कोई नहीं कहता कि अमेरिका में हवाई यात्राओं की ऐसी स्थिति क्यों हैं? प्रश्न करो भी तो कहेंगे कि ये तो हो जाता है, इसमें कोई क्या करे? अरे तो अपने देश में भी तो हो जाता है, फिर वहाँ को छोड़कर यहाँ क्यों भाग आया? भारत में दुनिया का सबसे बड़ा रेलवे नेटवर्क है, यहाँ रेल के नाम पर नाम-मात्र का नेटवर्क है। बस-सर्विस तो नहीं के बराबर हैं, केवल हवाईजहाज ही इतने बड़े देश को जोड़ने में समर्थ हैं। जैसे हमारे यहाँ हर मिनट बस और रेल रवाना होती हैं, ऐसे ही यहाँ हवाईजहाज हैं। देर सभी जगह है, बस गालियां केवल भारत के लिए ही बनी हैं।
एक बार मुझे उदयपुर से मुम्बई जाना था, मैने एजेण्ट को फोन किया कि एक टिकट इण्डियन एयर लाइन्स की ले दो। वह बोला कि अरे आप भी कैसी फ्‍लाइट की बात करती हैं, यह तो रनवे पर आने के बाद भी रुक जाती है। यहाँ हम रनवे पर पूरा एक घण्टा धीरे-धीरे सरकते रहे, हम देखते रहे कि एक जहाज उड़ा, हम आगे खिसके, फिर दूसरा उड़ा, हम और खिसके। वास्तव में यह भौतिकता का एक हिस्सा है, हमें इसी प्रकार सारे ही देशों में स्वीकारना चाहिए। हम केवल भारत को ही गाली दें, यह ठीक नहीं है। हमारे यहाँ तो कभी-कभी ही रनवे पर जहाज रुकता है लेकिन वहाँ तो रोज़ ही ऐसा होता है।
धीरे काम करना वहाँ की आदत है, इसे हम सुस्ती का नाम भी दे सकते हैं। सबसे मजेदार बात तो यह है कि यहाँ बसे भारतीय भी इसी सुस्ती का हिस्सा हैं। उनकी फुर्ती केवल हिन्दुस्थान की निन्दा-स्तुति में दिखायी देती है। हिन्दुस्थान का नाम लेकर जिन्दा हैं, हिन्दू कहलाकर जिन्दा हैं, हिन्दी भाषा के साथ जिन्दा हैं फिर भी अपने देश को सम्मान दिलाने की बात नहीं है। उन्हें अमेरिका में भी अपना भारत दिखना चाहिए, जिसे वे छोड़ आए थे। उसको याद करके साहित्य लिखा जा रहा है, आँसू बहाए जा रहे हैं, लेकिन अपनी भारतमाता की दुर्दशा को ठीक करने के लिए आना कोई नहीं चाहता।
सम्मेलन में एक कविता सुनाई गयी, कि यहाँ बड़ी सारी कोठी बनाकर भी छोटे से मकान का भाई से बँटवारा कराकर, ताला ठोंककर आना हमारी मानसिकता है, और फिर आशा करना कि काश कोई अच्छा पड़ोसी मिल जाए, जो उस ताले की हिफाजत कर जाए। अरे तुमने भारत देश के करोड़ों घरों में ताले लगा दिए हैं, करोड़ो बूढ़े माँ-बापों की आशाओं को छीन लिया है, कम से कम उस छोटे से मकान का ताला तो अपने गरीब भाई के लिए खोल आओ। लेकिन अभी हम इतने विकसित नहीं हुए हैं, कि दूसरे के लिए कुछ त्याग कर दें!
