आलोक सिंह साहिल
मीडिया की भाषा...आज की तारीख में, मीडिया से जुड़ी हर दूसरी बहस का मुद्दा सिर्फ यही है...मीडिया से आशय टीवी चैनलों की भाषा से है...अमूमन हर रोज कहीं न कहीं किसी अखबार, पत्रिका या नेट पर किसी कोने में मीडिया की भाषा पर पढ़ने को मिल जाता है....समझ नहीं आता...कि माजरा क्या है...मुझे नहीं लगता (शायद उम्र का भी दोष है, क्योंकि तब मैं पैदा भी नहीं हुआ था, या फिर इसका कारण व्यापक अध्ययन की कमी हो सकती है) कि इतनी बहस किसी बड़े से बड़े कालजयी कवि, लेखक या उनकी रचना में युक्त भाषा पर हुआ होगा...
कम से कम इससे एक बात तो साफ हो ही जाती है कि लोग मीडिया का एहतराम तो करते हैं...
खैर, मुद्दे पर लौटते हैं, मीडिया की भाषा...
पिछले 15-17 सालों से मैं लगातार टीवी चैनलों को देखता आ रहा हूँ...तब से, जब समाचार और चैनल का मतलब, सिर्फ दूरदर्शन हुआ करता था...जिस पर हर बुलेटिन में कोई न कोई मंत्री जी हाथों में कैंची लिए, फीता (रिबन) काटते दिखते...और जिसकी भाषा में मानो मोहन राकेश और पंत जी की आत्माओं ने कब्जा कर रखा था....तब मुझे अच्छे से याद है, शायद ही कभी मैंने टीवी या इससे इतर कहीं टीवी की भाषा पर कोई बवेला खड़ा होते देखा या सुना (अगर हुआ भी होगा, तो ऐसा जिसे नगण्य मानने में बहुत मेहनत नहीं करनी पड़ेगी)....
फिर, आज क्यों...? क्या इसलिए कि आज मीडिया ने अपने पर बड़े तेजी से फैला लिए हैं...और यह बात उन लोगों के हाजमे के लिए माकूल नहीं, जिन्हें लाख कोशिशों के बाद भी इस इंडस्ट्री में हाइप नहीं मिल पाया...या फिर वजह कोई दूसरी है...आखिर किस बात से एतराज है लोगों को...इससे कि आज मीडिया की भाषा ज्यादा सरल और लोकप्रिय हो गई है...आज हम हिंदी के समाचार में धड़ल्ले से ऊर्दू और अंग्रेज़ी के लोकप्रिय शब्दों का इस्तेमाल करने से नहीं चूकते...या फिर उनके लिए यही महत्वपूर्ण है कि जब बात हिंदी की हो, तो सिर्फ हिंदी का ही उपयोग किया जाए...भला यह कौन सी बुद्धिमत्ता है...
मुझे याद है, हिंद युग्म के एक कार्यक्रम के दौरान राजेंद्र यादव जी ने कहा था, “16वीं शताब्दी से पहले की रचनाओं को लॉकर में बंद कर देना चाहिए क्योंकि इससे हिंदी को सबसे अधिक नुकसान हुआ है”....क्षणिक तौर पर शायद यह बात हमारे मन को बुरी लगे....लेकिन ज़रा शांत दिमाग से सोचिए...क्या इतनी गलत बात कह दी थी राजेंद्र जी ने, वह भी तो इसी भाषा की रोटी खाते हैं...हिंदी का बुरा भला क्योंकर सोचेंगे...
हिंदी हमारी राष्ट्र भाषा है...लेकिन जब हमारा सामना पूरे राष्ट्र से होता है, तो निश्चित रूप से हमें ऐसे सरल, स्पष्ट और प्रभावशाली भाषा की दरकार होती है, जो पूरब से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण तक के हर उस व्यक्ति को समझ आ जाए, जिसे हिंदी का एलिमेंटरी ज्ञान भी हो....और इसी भाषा का तो टीवी चैनलों में प्रयोग होता है...हां, आपको आपत्ति हो सकती है इस बात से कि...उसमें बहुतेरे शब्द अंग्रेजी और ऊर्दू के होते हैं...ये तो हिंदी के साथ नाइंसाफी है!
लेकिन ज़रा इसका दूसरा पहलू भी तो देखिए...नाइंसाफी तो आप कर रहे हैं, हिंदी को दायरों में संकुचित करके...क्या जरूरी है कि हिंदी सिर्फ 2-3 हिंदी भाषी राज्यों की ही अमानत बनी रहे...अगर आज इसका फलक विस्तृत हो रहा है, तो इसमें गलत क्या है...और वैसे भी हिंदी में मिश्रित ऊर्दू, अंग्रेजी और कुछ देशज शब्द तो हिंदी की सुंदरता और इसकी गरिष्ठता बढ़ाने के लिए हैं....भला इनसे हिंदी को क्या ख़तरा...
16वीं सदी में मशहूर शायर मसहफी ने एक शेर लिखा था...मौजूं है...इसलिए लिख रहा हूं...
खुदा रखे जबां हमने सुनी है मिर ओ मिर्ज़ा की,
कहें किस मुंह से ऐ मसहफी ऊर्दू हमारी है...
