इन दिनों कोई भी पत्रकार अगर खबरें पढ़ता सुनता है तो या तो अयोध्या की या कॉमनवेल्थ की. पर किसी किसी क्षण फोन बजता है तो कोई साथी दुखद खबर दे कर मन को संतप्त सा कर देता है. आज दूरदर्शन पर समाचार देखते-देखते शैलेश भारतवासी फोन आया और उसने सूचना दी कि कन्हैयालाल नंदन नहीं रहे! सचमुच, कोई प्रभावशाली शख्सियत यूँ अचानक चली जाए तो हृदय को धक्का सा पहुंचना स्वाभाविक ही है. उनके निधन पर मुझे इसलिए भी विशेष आघात पहुंचा कि इसी 27 सितम्बर के लिये ‘परिचय साहित्य परिषद’ की ओर से उन्हें विशेष आमंत्रण था. ‘परिचय साहित्य परिषद’ ने 27 सितम्बर को ‘सत्य सृजन सम्मान’ देने का विशेष कार्यक्रम रखा था और परिषद की अध्यक्षा उर्मिल सत्यभूषण ने मुझे बताया कि उन्होंने नंदन जी को भी विशेष निमंत्रण दिया था कि वे इस कार्यक्रम में आएं व परिषद की ओर से ‘सत्यसृजन सम्मान’ स्वीकारें. नंदन जी पिछले दिनों कई बार Dyalisis पर रहे, हालांकि जब जब वे स्वस्थ होते तब वे अपनी कर्मशीलता की किसी आतंरिक प्रेरणाल शक्ति से कार्यक्रमों में निरंतर जाते रहते. जब उन्होंने उर्मिल सत्यभूषण से अपने अस्वस्थ होने के कारण असमर्थता ज़ाहिर की तब उर्मिल जी ने निर्णय लिया कि परिषद की ओर से उनके निवास स्थान पर ही कुछ ही दिनों बाद उन्हें सम्मान देने कुछ लोग जाएंगे. परन्तु नियति को कुछ और ही मंज़ूर था और वे 25 सितम्बर प्रातः लगभग पौने चार बजे अपनी जीवन यात्रा संपन्न कर के प्रस्थान कर गए.
1 अक्टुबर 2009 को राष्ट्रीय गाँधी संग्रहालय, नई दिल्ली में 'हिंद स्वराज' के 100 वर्ष और विचार-गोष्ठि कार्यक्रम में बैठे कन्हैया लाल नंदन |
मैंने कहा – ‘मैं मध्यवर्गीय परिवारों के संघर्षों को कहानियों में वर्णित करने के लिये कुछ चर्चित हुआ हूँ. श्रीपतराय ने एक प्रकार से मुझे कहानी विधा में जन्म दिया. एक संग्रह छपा है जिसकी भूमिका श्रीपतराय ने स्वयं लिखी है’.
सोनीपत के उस कवि सम्मलेन में नंदन जी की शख्सियत का यह पहलू भी उजागर हुआ कि कवि रूप में वे एक बेहद खुद्दार व्यक्ति थे और उन्हें लगता था कि साहित्यकार कहीं भी निवेदन कर के नहीं जाता, वरन साहित्यकार ज़रूरत समाज को होती है. वह प्रसंग तो छोटा सा था पर फिर भी यहाँ उसे अलग से देने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा. उस कवि सम्मलेन में सोनीपत के डी.सी मुख्य अतिथि थे पर उन्हें किसी कारणवश कार्यक्रम शुरू होने के कुछ ही देर बाद जाना था जब कि अभी केवल एक दो स्थानीय कवि ही अपने कविता प्रस्तुत कर चुके थे. डी.सी. को इसीलिए निवेदन कर के मुख्या अतिथीय भाषण के लिये बुलाया गया. डी.सी ने बहुत रोचक भाषण दिया व कवियों के प्रति बेहद सम्मान भी व्यक्त किया. पर डी.