*डॉ. रवीन्द्र कुमार पाठक
देश में इस समय बाबाओं की जैसी फ़ौज उमड़ी है, वैसी पहले कभी नहीं थी। ये तिलक-त्रिपुण्डी/दढ़ियल पाखण्डी ‘धर्म’ के नाम पर बाह्याचारों का जाल फेंक कर, परलोक का भय और स्वर्ग का सपना दिखा कर, बेशुमार जनों को निरर्थक कर्मकाण्डों में लगा कर, अन्ततः उन के जीवन को नरक बना डालते हैं। पर, मज़ा यह है कि इन के सम्मोहन में पड़ी जनता को इस का भान तक नहीं होता कि किस तरह हमें नरक में धकेला जा रहा है?लगातार ‘धर्म’ की माला जपते रहने के बावजूद उस से इन बाबाओं का असल में शायद ही कोई रिश्ता होता होगा। ‘धर्म’ का अर्थ मानवीयता की उस स्थिति से है, जिस में व्यक्ति कुछ विशेष गुणों को धारण करता है, जिस से एक इन्सान दूसरे से प्रेममय जुड़ाव महसूस करता है, आपसी समता में जीता है, दीन-दुखियों की सेवा करता है, आदि-आदि । संस्कृत शब्द ‘धर्म’ के मूल धातु ‘धृ’ का अर्थ धारण करना होता है। इस सन्दर्भ में, उन विशेष गुण-धर्मों को धारण करने की अवस्था है ‘धर्म’,जिन्हों ने किसी वस्तु-विशेष का अस्तित्व बरकरार (धारण कर) रखा है। जिस प्रकार आग का धर्म जलना-जलाना या नदी का धर्म बहना है, उसी प्रकार मनुष्य का धर्म है ‘मनुष्यता’ है, जिस के उपर्युक्त लक्षण कहे जा सकते हैं। नदी में नहाना, तिलक लगाना, पूजा-पाठ करना, प्रार्थना/जप करना, रोजा-नमाज, व्रत, तीर्थयात्रा आदि धर्म नहीं ,बल्कि उस के नाम पर किये जाने वाले बाहरी आचार भर हैं। इन्हें करने से कोई लाभ होता है कि नहीं?—यह बहस का विषय हो सकता है, पर ध्यातव्य है कि इन से अक्सर समय व धन की भारी बर्बादी के साथ कई बार हमारी जान तक चली जाती है। चाहे मक्का में हज़-यात्रियों की भीड़ में हुई भगदड़ हो या नासिक के कुम्भ मेले (२००३) में हुई धक्कामुक्की– ये ‘धर्म’ के नाम पर पोंगापन्थी बाबाओं द्वारा बेशुमार भीड़ जुटा कर जनता को कीड़े-मकोड़ों की मौत देने वाले क्रूर कर्मों के उदाहरण हैं।
ये बाबा जनता को त्याग का पाठ पढ़ाते नहीं थकते, ताकि हर घर खाली हो जाए और उन का मठ-आश्रम, मस्ज़िद या गिरजा चमक जाए। ये खुद हर प्रकार की भौतिक सुख की गंगा में दिन-रात डुबकी लगाते रहते हैं, पर आम जन को उपदेश देते रहते हैं कि भौतिक सुख मिथ्या है। खुद ए.सी.कार या हवाई जहाज में उड़ते हैं, टी.वी.