Monday, March 09, 2009

प्रभु दर्शन का खर्च

पुरी- उड़ीसा में एक ऐसा धर्म-स्थल जो रथयात्रा के लिये विश्व-प्रसिद्ध है। यहाँ देश-विदेश से भक्त जगन्नाथ(कृष्ण) भगवान के दर्शन करने आते हैं। मैं भी वहाँ गया, लेकिन पता नहीं क्यों, पर मुझे वहाँ ऐसा कुछ नहीं लगा कि मैं कह सकूँ ये भारत के प्रथम ४ मंदिरों में से एक है। या चार धामों में से एक। इसकी मान्यता बहुत अधिक है और मन्नत माँगने के लिये लोग पैदल चल कर पहुँचते हैं। लेकिन मेरे अनुभव कुछ और ही थे। मुझे वहाँ जा कर कोई खुशी नहीं मिली बल्कि दुख और आक्रोश लेकर लौटा।

हमारी गाड़ी अभी पार्किंग में ठीक से खड़ी भी नहीं हुई थी कि एक पंडा गाड़ी के बाहर आकर खड़ा हो गया। हमें शक हो गया कि अब यह पीछा छोड़ने वाला नहीं है। हमारे देश में पंडों का प्रोफेशन चोर के समान हो गया है। धार्मिक आड़ लेकर लोगों को लूटते हैं। हमें बताने लगा कि भगवान के दर्शन करायेगा, प्रसाद चढ़वायेगा, मंदिर के बारे में बतायेगा..वगैरह वगैरह और बदले में जो ’प्रेम स्वरूप’ हम देंगे वो ले लेगा। भगवान के दर्शन करवाने के पैसे...भगवान बिकाऊ हैं इस देश में...मंदिर के बाहर भगवान जगन्नाथ की छोटी प्रतिमा बेचने वाला ६० रूपये से २० रूपये पर आ गया.. धर्म स्थल पर आये हो तो यहाँ कि कोई निशानी लेकर जाओ,,भगवान का अपमान न करो... मार्केटिंग की भेंट चढ़ चुके हैं जगन्नाथ मंदिर के ’भगवान’।

अंदर घुसने लगे तो वो पंडा हमारे मना करने पर भी हमारे पीछे-पीछे आने लगा। पास से आवाज़ आई.... इस मंदिर में मुसलमानों, ईसाइयों अथवा कोई भी गैर-हिन्दू धर्म के लोग नहीं जाते.. बाहर दरवाजे पर पशुपतिनाथ जी की मूर्ति के दर्शन कर के लौट जाते हैं। अजब है इंसान भी। एक ही भगवान को अलग-अलग नाम दे कर बाँटा... फिर धर्म के नाम पर बाँटा..अब धार्मिक स्थानों को भी बाँट दिया। इसके बारे में क्या तथ्य दिया जाये? सुना है कि तिरुपति मंदिर के कुछ दूरी के घेरे तक गैर हिन्दू नहीं रह सकते। सही जा रहा है इंसान...मैंने पंडे से कारण पूछा तो उसने कहा कि यह हिन्दुओं का मंदिर है....इंदिरा गाँधी तक को अंदर नहीं घुसने दिया था!!!

थोड़ी आगे और गये। पंडे ही पंडे भरे हुए थे। भक्त व सैलानी कम थे..बाबाओं का हुजूम अधिक था। अगले दिन गोविंद द्वादशी जो थी। मना करने पर भी वो पंडा अभी भी हमारा पीछा कर रहा था। हम प्रसाद लेने पहुँचे। अलग अलग तरह के प्रसाद की लिस्ट। माफ कीजिये नाम तो मैं भूल गया। १११ रू से लेकर ५००० रू तक के प्रसाद शायद उससे भी ज्यादा.. मुझे इतना ही याद है। भगवान पैसे से खुश होते हैं। आप जितने पैसे अधिक देकर प्रसाद चढ़ायेंगे, भगवान आपसे और अधिक प्रसन्न होंगे। वैष्णों मंदिर और पुरी जैसे बड़े मंदिरों में जाकर जब इतना सब देखता हूँ तो दुखी हो जाता हूँ। खैर मुझे केवल प्रसाद लेना था... सो १११ रू वाला लिया और वो ही मुझे काफी लगा। प्रसाद आपको ऐसे नहीं मिलेगा। नाम और गौत्र बताना पड़ेगा। पर्ची पर लिखा जायेगा। हिन्दू हो तो सुबूत दो!!!

