चार महीने हुए मुम्बई में आतंकी हमला हुए। उतना या उसके आसपास ही समय था जब पाकिस्तान के स्वात में तालिबान ने कब्ज़ा करना शुरु किया था। कम से कम टीवी पर तो उन्हीं दिनों खबरें आनी शुरू हुई थीं। वो दिन है और आज का दिन कोई "प्राइम टाइम" ऐसा नहीं जाता जब तालिबान-पाकिस्तान की चीखें न सुनाई दे रही हों। न्यूज़रूम में बैठे न्यूज़रीडर गला फाड़-फाड़ कर तालिबान की कहानी सुनाते आ रहे हैं। तालिबान क्या करता है, कहाँ रहता है, कब किस से मिलता है, क्या खाता है, पीता है..ऐसे कितने ही अनगिनत बातें हैं जो खुद तालिबान को नहीं पता होंगी।
लगता है आजकल की खबरें मीडियारूम में बैठ कर ही बन जाती हैं। कुछ वीडियो तो इन चैनलों के "होनहार दर्शक" भेज देते हैं तो कुछ यूट्यूब की मेहरबानी से मिल जाते हैं। ऐसी-ऐसी भयानक खबरें दिखाई जाती हैं जिसे कमजोर दिल वाले न ही देखें तो अच्छा। और ऐसी चेतावनी लिखी भी होती है। एक बार दिखा रहे थे कि तालिबानी कैसे किसी की हत्या कर देते हैं, तो एक वीडियो में लाश के साथ खेलते हुए दिखाया गया। ऐसे दृश्य होते हैं जिससे घिन्न आने को भी होती है। तालिबान ने स्वात पर कब्ज़ा कर लिया है, यहाँ बमबारी हो रही है, फाटा की ओर बढ़ रहे हैं, अब कराची पर हमला करेंगे, लाहौर के हमले में उनका हाथ था, भारत से कितनी दूर है तालिबान और ऐसी ही बहुत सी बातें हैं, किस्से हैं, कहानियाँ हैं जो आये दिन टीवी पर देखे जा सकते हैं। फलां आतंकवादी तालिबानी था... ये उनका कमांडर है... और कईं बार तो गौर से देखने को कहते हैं। मुझे लग रहा था कि अब तो चुनाव आ गये हैं, तो ये खबरें कुछ कम हो जायेंगी। पर मेरा सोचना गलत था। आज भी ये बदस्तूर जारी हैं।
कभी कभी सोचता हूँ कि क्या ११० करोड़ की आबादी वाले हमारे देश में खबरें खत्म हो गई हैं? क्या संवाददाताओं ने बाहर निकलना बंद कर दिया है? भारत में लोग भूखे मर रहे हों तो कोई बात नहीं, तालिबान के पास खाने को कुछ न हो तो ख़बर बनती है। पूर्वोत्तर के राज्यों में बम ब्लास्ट की खबर स्क्रीन के नीचे लिखी जाती हैं (कईं बार तो पता भी नहीं चलता)पर लाहौर, कराची के हमले ब्रेकिंग न्यूज़ में जगह बनाते हैं। उड़ीसा में तूफान आये तो कोई बात नहीं, इस्लामाबाद में एक गोली भी चले तो ब्रेकिंग न्यूज़ बनती है। भारत में मंत्री चाहें रहे या न रहें, लेकिन पाकिस्तान में प्रधानमंत्री कौन बनेगा इस पर चर्चा जरुर होती है। आखिर क्यों?
पाकिस्तान और तालिबान ने हमारे चैनलों पर कब्जा कर लिया है। अब हमें भारत के बारे में जानने की जरूरत नहीं है। हमें चिंता होनी चाहिये तालिबान की, पाकिस्तान की। अमरीका ड्रोन हमला करता है तो सबसे पहले आप तक मीडिया पहुँचाता है, कभी रोबोटी कुत्ता भेजता है तो आधे घंटे का एपिसोड तो बनेगा ही। तालिबान के वीडियो दिखाये जाते हैं। उनका इलाका दिखाया जाता है। आतंकवादी दिखाये जाते हैं।
आखिर ये सब दिखा कर मीडिया चाहता क्या है? यदि हम ये मान लें कि इससे हम सचेत होते हैं, तो मुझे लगता है कि यह कहना गलत होगा। बल्कि इससे हमारे मन में ख़ौफ़ पैदा हो रहा है। ख़ौफ़ तालिबान के हमले का..खौफ ओसामा बिन लादेन का। खौफ दिल्ली में बम ब्लास्ट का, खौफ पाकिस्तान के खत्म होने का.... और न जाने ऐसे कितने ही खौफ हैं जिन्हें हम अपने मन में लिये चलते हैं। हाँ, ये बात सही है कि हमें पाकिस्तानी और तालिबानी गतिविधियों पर निगरानी रखनी चाहिये ताकि भविष्य में किसी भी हमले के लिये हम तैयार हो पायें। लेकिन इसका यह मतलब कतई नहीं कि आप टी.आर.पी की होड़ में दर्शकों और जनता के दिलों में डर पैदा करें। मीडिया में पाकिस्तानी-तालिबानी प्रेम इतना फ़ैला हुआ है कि एक बार इसके विरोध में रहने वाला एक चैनल भी यही प्रोग्राम दिखाने पर मजबूर हो गया। आम दर्शक सहमा हुआ रहता है। पूरे दिन लोगों में आपस में भी यही चर्चा गरम रहती है। पाकिस्तान-तालिबान, तालिबान-पाकिस्तान...पर इन दोनों को बीच में पिस गया है हिन्दुस्तान...कहते हुए मुझे कोई संशय नहीं है कि पड़ोसी देश इतना आतंक नहीं फैला रहा है जितना हमारे देश का ये गैरजिम्मेदार मीडिया...
