Thursday, April 22, 2010

हिंदी समाज में बुद्धिजीवी नैतिक पहचान का संकट

हिन्दीबाजी-5
~अभिषेक कश्यप*


भाग-4 से आगे॰॰॰॰

बरसों पहले की बात है। तब मैं दिल्ली नया-नया आया था। एक मित्र मुझे अपने साथ सिरी फोर्ट ऑडिटोरियम ले गए। वहां विख्यात लेखक-बुद्धिजीवी एडवर्ड सईद के जीवन और अवदान पर केन्द्रित एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म का प्रसारण होना था। उन दिनों सईद की किताब ‘ओरिएंटलिज्म’ की काफी चर्चा थी और हिंदी की कई छोटी-मंझोली साहित्यिक पत्रिकाओं में सईद की राष्ट्रवाद की अवधारणा को लेकर अच्छी-खासी बहस चल रही थी। इसलिए सईद पर केंद्रित इस फिल्म को लेकर मैं बहुत उत्सुक था। फिल्म देखने आए छात्र-छात्राओं में ज्यादातर युवा थे- जवाहर लाल नेहरू और दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र-छात्राएं। और वाकई वह एक बेहतरीन ड्रॉक्यूमेंट्री फिल्म थी। बाद में मुझे पता चला, वह फिल्म इतनी पसन्द की गई कि उसका रिपीट शो करना पड़ा। फिल्म निर्देशक का नाम अब याद नहीं आ रहा मगर सईद से बातचीत के दौरान उसकी गर्मजोशी और जिरह की मुद्रा अब भी मेरे जेहन में दर्ज है। बातचीत के दौरान सईद से उसने एक दिलचस्प सवाल पूछा- ‘आपकी जड़ें दक्षिण एशिया से जुड़ी है, आपका मजहब इस्लाम है और रहते आप यूरोप में हैं...... आप खुद को कहां का मानते हैं? आप कहां से बिलांग करते हैं ?’ एडवर्ड सईद ने दो टूक जवाब दिया-‘देशकाल, धर्म, जाति और सम्प्रदाय से परे बुद्धिजीवी की अपनी एक अलग नैतिक पहचान होती है!’
सईद के इस विचार की रोशनी में हिंदी के लेखकों-बुद्धिजीवियों की जीवनशैली और गतिविधियों को देखें तो हम खुद को एक गहरे शर्म और अफसोस से घिरा पाएंगे।
‘क्या हिंदी के बुद्धिजीवियों की कोई आइडेंटिटी’ है? इस सवाल का जवाब साफ है-‘नहीं ।’
किसी लेखक, कलाकार, बुद्धिजीवी के लिए यह जरूरी है कि सबसे पहले वह अपनी पारिवारिक-सामाजिक पृष्ठïभूमि से ऊपर उठे। परिवार, समाज और राजनीति में रहते हुए भी वह उसका हिस्सा न बने, बल्कि वह चीजों को एक अलग नजरिए से देखने का अभ्यास रखे। वह उन बंधनों, आदतों और पूर्वाग्रहों से निरंतर ऊपर उठने की कोशिश करे जो यथास्थिति बनाए रखने की पक्षधर हैं। तभी वह हालात की जटिलताओं को समझ और व्यक्त कर सकता है। मगर दुर्भाग्य से हमारे बुद्धिजीवी उन्हीं आदतों, रूढिय़ों और पूर्वाग्रहों के आसानी से शिकार हो जाते हैं, जिनसे हमारा हिंदी समाज ग्रस्त है।
हिंदी के बुद्धिजीवियों के लिए लिखना समाज और राजनीति में बदलाव के लिए एक एक्टिविस्ट की तरह मिशन भाव से काम करते हुए बुद्धिजीवी होने की अपनी स्वतंत्र नैतिक पहचान के लिए संघर्ष करना नहीं है। लेखन उनके लिए एक करियर है, जिसके जरिए वे ताउम्र पुरस्कार, पद, प्रतिष्ठा का जुगाड़ करते रहते हैं। उत्तर-आधुनिकता, भूमंडलीकरण, बाजारवाद और अस्मिता-विमर्श जैसे पश्चिम से आयतित जुमले लेखन का करियर चमकाने में उनकी खूब मदद करते हैं। यह बात और है कि अपने देश की जमीनी हकीकतों से उनका वास्ता न के बराबर होता है। इसलिए अपने देश में घटी हर छोटी-बड़ी घटना-दुर्घटना को वे पश्चिम से आयातित इन्हीं जुमलों की मदद से समझने-समझाने की कोशिश करते हैं।
हमारे बुद्धिजीवी बात भले साम्यवाद की करते हैं मगर उनका मूल वाद है - अवसरवाद। वे समाज के हित और राजनीति में व्यापक बदलाव की बात करते हैं मगर उनकी मुख्य रूचि लेखन के करियर के जरिए अपने निजी हितों को साधने में होती है।
हिंदी के ज्यादातर लेखकों-बुद्धिजीवियों की जीवनशैली ठीक वैसी ही है जैसी विचार शून्यता में लबालब डूबे हिंदी पट्टी के किसी खाते-पीते मध्यवर्गीय की हो सकती है। लेखन उनके लिए सामाजिक सुरक्षा और प्रतिष्ठा पाने का कारगर औजार है, जिसके जरिए वे ठीक उसी तरह ज्यादा-से-ज्यादा भौतिक सुख-सुविधाएं जुटाने की होड़ में लगे रहते हैं जिस तरह कोई डॉक्टर, इंजीनियर, वकील, दलाल या व्यवसायी। वे कुछ खोने को तैयार नहीं। सुरक्षित मध्यवर्गीय जिंदगी जीते और ताउम्र पैसा, पद, पुरस्कार की होड़ में शामिल वे बस एक चीज खोते हैं- अपनी नैतिक पहचान।

आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)

बैठक जमाने वाले पहले पाठक बनें, अपनी प्रतिक्रिया दें॰॰॰॰

आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)