तुम भारतीय केवल त्याग की ही बात करते हो और दुखी होते हो, इसलिए ही विकसित नहीं हो। जितना छीन सको छीन लो, जितना भोग सको भोग लो, विकसित हो तो त्याग की बात मत करो। यही है विकास का राज।
संयुक्त राष्ट्र अमेरिका की खोज जब कोलम्बस ने की थी तब यहाँ के निवासियों को नाम दिया था ‘रेड इंडियनस’। आज यहाँ रेड इन्डियन्स अल्पसंख्यक होते जा रहे हैं और दुनिया जहान से आए व्यक्ति अमेरिकी नागरिक बनते जा रहे हैं। यहाँ बड़ी संख्या में यूरोप से लोग आए, उनका गोरा रंग यहाँ से मेल खाता था अतः वे सब स्वाभाविक अमेरिकी बन गए। यहाँ एशिया से भी लोग आए, लेकिन उनकी कद-काठी गोरे लोगों से नहीं मिलती थी तो वे आज भी एशिया मूल के ही कहलाते हैं। भारतीय भी यहाँ आकर बरसों से रह रहे हैं लेकिन अपने रंग के कारण कभी अमेरिकी नहीं कहला सकते, चाहे वे कितनी ही यहाँ की नागरिकता ले लें। लेकिन फिर भी एक होड़ मची है कि कौन यहाँ का नागरिक बन जाए। भारत से तीन गुणा जमीन और जनसंख्या केवल 30 करोड़, तो जमीन तो बहुत है न! फिर जो असली दावेदार है वे तो कुछ बोलते नहीं, बस जो यूरोप से आकर बसे हैं उनके चिल्लाने से क्या असर होगा? जब तुम यहाँ रह सकते हो तो हम क्यों नहीं? अभी यहाँ एशियायी 25 प्रतिशत हैं, भविष्य तो दिख ही रहा है। सारे ही बड़ी कम्पनियों के मुख्यालय यहाँ है और उन सबमें एशियायी। भारत जिस प्रकार से तरक्की कर रहा है उससे लगता है कि या तो भारतीय सारे वापस चले जाएँगे या फिर वे सम्मान सहित अमेरिका में रहेंगे। उनकी आवश्यकता अमेरिका अनुभव करेगा।
अमेरिका एक पूर्ण विकसित देश कहलाता है, क्योंकि यहाँ व्यक्ति के लिए भौतिक संसाधनों की भरमार है। आम व्यक्ति के लिए मूलभूत आवश्यकताओं की यहाँ कोई कमी नहीं है। पानी यहाँ भरपूर है। किसी भी देश के पर्यावरण को सुरक्षित रखने के लिए तीस प्रतिशत जंगल होने अनिवार्य हैं और इस अनिवार्यता को यह महाद्वीप पूर्ण करता है। यहाँ इतने गहरे और बड़े जंगल सुरक्षित देखकर आश्चर्य होता है। यहाँ के सारे मकान लकड़ी से बनते हैं, लेकिन जंगल नहीं कटते। लकड़ी आती है अविकसित या विकासशील देशों से। प्रकृति यहाँ पूर्ण रूप से अटखेलियाँ करती है। एक तरफ विशाल पहाड़ों की दीवार से आरक्षित समुद्र, तो दूसरी तरफ सफेद बालू पर बल खाता, सफेद झाग उड़ाता, नीला समुद्र।
केलिफोर्निया में समुद्र के मुहाने पर एक गहरा जंगल है रेड-वुड फोरेस्ट। मीलों तक पसरा यह जंगल, दो हजार वर्ष पुराने पेड़ों का संरक्षक बना हुआ है। पेड़ के तने की चौड़ाई चार आदमियों के हाथ फैलाने से भी पकड़ में नहीं आए और लम्बाई तो 300 फीट से भी अधिक। कई पेड़ नीचे से खोल मात्र रह गये हैं लेकिन ऊपर से पुनः हरे हो गए हैं। भारत के जंगल और यहाँ के जंगलों में रात-दिन का अंतर है। भारत में जंगलों में कई प्रकार के पेड़ मिलते हैं, लेकिन यहाँ केवल रेडवुड। पशु और पक्षी भी आमतौर पर यहाँ नजर नहीं आते। शाम पड़ी तो सोचा की अपनी तरह ही पक्षियों का कलरव सुनने को मिलेगा, लेकिन नहीं, शाम को भी यहाँ शान्ति ही थी। फिर पेड़ों को देखा, देखा वहाँ फल नहीं थे, जब फल ही नहीं है तब पक्षी क्या करेंगे, यहाँ आकर?