यहाँ हमारा पीछा उस "धार्मिक चोर" से छूट चुका था। माफी चाहता हूँ अगर किसी का दिल दुखा इन शब्दों से पर मुझे तो ऐसा ही लगता है। आगे बढ़े तो पग पग पर कोई न कोई पंडा हमारा प्रसाद छीनने की कोशिश करने लगता। न ठीक से हाथ जोड़ पाया न भगवान की मूर्ति को देख पाया। न दर्शन कर पाया। आरती लेने से पहले थाली में "भेंट" चढ़ाई जाती है। प्रसाद का भोग लगाने के लिये भी आपको जेब ढीली करनी ही पड़ेगी। उससे आप बच नहीं सकते। हम तो नहीं बच पाये। एक नहीं तो दूसरा चोर। यकीन मानिये मंदिर परिसर में और भी दर्जनों छोटे-बड़े मंदिर हैं लेकिन हमारा मूड इतना खराब हो चुका था कि हमने कहीं दर्शन नहीं करे और न ही इच्छा हुई। सबसे बड़े भगवान के "बड़े बड़े भक्त" जो उनके आगे-पीछे घूमते रहते हैं, बस उन्हीं के ही दर्शन हो पाये। चढ़ावे का क्या होता है ये तो वहाँ बैठा हुआ भगवान ही जाने। कोई साफ-सफाई नहीं। कहीं कोई इंतजाम नहीं। पता नहीं "वो" अपने इन "बड़े भक्तों" को कैसे झेलता है। हमारा तो आधा घंटा भी वहाँ रहना दूभर हो गया।

आप में से कोई भी यदि पुरी में दर्शन करने की सोचे तो धैर्य और चौकसी बहुत बरते, वरना हालत हमारे जैसी हो जायेगी। या फिर चोरों को "दान" कर दे। हमारे मंदिरों में माँगने का भी एक रिवाज़ है। वापस आते हुए किसी एक ने कहा कि ग्रंथों मे दान को महान कहा गया है। मैंने मन में सोचा कि भीख माँगना भी तो अपराध समान माना गया है।

क्या आपको लगता है कि यदि ऐसे ही हालात रहते हैं तो आने वाले कईं सौ साल तक भी हम तरक्की कर सकते हैं? धर्म को धर्म रहने दो...इसे पेशा मत बनाओ। बड़े मंदिरों ने ईश्वर को बेचने का धंधा बना रखा है और यही लोग खेलते हैं भक्तों की भावनाओं से।

तपन शर्मा

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9 बैठकबाजों का कहना है :

Rajesh Sharma का कहना है कि -

बहुत अच्छा वर्णन है। भगवान के कमीशन एजेंट हर मंदिर में मिल जाएंगे लेकिन हमें भीमाशंकर, त्रिम्बकेश्वर, मिल्लकार्जुन, आदि में एजेंट नहीं मिले। सभी स्थानों पर अच्छी व्यवस्था है। मिल्लकाअर्जुन में भी प्रशाद की व्यवस्था है और अलग-अलग रेट हैं लेकिन पंडे तंग नहीं करते हैं।
हम लोग धर्मभीरु होने के कारण मंदिर जाते हैं लेकिन शायद पंडों को कोई डर भी नहीं है।

भारतीय नागरिक - Indian Citizen का कहना है कि -

hiduon me sabse badi kami yahi hai, pandon ne sab jagah dukhi kar rakha hai

Anonymous का कहना है कि -

अपने आप को पर्यटक बताएं मानो भगवान् से कोई मोह न हो. फिर अन्दर अपनी श्रद्धा व्यक्त करें. जरूरत पड़े तो पंडों को गाली देकर दुत्कार दें. क्या करें इन पंडों ने लोगों को परेशान कर रखा है. यहीं नहीं और भी कई जगह यही होता है.

