0प्रेमचंद सहजवाला
॰॰॰दूसरे भाग से आगे
राज्यसभा में केवल ‘समाजवादी पार्टी’ (सपा) व ‘राष्ट्रीय जनता दल’ (आर.जे.डी) के कुछ सदस्यों की शर्मनाक व गैर-संसदीय गतिविधियों यथा राज्यसभा अध्यक्ष व देश के उप-राष्ट्रपति डॉ. हामिद अंसारी की सीट तक लपकने तथा उन से बिल छीन कर फाड़ देने के कारण यह बिल ‘अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस’ पर पारित न हो सका. यदि उस दिन हो जाता तो यह ‘अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस’ पर देश की महिलाओं के लिए एक उपहार होता. उप-राष्ट्रपति के पास बार बार सदन को स्थगित करने के अतिरिक्त कोई विकल्प था ही नहीं. यह बिल जो कि देश के चौथे प्रधानमंत्री राजीव गाँधी का स्वप्न था, संसद में सन् 1996 में ही जा कर प्रस्तुत किया जा सका, जब एच.डी. देवगौड़ा प्रधानमंत्री थे. उस समय भी यह विषय क्यों कि जीवंत था, जनता खुशखबरी सुनने के लिए दूरदर्शन से चिपकी रही, लेकिन सपा नेता मुलायम सिंह यादव व कुछ अन्य नेताओं के आकस्मिक हस्तक्षेप के कारण सपना चूर सा हो गया था. ‘अन्य पिछड़े वर्ग’ यानी OBC पल्टन को ‘आरक्षण के भीतर आरक्षण’ चाहिए था तथा बिल को रोकना पड़ा और यह बिल उस के बाद 14-15 वर्ष तक दिन का प्रकाश नहीं देख सका. सन् ’96 के बाद अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली ‘राष्ट्रीय लोकतान्त्रिक गठबन्ध’ (NDA) सरकार द्वारा कुल पांच बार - सन् 98, 99,2002 व 2003 (दो बार) में - प्रस्तुत किया गया पर बार बार इसे पटरी से उतारा गया और तब तक यह एक टेढ़ी खीर सा लगने लगा. डॉ. मनमोहन सिंह की ‘संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन’ (UPA) सरकार सन् 2004 में सत्ता में आई तो उस ने इसे ‘न्यूनतम साझा कार्यक्रम’ (Common Minimum Programme) का हिस्सा बनाया और सन् 2008 में संसद में प्रस्तुत किया. OBC नेताओं ने हमेशा आरक्षण को ले कर अधिकाधिक टुच्चे किस्म के राजनीतिक खेल खेले. पहले सन् ’90 में विश्वनाथ प्रताप सिंह व चौधरी देवीलाल ने एक दूसरे को धूल चटवानी चाही. उप-प्रधानमंत्री चौधरी देवीलाल ने दिल्ली के ‘बोट क्लब’ की अपनी आगामी जन्म-दिवस रैली में ‘मंडल आयोग’ की सफरिशें लागू करने की मांग रख कर प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह को सांसत में डाल देने की योजना बनाई. पर विश्वनाथ प्रताप सिंह ने भी चित्त कर देने का कच्ची गोलियाँ नहीं खाई थी. इस से पहले कि चौधरी देवीलाल का जन्मदिन आए, उस ने ‘मंडल आरक्षण’ की सफरिशें लागू करने का निर्णय ले कर देवीलाल को चारों खाने चित्त सा कर दिया. न अन्य राजनीतिक दलों से सलाह-मशविरा और न कोई ज़रूरी बहस! . देश अचानक हक्का-बक्का सा हो कर नौजवानों के आत्म-दाह व विश्वनाथ प्रताप सिंह के पुतले