जब मस्ती के दिन थे...सन् 1969 की बात है. तब उत्तर प्रदेश में अचानक मध्यावधि चुनाव घोषित हो गए थे. एक तो हमारी पढ़ाई में खलल, ऊपर से बाज़ार जाओ तो कानों में बेइंतहा चुनावी शोर. मैं उन दिनों चूड़ियों के शहर फ़िरोज़ाबाद में एम.एस.सी (गणित) पढ़ रहा था.
वैसे शोर के बावजूद बाज़ार में घूमना रोचक भी लगता था. सदर बाज़ार तो था भी बहुत लंबा. कम से कम दो किलो मीटर तो होगा ही. संकरी और लगभग पथरीली सी सड़क, जिस पर आम दिनों में जाओ तो लोगों का एक अंतहीन रेला सा नदी की तरह बह रहा होता. उस पर रिक्शों का सैलाब. चूड़ियों वाले तो हर दस कदम पर. फ़िरोज़ाबाद में छोटे बड़े कई कारखाने थे.. चूड़ियों के जब बाज़ार जाते थे तो कांग्रेस का गीत ज़ोर ज़ोर से बज रहा होता-
भूल न जाना भारत वालो किसी की होड़ा-होड़ी में
देख भाल कर मोहर लगाना दो बैलों की जोड़ी में यानी दो बैलों की जोड़ी तो कांग्रेस का चुनाव-चिह्न था. बाद के वर्षों में जब बाबू जगजीवन राम कांग्रेस से अलग हो गए, तो दो बैलों की जोड़ी का चुनाव चिन्ह ख़ुद हड़पना चाहते थे. ऐसे में दिल्ली के करोल बाग़ में अटल जी (वाजपेयी) ने अपनी एक सिंह गर्जना में कहकहों का तूफ़ान सा बर्पा करते कहा था-
'अरे दो बैल हैं. चुनाव चिह्न पर लड़ते क्यों हो. एक बैल इंदिरा जी ले लें, एक जगजीवन राम बाबू!' चुनाव के वो दिन सचमुच बहुत रोचक होते थे. आज की तरह दूरदर्शन नहीं था, इस लिए सब नेता करीब से दर्शन देने नज़दीक नज़दीक आते थे. यानी मोहल्लों या बाज़ारों में जन-सभाएं होती थी. बाज़ार से गुज़रो तो दुकानों के काउंटरों पर मुक्के पड़ रहे होते, क्यों कि गर्मजोशी से बहुत लोग आपा खो कर बहस कर रहे होते थे -
'जनसंघ ख्वामख्वाह टांग अड़ाता है'. दूसरा चीख पड़ता-
'यहाँ निर्दलीय का निर्वाचन क्षेत्र है. पर कांग्रेस-जनसंघ मिल कर चलें तो निर्दलीय जो बिकाऊ होते है, सब की मिट्टी पलीत हो जाए' -'ये तो बेवकूफों वाली बात हो गई. कांग्रेस-जनसंघ कब मिले थे कब मिलेंगे भला? इस जनम में तो नहीं'. भारतीय जनता पार्टी का पहला अवतार भारतीय जनसंघ होता था, जो डॉ श्यामाप्रसाद मुख़र्जी ने बनाया था. जगह जगह डॉ श्यामा प्रसाद मुख़र्जी के पोस्टर लगे होते. साथ में चुनाव चिह्न छापा होता. दीपक. पर सचमुच, फ़िरोज़ाबाद तो निर्दलीय का निर्वाचन क्षेत्र था. चूड़ियों के तीन कारखाने चलाने वाले एक राजाराम चुनाव लड़ते थे, जिन का चुनाव चिन्ह था शेर. राजाराम को अपने कारखानों के मज़दूरों व मज़दूर-परिवारों का ज़बरदस्त समर्थन हासिल रहता था.