शहर में भी ऐसे पेड़ नहीं हैं जहाँ पक्षी अपना बसेरा कर सके। बस कभी-कभी कबूतर दिखायी दे जाते हैं। दूसरे जानवरों का देखना तो दुर्लभ ही है। गाय और कुत्ते को रोटी देना तो यहाँ चाँद-सितारे तोड़ने के समान है। ताजा दूध के लिए मन मसोस कर रह गए और केन बन्द पुराने दूध को पीने के लिए मन को तैयार नहीं कर पाए। लेकिन फिर सेनफ्रांसिस्को के पास के समुद्री क्षेत्र जाते समय देखा कि दूर-दूर तक वीराना छाया हुआ है। दूर से देखा तो घास के इन वीरान पहाड़ों पर कुछ काले धब्बे चलते से दिखायी दिए। कार जैसे ही पास गयी और मुँह से खुशी की आह निकल गयी, अरे ये तो गायें हैं। फिर तो वहाँ बस गायें ही गायें थी। सोचा उनके फार्म हाउस में जाकर ताजे दूध की माँग कर ली जाए। मन ताजा दूध के स्वाद की कल्पना में खो गया, लगा कोई कहेगा कि बैठो और चाहे जितना दूध पीओ। लेकिन हमें निराशा ही हाथ लगी, ताजा दूध का रिवाज नहीं है तो नहीं है। एक बात और आश्चर्य में डालती है कि गाय शाकाहारी पशु है, लेकिन वे लोग पता नहीं क्यों गाय को मांसाहारी बनाने में जुट गए हैं? यूरोप में ‘मेड-काउ’ रोग हुआ था और हजारों गायों को मौत के घाट उतारा गया था। फिर भी क्यों नहीं समझ आ रहा है कि मनुष्य के अलावा शेष पशु-पक्षी अपनी-अपनी प्रकृति के अनुरूप ही जीवन जीते हैं। यदि वे मांसाहारी हैं तो मांसाहारी हैं और यदि वे शाकाहारी हैं तो शाकाहारी। मनुष्य ही ऐसा प्राणी है जो सभी कुछ उदरस्थ कर लेता है।
पहली बार वहीं पहाड़ों में हिरण भी दिखायी दिए, लगा कि जंगल जीवन्त हो उठा है। अमेरिका में प्रकृति को न केवल सुरक्षित रखने का प्रयास किया गया है अपितु उसे दर्शनीय बनाने का भरपूर प्रयास भी किया है। समुद्र के हर कोने की सुन्दरता को विभिन्न कोणों से दिखाने का एक सफल प्रयोग है यहाँ।
रुको बाहर कोई आ गया है, अरे यह तो प्लम्बर है। कल से नल टपक रहा था। एक सवा छः फीट का आदमी अपना पूरा किट लिए आया और चुपचाप अपना काम करने लगा। हमारे यहाँ पाँच या सवा पाँच फीट का आदमी आता है और न जाने कितनी बाते करते हुए नल का टपकना बन्द करता है। घर की मालकिन चाय बना देती है। जब तक वह काम करता है, चाय तैयार हो जाती है। फिर वह सारे जगत की बातचीत के बीच चाय पीकर ही जाता है। लेकिन यहाँ सर्वत्र मौन है। कभी-कभी लगता है कि अमेरिका में सबकुछ है लेकिन सुख और दुख बाँटने वाला कोई नहीं। बतियाने वाला कोई नहीं। रास्ते चलते देखकर सब मुस्कान फेंक देंगे लेकिन बाते किससे करें, मन खोजता ही रहता है। जैसे आकाश में चिड़ियों का शोर नहीं, वैसे ही धरती पर मनुष्यों की आवाज नहीं। बस हैं तो कारों का काफिला, जो दौड़ रहा है बस दौड़ रहा है। अष्ट भुजाओं वाली काली-काली सड़कें, उनपर बने रावण के दस सिरों जैसे फ्‍लाई-ओवर और उन पर तेज रफ्‍तार से दौड़ती हुईं भांति-भांति की कारें। एक कार पास से निकली, अरे यह क्या? इसमें तो ड्राइवर ही नहीं! दिमाग ने झटका खाया, नहीं यहाँ लेट-हेण्ड ड्राइव है, ओह ड्राइवर तो दूसरी तरफ है।