जलाए जाने की खबरें सुनने लगा. एक नवयुवक राजीव गोस्वामी, (जो अब मर चुके हैं) जो आत्म-दाह के बाद बुरी तरह जली हुई स्थिति में सफ़दरजंग हस्पताल में दाखिल थे, को देखने जब मदनलाल खुराना व लालकृष्ण अडवानी गए तो ज्यों ही वे हस्पताल से बाहर आए, कई बौखलाए हुए नौजवान उन दोनों पर झपटे और दौड़ कर मदनलाल खुराना की तो कमीज़ ही फाड़ दी. अडवानी चुस्ती से खिसक कर कार में घुस गए. देश के कई पिछड़े वर्गों को आरक्षण का इंतज़ार था पर यहाँ बेहद घटिया स्तर की राजनीति शुरू हो चुकी थी. आखिर सरकारी नौकरियों में ‘मंडल आरक्षण’ नरसिम्हा राव के कार्यकाल (’91 -’96) में एक अदालती फैसले के बाद ही लागू हो सके. परन्तु उस के बाद भी लालू प्रसाद जैसे निकृष्ट नेताओं का टुच्चापन चलता रहां जो या तो Creamy Layer’ पर या अन्य मसलों पर चद्दर को अपनी ओर खींचते रहे. परन्तु आश्चर्य कि जब लालू प्रसाद सन् 2004 में डॉ. मनमोहन सिंह की UPA सरकार में रेलमंत्री बने व उन के ही OBC समर्थक राजनीतिक शत्रु नितीश कुमार ने सन् 2005 में बिहार के मुख्यामंत्री पद की शपथ ली तब उन्होंने OBC के सवाल पर केवल हल्की मौखिक बयानबाजी करते रहना काफी समझा. लालू प्रसाद को तो देसी घी की स्वादिष्ट कचौड़ियाँ तभी से पसंद थी जब वे बिहार के मुख्यमंत्री थे सो अब केंद्रीय सत्ता की उस से भी बड़ी व स्वादिष्ट कचौड़ी मुंह में रखे रहना उन्हें अच्छा लगता होगा. नतीजतन सन् 2006 में जब संसद ने OBC को शिक्षा संस्थानों में भी आरक्षण देने का विधेयक पारित किया, तब इन दोनों नेताओं ने अधिक कुछ कहा ही नहीं, जबकि उच्च-जातियों के विद्यार्थी विरोध के गुस्से में देश को सिर पर उठाए थे. मीडिया उन्हें पूरी ‘कवरेज’ दे रहा था पर OBC की तरफ से कोई आवाज़ थी ही नहीं. इन प्रदर्शनों के लिए भा.जा.पा व कांग्रेस पर अंगुलियां उठ रही थी कि OBC को खुश करने के बाद वे अपनी गिरगिटिया शैली में उच्च-जातीय वोट बचाने के लिए इन प्रदर्शनों को भीतर ही भीतर से हवा दे रहे हैं. ‘महिला आरक्षण बिल’ पर भी लालू व मुलायम जैसे नेताओं की नज़र बिहार व उत्तर प्रदेश में क्रमशः 2010 व 2012 में होने वाले विधानसभा चुनावों पर रही. सौभाग्य से तीन पार्टियां जिन का हमेशा आपस में झगड़ते रहने का ही रिकॉर्ड रहा, यानी भा.ज.पा कांग्रेस व वाम-मोर्चा, एकजुट हो कर ‘महिला आरक्षण बिल’ के समर्थन में आ खड़ी हुई थी**. दूरदर्शन चैनलों पर तीन महिलाओं - सोनिया गाँधी, सुषमा स्वराज व बृंदा करात को बार बार देखा गया जो इस बिल को पारित कराने के लिए अधिकाधिक उत्तेजित लग रही थी. इन के साथ जयंती नटराजन व नजमा हेप्तुल्ला जैसी उत्साही महिलाएं भी थी. मीडिया ने खुश हो कर सोनिया-सुषमा- बृंदा की तिकड़ी में से सोनिया को ‘बिल की ड्राईवर’ की उपाधि दे दी.