-नेट-मोबाइल से आँख-कान सटाए रहते हैं, पाँचसितारा होटल की समस्त सुविधाओं से युक्त मठों में पूरे राजसी तामझाम के बीच छप्पन भोगों-छतीस व्यंजनों के तर-माल पर हाथ साफ करते हैं। पर, भौतिकवादी माइक से भौतिकवाद को गाली देते, जनता को उपभोक्तावादी जीवन से दूर रखने की ये हर सम्भव कोशिश करते हैं और पवित्र संतोष का पाठ भी पढ़ाते रहते हैं। एक तरफ जहाँ हाड़तोड़ मेहनत कर के भी देश की विशाल जनता भुखमरी की शिकार है, वहीं परिश्रम से दूर,फ़ोकट का माल उड़ाते हर बाबा की काया कैलोरी व खून की अधिकता से भरी रहती है। ये हमें आत्मा की अमरता का पाठ पढ़ाते हैं, पर स्वयं बुलेटप्रूफ़ गाड़ी या सशस्त्र पुलिस-घेरे में ही चलते हैं। लड़के-लड़की के आपस में मिलने-जुलने या प्रेम करने को पाप बताने और उस पर हिंसक फतवे देने वाले इन बाबाओं का असली चेहरा तो तब उजागर होता है,जब इन के मठों/अड्डों पर छापे मार कर उन में से यौन-शोषित बच्चे-बच्चियाँ/स्त्रियाँ मुक्त करायी जाती हैं।
कुछ समय पहले, चित्रकूट के भगवान् भीमानन्द उर्फ शिवमूर्त्ति द्विवेदी द्वारा राजधानी समेत देश के कई भागों में चलाये जा रहे धन्धे का जब पुलिस ने पर्दाफ़ाश किया, तब भी क्या हमारी आँखें खुलीं? इसी तरह, दक्षिण के एक शंकराचार्य पर यौन-शोषण और हत्या का मुकद्दमा चल ही रहा है। बाबावाद का विस्तार महिलाओं को भी अपने आगोश में ले चुका है। एक प्रमुख महिला बाबा साध्वी प्रज्ञा ठाकुर का किस्सा यह है कि उन्हें इस बात का मलाल रहा कि उन के बिछवाये प्राणघाती बम से इतने कम मुसलमान क्यों मरे? केरल के ६३ ईसाई धर्मगुरुओं पर आपराधिक मुकद्दमे दर्ज हैं। वहीं करोड़ों के आराध्य आसाराम बापू के आश्रम में होने वाली काली करतूतें अब उजागर होने लगी हैं। पर, बाबाओं के विराट् सरकस का यह तो एक नमूना मात्र है। कुल मिला कर कहा जा सकता है कि ये बाबा ‘धर्म’ के मूल तत्त्व से उतनी ही दूर होते हैं, जितनी दूर सूरज से अन्धेरा होता है। ‘धर्म’ इनके लिए एक करियर या प्रोफेशन की तरह होता है, कभी-कभी राजनैतिक करियर की तरह भी ; पर उस में भी वे प्रोफेशनल ईमानदारी का परिचय नहीं देते; बल्कि क्षुद्र लाभों/स्वार्थों के लिए कोई भी गुनाह करने को हर क्षण तैयार रहते हैं। इस लाइन में भी लम्बी प्रतिद्वन्द्विता है, जिस में एक बाबा दूसरे का गला काटने तक को उतारू हो जाता है। याद कीजिए, आई.एस.जौहर की ‘नास्तिक’ फ़िल्म, जिस में ठीक दूकान की तरह एक-दूसरे (को नीचा दिखाते) के अगल-बगल में साधुओं द्वारा आश्रम खोले जा रहे थे।
बाबा चाहे हिन्दू हों या मुस्लिम, सिक्ख हों या ईसाई, पुरुष हों या नारी– सब के सब प्रवचनों का अन्धविश्वासमय जाल फेंक कर जनता के मन को आधुनिक युग से हटा कर, वेद-पुराण, कुरान, बाइबिल आदि के ज़माने में ले जाने की कोशिश करते रहते हैं। हमें विवेक व वैज्ञानिक सोच से काटते हुए, तन्त्र-मन्त्र, मुहूर्त्त, हस्तरेखा, ज्योतिष, भूत-प्रेत-जिन्न-चुड़ैल आदि की मायावी दुनिया में भटकाते-भरमाते रहते हैं। टी.