सी ने अपने भाषण में प्रहसन के तौर पर यह कह दिया कि एक बार एक व्यक्ति दूसरे के पीछे भाग रहा था. पूछे जाने पर वह बोला कि वह व्यक्ति मुझे अपनी कविता सुना गया मेरी नहीं सुन रहा. इसे सभागार ने तो प्रहसन के तौर पर लिया पर डी.सी साहब के मंच छोड़ कर नीचे जाते ही नंदन जी मंच पर अपने स्थान से खड़े हो कर माईक तक आए. वे मुस्करा कर बोले कि माननीय मुख्य अतिथि से मैं कहना चाहता हूँ कि हम सब कवियों को यहाँ बुलाया गया है, और हम यहाँ ज़बरदस्ती कविता सुनाने नहीं आए. कुछ क्षण सब लोग हक्के बक्के रह गए कि अब हमें कैसा महसूस करना चाहिए. पर डी.सी साहब भी उतने ही दिलदार व्यक्ति थे. वे मुस्कराते हुए मंच पर आए और क्षमा मांगते हुए बोले कि मेरा उद्देश्य केवल एक रोचक बात कहना था. अपने समस्त भाषण और जीवन में मैंने कवियों का आदर करना ही सीखा है. पर नंदन जी ने भी तुरंत उनका मूड ठीक करते हुए मुस्करा कर यही कहा कि वे तो आम धारणा को ठीक कर रहे थे और कि उनका उद्देश्य व्यक्तिगत रूप से आपत्ति करना नहीं था .
-प्रेमचंद सहजवाला
नंदन जी मृदुभाषी व गूढ़ गंभीर साहित्यकार पत्रकार की तरह कार में मेरे साथ बैठे रहे पर उन्होंने प्रोत्साहनवश अपनी नज़रें मुझ पर फोकस सी रखी थी व उनके चेहरे पर वही सौम्य मुस्कराहट ज्यों की त्यों स्थापित थी जैसे छोटों के लिये वह सुरक्षित हो. हिंदू कॉलेज जल्दी आ गया और शैलेन्द्र गोयल अन्य कई कवियों के बीच खड़े नंदन जी का इंतज़ार कर रहे थे. कुछ उत्साही बालिकाओं ने बढ़ कर स्वागत करते हुए उनके माथे पर तिलक लगाया. एक के हाथ में आरती थी. जब सब लोग एक स्वागत कक्ष में पहुंचे तो मैं शेष कवियों से भी मिल लिया. शैल चतुर्वेदी इतने गंभीर क्यों बैठे हैं भला? कहकहा क्यों नहीं लगा रहे? पर सोचा कहकहा तो वे मंच पर लगाएंगे. अभी कार्यकर्ताओं के बीच तो वे सौम्य से बैठे शैलेन्द्र जी को यात्रा-वात्रा की तकलीफें बता रहे थे. शैलेन्द्र जी एक एक का परिचय करवा रहे थे. मेरे विषय में सब से बोले – ‘इन्होने हिंदी साहित्य को ‘सदमा’ दिया है (यानी मेरे पहले संग्रह का नाम ‘सदमा’ है). इस पर सब लोग खूब हंस पड़े और नंदन जी बोले – ‘साहित्यकार का का काम ही होता है ‘शॉक’ देना, यानी सदमा देना. इस के कुछ देर बाद नंदन जी से सब की एक गंभीर बातचीत आनन् फानन शुरू हो गई. मैं ने पूछा – ‘साहित्यकार व्यवस्था का विरोधी माना जाता है, पर इतने सारे साहित्य के बाद व्यवस्था तो ज्यों की त्यों है, ऐसा क्यों भला’?-प्रेमचंद सहजवाला
नंदन जी ने कहा – ‘इस का कारण सिर्फ यही है कि आप के पास चिंता है पर समाधान नहीं और जिन के पास समाधान है उनके पास चिंता नहीं है.’ नंदन जी के इस उत्तर पर आसपास के पूरे मौऔल को एक रोशनी सी मिल गई मानो, जैसे देश के एक विख्यात पत्रकार ने सब को दो टूक सच्चाई बता दी.