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बिल के विरोध में पार्टी-निरपेक्ष हो कर कई मुस्लिम नेता भी आ खड़े हुए हैं जिन्हें लगता है कि उनका प्रतिनिधित्व संसद व विधान सभाओं में पहले से ही कम है और इसी सबब मुस्लिम महिलाओं के लिए भी इस बिल में एक ‘सब-कोटा’ (sub-quota) होना चाहिए. पर उसी सांस में उन्हें अपनी सीमाएं भी निरंतर कचोटती हैं. उदाहरणार्थ ‘मुस्लिम लीग’ नेता बशीर अली का फरमान है कि ‘मुस्लिम महिलाओं की निम्न साक्षरता को देखते हुए हमें लगता है कि बहुत अधिक मुस्लिम महिलाऐं आगे नहीं आएंगी और इसीलिये उन्हें सांसद बनने के मौके नहीं हो पाएंगे’. ‘मजलिसे इत्तेहाद-उल मुस्लिमीन’ के कर्ता-धर्ता असदुद्दीन ओवैसी ने लोकसभा के अपने भाषण में फरमाया – ‘जबकि 1952 से 2009 तक 7,906 प्रत्याशी 15 लोकसभाओं में चुने गए, केवल 14 ही मुस्लिम महिलाऐं जीतने का जुगाड़ कर पाई. यदि बिल कम प्रतिनिधित वर्गों के लिए एक निश्चित कदम है तो मुझे लगता है कि पहला अधिकार मुस्लिम महिलाओं को जाना चाहिए’. और यह लेख लिखते लिखते अचानक दूरदर्शन पर एक शिया संप्रदाय के धर्मनेता कल्बे जव्वाद बड़े हास्यास्पद तरीके से यह कहते हुए सामने आते हैं कि ‘महिलाओं का काम केवल बच्चे पैदा करना है, राजनीति में उनका कोई काम नहीं है’! दूरदर्शन चैनल इस के बाद ‘Muslim Women’s Personal Law Board’ की अध्यक्षा शायस्ता अम्बर को दिखाता है जो उक्त धर्मनेता को इस बयान के लियी आड़े हाथों लेती हैं! समाचार पत्र ‘All India Shia Personal Law Board’ अध्यक्ष मौलाना मिर्ज़ा मुहम्मद अथर द्वारा ऐसे धार्मिक किस्म के ‘महिला-विरोधी दृष्टिकोण’ की निंदा की रिपोर्ट देते हैं. शायद मुस्लिम नेताओं को अभी निर्णय लेना है कि उन्हें आखिर चाहिए क्या!
दरअसल हिंदू सामाजिक विसंगतियों, जिन का ज़िक्र पहले ‘Hindu Code Bill ’ व Age of Consent Bill के सन्दर्भ में किया जा चुका है, की तरह मुस्लिम समाज में भी कई विसंगतियाँ हैं. यदि मुसलमानों को अपनी महिलाओं की दुर्गति पर दर्द महसूस होता है तो इस के ज़िम्मेदार वे स्वयं ही हैं. ब्रिटिश काल के दौरान महात्मा गाँधी ने असेम्बली के एक जाने-माने विधायक राय साहब हरबिलास शारदा को सुझाव दिया था कि वे असेम्बली में लड़कियों की शादी की न्यूनतम आयु 15 वर्ष व लड़कों की 18 वर्ष तय करने का एक विधेयक प्रस्तुत करें. विधेयक प्रस्तुत होने के लिए तैयार पड़ा था लेकिन ‘मुस्लिम लीग’ नेता मौलाना मुहम्मद अली के आक्रोशपूर्ण हस्तक्षेप से यह ‘शारदा अधिनियम’ केवल हिंदुओं तक ही सीमित रह पाया. मौलाना मुहम्मद अली इंग्लैण्ड गए हुए थे और वे जब लौटे तो उन्हें ‘शारदा बिल’ के बारे में बताया गया था. मुहम्मद