तपन शर्मा
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8 बैठकबाजों का कहना है :
तपन जी
आज आपने ऐसा मुद्दा उठाया है कि लगा अभी भी भारत का दिल धड़क रहा है नहीं तो मीडिया को देखकर तो लगता है कि हम एक मृत देश में रहते हैं जहाँ मीडिया भस्मासुर बनकर लाशों को निगल कर उत्सव मना रहा है। पहले यह देश नौकरशाही से दुखी था तो राजनेता आए, फिर राजनेताओं से परेशान हुए तो मीडिया आया। लेकिन अब कहाँ जाए आम आदमी? आज इस देश का जितना नुकसान राजनेता पहुंचा रहे हैं उससे अधिक ये मीडियकर्मी पहुंचा रहे हैं। उन्हें तो कम से कम जनता के समक्ष जाना ही पड़ता है लेकिन इन्हें तो किसी का भी डर नहीं है।
तपन जी लेख के लिए धन्यवाद |
आप तालिबान तक ही क्यों सीमित होते हो ? अक्सर ऐसा ही हो रहा है किसी ना किसी मुद्दे को लेकर |
अधिकतर समाचार ऐसे ही बनाए जाते है और परोसा जाता है |
एक व्यक्ति आत्म दाह करता है लेकिन उसे बचाने के बजाय, उसकी ख़बर बनाकर लाइव दिखाते है |
सबसे अच्छा चैनल बनने की होड़ में और बिजिनेस को सामाजिक सुधार से ऊपर रखने के कारण, सब खो रहा है |
हर क्षेत्र और हर समय , बिजनेस के साथ साथ सामाजिक सुधार का काम हो सकता है |
फ़िर भी कुछ मीडिया के लोग बहुत अच्छा काम करते हैं, उन्हें बधाई |
सुधार की आशा के साथ,
अवनीश तिवारी
श्रीमती अजित गुप्ता जी ने ठीक कहा है। कुछ समय पूर्व ब्यूरोक्रैटों और राजनेताओं की साँठगांठ को भ्रष्टाचार का मुख्य कारण माना जाता था। अब मिडिया और राजनेता मिलकर भ्रष्टाचार कर रहे हैं।
- मिडिया नेताओं के भोपू का काम कर रहा है।
- मिडिया लोगों को वास्तविक मुद्दों के बजाय बनावटी और असार मुद्दों में फंसाये रखता है।
- मिडिया तिल् को ताड़ और पहा।द को राई बना देता है।
गैर जम्मेदार दूरदर्शनी पत्रकारों को मुंबई बम कांड के बाद जनता ने सबक सिखाया तो कुछ दिन ये सुधरते लगे किन्तु श्वान की दुम की तरह फिर बिना बात उत्तेजना पैदा करना, आधारहीन समाचार देना,,अंध विश्वास या भय पैदा करनेवाले समाचार देने लगे. नेता-अफसर-पत्रकार के त्रिगुट ने आम आदमी की नक् में दम कर दिया है. कोंई नागों की कपोल कल्पित कथायें कह रहा है, तो कोंई पौराणिक पात्रों के स्थानों को ले आया है...आतंकवादियों की इतनी जानकारी इन्हें है तो क्यों न फौज के साथ इन पत्रकारों को ही भेज दिया जाए कि ये आतंकियों को कैद करादें.
हेडिंग पढ़कर ही मैं हड़क गया...भैया भाग चलो यहां से नहीं तो कुछ जूते मेरे हिस्से भी आ जाएंगे...पर, पूरा पढ़कर लगा कि बहुत गलत नहीं कहा आपने...
आलोक सिंह "साहिल"
आलोक भाई, शिकायतें तो बहुत हैं मुझे मीडिया से.. खासतौर पर टेलीविज़न मीडिया..
पर आप घबराइये नहीं..मैं कुछ नहीं कर रहा.. :-)
अवनीश जी.. इस बार केवल आतंकवाद और तालिबान-पाकिस्तान के नारों पर ही लिखा.. कुछ समय पूर्व धर्म और मीडिया पर भी लिखा था..
http://tapansharma.blogspot.com/2008/07/blog-post.html
मैंने कहा न..मुझे मीडिया से बहुत सी शिकायतें हैं..
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