Sunday, April 19, 2009

चीनी: राजनीति का शिकार- बिकेगी 30 रुपए

देश में महंगाई की दर भले ही गिर कर 0.18 प्रतिशत रह गयी हो लेकिन यह एक कटु सत्य है कि देश में महंगाई कम नहीं हुई और चीनी के भाव तो मानो केंद्रीय सरकार को मुँह चिड़ा रहे हैं। सरकार की हर कार्यवाही के बाद चीनी के भाव में तेजी ही आ रही है। और शायद यही कारण है कि केंद्रीय सरकार चीनी के भाव पर लगाम लगाने के लिए कदम उठाती आ रही है।
वास्तव में सरकार चीनी के भाव को रोकने के लिए अपने तरकश के सभी तीरों को प्रयोग कर चुकी है लेकिन किसी का स्थाई असर भाव पर नहीं हुआ है। इसका कारण सरकारी नीतियाँ ही हैं।
चीनी के भाव में तेजी की नींव तो दो वर्ष पूर्व उस समय ही पड़ गई थी जब देश में चीनी का रिकार्ड उत्पादन हुआ था और चीनी के भाव सरकारी नियंत्रण के कारण बढ़ नहीं पा रहे थे जबकि सभी जिंसों के भाव में तेजी आ रही थी। इससे चीनी मिलों को घाटा हुआ और वे गन्ना उत्पादकों को समय पर भुगतान नहीं कर पाई। परिणाम स्वरुप किसानों ने गन्ने की बुआई कम की और गन्ने का उत्पादन कम हुआ और उसका नतीजा अब उपभोक्ता को भुगतना पड़ रहा है।
यह एक कटु सत्य है कि देश में चीनी उत्पादन में सरकारी नीतियां महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है और यह भी हकीकत है कि गन्ने पर राजनीति भी होती है। और इसके साथ यह भी कटु सत्य है कि चीनी और गन्ना लॉबी सशक्त भी है।
चीनी और गन्ने के उत्पादन में पहला स्थान महाराष्ट का है और दूसरा उत्तर प्रदेश का। दोनों ही राज्यों में गन्ने के भाव को लेकर राजनीति होती है और गन्ना उत्पादकों के वोट प्राप्त करने के लिए राज्य सरकारें गन्ने के जो भाव तय करती हैं वे केंद्रीय सरकार द्वारा तय किए गए कानूनी भाव की तुलना में कहीं अधिक होते हैं। इससे चीनी की उत्पादन लागत बढ़ती है।
दूसरी ओर, चीनी के भाव पर केंद्रीय सरकार का अप्रत्यक्ष नियंत्रण है। सरकारी राशन में देने के लिए मिलों के कुल उत्पादन का 10 प्रतिशत भाग लेवी के रूप में लेती और उसके भाव बाजार भाव की तुलना में बहुत ही कम होते हैं।
मिलें शेष मात्रा को खुले बाजार में बेचती हैं लेकिन वह मात्रा केंद्रीय सरकार तय करती है। बस यहीं से गड़बड़ आरंभ होती है। केंद्रीय सरकार चीनी के भाव रोकने के लिए अधिक मात्रा जारी करती है और मिलों को अनेक बार घाटे में चीनी बेचनी पड़ती है लेकिन जल्दी ही इसकी भरपाई कर ली जाती है।
वास्तव में कानून कहता है कि जो मिलें आबंटित मात्रा को बाजार में न बेचें सरकार उसे लेवी के भाव-जो खुले बाजार की तुलना में कम हैं-पर खरीद लें। लेकिन ऐसा आज तक नहीं हुआ है। इससे मिलों में कोई डर नहीं है। वे अपनी इच्छानुसार बाजार में चीनी बेचती हैं और अनबिकी मात्रा को अगले माह बेचने के लिए सरकार से अनुमति ले आती हैं।

वर्तमान स्थिति
चीनी में वर्तमान स्थिति के लिए भी सरकार ही दोषी है क्योंकि उसने समय रहते स्थिति का अनुमान नहीं लगाया। चीनी वर्ष 2008-09 अक्टूबर-सितम्बर के दौरान आरंभ में ही चीनी का उत्पादन कम होने के अनुमान मिल गए थे लेकिन सरकार अधिक उत्पादन की बात करती रही। पहले सरकारी अनुमान 220 लाख टन के उत्पादन का था लेकिन अब इसके घटकर 150 लाख टन पर सिमट जाने का अनुमान है। गत वर्ष यह 264 लाख टन था।
बकाया स्टाक पर मिलों और सरकार के बीच मतभेद है। सरकार कहती है कि गत वर्ष का बकाया स्टाक 105 लाख था लेकिन मिलें, जिनके पास वास्तव में चीनी होती है, कहती हैं कि बकाया स्टाक 80 लाख टन से अधिक नहीं है। बकाया स्टाक और चालू वर्ष के उत्पादन को मिलाकर चीनी की कुल उपलब्धता 230 लाख टन बैठती है जबकि खपत का अनुमान लगभग 250 लाख टन का है। कुछ माह पूर्व पूर्व सरकार ने कच्ची चीनी के आयात की अनुमति दी है और लगभग 20 लाख टन के आयात का अनुमान है लेकिन एडवांस लाईसेंस के तहत लगभग 30 लाख टन चीनी निर्यात भी की जा चुकी है।
इससे स्पष्ट है कि देश में चीनी की कुल उपलब्धता खपत की तुलना में कम होगी।
अब सरकार ने सरकारी एजेंसियों को 10 लाख टन रिफाईंड चीनी का आयात शुल्क मुक्त करने की अनुमति दी है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि इससे देया में चीनी की उपलब्धता बढ़ेगी लेकिन आयातित लागत देश में चल रहे भाव के आसपास ही होगी।

30 रुपए किलो
चीनी की उपलब्धता और खपत का गणित और विश्व बाजार में चीनी के भाव को देखते हुए एक बात स्पष्ट है कि इस वर्ष जल्दी नहीं तो त्यौहारों के अवसर पर तो खुदरा बाजार में चीनी 30 रुपए प्रति किलो बिक ही जाएगी और यदि यह स्तर पार कर जाए तो कोई आश्चर्य नहीं होगा।
इस समय खुदरा बाजार में भाव 28 रुपए प्रति किलो तो हो ही चुके हैं।

--राजेश शर्मा

आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)

3 बैठकबाजों का कहना है :

संगीता पुरी का कहना है कि -

चीनी ही नहीं ... बहुत सारी वस्‍तुओं के दाम बढें हैं ... पर महंगाई दर कम कही जा रही है ... ऐसी स्थिति में कहीं अर्थशास्‍त्र के नियम ही न बदलने पडें।

Divya Narmada का कहना है कि -
This comment has been removed by the author.
Divya Narmada का कहना है कि -

शक्कर मंहगी होना पर...

दोहा गजल

आचार्य संजीव 'सलिल'

शक्कर मंहगी हो रही, कडुवा हुआ चुनाव.
क्या जाने आगे कहाँ, कितना रहे अभाव?

नेता को निज जीत की, करना फ़िक्र-स्वभाव.
भुगतेगी जनता 'सलिल', बेबस करे निभाव.

व्यापारी को है महज, धन से रहा लगाव.
क्या मतलब किस पर पड़े कैसा कहाँ प्रभाव?

कम ज़रूरतें कर'सलिल',कर मत तल्ख़ स्वभाव.
मीठी बातें मिटतीं, शक्कर बिन अलगाव.

कभी नाव में नदी है, कभी नदी में नाव.
डूब,उबर,तरना'सलिल',नर का रहा स्वभाव.

***********************************

आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)