Thursday, April 08, 2010

अकादमियों का भाईचारावाद

हिन्दीबाजी-3
~अभिषेक कश्यप*


भाग-2 से आगे॰॰॰॰

हिंदी साहित्य के संवर्द्धन और विकास के लिए बनी संस्थाओं और अकादमियों के भाईचारा और संपर्क कौशल की मिशाल कहीं ढूंढ़े नहीं मिलेगी। इसमें भी अगर संस्था या अकादमी सरकारी हुई तो माशाअल्ला! सरकारी होने की वजह से इन संस्थाओं और अकादमियों के कुर्ताछाप रघुपतिये सचिवों-उपसचिवों की आस्था साहित्य, विचार और सृजनात्मक गतिविधियों में कम लोकतंत्र में ज्यादा होती है। और भइया, लोकतंत्र का तकाजा है कि आप भाईचारा को बढ़ावा दें और अपने संपर्क-कौशल को धार देते रहें। और इस पवित्र-पावन भाईचारावाद की वजह से अगर साहित्य जाता है तो जाए तेल लेने! अपने को क्या?
सचिव-उपसचिव के पद को सुशोभित करने वाले इन कुर्ताछाप रघुपतियों का लोकतांत्रिक भाईचारावाद मित्रों, लाभ पहुंचाने वाले परिचितों और सुंदर स्त्रियों (कंवारी हो तो क्या कहने!) से शुरू होता है। औरत हो, युवा और सुंदर हो तो इस भाईचारावाद में वह पहले नंबर पर आएगी। ‘वो कहते हैं ना, लेडिज फ्रस्ट! हो-हो-हो।’
‘अरे काहे का साहित्य और काहे की प्रतिभा! आप तो इतनी सुंदर हो कि कुछ भी लिख दो तो कविता हो जाएगी।....... फिर हम जनता के पैसों से चल रही अपनी अकादमी में आपको कविता-पाठ(?) के लिए आमंत्रित कर लेंगे। आप कवयित्री होने का गौरव भी पा जाएंगी और कविता-पाठ के बाद हम आपको मानदेय के तौर पर रुपयों वाला लिफाफा भी पकड़ाएंगे! हो-हो-हो!’
बीते ३० नवंबर को साहित्य अकादमी की वार्षिक पुस्तक प्रदर्शनी के दौरान आयोजित साहित्य-उत्सव के दूसरी गोष्ठी इसी भाईचारावाद का नमूना थी। आमंत्रित रचनाकारों में एक नवोदित कवयित्री भी थी, जिसके साहित्य में अभी दूध के दांत भी नहीं टूट्रे। उसकी कविताएं अभी इक्का-दुक्का पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं और हिंदी कविता के परिदृश्य में अभी उसकी कोई उल्लेखनीय पहचान नहीं। मगर शायद यहां इसी लोकतांत्रिक भाईचारावाद का असर था कि उसे कविता-पाठ के लिए आमंत्रित कर लिया गया। जबकि हिंदी पट्टी से रोजी-रोटी की तलाश में दिल्ली आए प्रतिभाशाली नवोदित कवियों-कथाकारों की कोई कमी नहीं, जिन्हें कविता और कहानी-पाठ के लिए आमंत्रित कर साहित्य अकादमी भी धन्य होती। इनमें से कई ऐसे भी हैं जिन्हें आर्थिक सहयोग की भी दरकार है। मगर इन पर कुर्ताछाप रघुपतियों की नजर तब पड़ती है जब वे अपना भाईचारावाद निपटा चुक होते हैं।
ऐसे में अब समय आ गया है कि जनता के पैसे से चलने वाले इन संस्थाओं और अकादमियों को लेखकों, पाठकों और श्रोताओं के प्रति जवाबदेह बनाने की मुहिम शुरू की जाए। यह भी तय होना चाहिए कि इन अकादमियों का कामकाज, इनके आयोजन पारदर्शी हों और इनके फैसलों में युवा और नवोदित लेखकों-कवियों की भागीदारी सुनिश्चित हो। वरना हम इन अकादमियों और संस्थाओं के इसी तरह के भाईचारावाद को देखने और भोगने को अभिशप्त होंगे।
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*लेखक कहानीकार और स्वतंत्र पत्रकार हैं

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