अक्सर रात 11 बजे तक पढ़ते पढ़ते बाज़ार घूमने निकल जाओ तो कभी पता चलता था वहां, अन्नपूर्णा होटल के नीचे अटल जी आ रहे हैं. तेज़ तेज़ दौड़ कर उत्तेजना में लोग वहां पहुँचते थे. वाजपेयी का भाषण 'मिस' कर गए तो बाकी ज़िन्दगी में बचा क्या. जा के जहर खाएं और क्या. वाजपेयी उस संकरी सी सड़क की जन-सभा में अक्सर मुस्करा कर लोगों से बतिया से रहे होते. कहते -
'भई, चन्द्रभानु गुप्त कहते हैं कि मेरी 295 सीटें आएंगी विधान-सभा में! अगर शेखियां ही बघारनी हैं तो चन्द्रभानु जी कहो कम से कम चार सौ सीटें आएंगी मेरी! यह क्या कि जैसे 'बाटा' के जूते के भीतर कीमत छपी होती है - चौंतीस रूपए पच्चानवे पैसे'! लोगों का हँस हँस कर बुरा हाल होता.
सिनेमा के बहाने चुनाव प्रचार...पर यह लेख तो मैं एक अन्य, निर्दलीय प्रत्याशी पर लिखने जा रहा था. वैसे कुछेक अपवादों को छोड़ कर देखा जाए, तो एक बार जनसंघ नेता बलराज मधोक ने दिल्ली की एक जनसभा में जो कहा था, वह अक्षरशः सत्य है. निर्दलीय तो होते ही नीलामी की चीज़ हैं. फ़िरोज़ाबाद में भी जब पढ़ पढ़ कर थक जाओ तो जा कर कुछ मित्र लोग सिनेमा-हॉल में बैठते थे. कोई कोई रिक्शे वाला मज़ाक करता था -
'बाबूजी विजय टाकीज़ में आग लग गई'! -
'हैं! मैं चीख पड़ता, विजय टाकीज़ में आग लग गई? कब? कब'? रिक्शे वाला हंस पड़ता. उसके पीले दांतों वाली बतीसी को मैं पीछे, रिक्शे की सीट पर बैठे बैठे ही महसूस कर लेता. वह रिक्शा खींचता खींचता खींईं खींईं कर के हँसता और कहता-
'बाबूजी 'आग' तो फ़िल्म का नाम है. फिरोज़ खान की. विजय टाकीज़ में 'आग' फ़िल्म लग गई'! मुझे लगता कि अब वह ऐसे खींईं खींईं करेगा कि मुंह से झाग निकलने लगेगी.
सिनेमा शुरू होने से पहले चुनावी स्लाइड्स देखो जी!
कोई हाथ जोड़ कर बगुला -भक्ति करता वोट मांग रहा है, कोई गरजने वाले पोज़ में खड़ा भाषण झाड़ रहा है, जैसे फ़िल्म का मज़ा किरकिरा करने आया है. एक प्रत्याशी ने तो गज़ब कर दिया. पहले हफ्ते स्लाइड आई, हाथ जोड़ कर कह रहा है -
'मैंने जनसंघ के पक्ष में नाम वापस ले लिया है. कृपया मुझे वोट न दे कर जनसंघ को दें'. कुछ दिन बाद उसी प्रत्याशी का एक और स्लाइड. हाथ जोड़ कर बगुला-भक्ति -
'मैंने नाम वापस लेने का निर्णय वापस ले लिया है. कृपया मुझे ही वोट दें'. फ़िर कुछ दिन बाद वही बगुला भगत सामने-
'मैंने कांग्रेस के पक्ष में अपना नाम वापस ले लिया है. कृपया मेरे मतदाता कांग्रेस को वोट दें'! पता चला कि उस का तो मकान गिरवी रखा हुआ था. ऐसे बार बार कलाबाज़ियां करते करते गिरवी मकान छूट गया! वाह भई वाह! जय हो...