वी.जैसे प्रबल जनसंचार-माध्यम (जो जन-शिक्षा/जन-जागरुकता का व्यापक औजार हो सकता था) के कई चैनलों पर इन बाबाओं ने अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज कर रखी है, जिस के जरिये अपने सारे उक्त कर्म ये सहजता से सम्पादित करते हैं । वहीं कुण्डली मार कर बैठे, ये स्वयं या अपने दलालों द्वारा, ‘गाँठ के पूरे’ प्रायः शहरी जनों (जो अक्सर ‘आँख के अन्धे’ भी होते हैं) को लक्ष्य कर गण्डा-ताबीज, नज़र-सुरक्षा-कवच, कुबेर-यन्त्र, हनुमान्-यन्त्र, शनि-यन्त्र आदि के विज्ञापन करते हैं और हर विज्ञापन को अधिक पैसा-बटोरू बनाने के लिए उस में विज्ञान का छौंक भी लगाते हैं। सब से ज़्यादा तो गुस्सा और साथ ही तरस आती है इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के कर्त्ता-धर्त्ताओं पर, जो अपनी तमाम आधुनिक शिक्षा को ताक पर रख कर, स्टूडियो में किसी बाबा को विशेषज्ञ की हैसियत से बुला कर बैठाते हैं और बड़े विश्वास/श्रद्धा से राशिफल या किसी वास्तविक घटना के ज्योतिषीय-तान्त्रिक व्याख्या के बारे में पूछते हैं। (इस प्रसंग में स्मरणीय है, राजेन्द्र अवस्थी के सम्पादकत्व में हिन्दी-पत्रिका ‘कादम्बिनी’ की बेशर्म भूमिका। तब वह, अपने ‘भूत-प्रेत-तन्त्र-मन्त्र’ विशेषांकों के जरिये अन्धविश्वास फैलाने और पाखण्डियों की दलाली करने का खुला मंच बन कर रह गयी थी।) तब, क्या आम जन को यह पता चल पाता है कि वे खुद मूर्ख बनने से ज़्यादा हमें मूर्ख बना रहे हैं? मामला चैनल के टी.आर.पी. और उन के अपने पत्रकारीय करियर का होता है। सब पूँजी का खेल है,जिसे मज़े से खेल रहे होते हैं हमारे बाबा। इस पर हमें गम्भीरता से विचार करना चाहिए कि आखिर क्या कारण है कि कुछ ही सालों में गुजरात से देखते-देखते इतने बाबा पैदा हो गये? या, जहाँ भी पूँजी का केन्द्रीकरण ज़्यादा हुआ, वहीं बड़ी संख्या में बाबा-तत्त्व क्यों पैदा हो जाते हैं?
ये बाबा हैं, जो हमारी चेतना की आँखों पर मोतियाबिन्द की तरह छाए रहते हैं, राममन्दिर- बाबरी मस्ज़िद-डेरा सच्चा सौदा आदि के नाम पर जनता को धर्म का अफ़ीम पिला कर, आपस में क्रूरता से लड़वाते हैं और समाज-देश की शान्ति भंग कराते हैं। इन के द्वारा प्रचारित मान्यताओं में कई तो घोर जातिवादी और खासकर स्त्री-विरोधी होती हैं। जैसे- ‘पुत्र’ की महिमा गा-गा कर ये हमारे अवचेतन में कन्या-विरोधी मानसिकता मजबूत करते हैं। बाबाआदम-युगीन कथाओं द्वारा ये स्त्री को अशिक्षित व घरेलू बनाए रखने और पति के आगे उस के दब कर रहने और तमाम ज़ुल्म सहते रहने(घरेलू हिंसा) का महिमामण्डन करते हैं। कुछ नहीं, तो स्त्री के पहनावों पर इन की