रंजना का कहना है कि -

आपका वर्णन बहुत सही है....वैसे भारत में सभी धर्मस्थलों पर यही स्थिति है.हम भले बकती में डूबने इन स्थलों पर जाते हैं,पर पंडों के लिए यह जीविका का साधन और व्यापार मात्र है.ये भी अधिकतम लाभ कमाना चाहते हैं..
लेकिन इनसे बचने का उपाय यही है कि,अपने ध्यान को पूर्ण रूपेण इनसे हटाकर आगे बढ़ जाइये...इनकी किसी बात का उत्तर न दीजिये,तो कुछ देर बाद इनकी अभिरुचि समाप्त हो जायेगी.हो सके तो जहाँ तीर्थ करने जा रहे हों,वहां यदि कोई परिचित हों तो उन्हें साथ ले लीजिये....लोकल लोगों को ये तंग नहीं करते.

Divya Narmada का कहना है कि -

तपन जी!
देवालयों में व्यवसाय सिर्फ हिन्दू मंदिरों में नहीं होता, अजमेर शरीफ में भी यही हाल है. मुझे गुरुद्वारों में यह देखने को नहीं मिला. इया वातावरण का कारण यह है कि अधिकांश स्थानों पर कोई व्यवसाय,या उद्योग नहीं है जो लोगों को पर्याप्त संख्या में रोजगार दे सके. भगवान कम पढ़े-लिखे, आजीविकाविहीन लोगों के पेट पालने का जरिया है. पण्डे-पुजारी, पूजन सामग्री व प्रसाद विक्रयकरता, होटल, टेक्सी, भगवान् के चित्र या मूर्ति विक्रय ही लोगों की आमदनी का ज़रिया है. यह बंद हो जाए तो लोग वहां से रोजी-रोटी की तलाश में भागने को विवश हो जायेंगे. बनारस, अलाहाबाद, ओम्कारेश्वर, श्रे नाथजी, मथुरा, द्वारका, उज्जैन आदि जगहों पर भगवान ही पूरी बस्ती को पाल रहे हैं. सरकार या प्रशासन कुछ नहीं कर रहे.

अजित गुप्ता का कोना का कहना है कि -

सच में पुरी के मन्दिर में जाने का मन नहीं करता, पण्‍डों के कारण। यह भी सच है कि इनकी आजीविका का साधन भी यही है। प्रशासन को कहीं न कहीं पर्यटकों को राहत देनी चाहिए। मेरा अनुभव तो आपसे भी बहुत खराब है। आपने विषय उठाकर बड़ा ही नेक काम किया है।

Unknown का कहना है कि -

आज कल ऐसा ही चल रहा है सब जगह, मै आचार्य जी के तर्क को भी काफी हद तक ठीक मानता हूँ, लेकिन मुझे लगता है वो अगर सब भगवान पर छोड दे,लोगो को तंग ना करे और गरीबो की मदद करे तो लोग ज्यादा दान करेगे

GAURAV का कहना है कि -

तपन जी अपने एक बहुत सही विषय उठाया है. आज कल लोगो का मंदिरों से मन हटने का एक कारण ये भी है. लोग वहा मन की शांति के लिए जाते है और भगवन का व्यवसाय देख कर दुखी दिल से लौट जाते है . मै भी माता किए दर्शन हेतु जम्मू गया था पर वह पर मुझे धर्म के सोदगारो नै बोला किए वो माता के भक्तो की सेवा किए लिए है और मै उनकी स्थान पर तैयार होकर माता के दर्शन किए लिए जाओ ...कोई शुल्क नहीं है बस माता का परसाद खरीद लू ....बाद मै पता लगा किए १०० रूपये का प्रसाद मुझे ५०० में दिया गया है और उस में भी आधा सामान में मंदिर मे वर्जित था सो मुझे बाहर फेकना पड़ा .... आप सब लोग भी जरा सावधान रहे

manu का कहना है कि -

होता तो एकदम ऐसा ही है,,,,,मगर जाना जरूरी ही है तो थोडी सी समझ बूझ का इस्तेमाल कर के इस से बचा जा सकता है,,,,वैसे यदि किसी का पेट अगर भगवान् के नाम पर ऐसे भी भर जाए तो कुछ ख़ास बुरा नहीं मानता मैं,,,,,
और ना ही इस से श्रद्धा में कोई फर्क पड़ता,,,,वो और बात है के मुझे भीड़ भाद वाले इलाके पसंद नहीं हैं,,,चाहे वो मंदिर ही क्यूं ना हो,,,,,,

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