अथ श्री गोस्वामी कथा....एक श्रीमान गोस्वामी पर यह संस्मरण लिखने चला था. जाने कितनी बातें और लिख गया. पर अब बस केवल गोस्वामी जी की बातें. पूरे फ़िरोज़ाबाद में तहलका मचा रखा था. जितनी हँसी उन के बारे में सोच कर आती, किसी भी प्रत्याशी के बारे में सोच कर न आती. उन का चुनाव चिह्न था साइकिल. खासे मोटे थे. चुनाव जीत गए तो विधान सभा में अच्छा खासा नमूना भी बन जाएंगे. कोई कहता-
'ये चुनाव जीत गया तो सब इसे कांग्रेसी ही समझेंगे, क्यों कि कांग्रेसी बहुत खाते पीते हैं न'! कोई कहता
'क्या बात करते हो भई? क्या जनसंघियों के खाने के दांत नहीं हैं? या उनकी पत्तल में कोई कुछ डालता नहीं. वो तो और भूखे हैं. पॉवर नहीं है न'! -
'सब के सब एक ही थैली के हैं स्साले...' बहरहाल. गोस्वामी जी कहीं भी चुनाव प्रचार करने नहीं जाते थे. जिस अन्नपूर्णा होटल का ज़िक्र ऊपर आया है, उस के साथ वाली तीन-मंज़िला इमारत में सब से ऊपर वाली मंज़िल गोस्वामी जी का घर. उस के ऊपर घर की छत. वहां एक बड़े से तख्त पर गोस्वामी जी ने खूबसूरत सा एक मंच बना रखा था. रंगीन डिज़ाइन-दार चद्दरों से ढका हुआ. मंच पर हर समय गोस्वामी जी हाथ में माइक लिए पल्थी मार कर विराजमान रहते. उन के पीछे एक और ऊंचे तख्त पर उन की सुंदर सी साइकिल रखी रहती, जो चुनाव में नामांकन भरते ही शायाद नई नई ख़रीदी गई थी. साइकिल बड़ी शानदार सी लगती. साइकिल के पीछे रंगीन कपड़े का एक विशाल सा बैनर होता, जिस पर लिखा होता-
जनता ने भर दी है हामी, एम एल ए होंगे गोस्वामी
जनता ने भर दी है हामी, एम एल ए होंगे गोस्वामी! और केवल लिखे रहने से क्या होता है! गोस्वामी जी के हाथ में माइक जो है. सुबह सात बजे से रात ग्यारह बजे तक वे एक ही राग आलापते-
जनता ने भर दी है हामी, एम एल ए होंगे गोस्वामी!
जनता ने भर दी है हामी, एम एल ए होंगे गोस्वामी! अब आप कल्पना करें ज़रा. सुबह नौ बजे के बाद ही सदर बाज़ार की पतली सी सड़क की हालत कुछ और पतली होनी शुरू हो जाती. सड़क पर लोगों का, रिक्शों का और रिक्शों में घूमते पोस्टरों का एक सैलाब सा. उस पर कई आवाज़ें एक साथ आती हैं:
जीतेगा भाई जीतेगा
दीपक वाला जीतेगा! दीपक के बिल्ले भी बच्चे -बच्चे की कमीज़ पर होते, और दो बैलों की जोड़ी के भी. कांग्रेस का चलता फिरता ग्रामोफोन ज़ोर ज़ोर से बज रहा होता-
भूल न जाना भारत वालो किसी की होड़ा-होड़ी में
देख भाल कर मोहर लगाना दो बैलों की जोड़ी में
कांग्रेस ही पार करेगी इस भारत की नैया को
भूल न जाना भूल के देश की नैया के खेवैया को इतने में एक लंबे से टेंपो को चारों तरफ़ से ढकते चार खूंखार शेर पहियों पर धीरे धीरे आगे बढ़ रहे होते. ये राजाराम चूड़ियों वाले के होते. शेरों के जबड़े इतने खूंखार तरीके से खुले होते, जैसे ये जनसंघ-कांग्रेस, दोनों को निगल जाएंगे. यह सारा सैलाब मानो इन शेरों को ही समर्पित है...
और इस सब के बीच लोगों के कानों में रस घोलता सा एक चुनावी भजन-
जनता ने भर दी है हामी, एम एल ए होंगे गोस्वामी! लोग गर्दन में दर्द के बावजूद मुस्कराते और ऊपर देखते, क्यों कि केवल भजन की आवाज़ से ही पूरा मज़ा कहाँ आता है भला. गोस्वामी जी देखो तो, कितनी लय में आगे पीछे झूमते भी रहते हैं. जैसे विधान-सभा की बैकुंठ में पहुँच ही गए हों... जैसे ठुमरी में भाव बदल-बदल कर एक ही पंक्ति गई जाती है,
'पिया तोरी मुरली की धुन्न लागे प्यारी', 'पिया तोरी मुरली की धुन्न लागे प्यारी' कभी उलाहना तो कभी चुनौती. गोस्वामी जी भी सुर बदल बदल कर गाते-
जनता ने भर दी है हामी एम एल ए होंगे गोस्वामी... कभी कभी तो कई लोग रुक कर खूब हँसते. जितने मोटे गोस्वामी जी, उतनी ही, उनसे मुकाबला सा करती उन की घरवाली. हालांकि जब वह छत पर प्रकट होती, तो हाथ में चाय का कप या पानी का गिलास लिए होती. पति की तरफ़ बढ़ते बढ़ते उसे भी ज़ोरों की हँसी आ रही होती. वह पति से माइक ले कर मोटी लेकिन बेहतर आवाज़ में गाती-
जनता ने भर दी है हामी एम एल ए होंगे गोस्वामी...