लेकिन मैं बात समुद्र की कर रही थी। हमारी कार समुद्र किनारे घुमावदार सड़क पर सरपट दौड़ रही थी। जरा सा चूके नहीं कि कार पानी में। बार-बार डर के मारे पूछते ही रहे कि बेटा अब कितना रास्ता और है? वीराना क्षेत्र आने लगा, नंगे पहाड़, बस उनपर सूखी घास। केवल यहाँ गाय और घोड़ों के तबेले ही हैं। पूरा क्षेत्र सुरक्षित रख छोड़ा है। रास्ते में समुद्र की सुन्दरता निहारने का मन हो जाए तो रुकिए, रास्ते में विस्टा-पोइन्ट बने हुए हैं, यहाँ ही अपनी गाड़ी रोकिए और देखिए समुद्र को उफनते हुए, लहराते हुए, इठलाते हुए। हम अपनी मंजिल पर जल्दी से जल्दी पहुँचना चाहते थे, हवाएं तेज बहने लगी थीं और ठण्ड भी अपनी तासीर दिखाने को बेताब थी।
सेनफ्रांसिस्को में गोल्डन ब्रिज है। समुद्र के ऊपर बना हुआ। उसका नाम गोल्डन क्यूँ है, यह पता नहीं चला। क्योंकि न तो उसका रंग गोल्डन है और न ही वह गोल्ड से बना है। हो सकता है कि अमेरिका के गोल्ड युग की शुरुआत उसके निर्माण के साथ ही हुई हो। वैसे भी अमेरिका की प्रगति 1936 के बाद की ही वहाँ नजर आती है। जहाँ भी गए लगभग 1936 का निर्माण ही दिखायी दिया। खैर हम गोल्डन ब्रिज की बात कर रहे थे। वहाँ से समुद्र को निहारना ऐसा लगता है जैसे आप मसूरी की ठण्ड में बर्फीली पहाड़ियों के स्थान पर, ठहाका मारते हुए समुद्र को देखें। कभी कल्पना नहीं की थी कि समुद्र किनारे भी इतनी ठण्ड होगी? लेकिन यहाँ तो लग रहा था कि शीघ्रता नहीं की तो कुल्फी जम जाएगी। एक तरफ समुद्र था तो दूसरी तरफ पहाड़। आकाश से बादल आ-आकर पहाड़ों से टकरा रहे थे। कभी गोल्डन ब्रिज के दरवाजे की ऊँचाई एक मंजिला हो जाती और जैसे ही बादलों से लुका-छिपी खेलता हुआ सूरज हमें ‘....ता’ कह देता तो हमें दिखाई देता कि अरे यह ब्रिज तो बहुत ऊँचा है। सिर को पीछे करो, और करो, जितना कर सकते हो करो, तब आप उसकी ऊँचाई नाप सकेंगे। अरे मैं फिर कहाँ भटक रही हूँ, मैं तो समुद्र के उस दूसरे किनारे पर जाने के लिए निकली हूँ जहाँ से चालीस मील की दूरी पर चल रहे जहाज अपनी मंजिल को पा लेते हैं। समझ गए न, मैं लाइट हाउस की ही बात कर रही हूँ। मैं समुद्र किनारे, रास्ता दिखाते, आकाशदीपों को सर उठाकर खड़ा होते हुए देखती रही हूँ, लेकिन यह भी दर्शनीय महत्व का हो सकता है, इस पर कभी विचार नहीं किया था। लाइट हाउस की केयर टेकर ने जल्दी से कहा कि ‘गो सून, इट इज गोइंग टू बी क्लोज’। नीचे देखा, अरे बाप रे तीन सौ सीढ़ियों