व्यक्तित्व के तौर पर यह श्रद्धांजलि लेख लिखते लिखते मुझे कवयित्री अर्चना त्रिपाठी की बात याद आ रही है जिन्होंने फोन पर बताया कि नंदन जी की आत्मकथा ‘गुज़रा कहाँ कहाँ’ से वे बेहद प्रभावित हुई. अपने इलाहाबाद से ले कर मुंबई तक के बहुत सुन्दर संस्मरण व धर्मवीर भारती की प्रशंसा और आलोचना एक साथ लिखी उनहोंने. इसलिए कुछ बातें विवादस्पद हो गई. कुछ लोगों ने नंदन जी की ही आलोचना की कि डॉ. धर्मवीर भारती के जीते जी अगर वे उनके विषय में यह सब लिखते तो बेहतर था. पर कुछ अन्य लोगों का मत रहा कि कई बार शालीनतावश व्यक्ति सामने कुछ नहीं कह पाता, इसलिए धर्मवीर भारती के साथ अपने खट्टे मीठे अनुभव उन्होंने उनके के जाने के बाद कहे. अर्चना त्रिपाठी को इस बात की भी प्रसन्नता थी कि उनके पिता श्री ब्रजकिशोर त्रिपाठी कानपुर में कन्हैयालाल नंदन के अध्यापकों में से रहे तथा एक बार त्रिपाठी जी स्टेशन पर खड़े थे तो एक नौजवान ने आ कर उन्हें सैल्यूट किया. त्रिपाठी जी के पूछने पर उस नौजवान ने अपना परिचय दे कर कहा कि ‘मैं कन्हैयालाल नंदन हूँ. मैं आप का ही एक विद्यार्थी हूँ’.
साहित्यकार पत्रकार के रूप में उनकी लेखनी बेबाक रही हमेशा. मुझे याद है कि उनका एक लेख छपा था जिसमें उन्होंने बहुत तीखे स्वर में लिखा था कि साहित्य में कुछ लोग ऐसे भी आ गए हैं जो सोचते हैं कि साहित्य केवल उनकी बदौलत है. हमें चाहिए कि ऐसे दादागीर लोगों को साहित्य से निकाल बाहर करें. उनके विषय में सुप्रसिद्ध कवि लक्ष्मीशंकर बाजपेयी ने बताया कि वे पत्रकारिता के महान स्तंभ थे. मुक्तछंद कविता के कवि होते हुए भी वे मंचों पर जाते रहे छंदबद्ध कविता को भी सम्मान देते रहे. देश के अनेक प्रतिष्ठित रचनाकार उनके ऋणी रहेंगे क्योंकि नंदन जी ने उन्हें राष्ट्रीय पहचान दिलाई’. लक्ष्मीशंकर बाजपाई जी की बात पर मेरी एक हाल ही की स्मृति भी ताज़ा हो गई. दिल्ली के मॉडर्न स्कूल में ‘श्रीराम मिल्स द्वारा आयोजित एक कवि सम्मलेन में मैंने 2009 में ही नंदन जी से बहुत प्यारी आवाज़ में एक गीत व एक छंदमुक्त कविता सुनी थी. मंच पर गोपालदास नीरज जैसी हस्तियाँ भी उपस्थित थी.