जनता ने भर दी है हामी एम एल ए होंगे गोस्वामी... इस बीच गोस्वामी जी या तो चाय पी लेते या पानी-वानी. या थोड़े से अदृश्य हो कर खाना खा लेते. कभी उन की, कॉलेज में पढ़ने वाली, सांवली और अच्छे हाव-भाव वाली, आकर्षक, लम्बी सी बिटिया भी आ जाती. उसे तो और अधिक हँसी आती रहती, जिसे देख गोस्वामी भी मुस्करा देते. बेटी खड़े खड़े ही माइक ले कर सुरीली आवाज़ में गुनगुनाती सी, जैसे केवल साथ दे रही हो-
जनता ने... चुनाव से दो दिन पहले ही शाम साढ़े चार बजे प्रचार बंद. सारा शोर-गुल थम गया. केवल दुकानों पर चिल्लाते लोग. और काउंटरों पर पड़ते मुक्के. या तेज़ तेज़ बहस कर के जाते लोग. गालियाँ भी उछलती. संवेदनाएं भी उमड़ती. शर्तें भी लगती. किसी किसी का रक्त-चाप भी 'हाई' हो जाता. और बस, इंतज़ार की घड़ी ख़त्म. चुनाव की सुबह आ गई. लोग सुबह से ही तैयार हो कर जाने लगे हैं. पार्टियों के कार्यकर्ताओं की साइकिलें दौड़ रही हैं. कैसे भी, दोपहर से पहले ही काफ़ी ऊंची-प्रतिशत में मतदाता मतदान केन्द्र पर पहुँच जाने चाहियें. बस, अधिक से अधिक मोहरें हमारी पार्टी के नाम लगें... नहीं तो... राजा राम का श्श्शेर ही गरजता रहेगा इस शहर में स्साला...
इस बीच गोस्वामी जी के क्या हाल हैं? क्या वे घर में आराम कर रहे हैं? अजी नहीं. जनता इतनी बड़ी हामी भर दे, और गोस्वामी जी आज के दिन भी घर बैठे रहें! गोस्वामी जी तो अपने उसी आसन पर विराजमान हैं. गोल-गोल से तकिये पर पीठ टिकाए. आज हाथ में माइक नहीं है, क्यों कि आज तो अनुमति ही नहीं है न!...
पर गोस्वामी जी अब लोगों के सैलाब को बढ़ते देख यह आभास देने लगे हैं कि सारी जनता उन से आशीर्वाद ले कर जा रही है. सो वे अच्छी तरह पल्थी मार कर हाथ जोड़ कर बैठ जाते हैं. जब उन्हें लगता है कि कुछ लोग ऊपर देख मुस्करा रहे हैं, तो वे मुस्करा कर दाहिनी हथेली से उन्हें आगे बढ़ने का इशारा कर देते हैं, जैसे सैलाब की लहर को आगे उलीच रहे हों. जब वे अदृश्य होते हैं तो उनके स्थान पर विराजमान है उन की घर वाली! बेटी आस-पास ही खड़ी-खड़ी नीचे की रौनक देख रही है, और मुस्कराती ऐसे है, जैसे न जाने किस हसरत से सब को जाता देख मुस्करा रही है. जैसे वह ख़ुद, उन का हिस्सा बन कर कहीं जाना चाहती है. लोग यहाँ से गुज़रते हुए खींईं खींईं करते अपने आगे बढ़ कर जाते हुए साथियों को रोक कर कहते जा हैं-
जनता ने भर दी है हामी! और अब क्लाईमैक्स...शाम चार बजे ही गोस्वामी जी ख़ुद हरकत में आ जाते हैं. उन की जो साइकिल उन के पीछे रखी रही इतने दिन, वह उतर जाती है. देखते देखते वह साइकिल तिमंज़िले मकान की छत से उतर कर नीचे सड़क पर आ जाती है. वोट देने को बाकी आधा घंटा लगभग बचा है. गोस्वामी जी तड़कती-भड़कती धोती व कमीज़ पहने, जिस पर सोने के बटन चमकते हुए दूर से नज़र आ रहे हैं, नीचे अपनी साइकिल पर सवार नज़र आ रहे हैं. एक पत्रकार ने क्डिच कर के उन की एक तस्वीर ले ली. बहुत प्रसन्न हुए गोस्वामी जी. साथ में खड़ा है एक रिक्शा जिस का चालक अपेक्षाकृत कुछ कम तड़कते -भड़कते कमीज़-पाजामे में है. रिक्शे में विराजमान हैं उन की पत्नी और बेटी. अब ये तीनों ख़ुद वोट देने जाएंगे.