अली का आक्रोश अचानक चेतावनी के स्तर तक पहुँच गया और राजमोहन गाँधी की प्रसिद्ध पुस्तक ‘Understanding The Muslim Mind’ के ‘मुहम्मद अली’ पर ही लिखे अध्याय के अनुसार ‘अपनी नींद व भोजन दोनों को कुर्बान कर के मुहम्मद अली ने 24 घंटे जाग कर इस बिल के विरुद्ध वाईसरॉय को देने हेतु 25 पृष्ठ का एक ज्ञापन तैयार किया’ (p 116). यह सब इस तथ्य के बावजूद कि मुहम्मद अली भलीभाँति जानते थे कि संबंधित विधेयक किसी भी प्रकार से ‘शरीयत’ के आक्रोश को आमंत्रित नहीं करेगा क्यों कि ‘शरीयत’ छोटी या बड़ी उम्र के विवाहों को व्यक्तिगत चयन के मामला मानती है (वही पृष्ठ). उसी पृष्ठ पर राजमोहन गाँधी आगे लिखते हैं कि बाल-विवाह व उन का खतरनाक तरीके से समय-पूर्व शारीरिक संभोग में बदल जाना अभी तक ग्रामीण क्षेत्रों के मुसलमानों व कस्बाई क्षेत्रों के निम्न वर्गों में लगभग पूर्णतः प्रचलित था और है. मौलाना मुहम्मद अली इस मामले में अंततः सफल हुए कि यह बिल मुसलमान समुदाय पर कतई थोपा न जाए. जब राय साहेब ने बिल प्रस्तुत किया तो ब्रिटिश सरकार ने पहले इसे सर मोरोपंत विश्वनाथ जोशी के नेतृत्व वाली एक दस- सदस्यीय समिति को सौंप दिया. कई महिला संस्थाओं ने इस ‘जोशी समिति’ के सामने जा कर पक्षधरता जताई जिन में कई मुस्लिम महिलाएं भी थी, हालांकि उन सब को पता था कि मुस्लिम उलेमा लोग कभी भी अभागी मुस्लिम बालिका को कोई राहत देने वाले नहीं होंगे. यह तो केवल एक उदाहरण है. ‘शरीयत’ की पगबाधा ने ही मुस्लिम महिलाओं की प्रगति में असंख्य रोड़े अटकाए हैं. क्या हम उस गरीब औरत शाह बानो की व्यथा-कथा भूल सकते हैं जिस के ‘मासिक खर्चे’ के मुक़दमे को मुस्लिम पुरुष समाज ने सहसा ‘शरीयत बचाओ’ के रुदन से ज़ख़्मी कर दिया था? एक मुकदमे के ज़रिये शाह बानो ब-मुश्किल अपने पति से, जिस ने उसे परित्यक्त कर के दूसरा विवाह कर लिया था, मात्र 179.20 रूपए मासिक व्यय बटोर पाई थी. परन्तु मुस्लिम कट्टरपंथियों को लगा कि इस अदालती निर्णय का मतलब था उनकी पवित्र पुस्तक कुरआन से छेड़खानी और उन्होंने इस फैसले के विरुद्ध छाती पीटनी शुरू कर दी. कई महारैलियां कर डाली. वातावण को चीर डालने वाले नारे गूँज उठे – ‘शरीयत बचाओ’ ... ‘शरीयत बचाओ’... सांसदों ने संसद सिर पर उठा ली. शहाबुद्दीन जैसे नीच-स्तर नेताओं ने सरकार की नींद हराम कर दी. नतीजतन तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाँधी एक जाल में फंस गए. उन्होंने मुस्लिम वोटों को मद्दे- नज़र रखते हुए संविधान को ही आहत कर दिया. उन्होंने संसद में पीछे की तारिख लगा कर संविधान को संशोधन करने का बिल पारित करवा दिया और 75 वर्ष की एक बूढ़ी औरत से 179.20 रूपए प्रतिमाह का