Thursday, May 06, 2010

मीडिया आपको क्यों बनाए सेलिब्रिटी

हिन्दीबाजी-7
~अभिषेक कश्यप*


भाग-6 से आगे॰॰॰॰

हिंदी के लेखकों-बुद्धिजीवियों की कुछ तकलीफें शाश्वत किस्म की हैं। मगर इनमें शायद सबसे अहम शिकायत यह है कि हमें कोई पूछता नहीं। मतलब एक लेखक और बुद्धिजीवी के तौर पर हमारी कोई आईडेंटिटी नहीं।

पिछले हफ्ते मैं तीसीयों साल से दिल्ली में रह रहे हिंदी के एक बड़े कवि-कथाकार से मिलने गया। वह दिल्ली से प्रकाशित एक राष्ट्रीय अखबार के संपादक हैं। उनके खाते में सभी विद्याओं की दो दर्जन किताबें और दर्जन भर विदेश यात्राएं दर्ज हैं। उन्होंने चुटकी लेते हुए बताया-‘मैं बीस साल से पूर्वी दिल्ली के जिस अपार्टमेंट में रहता हूँ, वहां मेरा पड़ोसी भी नहीं जानता कि मैं लेखक हूँ। लोग बस यह जानते हैं कि मैं पत्रकार हूँ और फलाँ अखबार में काम करता हूँ।’

यह अफसोस, पहचान का यह संकट तब और दुख देता है जब हिंदी के अखबार, पत्रिकाएँ और टेलीविजन न्यूज चैनल भी हिंदी के लेखकों-बुद्धिजीवियों की बजाए अंग्रेजी के कलमनवीसों को ही तवज्जो देते हैं। जब अरुंधति राय नक्सल मामले पर गृहमंत्री चिदंबरम की आलोचना करती हैं तो यह ब्रेकिंग न्यूज है मगर राजेंद्र यादव किसी पुरस्कार की चयन समिति की ज्यूरी में रहने के बावजूद पुरस्कार समारोह में इसलिए नहीं जाते कि उन्हें गुजरात का ब्रांड एम्बेसडर बन कर नरेंद्र मोदी की तारीफों के पुल बांधनेवाले अमिताभ बच्चन के साथ बैठना पड़ेगा तो उनका यह नैतिक स्टैंड मीडिया के लिए कोई खबर नहीं। अशोक वाजपेयी की खीज को इसी रोशनी में देखा जा सकता है-‘क्यों हिंदी मीडिया ने हिंदी लेखकों को सेलिब्रिटी बनाने की कोशिश नहीं की?’ अब श्री वाजपेयी के इस भोलेपन पर कौन न रीझ जाए! हिंदी मीडिया को दोष देने से कुछ हासिल नहीं होनेवाला। मीडिया हिंदी का हो या अंग्रेजी का, वह बाजार के नियमों पर ही चलता है। वह उसी को सेलिब्रिटी बनाने की कोशिश करेगा जिनकी मार्केट वैल्यू हो या फिर जिसकी लोगों के बीच वकत हो। लालू यादव, स्वामी रामदेव, शहरूख खान, राखी सावंत के समानांतर सलमान रुश्दी, अरुंधति राय या विक्रम सेठ की अपनी मार्केट वैल्यू है। उनकी किताबों की लाखों प्रतियाँ बिकती हैं और लेखक के तौर पर उनकी प्रतिष्ठा विश्वव्यापी है। मगर हिंदी के लेखक के पास इन दोनों में से कुछ नहीं है - न मार्केट वैल्यू न वकत। लाखों की बात कौन कहे, हमारे मूर्धन्य लेखकों की पुस्तकों का 500 प्रतियों का पहला संस्करण ही सरकारी खरीद का मुहताज होता है। ऐसे में हिंदी हो या अंग्रेजी मीडिया, आपको कौन सेलिब्रिटी बनाएगा?

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बैठकबाज का कहना है :

Unknown का कहना है कि -

ठीक कहा आपने भौतिकवादी पशचिमी संसकृति का आधार ही बड़ी मछली छोटी को निगल जायेगी कहावत से बनता है और मिडीया का यही यत्य है जहगां से पैसा मिलेगा वो उस तरफ ही जायेगा।

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