रास्ते में भीड़ है. संकरी सड़क पर कुछ ट्रैफिक जाम सा है. रिक्शा धीरे धीरे ही बढ़ पा रहा है. 'Polling Station' आ गया है. पर लगता है, देर हो गई है. वो देखो...
-'अरे ए! रुको न!' गोस्वामी जी की घरवाली चिल्लाती है.
'Polling Station' का फाटक बंद किया जा रहा है. गोस्वामी जी जैसे Olympian की तरह तेज़ी से साइकिल बढ़ा कर बंद होते फाटक में घुस जाते हैं. पत्नी और बेटी वाला रिक्शा भी आधे बंद हो चुके फाटक में घुसते घुसते लड़खड़ा सा जाता है. पत्नी फ़िर चिल्लाई-
'क्या कर रहे हो? रुको... पर शुक्र, तीनों अन्दर पहुँच गए. और लो, तीनों वोट देने वाले कमरे में से हाज़िर हैं अब. मतदान अधिकारी नाम पूछ कर अपनी अंगुली मतदाता सूची पर दौड़ाते हैं, और सहसा चौंक से जाते हैं.
-
'गोस्वामी जी...आप ही हैं'? -
'हाँ हाँ, मैंने अभी कहा न, मैं भी प्रत्याशी हूँ और यहाँ मेरा वोट भी है'! -
'ये...ये...कैसे हो गया'? -
'क्या कैसे हो गया? क्या कहना चाहते हो तुम'?...
- 'आप के नाम का वोट तो पहले ही दिया जा चुका है'!
- 'क्या बात करते हो. तुम लोग यहाँ बैठे बैठे करते क्या हो? मैं अभी 'चीफ मिनिस्टर' को फ़ोन करता हूँ. यहाँ एक इतने बड़े 'कैंडीडेट' का वोट ही कोई और दे गया! और आप लोग चुपचाप देखते रहे? आप को पता ही नहीं चला'!
- 'हम कोई यहाँ के लोगों को जानते थोड़ेई हैं'! मतदान अधिकारी लाचार.
- 'जानते नहीं हैं! लेकिन यहाँ पार्टियों के इतने लोग बैठे हैं'? गोस्वामी जी को लगा कि ज़रूर, यह इन पार्टियों के कार्यकर्ताओं की ही शरारत होगी.
अधिकारी बोला -
'आप भी बिठाते किसी को'! पर मूड ख़राब हो चुका था. गोस्वामी जी की घरवाली क्या करने लगी कि मतदान अधिकारी को अपना नाम बोल कर धमाके से कहने लगी-
'मेरा ढूँढिये. अंगुली पर निशान कहाँ पर लगाओगे'?अधिकारी ने गोस्वामी जी की घरवाली और बिटिया के नाम ढूंढ लिए. मूड ख़राब सही, गोस्वामी जी चले आए. माँ-बेटी ने बारी-बारी कोने में जा कर छुप कर वोट दे दिए और मत-पेटी में डाल दिए. जब तीनों फाटक से बहार निकले तो कोई शरारती सा वर्कर पीछे से गुनगुनाने लगा- 'जनता ने भर दी है...' गोस्वामी जी की बिटिया ने पीछे पलट कर देखा. न जाने क्या सोच कर कभी गंभीरता से अपनी मुस्कराहट ढक देती, कभी मुस्कराहट से गंभीरता ढक देती. जैसे समझ न आ रहा हो, उसे अब कैसे भाव चेहरे पर लाने चाहियें. लड़का लपक कर कहीं दुबक गया.
