~अभिषेक कश्यप*
भाग-1 से आगे॰॰॰॰
हिंदी शायद संसार की इकलौती ऐसी भाषा है जिसके परजीवी मलाई-रबड़ी पर पलते हैं और श्रमजीवी अभाव, वंचना और अपमान का शिकार होते हैं। हिंदी के परजीवियों ने अपने पराक्रम से यह साबित कर दिया है कि बेईमानी, काहिली, चापलूसी और मक्कारी हमारे समय की सबसे बड़ी कलाओं का नाम है। हिंदी के मानसपुत्र श्रमजीवियों की व्यथा-कथा जितनी दर्दनाक है परजीवियों की सफलता और समृद्धि के किस्से उतने ही हैरतअंगेज।
इस बार यहाँ मैं एक ऐसा ही हैरतअंगेज किस्सा बयान कर रहा हूँ। इस किस्से का संबंध हिंदी के विख्यात लेखक कमलेश्वर और उनकी बेटी मानू से है। दो-तीन साल पहले कमलेश्वर जी की आकस्मिक मृत्यु के बाद उनके अभिन्न मित्र, यशस्वी कथाकार और ‘हंस’ के संपादक राजेन्द्र यादव ने मेरे सामने प्रस्ताव रखा कि मैं ‘हंस’ के लिए कमलेश्वर के बारे में उनकी बेटी मानू से एक साक्षात्कार लूँ। इसी इंटरव्यू के दौरान मानू ने वह किस्सा मुझे सुनाया जिसका जिक्र मैंने ऊपर किया।
यह उन दिनों की बात है जब कमलेश्वर मुंबई में थे और हिंदी साहित्य की महत्वपूर्ण पत्रिका ‘सारिका’ के संपादक हुआ करते थे। मानू तब मुंबई के एक प्रतिष्ठित कॉलेज में बी. ए. की छात्रा थी। वहाँ नियम था कि दाखिले का फार्म खुद अभिभावक को कॉलेज आकर लेना है। कमलेश्वर कॉलेज पहुँचे और दाखिले के फार्मवाली खिडक़ी पर कतार में अपनी बारी की प्रतीक्षा करते हुए खड़े हो गये। तभी कॉलेज के हिंदी विभाग के एक प्राध्यापक की उन पर नजर पड़ी। वह कमलेश्वर जी को यह कहते हुए कतार से निकाल लाए कि फार्म हम मंगवा देते हैं।
कमलेश्वर कॉलेज से लौटे और मानू को इस बात के लिए राजी किया कि बी. ए. में वह समाजशास्त्र की बजाए हिंदी साहित्य की पढ़ाई करे। मानू ने बताया कि वहां हिंदी विभाग में तीन प्राध्यापक थे मगर शायद पिछले कई बरसों से हिंदी विभाग में दाखिला लेने कोई विद्यार्थी नहीं आया था। और संयोग देखिए, इस कमी को कोई और नहीं हिंदी के एक यशस्वी लेखक की बेटी ने पूरा किया।
मानू ने आगे बताया कि पूरे तीन साल वह कॉलेज की ‘वीवीआईपी छात्रा’ रही। पढऩेवाली वह अकेली पढ़ाने वाले तीन!
हम मोटे तौर पर आकलन करें, किसी महाविद्यालय या विश्वविद्यालय में नियमित रूप से कार्यरत तीन प्राध्यापकों के वेतन और अन्य भत्तों पर कितना खर्च आता होगा? डेढ़ लाख? दो लाख? या इससे अधिक? और यह सिर्फ उसी कॉलेज की त्रासदी नहीं। अगर जाँच की जाए तो देश भर में ऐसे सैकड़ों महाविद्यालय-विश्वविद्यालय हैं जहां हिंदी विभाग में या तो कोई विद्यार्थी नहीं या इक्का-दुक्का विद्यार्थी हैं। ये इक्का-दुक्का छात्र-छात्राएँ वे हैं जिन्हें हिंदी भाषा और हिंदी साहित्य से कोई लेना-देना नहीं। कई उदाहरण मैंने ऐसे भी देखे हैं जहां किसी फिसड्डी विद्यार्थी को नंबर कम होने या दूसरी वजहों से किसी अन्य विषय में दाखिला नहीं मिल पाता और वे ‘मजबूरी का नाम महात्मा गाँधी’ की तर्ज पर हिंदी विभाग की शरण में आते हैं। खैर, विद्यार्थी हो न हो, हिंदी भाषा और साहित्य का कुछ भला हों न हों, हिंदी विभाग को तो रहना ही है। सरकार को राष्ट्रभाषा हिंदी पर अरबों रुपये जो खर्च करने हैं। चौंकिए मत, यह सरकार के ‘अजब हिंदी प्रेम की गजब कहानी’ है।
विश्वविद्यालयों के हिंदी विभागों के साथ-साथ सार्वजनिक उपक्रमों के राजभाषा विभागों का भी यही आलम है। सितबंर महीने में ‘हिंदी पखवारा’ के 15 दिन गुजर जाने के बाद बाकी साल भर वे क्या करते हैं, यह शोध का विषय है।
कई साल पहले एक परियोजना के तहत मुझे सार्वजनिक उपक्रम के राजभाषा विभाग के एक हिंदी अधिकारी के साथ उनके कार्यालय में पूरा हफ्ता गुजारना पड़ा। 50 हजार रुपये का मासिक वेतन पानेवाले उन अधिकारी महोदय ने हफ्ते भर में सिर्फ एक छोटा-सा अनुवाद कार्य किया।
उस अनुवाद कार्य की बानगी देखिए। एक चपरासी उनके पास आया। बोला-‘डायरेक्टर साहब ‘सेलरी पेड हॉलिडे’ की हिंदी पूछ रहे हैं। इस कागज पर लिख दीजिए।’ उन्होंने थोड़ी देर सोचने के बाद लिखा- ‘सवेतन छुट्टी।’
50 हजार मासिक वेतन के हफ्ते भर का हिसाब होगा- साढ़े बारह हजार रुपए। दो शब्दों के अनुवाद की कीमत! जबकि एक पेशेवर अनुवादक को दो शब्दों के अनुवाद के लिए 20 पैसे प्रति शब्द के हिसाब से 40 पैसे और अधिकतम 5 रुपये प्रति शब्द के हिसाब से 10 रुपये मिलते हैं। 40 पैसे बनाम साढ़े बारह हजार रुपये।
मित्रो! यह 40 पैसा हिंदी के श्रमजीवियों की कीमत है और परजीवियों की कीमत 12500 रुपये। श्रम और बेईमानी के बीच का यह लंबा-चौड़ा फर्क क्या कभी कम होगा?
खैर, जो भी हो, सरकार के इस हिंदी प्रेम की नजर उतारनी चाहिए ताकि हिंदी के परजीवी ताउम्र ‘सवेतन छुट्टी’ का आनंद लेते हुए दिन-दूनी रात चौगुनी तरक्की करते रहें। आमीन!
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*लेखक कहानीकार और स्वतंत्र पत्रकार हैं
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बैठकबाज का कहना है :
बेहतरीन लेख....बेतरीन कटाक्ष....बैठक पर आपका स्वागत है....जामिया का भी यही हाल है...
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