ऊपर लिखा हुआ शेर, कदाचित साहित्य में पहला दस्तावेज है, जो यह बताता है कि हिंदी और ऊर्दू कभी अलग नहीं थे...ऊर्दू तो हिंदी का ही एक अंश है...तो फिर ऊर्दू से गुरेज क्यों..दूसरी बात अंग्रेज़ी की...तो आज की तारीख में, हमारी बोल-चाल की भाषा में सामान्य रूप से 15-20 फीसदी शब्द अंग्रेज़ी के होते हैं...जो उन्हीं शब्दों के हिंदी वर्जन से ज्यादा सहज और ग्राह्य हैं...अगर इन्हीं शब्दों को हम अपनी भाषा में प्रयुक्त करते हैं, तो फिर बवेला क्यों मचता है...
हां, एक स्तर पर मीडिया की भाषा के ख़िलाफ उठने वाली आवाजों को थोड़ा जायज ठहराया जा सकता है, वह है उच्चारण के स्तर पर....आज के तमाम टीवी स्टार्स (एंकर, बेहतर होगा समाचार वाचकों) की तल्लफुस माशा अल्लाह होती है...यह दुखद है, लेकिन कुछ बातों के लिए तो हमें एक्सक्यूज़ मिलना ही चाहिए....और शायद भाषायी स्तर पर हो रहे आलोचना में यही एकमात्र स्तर है, जहां आलोचक सही सही ठहरते हैं...लेकिन हक़ीक़त यह है कि इस मसले पर ध्यान बिरले ही लोग देते हैं...फिर किस बात के लिए हल्लाबोल...
सच तो यह है कि, टीवी चैनलों ने हिंदी का जितना प्रसार किया है...उतना और किसी ने नहीं किया...चाहे वह कोई साहित्यिक रचना हो...या कोई हिंदी का प्रकांड विद्वान...
एक सामान्य सी बात है....रामचरित मानस के रचयिता तुलसीदास का नाम हर एक को याद है...अक्सर लोगों को इसकी पंक्तियाँ भी याद हैं....क्योंकि रामचरित मानस की सहजता ने इसे लोकप्रिय और लोकगामी बनाया...और जन-जन ने इसे अंगीकार कर लिया...शायद ही दुनिया की कोई ऐसी भाषा हो जिसमें इसका अनुवाद न हुआ....लेकिन मुट्ठीभर लोगों को भी शायद ही याद होगा (हिंदी के स्नातकों या परास्नातकों की बात छोड़ दें, तो क्योंकि पास होने के लिए बहुत कुछ पढ़ना पड़ता है) कवि केशव दास जी ने भी रामचरित मानस की तुलना में रामचंद्रिका की रचना की...लेकिन पूर्वाग्रही भाषा के चलते यह हिंदी के कुछ विशेष विद्वानों और संग्रहालयों से आगे नहीं बढ़ पाया...
तो, अगर लोग आज मीडिया की भाषा को ऐसे ही स्तर पर पहुँचाने की कल्पना करते हैं, जहां पहुँच कर इसकी कम्यूनिकेशन की क्षमता खत्म हो जाए और यह सिर्फ कुछ पोशीदा शय में शुमार हो जाए...तो इसे सिर्फ उनकी गफलत ही कहा जा सकता है...
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5 बैठकबाजों का कहना है :
बवेला इसलिए कि यह मीडिया की भाषा है। आज की तारीख में सबसे शक्तिशाली संस्था की भाषा, तो विरोध तो होगा ही। यही तो बात है कि जब भी आप आगे बढ़ते हैं, तो आपके पीछे से खुरपेंच शुरू हो ही जाता है। शायद यही बात है, जो हमें खुशी देती है चलो लोगों को हमारी तस्लीम तो है सही।
जिसका प्रभाव जितना ज्यादा होता है उतना ही ज्यादा विरोध और बावेला होता ही है.
एक विरासत की भाषा को बिकाऊ भाषा बनते देखना बेहद दुखद है, मगर कड़वा सच भी... लेख अच्छा है..
बवालतो होना ही चाहिये साहिल भाई...
अति का भला न बोलना अति की भली न चूप वाली कहवत है न...
नवभारत टाइम्स पढिये... या उसको अप लोग NBT के नाम से जानते हैं.. शर्म आने लगती है कईं बार.. दो चार शब्द अंग्रेज़ी के हों तो चलता है पर यदि "कम्पलीट सेंटेंस" ही अंग्रेज़ी में हो तो??
यही हाल इंडिया टीवी और IBN7 का भी है.. वो भी भरपूर इंग्लिश का इल्तेमाल करते हैं..
हंगामा तो होना ही चाहिये.. :-)
तपन भाई, हिंदी की रोटी तोड़तो हूं, तो दर्द मुझे भी होता है कि ये हमारी भाषा के साथ किस कदर घिनौना मजाक हो रहा है....लेकिन ये बात सोच थोड़ी पुरानी पड़ने लगी है...क्योंकि हम इस बात पर ध्यान क्यों नहीं देते कि हम आपस में बोलचाल के लिए किस भाषा का इस्तेमाल करते हैं...वह रसीली और साहित्यिक, विशुद्ध हिंदी के गरिष्ठ शब्दों से युक्त भाषा में मुझे रस आता है नशा आता है...शायद आप या हमारे आप जैसे कुछ तथाकतइत पढ़े-लिखों को रस मिलता है...लेकिन क्या ये मुनासिब बात है कि...हम हिंदी को इसी दायरे में कैद कर दें.....क्योंकि आज का मास तो उस भाषा को समझता है नहीं है...यूं कहें हिंदी के गरिष्ठ शब्दों को बचाने की उसकी क्षमता ही खराब हो चुकी है...तो संचार के समय इस बात का भी तो ध्यान रखना पड़ता है...
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