निगाह जरूर रहेगी और कुछ-न-कुछ नसीहत भी जरूर ये देंगे, तब भी बड़े अचरज की बात है कि हमारी दृष्टि में ये अध्यात्म के पुरोधा ही बने रहते हैं। जिन का ध्यान औरत के कपड़ों/देह से ऊपर नहीं उठ सका, जो उसे इन्सान न मान सके, वे खाक आध्यात्मिक होंगे! इन के द्वारा प्रचारित-प्रसारित मूल्य ब्राह्मणवादी भी होते हैं, चाहे पुनर्जन्म व जन्मगत श्रेष्ठता का उन का दर्शन हो (जिस के जरिये वर्तमान ठोस सामाजिक-आर्थिक विषमता/अन्याय को भी चुटकियों में जस्टिफ़ाई कर डालते हैं) या वर्ग/जाति/ज़ेण्डर-गत स्तरीकरणों को बनाए रखने की इन की सोच हो। ये शायद यही चाहते हैं कि जनता इन के चंगुल से कभी न छूटे– वह भेड़-बकरी की तरह इन के बाड़े में अशिक्षित-मूढ़, तंगहाल और हर तरह से लाचार इन पर निर्भर हो कर पड़ी रहे; इन की ‘जय’ बोलती, चारागाह बनी रहे– बाबा के ऐशो-आराम की पालकी को कन्धा देती रहे, बस! अपने भोग-विलास की दुनिया में कोई खलल पड़ते ही या अपने प्रभाव-क्षेत्र में दूसरे बाबा की दखलन्दाजी होते ही, ये अपने प्रतिद्वन्द्वी का खून तक करने/कराने से नहीं चूकते। सब मिला कर ये लोकतान्त्रिक व्यवस्था के सख्त विरोधी होते हैं, पर विसंगति देखिये कि एक-देढ़ दशक पूर्व बड़ी संख्या में ये दण्ड-कमण्डल धर कर संसद तक में जा पहुँचे हैं। परोक्ष रूप से राजनीति में तो ये बराबर ही सक्रिय रहे हैं, पर यह प्रत्यक्ष-राजनीति की कथा है। इन्हों ने ‘भारत का संविधान’ शायद ही पढ़ा हो ( क्योंकि ‘मनुस्मृति’ या ‘शरीयत’ के आगे ये संविधान की कोई हैसियत नहीं समझते होंगे ), पर अपनी (अ)धर्म-संसदों के जरिये नर-नारी के व्यवहार, औरत की पोशाक आदि ही नहीं, बल्कि देश की विदेश-नीति तक तय करने का दुस्साहस ये करते रहते हैं। इन के मठ/आश्रम अवैध कमाई और कई तरह के पापाचारों के साथ, शराब व हथियार के भी अड्डे होते हैं, जिन्हें ईश्वर/धर्म के सुनहरे लेबल से ढँके रहते हैं। इन्हें बचाने का कार्य एक तरफ जनता की अन्ध आस्था करती है, तो दूसरी तरफ इन के चेलों के रूप में मौजूद थोक वोट-बैंक के खिसकने से डर कर हमारे असली राजनेता भी इन के खिलाफ किसी कार्रवाई से अक्सर डरते हैं। (आप को याद होगा कि जामा मस्ज़िद के इमाम बुखारी पर कितनी बार आरोप लगे, पर किसी की हिम्मत हुई उन्हें छूने की भी?) वे क्या खा कर करेंगे कार्रवाई? वे तो उल्टे इन्हीं के चेले बने फिरते हैं। (वोट-बटोरू प्रवृत्ति के तहत?)। ( भला हो (स्व.) राजेश पायलट का, जिन्हों ने कुछ समय के लिए चन्द्रास्वामी को जेल की हवा खिला दी थी)।
अब, अहम सवाल यह है कि मानवता के नाम पर कलंक, लोक-विरोधी इन बाबाओं पर लगाम कैसे लगायी जाए?