को पार करके नीचे जाना था, खैर उतर तो जाएँगे लेकिन क्या ये जंग खाए घुटने वापस चढ़ पाएँगे? चलो जो होगा देखा जाएगा। आकाशदीप हमें पुकार रहा था, हमेशा दूर से ही इसे देखा है, आज पास से देखने का मौका मिला है तो फिर घुटने को तो भूलना ही पड़ेगा। एक सुंदर सी गाइड दिखा रही थी पुराने लाइट-हाउस की नयी, साफ-सुथरी मशीन को। अब तो इलेक्ट्रोनिक का जमाना आ गया तो पास ही दूसरी लाइट लगा दी गयी थी और इसे पुराने वैज्ञानिकों को याद करने के लिए छोड़ दिया गया था। चालीस मील दूर से जहाज इन लाइटों को देख पाते हैं और शहर आ रहा है, इस बात की खुशी मना सकते हैं।
पहाड़ों पर कहीं-कहीं केसरिया रंग बिखरा हुआ था, अरे यहाँ हनुमानजी कहाँ से आ गये? नजदीक गए, हाथ लगाकर देखा, अरे ये तो एल्गी है। हमारे यहाँ हरे रंग की होती है और यहाँ केसरिया है। यहाँ समुद्र के पानी को हाथ लगाने की मनाही है, लगाएँगे भी तो कैसे? एक तरफ तो पहाड़ है, वहाँ से आप उतर नहीं सकते, और दूसरी तरफ मीलों तक फैली छोटी लेकिन वीरान पहाड़ियां। समुद्री किनारा भी है और यह किनारा तकरीबन तेरह मील लम्बा है। ऊपर से समुद्र का और न ही उसके किनारे का कोई छोर दिखाई दे रहा था। बस दिख रहा था तो सफेद बालू रेत पर सुनसान तट पर आँचल लहलहाता समुद्र। आँचल भी कैसा? सम्पूर्ण विस्तार नीले रंग का और जब आँचल लहराए तो सफेदी जगमगा उठे। दूर-दूर तक कोई जानवर नहीं। हमारी आँखे तलाश रही थी, पहाड़ पर छिपे किसी जंगल के जानवर को। तभी आँखों ने जंगल की जीवन्तता को पा ही लिया, एक नहीं पूरे पाँच हिरण वहाँ बड़े ही धैर्य से घास खा रहे थे। इन हिरणों में चौकन्नापन नहीं था, यहाँ शेर नहीं थे।
पहाड़ के दूसरी तरफ समुद्र की खाड़ी थी। यहाँ समुद्री पक्षी आकाश से सीधे ही समुद्र में छलांग लगाते और अपनी चोंच को समुद्र में पूरा डुबोकर अपना नन्हा सा शिकार खोज ही लेते। अपनी काली मूछे निकाले उदबिलाव भी उचकते हुए दिखायी दे गए। गोल्डन ब्रिज के समुद्र किनारे हजारों की तादाद में समुद्री पक्षी थे। उनका शोर शाम को, खामोश समुद्र को भी मदमस्त करने पर मजबूर कर रहा था। वे सब उड़ रहे थे, एक साथ हजारों। समुद्र खुश हो रहा था, अपनी बाहें फैलाकर आगे बढ़ रहा था, चाँद पूर्ण यौवन के साथ उन्हें देख रहा था। पक्षी समुद्र के अँग-अँग को प्रफुल्लित कर रहे थे, उसके विशाल सीने पर अठखेलियाँ करते हुए आगे बढ़ते जा रहे थे। कभी इस छोर पर और कभी उस छोर पर, पक्षियों का कलरव गूँज रहा था। समुद्र खुशी से उछलता और अपने साथ ले आता समुद्री वनस्पतियाँ। भारत के समुद्री किनारों पर शंख मिलेंगे, सीप मिलेंगी लेकिन यहाँ टूट कर आयीं कुछ बेले ही मिलेंगी। हो सकता है किसी दूसरे किनारे पर शंख भी हों, सीपियाँ भी हों?