अब तीसरा दिन है. मतगणना ज़ोर शोर से हो रही है. राजाराम शेर वाला जीत गया भईई... अरे अभी नतीजा कहाँ आया है यार, अफवाह तो न फैलाओ... वोही जीतेगा और किस में दम है भईई, राजाराम से पंगा ले ले...
शाम तक रिक्शों से कार्यकर्त्ता लौटने लगे. राजाराम का जीतना तो चुनाव से पहले ही निश्चित था. मतगणना कभी भी ख़त्म हो. रात एक बजे, या उस से भी बाद. पर जीतेगा राजाराम शेर वाला ही. राजाराम चूड़ियों वाला. सब को चूड़ियाँ पहना दी उसने. परिणाम तो अगली सुबह आया, पर रात भर राजाराम के कार्यकर्ता देसी ठर्रे पी पी कर गलियों में या इधर उधर लुढ़के रहे...
...पार्टियों के कार्यकर्त्ता एक दूसरे को दोष देने लगे. 'तुम्हारी पार्टी ने टांग अड़ाई'. 'तुम्हारी पार्टी ने अड़ाई'...
पर अगली शाम शहर में एक अफवाह कैसी फ़ैली है! सच ही होगी न! कहते हैं, गोस्वामी जी के घर में झगड़ा मचा हुआ है. अखबार में किस को कितने वोट पड़े, सब आया है. 'अमर उजाला' में तो पूरे आंकड़े आए हैं. फिरोज़ाबाद के भी...राजाराम इतने लाख इतने हज़ार. जनसंघ इतने हज़ार. कांग्रेस इतने हज़ार... 'और... और वो गोस्वामी? गोस्वामी का भी तो बताओ'...
-
'अरे यार वही तो झगड़ा पड़ा है उस के घर में'.
-'भई बताओ न, उसे कितने वोट पड़े! बेचारे ने भजन कर कर के गला बिठा दिया अपना!
-'गला-वाला ना बिठाया. जलेबी खाता रहा वो तो. इलेक्शन लड़ के अपनी ठरक पूरी कर रहा था. मोटा उतना ही रहा. जनसंघी देख कितने पतले हो गए. चिल्ला चिल्ला कर पागल हो गए. पर जित्ते फ़िर भी ना...हा हा'...
-'और कांग्रेसी स्साले'!
- 'कांग्रेसी तो इतना खावें इतना खावें कि आख्खा देश पतला हो जावे, कांग्रेसी ना होवें'!
- 'ही ही... पर प्यारे, गोस्वामी को कितने वोट पड़े'?
- 'जानते हो कितने'?
- 'पच्चीस? तीस'?
- 'अरे नहीं भईई, गोस्वामी को पड़ा सिर्फ़ एक वोट'!
- 'एक वोट! पर वोट तो उस की बीबी और बेटी दोनों ने दिया था! गोस्वामी का अपना वोट तो जनसंघी खा गए थे न'?
-'जनसंघी खा गए तुझे कैसे पता स्साले'?
- 'वो तो बताया ना, ज़्यादा भूखे हैं. पॉवर में जो नहीं हैं'!
- 'पर गोस्वामी के नाम सारे फ़िरोज़ाबाद में सिर्फ़ एक वोट पड़ा! गज़ब हो गया यार'!-
'यही तो झगड़ा है. तुम लोग समझ नहीं पा रहे हो. गोस्वामी ने घर में झगड़ा खड़ा कर रखा है कि या तो मेरी बीबी या फ़िर बेटी, दोनो में से एक ने मेरे साथ गद्दारी की है. बेटी ज़िद पर कि 'बाप्पू मैन्ने तो आप को ही वोट दिया'. और बीबी भी बोल्ये 'मुन्नी के बापू मैंने साइकिल पर ही मोहर लगाई थी'... अजीब सस्पेंस में फंस गया था सारा शहर...
लेखक- प्रेमचंद सहजवाला