बहुत विचार करने पर यह समझ में आता है कि इन की कुत्सित ताकत का मूल स्रोत है इन के पास इकट्ठा हुआ अथाह काला धन तथा जनता में इन के प्रति मौजूद प्रचण्ड अन्धास्था है। बिना इन का मूलोच्छेदन किए ये अपराधी ठिकाने नहीं लगाये जा सकेंगे। सब से पहले इन के मठ/आश्रम को कानूनी दायरे में लाया जाए। समय-समय पर उन की सरकारी जाँच हो। इन की आमदनी के स्रोतों पर कड़ी निगाह रखी जाए तथा इन की आय को टैक्स के दायरे में लाया जाए। इन की काली कमाई पर रोक लगाने का पुख्ता इन्तजाम होना चाहिए। इस के साथ, जनता को इन की करतूतों के प्रति जागरुक करते रहने की जिम्मेदारी स्वीकार कर मीडिया को भी अपना भटकाव रोकना होगा। ऐसा कर पाने में नाकामयाब होने अथवा किसी प्रकार के पाखण्ड का प्रचार करने पर किसी चैनल या पत्र-पत्रिका के संचालक/सम्पादक पर कठोर दण्ड का प्रावधान लागू किया जाना चाहिए। बाबाओं के संविधान/लोकतन्त्र या मानवीय समता के विरोधी प्रवचनों और कार्यों के उजागर होते ही इन पर ‘भारतीय दण्ड-विधान-संहिता’ कड़ाई से लागू होनी चाहिए। साथ ही, राजनीति को बाबाकरण से बचाने के लिए भी ‘निर्वाचन-आयोग’ को मुस्तैद रहना होगा। इस तरह के ढोंगी-पाखण्डी पैदा ही न हों, इस के लिए समाज में शिक्षा द्वारा वैज्ञानिक दृष्टि व इहलौकिक(सेक्यूलर) चेतना की रचना का पुख्ता इन्तजाम भी होना चाहिए। इस के साथ,आम जन का भी कर्त्तव्य है कि इन के पकड़े जाने पर वह भड़के नहीं,बल्कि ऐसे दुष्टों को पकड़वा कर सजा दिलवाने में सरकार की मदद करे । हमें सोचना होगा कि ऐसे क्रूर कर्म वाले,हर तरह के अन्धकार के दूत,इन नराधमों-बाबाओं के प्रति यदि किसी तरह की आस्था रखते हैं, तो जनता को अशिक्षित, भाग्यवादी, फटेहाल और साम्प्रदायिक उन्माद से ग्रस्त रखने के इन के नंगे नाच में साथ दे कर समाज को पीछे धकेलने के हम भी कम अपराधी नहीं हैं ।
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(लेखक जी.एल.ए.कॉलेज, मेदिनीनगर/डाल्टनगंज, पलामू, झारखण्ड में व्याख्याता हैं। उनसे उनके ईमेल-पते rkpathakaubr@gmail.com और मोबाइल- 09801091682 पर संपर्क किया जा सकता है)

हे भगवान ! फेसबुक पर झंझटों का जमघट..अब ये सब कुछ कहते भी नहीं बनता और सहते भी नहीं बनता.
बिहार विधान सभा चुनाव के परिणाम अप्रत्याशित नहीं बल्कि अपरिहार्य थे। लगभग 15 वर्षों तक लालू राबड़ी एण्ड कम्पनी की गिरफ्त में रहा बिहार विकास सुशासन तथा सुरक्षा के लिये छटपटाता रहा परन्तु जातियों के स्वाभिमान का नारा देकर लालू राबड़ी एण्ड कम्पनी अपना राजनैतिक सर्कस चलाते रहे। जे. पी. आन्दोलन से निकले तीन नेताओं लालू यादव, नितीश कुमार तथा सुशील मोदी में से लालू ने पिछड़ों में मण्डल कमीशन की आड़ लेकर एक सपना जगाया। जनता सपने की हकीकत का 15 वर्षों तक इंतजार करती रही और लालू की बातों पर भी। लालू राज के इन 15 वर्षों में बिहार में भाई-भतीजावाद खूब पनपा, जातिवाद ने हर गम्भीर मुद्दे को निगल लिया, बाहुबलियों की सर्वोच्च सत्ता स्थापित हुई तथा भ्रष्टाचार के आरोप में जातीय स्वाभिमान के सपनों का सौदागर चारा घोटाले में जेल गया। शुचिता की राजनीति को तिलांजलि