ठण्डी हवाएँ तन को लग रही थीं और मन कहीं चाय और पकौड़े वाले को ढूँढ रहा था। यहाँ कहाँ पकौड़े? किनारे पर खूब लम्बी वुड-वाक है, यहाँ खाने-पीने को बहुत कुछ है, लेकिन अपने पकौड़े नहीं। रेत पर टहलिए, पाँवों में मिट्टी लेकर घर बनाइए लेकिन चना-जोर-गर्म की आवाज लगाकर कोई लड़का आपको कुछ खाने पर मजबूर नहीं करेगा। रेत पर खोमचे वाले भी नहीं हैं, तो गंदगी भी नहीं है। लेकिन फिर भी जिधर देखो उधर डस्टबीन ही डस्टबीन रखे हैं। आदमी फेंकना चाहे तो भी न फेंक सके। कभी यहाँ आकर मन होता है कि मूँगफली खायी जाए और उनको छीलकर, फूँक मार कर छिलको को उड़ाया जाए। लेकिन सारे सुख कहाँ परायी धरती पर? एक दिन ऐसी ही एक यात्रा पर निकले थे, देखा रास्ते में फल-सब्जी की दुकान सजी है। हम भी कार को उधर ही मोड़ ले गए। चेरी, स्ट्राबेरी से लेकर कितने ही जाने-अनजाने फल और सब्जियाँ यहाँ थे। यहाँ कुछ पसन्द आया हो या नहीं लेकिन यहाँ की चेरियाँ लाजवाब हैं। ढेर सारी खरीदी गयी और घूमते-घूमते वहीं खाना शुरू किया गया। खाने के बाद पहली बार गुठली को हवा में मुँह से फेंकते हुए जो मन को आनन्द आया वह अनूठा था। लगा जैसे आज जंजीरे टूट गयी हों। समुद्र किनारे पहाड़ पर चढ़कर केला खाओ और केले के छिलके को हवा में नहीं उछालो तो फिर केले खाने का मजा ही क्या? लेकिन यहाँ तो डर इतना हावी है कि सुख लेने ही नहीं देता।
घुमावदार पहाड़ी रास्ता, अपने यहाँ लिखा मिलेगा ‘हार्न बजाएं’ और यहाँ हार्न बजाना तो जैसे रात को मंदिर में घण्टी बजाना। सभी को अपनी लेन में चलना है, ओवर-टेंकिग नहीं। सड़क पर पीली लाइन खींच दी गयी है, यदि दो लाइने हैं तो आप ओवर-टेंकिग नहीं कर सकते। हाँ डोटेड पीली लाइन है तब आप ओवर-टेंकिग कर सकते हैं। सड़क किनारे साइनबोर्ड लगे हैं स्पीड के लिए, कहीं तीस, कहीं पचास तो कहीं पेसठ। ज्यादा बढ़ाई नहीं कि कैमरे ने आपको पकड़ लिया और चालान की टिकट मिल गयी। न मंत्री पुत्र और न ही अफसर पुत्र। चढ़ाई वाले रास्ते पर जा रहे थे, तीस की स्पीड निर्धारित थी। आगे गाड़ियां उसी रफ्‍तार से चल रही थीं, हमें थोड़ी जल्दी थी, वैसे भी भारतीयों को जल्दी ही रहती है, उन्हें पता नहीं कहाँ जल्दी जाना होता है? यहाँ किसी को कोई जल्दी नहीं होती। चुपचाप लाइन में खड़े रहते हैं और काउण्टर वाला धीरे-धीरे, खरामा-खरामा काम करता रहता है। खैर हम जल्दी में थे और शायद हमें गाड़ियों के पीछे चलना सुहा नहीं रहा था। अरे होर्न दो न, लेकिन होर्न बजाना तो यहाँ वार-त्यौहार ही होता है, फिर? देखा आगे वाली गाड़ी, जगह देखकर किनारे हो गयी और हम शान से आगे निकल गए। यही है यहाँ आगे निकलने का तरीका। लेकिन यह तरीका केवल गाड़ियों के लिए ही है, आप वैसे आगे निकल कर दिखाएँ तब जाने।