उन्हें ले कर हाल ही की एक ताज़ा स्मृति यह भी कि दिल्ली के प्रसिद्ध ‘हिंदी भवन’ में एक कविता पुस्तक ‘बूमरैंग’ का लोकार्पण हो रहा था जिसमें ऑस्ट्रेलिया में रहने वाले कुछ भारतीय कवियों की कविताएं संकलित थी और संकलन का संपादन ऑस्ट्रेलिया की ही रेखा राजवंश ने किया था. प्रायः लोकार्पण में संबंधित पुस्तक के रचनाकारों को बधाई दी जाती है तथा पुस्तक की भी भरपूर प्रशंसा की जाती है. लेकिन मंच पर उपस्थित नंदन जी को यह गवारा नहीं था कि रचनाकारों को उनकी सीमाएं बताए बिना ही लोकार्पण कार्यक्रम समाप्त किया जाए. उन्होंने अपने भाषण में बेहद दृढ़ तरीके से कहा कि इस संकलन में जो भारतीय ऑस्ट्रेलिया में रहते हैं, उन्हें अपना वतन हिंदुस्तान बहुत याद आता है, सो उन्होंने ये तमाम कविताएं लिखी हैं. पर मैं पूछता हूँ क्या अपने वतन की याद आना भर काफी है, क्या केवल याद आने भर से ही कविता हो गई? क्या कविता में शिल्प नाम की कोई चीज़ नहीं होती. क्या उदगारों को मांजना संवारना ज़रूरी नहीं है?’ उस सभागार में उपस्थित होते हुए मुझे लगा कि आज का रचनाकार केवल अपनी प्रशंसा सुनने का लोलुप है. कई तो चलते फिरते चेखव या मोपांसा वोपंसा भी यहाँ मिल जाते हैं. ज़रा सी भी आलोचना करने वालों की खैर नहीं. संबंधित लेखक आपका नाम सहज ही अनाड़ियों में शामिल कर देगा. लेकिन नंदन जी की दो टूक कटु बातों ने स्पष्ट कर दिया कि रचनाकार को प्रोत्साहित करने का एक तरीका यः भी है कि उसके प्रति सच्ची सद्भावना रखते हुए उसे उसकी सीमाओं से परिचित करवाया जाए. इतनी बेबाकी केवल नंदन जैसों में ही सम्भव है.
साहित्यकार डॉ. वीरेंद्र सक्सेना ने बताया कि दिल्ली में रह कर हर कोई उनके संपर्क में रहता था तथा किसी दुर्घटना के बाद छड़ी ले कर चलने के बावजूद और यहाँ तक कि बेहद अस्वस्थ होने के बावजूद वे कई कार्यक्रमों में देखे गए थे जो उनकी कर्मठता का ही प्रतीक है. लेकिन नंदन जी के विषय में जो कुछ चित्रा मुद्गल ने फोन पर कहा, वही इस कर्मठ साहित्यकार का असली परिचय है. चित्रा जी ने कहा कि वे अभी अभी दिल्ली से बाहर से लौटी तो उन्हें यह दुखद समाचार मिला. उन्होंने कहा कि ‘नंदन जी अपने जीवन का एक एक पल (उन्होंने ‘एक एक पल’ खूब ज़ोर दिया) पूरी सक्रियता से जीते रहे. ऐसा प्रेरणास्पद व्यक्ति हमें भी अपने जीवन का ‘एक एक पल’ सार्थक तरीके से जीने की प्रेरणा दे गया है. चित्रा ने कहा कि ऐसा व्यक्ति जीते जी तो प्रेरणा देता ही रहता है पर वह स्वर्गीय होते हुए भी स्वर्गीय नहीं रहता, क्यों कि जा कर भी हमें वह उसी सक्रियता व सार्थकता की प्रेरणा देता रहता है.
साहित्य व पत्रकारिता जगत के इस प्रेरणा स्रोत को मेरा शत शत प्रणाम.
मॉडर्न स्कूल, नई दिल्ली के कार्यक्रम में काव्यपाठ करते कन्हैया लाल नंदन
(जब मैंने उन्हें आखिरी बार काव्यपाठ करते हुए देखा)।
--प्रेमचंद सहजवाला
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5 बैठकबाजों का कहना है :
स्व.कन्हैया लाल नंदन जी को मेरा भी शत शत नमन विनम्र श्रद्धाँजली।
ईश्वर कन्हैयालाल जी की दिवंगत आत्मा को शांति प्रदान करें.
स्व. कन्हैयालाल नंदन को मै श्रद्धांजलि अर्पित करती हू!...ऊनकी आत्मा को ईश्वर शांति बक्षे!.......यह शोक समाचार समस्त हिंदी साहित्य जगत को व्यथित करने वाला है!
हिंदी साहित्य के स्तम्भ नंदन जी को हार्दिक श्रद्धांजलि .
मंजू गुप्ता
वाशी , नवी मुंबई .
स्व. नंदन जी को श्रद्धांजलि.
अवध लाल
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