देकर अपनी पत्नी को अन्य योग्य उम्मीदवारों के होते हुये भी मुख्यमंत्री बनाया तथा लोकतांत्रिक व्यवस्था को पारिवारिक तथा राजतांत्रिक व्यवस्था का बन्धक बनने को मजबूर किया। परिणामस्वरूप बिहार और बिहारी सारे देश में मजाक के पात्र बन गये। विकास के मामले में यह प्रदेश देश में सबसे निचले पायदान पर खड़ा हो गया। बिहार और विकास में छत्तीस का ऑकड़ा बन गया तथा प्रतिभावओं का पलायन एक परम्परा बना महिलाओं की अस्मत लालू राज में सुरक्षित नहीं थी, उद्योग विहीन बिहार में अपहरण को उद्योग का दर्जा मिला। इस प्रकार बिहार जे.पी. आन्दोलन से निकले एक नेता के वैचारिक, राजनैतिक एवं चारित्रिक पतन का गवाह बना।
हाँ, अपने समाज का यह कड़वा सच है कि एक औरत ही पतिव्रता बन कर वफादार रहती है और पति से अगले सात जन्मों के बंधन के बारे में सोचती है. लेकिन पुरुष के मन में क्या है उसका पता उसे नहीं लग पाता है. और वो शायद जानना भी नहीं चाहती. तो ये तो एक तरह से पति पर ज्यादती हुई कि उसकी पत्नी अगले सात जन्मों में भी उसी पर अपने को थोपना चाहती है, है ना ? अपने पति की असली इच्छा जाने बिना ही अगले सात जन्मों में भी उसी से ही चिपकी रहना चाहती है. आँख-कान बंद करके औरत यही करती आयी है अपने समाज में पतिव्रता बनने की कोशिश में. क्या ये दिखावा है..ढोंग है लोगों को अपने पतिव्रतापन को इस तरह से जताकर ? इन बातों पर जब गंभीरता से गौर किया तो मुझे यह सब लिख कर कहने की प्रेरणा मिली.
वर्ष 2007 में चीन द्वारा वास्तविक नियंत्रण रेखा पर अतिक्रमण या उससे मिलती-जुलती लगभग 140 घटनायें हुई, वर्ष 2008 में 250 से भी अधिक तथा वर्ष 2009 के प्रारम्भ में लगभग 100 के निकट इसी प्रकार की घटनायें हुई इसके बाद भारत सरकार ने हिमालयी रिपोर्टिंग, भारतीय प्रेस पर प्रतिबन्ध लगा दिया। आज देश के समाचार पत्रों एवं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को सूचनायें मिलना बन्द हैं। क्या उक्त प्रतिबन्ध से घुसपैठ समाप्त हो गयी या कोई कमी आयी। इस प्रतिबन्ध से चीन के ही हित सुरक्षित हुये तथा उनके मनमाफिक हुआ। जरा हम चीन के भारत के प्रति माँगों की सूची पर गौर करें - वह चाहता है अरुणाचल प्रदेश उसे सौंप दिया जाये तथा दलाईलामा को चीन वापस भेज दिया जाये। वह लद्दाख में जबरन कब्जा किये गये भू-भाग को अपने पास रखना चाहता है तथा वह चाहता है। भारत अमेरिका से कोई सम्बन्ध न रखे इसके साथ-साथ चीन 1990 के पूरे दशक अपनी सरकारी पत्रिका ‘‘पेइचिंग रिव्यू'' में जम्मू कश्मीर को हमेशा भारत के नक्शे के बाहर दर्शाता रहा तथा पाक अधिकृत कश्मीर में सड़क तथा रेलवे लाइन बिछाता रहा। बात यही समाप्त नहीं होती कुछ दिनों पहले एक बेवसाइट में चीन के एक थिंक टैंक ने उन्हें सलाह दी थी कि भारत को तीस टुकड़ों में बाँट देना चाहिये। उसके अनुसार भारत कभी एक राष्ट्र रहा ही नहीं। इसके अतिरिक्त चीन भारत पर लगातार अनावश्यक दबाव बनाये रखना चाहता है। वह सुरक्षा परिषद में भारत की स्थाई सदस्यता पाने की मुहिम का विरोध करता है तो विश्व बैंक और अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष में अरुणाचल प्रदेश की विकास परियोजनाओं के लिये कर्ज लिये जाने में मुश्किलें खड़ी करता है। इसके साथ-साथ तिब्बत में सैन्य अड्डा बनाने सहित अनेक गतिविधियाँ उसके दूषित मंसूबे स्पष्ट दर्शाती हैं।
अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की नवम्बर की बहुप्रतीक्षित भारत यात्रा पर कई देशों में आम भारतीयों की नजर भी लगी हुई है। कई समीक्षक उनकी विदेशनीति तथा कई अन्य विषयों पर उनके रूख की समीक्षा कर रहे है। बराक ओबामा की यह यात्रा निसंदेह उत्साहपूर्ण वातावरण में हो रही है संसद के संयुक्त अधिवेश्न सहित वे कई आर्थिक-राजनैतिक कार्यक्रमों में हिस्सा लेगें। बराक ओबामा की सोच भारत के बारे में क्या है? वे भारत के विश्व पटल पर उभरने की संभावना को राजनैतिक-कूटनीतिज्ञ कारणों से नहीं अपितु अन्य कारणों से देख रहे है। ओबामा जब से अमेरिका के राष्ट्रपति बने है तब से कई बार भारतीय छात्रों एवं उनकी मेधा की चर्चा विभिन्न मंचों पर कर चुके है। उनकी चिन्ता उभरती अर्थव्यवस्था के प्रतीक भारत एवं चीन के वे छात्र हैं जो विश्व पटल पर छा जाने के लिए जबर्दश्त मेहनत कर रहे है। इन छात्रों के परिवारीजन अपने सारे संसाधन झोंक कर उनको उच्च शिक्षा तथा तकनीकी शिक्षा मुहैया करा रहे है।
एशोसिएट प्रोफेसर
अयोध्या विवाद के समाधान की ओर अग्रसर होने के पूर्व मामले के दोनों पक्षों हिन्दू और मुस्लिम समुदाय के बीच एकता के किसी सूत्र को तलाशना होगा। जब तक हमें कोई ऐसा सूत्र प्राप्त नहीं होता जिस पर हिन्दू एवं मुस्लिम दोनो पक्ष कोई प्रतिकूल टिप्पणी न कर सकें तब तक दोनो समुदाय के बीच किसी समझौते की आशा रखना व्यर्थ है।
इन दिनों कोई भी पत्रकार अगर खबरें पढ़ता सुनता है तो या तो अयोध्या की या कॉमनवेल्थ की. पर किसी किसी क्षण फोन बजता है तो कोई साथी दुखद खबर दे कर मन को संतप्त सा कर देता है. आज दूरदर्शन पर समाचार देखते-देखते शैलेश भारतवासी फोन आया और उसने सूचना दी कि कन्हैयालाल नंदन नहीं रहे! सचमुच, कोई प्रभावशाली शख्सियत यूँ अचानक चली जाए तो हृदय को धक्का सा पहुंचना स्वाभाविक ही है. उनके निधन पर मुझे इसलिए भी विशेष आघात पहुंचा कि इसी 27 सितम्बर के लिये ‘परिचय साहित्य परिषद’ की ओर से उन्हें विशेष आमंत्रण था. ‘परिचय साहित्य परिषद’ ने 27 सितम्बर को ‘सत्य सृजन सम्मान’ देने का विशेष कार्यक्रम रखा था और परिषद की अध्यक्षा उर्मिल सत्यभूषण ने मुझे बताया कि उन्होंने नंदन जी को भी विशेष निमंत्रण दिया था कि वे इस कार्यक्रम में आएं व परिषद की ओर से ‘सत्यसृजन सम्मान’ स्वीकारें. नंदन जी पिछले दिनों कई बार Dyalisis पर रहे, हालांकि जब जब वे स्वस्थ होते तब वे अपनी कर्मशीलता की किसी आतंरिक प्रेरणाल शक्ति से कार्यक्रमों में निरंतर जाते रहते. जब उन्होंने उर्मिल सत्यभूषण से अपने अस्वस्थ होने के कारण असमर्थता ज़ाहिर की तब उर्मिल जी ने निर्णय लिया कि परिषद की ओर से उनके निवास स्थान पर ही कुछ ही दिनों बाद उन्हें सम्मान देने कुछ लोग जाएंगे. परन्तु नियति को कुछ और ही मंज़ूर था और वे 25 सितम्बर प्रातः लगभग पौने चार बजे अपनी जीवन यात्रा संपन्न कर के प्रस्थान कर गए.