तुच्छ मासिक खर्चा छीन लिया. ‘महिला आरक्षण बिल’ के सन्दर्भ में प्रमुख इस्लामी संस्था ‘नद्वा तुल उलेमा’ के मुखिया मौला सईद्दुर रहमान को क्या कहना है, वह पढ़ें - ‘सभ्य महिलाओं के लिए राजनीति एक असंभव सा पेशा है... इस्लाम महिलाओं को पर्दे की अवमानना व जनता के बीच खड़ी हो कर भाषण करने और अपने अधिकार मांगने की इजाज़त नहीं देता. उन के पास अनुसरण के लिए स्पष्ट मार्ग-दर्शन हैं: घर के भीतर हिजाब से रहो और घरेलू ज़िम्मेदारियां संभालो’ (Times of India 12 मार्च 2010 p 14). देवबंद के ‘दारुल-उलूम’, जो कि मुस्लिम संप्रदाय की नाड़ियों के केंद्र में है, ने सन् 2005 में एक फ़तवा दिया था कि ‘महिलाओं का चुनाव लड़ना एक गैर-इस्लामी व्यवहार है’. पिछड़े हुए हिंदू समाज की तरह मुस्लिम महिला के दुःख-दर्द की भी एक लंबी दास्तान है. मैंने एक मुस्लिम महिला की राम्-कहानी को बेहद संतप्त हो कर पढ़ा था जो पति से झगड़े के बाद मायके चली गयी थी. उस के पति ने उस की अनुपस्थिति में ही केवल तीन बार ‘तलाक तलाक तलाक’ का उच्चारण कर के अपने दोस्तों व संबंधियों के सामने उसे तलाक दे डाला. महिला कुछ दिन बाद मायके से लौट भी आई और पति ने उस के साथ रहना भी जारी रखा! लेकिन कुछ ही दिन बाद जब एक संबंधी उन के घर आया तो पत्नी को वहां देख बौखला उठा और तलाक के बावजूद उस के वहां होने पर प्रश्न-चिह्न लगा दिया. महिला को तलाक की जानकारी थी ही नहीं. आगंतुक ने पत्नी को झाड़ते हुए बताया कि तुम्हें तो कब का तलाक दिया जा चुका है! तुमने इस घर में कदम भी कैसे रखा? इस के बाद जो विद्रूपता भरी बात हुई वह यह कि पत्नी वहां से निकल कर सीधी पुलिस-थाणे गई और वहां पति के खिलाफ उस ने FIR लिखवाया बलात्कार का! उस के पास ‘अनुपस्थिति में ही तलाक’ दिए जाने के मूर्खतापूर्ण क़ानून पर कोई प्रश्न-चिह्न लगाने का विकल्प जो नहीं था!
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** दुर्भाग्य कि इस लेख की यह किस्त लिखते लिखते वह स्थिति भी बदल चुकी है. भा.ज.पा, ममता बैनर्जी व वाम-मोर्चा आदि, अपने अपने स्वर बदल चुके हैं.
(क्रमशः...............................)
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बैठकबाज का कहना है :
भूल सुधार: इस लेख में एक भूल रह गई है. राजीव गाँधी को चौथे प्रधानमंत्री कहा गया है. वास्तव में वे देश के प्रधान मंत्री बनने वाले छठे नेता थे पर क्रम से देखा जाए तो सातवें थे. 1. पंडित नेहरु 2. लाल बहादुर शास्त्री 3. इंदिरा गाँधी. 4. मोरारजी देसाईं 5.चौधरी चरण सिंह 6. इंदिरा गाँधी 7. राजीव गाँधी.
पाठक इस भूल के लिए क्षमा करें.
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