हम सोचते थे कि हमारे पुरातन भारत में ही टेटू या गोदने का रिवाज है। हम कैसे उन्हें गँवार कहकर मजाक उड़ाते रहे हैं। कभी भी कोई गाँव से आता और उसके हाथों में या शरीर में गोदने का चिह्न देखते, उसे हिकारत की नजर से हम देखते आए हैं। लेकिन यहाँ देखा कि एक मोटी सी औरत कुछ छोटा सा पहने हुए घूम रही है। यहाँ छोटे की तो परवाह भी किसे है? लेकिन उसकी पीठ रंग-बिरंगी हो रखी थी। देखा अरे यह तो गोदना है। पूरी पीठ पर चित्रकारी करायी हुई थी। अब उसे दिखाना है तो फिर ठण्ड में भी छोटे कपड़े तो पहनने ही पड़ेंगे न! महिलाएँ ही नहीं पुरुष भी पूरी पीठ पर या शरीर पर गोदना करवाते हैं। मैं सोच रही थी कि सारे शरीर पर गोदने के लिए तो एनस्थिसीया का प्रयोग करते होंगे, लेकिन नहीं जी, फैशन के लिए इंसान सब बर्दाश्त करता है।
अमेरिका में विभिन्न देशों के लोग रहते हैं और सभी एक ही रंग में रंगे दिखायी देते हैं। कपड़े खरीदने के लिए एक मॉल में गए, यहाँ अपने जैसे कपड़ों का बाजार नहीं है। बस सिले-सिलाए कपड़े मिलते हैं। एक बार राजस्थान में अकाल पड़ा, जनजाति क्षेत्र में न तो खाने को और न ही पहनने को। भारत के महानगरों के सेठों ने ट्रक भरकर कपड़े भेज दिए। कुछ कपड़े नये और कुछ पुराने। लेकिन सभी गांठों में बँधे थे, इस कारण मुसे हुए थे। जब हमने इन्हें बाँटने के लिए निकाला तो मन किया कि सभी को प्रेस कराकर देने चाहिए। लेकिन वह सम्भव नहीं था, प्रेस कराने के ही हजारों रूपये लग जाते। लेकिन यहाँ मॉल में देखा कि बदरंगे, मुसे-तुसे, फटे हुए कपड़े, बड़े ही मँहगे दामों में मिल रहे थे। बेटे से पूछा कि कबाड़ी की दुकान है क्या? लेकिन उसने हँसकर कहा कि यही फैशन है। फिर यही फैशन हो भी क्यों नहीं, सारे ही कपड़े मशीन में धुलते हैं और प्रेस का किसी के पास समय नहीं तो एक धुलाई के बाद तो ऐसे ही पहनने हैं फिर नये ऐसे ही क्यों न खरीदे जाएं? कहाँ भारत के चटक रंग और कहाँ यहाँ के फीके रंग? राजस्थान तो देश ही रंगों का है। कितने चटकीले रंग हैं हमारे यहाँ? सात रंगों की चूंदड़ तो हमारी शान है। शादी में दुल्हन को इसीलिए चूंदड़ उढ़ाई जाती है कि उसमें विभिन्न रंग हैं और उसका चटकीला लाल रंग तो आपसी आकर्षण का प्रतीक। बच्चों के कपड़े भी सारे ही बदरंग। लगता जैसे पुराने हों, लेकिन पास जाने पर पता लगता कि नहीं ये तो नए ही हैं। हमारे यहाँ इतने रंग होते हैं कि कपड़ा हमेशा नया सा ही दिखता है लेकिन वहाँ इतने फीके रंग होते हैं कि नया भी पुराना सा ही दिखता है। इसलिए ही रोज नया खरीदने का मन करता है। शायद यह भी बिक्री का एक और फण्डा हो?