फ़िल्म जगत में बहुत कम ऐसी फ़िल्में आती हैं जिनका इंतज़ार महीनों से लोग किया करते हैं। उन्हीं में से एक फ़िल्म आई है ’पीपली लाइव’। अनुषा रिज़्वी द्वारा निर्देशित और आमिर खान प्रोडक्शन्स की यह फ़िल्म किसानों की आत्महत्या पर आधारित है। अब चूँकि पन्द्रह अगस्त नज़दीक था और दो दिनों की "छुट्टी" थी तो मेरी टीम ने सोचा कि क्यों न फ़िल्म देख ली जाये। बाहर भी जाना हो जायेगा और एक अच्छी फ़िल्म भी देख ली जायेगी। शुक्रवार दोपहर की टिकटें बुक करवाईं और हम पहुँच गये हॉल।
स्वतंत्रता दिवस के लिए कुछ लिखने बैठा तो इस बार सोचा था कि कुछ पॉजिटिव ही लिखूंगा…बहुत सोचा, कुछ अच्छी बातें आईं भी दिमाग में लेकिन हर चीज़ घूम कर फिर नकारात्मक हो जाती है. फिर मैंने सोचा कि कहीं ऐसा तो नहीं कि मेरी सोच ही नकारात्मक है लेकिन ये विचार भी आगे जाकर वहीँ पहुँच गया. अगर मेरी सोच नकारात्मक है तो ये सोच कैसे बनी, किसने बनाई….किसी भी इंसान का व्यक्तित्व कौन सी चीज़ें मिलकर बनाती हैं? उसका परिवार…उसके आस-पास का माहौल, समाज…फिर अगर मेरी सोच नकारात्मक दिशा में जा रही है तो उसका गहरा कारण है और मेरी ही नहीं इस देश में रहने वाले ज़्यादातर लोगों की सोच नकारात्मक है. ऐसा क्यों है? अभी कुछ दिन पहले ही मैं एक सर्वे पढ़ रहा था जिसके अनुसार भारत का नाम रहने लायक देशों की फेहरिस्त में बहुत नीचे था, साथ ही किस देश के लोग सबसे ज्यादा खुश रहते हैं, इसमें भी भारत का नाम बहुत नीचे है और इसके लिए सर्वे करने की ज़रुरत नहीं, हम अगर अपने आस-पास नज़र दौडाएं तो साफ़ हो जाएगा…सभी लम्बे-लम्बे चेहरे दिखाई देंगे. जीवन की वो उर्जा बहुत कम लोगो में दिखाई पड़ती है. हर आदमी डरा-सहमा सा जी रहा है. हर कोई असुरक्षा की भावना से लबालब भरा हुआ है. जीने का एकमात्र मक़सद सिर्फ पैसा कमाना है…सब घिसट रहे हैं. प्रतिभा का कोई मोल नहीं है, जो चीज़ बाज़ार में गर्म है सब के सब उस तरफ दौड़ पड़ते हैं. हर कोई अपने साथ जबरदस्ती कर रहा है. ऐसे में कोई खुश रहे भी तो कैसे? हर वक़्त तलवार लटकी है. वो काम कर रहे हैं जिसमे बुध्धि नहीं चलती लेकिन अपनी जगह से ज़रा भी हिल-डुल नहीं सकते, पीछे असुरक्षित लोगों की लम्बी कतार लगी है और ये कतार हर जगह है, एक जगह गई तो दूसरी जगह के लिए फिर कतार में लगना. ऐसे में सब येन-केन-प्रकारेण कोई जगह हासिल करने की जुगत में रहते हैं…भ्रष्टाचार को गाली दो लेकिन अपना मौका आये तो चूको मत. हर किसी के मुह से यही तर्क सुनाई देता है कि हम नहीं करेंगे तो दूसरा करेगा, क्या करें ज़माना ही ऐसा है करना पड़ता है...हर तरफ भ्रष्ट लोग, दोमुहे लोग, दोगले लोग, मौकापरस्त लोग, गन्दगी से भरे लोग………………………………………..
मार्कण्डेय