जब कोलम्बस यहाँ आया था तब उसने अमेरिका को ही इण्डिया समझ लिया था और इसी कारण उसने यहाँ के लोगों का नाम दिया था, रेड-इण्डियन। अब यहाँ से रेड शब्द हटता जा रहा है और सब जगह इण्डियन ही लिखा मिलता है। हम पहले तो खुश हुए कि अरे इण्डियन फूड यहाँ है फिर पता लगा कि ये सब रेड-इण्डियन्स के लिए लिखा है। हम जैसे नए लोगों के लिए अन्तर समझना कठिन हो जाता है। लेकिन भारत से आए लोगों ने यहाँ भारतीयों के खाने का पूरा इंतजाम कर रखा है। सभी कुछ उपलब्ध है, बस स्वाद में अन्तर है। यहाँ संकर प्रजाति बनाने का बड़ा शौक है तो सेव कई प्रकार के, आडू कई प्रकार के और दोनों को मिलाकर अलग से कई प्रकार के फल। तुरई एक-एक हाथ से भी अधिक लम्बी, शिमला मिर्च इतनी बड़ी की भरवा बनाने का उत्साह ही समाप्त हो जाए। किसी को बैंगन के भुर्ते का शौक हो तो अकेला एक बैंगन का भुर्ता नहीं खा सकता। एक ही बैंगन आधे किलो से अधिक का। प्याज इतने बड़े और मीठे, लगता है प्याज खा रहे है या फिर ककड़ी। लहसुन भी इतना मोटा कि एक ही गुली पर्याप्त है सब्जी के लिए। लेकिन जहाँ कुछ फलों में स्वाद की विचित्रता है वहीं कुछ फल निहायत ही स्वादिष्ट हैं। चेरी और स्ट्राबेरी की साइज भी बड़ी और स्वाद भी लाजवाब। आम भी अब बड़ी तादाद में आने लगा है, लेकिन मेक्सिको में भी आम होता है तो वहाँ से भी आम और केरी दोनों ही आती हैं। एक केरी आधा किलो से अधिक।
हमें बड़े-बड़े बाजार देखने की आदत है, लेकिन यहाँ बड़े-बड़े मॉल मिलेंगे। भारत में शाम को लोग बाजारों में घूमते हैं और यहाँ मॉल में। बाजार में ठेले वाले मिलते हैं और यहाँ मॉल में रेस्ट्रा। यहाँ रात को दस बजे बाद जन-जीवन थम जाता है, जबकि भारत में दस बजे बाद शुरू होता है। अमेरिकन्स तो रात आठ बजे ही घर को बन्द कर लेते हैं। उनके रेस्ट्रा भी शाम का खाना रात आठ बजे तक ही परोसते हैं। रात आठ बजे बाद किसी को भी फोन करना तहजीब नहीं है, मिलने जाना तो बहुत दूर की बात है। हमारे यहाँ रात को ग्यारह बजे भी घर की घण्टी बज सकती है। आपका कोई मित्र बाहर खड़ा हँसी बिखेर रहा होगा।
अरे यार इतनी जल्दी सो गए क्या? मैं तो इधर से निकला था, सोचा तुम्हारे साथ कॉफी पीता चलूँ।
बेचारा मेजबान मित्र सोने की तैयारी में हैं, लेकिन हँसकर स्वागत करता है। बोलेगा कि यार आ ना, बड़े दिन बाद तो आया है। चल आ, बाते करेंगे। फिर पत्नी को आवाज लगती है - अरे भागवान सो गयी क्या? देखो तो कौन आया है?
पत्नी भी गाउन सम्भालते हुए सकुचाते हुए आती है। अरे भाईसाहब आप? चलिए आप बैठिए मैं आपके लिए कॉफी बनाकर लाती हूँ। बस फिर शुरू हो जाती है दो दोस्तों की गपशप।
भारतीय तो वहाँ भी ऐसा ही करते है। लेकिन बहुत ही कम। क्या पता आपकी तेज आवाज से पड़ौस में डिस्टर्ब हो जाए और वे पुलिस को फोन कर दे?
यहाँ बेचारी महिलाएं साड़ी पहने रात ग्यारह बजे तक भी अपने शरीर को कसा हुआ रखती हैं। क्या पता कौन कब टपक जाए? लेकिन वहाँ जिसे आना है पूर्व सूचना के साथ, वो भी रात आठ बजे तक। फिर आप स्वतंत्र हैं चाहे तो बरमूडा पहने या गाउन।

डॉ. अजित गुप्ता