~अभिषेक कश्यप*
भाग-5 से आगे॰॰॰॰
हिंदी की साहित्यिक कृतियों पर लिखी समीक्षाओं-आलोचनाओं में ‘क्लैसिक’ शब्द पर बहुत जोर दिया जाता है। अखबारों के लिए समीक्षा लिखनेवाले कई नवसिखुए तो किसी ऐरे-गैरे के उपन्यास या कविता-संग्रह को क्लैसिक बताने में तनिक संकोच नहीं करते। यही नहीं, सरकारी पैसे पर शोध करने वाले विद्यार्थी और विश्वविद्यालयों में हिंदी की प्रोफेसरी करते हुए मोटी तनख्वाह, सामाजिक सुरक्षा-प्रतिष्ठा का भरपूर उपभोग करने वाले हमारे आलोचकगण भी अपनी परंपरागत विद्वता के बूते इस-उस किताब को क्लैसिक बताते रहते हैं। ऐसे में यह सवाल लाजिमी है कि क्लैसिक का मतलब आखिर क्या है? दूसरे शब्दों में कहें तो किसी किताब या कृति को क्लैसिक कहने के मानदंड क्या हों?
इस मसले को लेकर पर्याप्त बहस और विवाद की गुंजाइश है। मगर कई साल पहले उर्दू के एक मशहूर लेखक ने किसी किताब के हवाले से क्लैसिक के बारे में जो बात कही, उसका मैं मुरीद हो गया। उन्होंने बताया-‘क्लैसिक वह कृति है, जो लोगों की जिन्दगी में इस कदर घुल-मिल जाए कि लोग उसमें अपने-अपने अर्थ निकालने लगें।’ मतलब ऐसी कृति जिसकी कहानी लोग अपने-अपने ढंग से कहने-सुनने लगें। किताब से बाहर लोगों की जिन्दगी पर जिसका ऐसा सर्वव्यापी असर हो कि हर शख्स के पास उसके परिवेश, घटनाओं और पात्रों की अपनी व्याख्याएं हों। ऐसी कृति जो जनमानस की सामूहिक स्मृतियों का निर्माण करे।
इस विचार की रोशनी में मैं आधुनिक हिंदी साहित्य की क्लैसिक मान ली गई कृतियों पर नजर डालता हूँ। सबसे पहले उपन्यासों की तरफ देखता हूँ- ‘गोदान’ (प्रेमचंद), ‘त्यागपत्र’ (जैनेंद्र कुमार), ‘मैला आंचल’ (फणीश्वर नाथ रेणु), ‘शेखर एक जीवनी’ (अज्ञेय), ‘सारा आकाश’ (राजेन्द्र यादव), ‘राग दरबारी’ (श्रीलाल शुक्ल), ‘कितने पाकिस्तान’ (कमलेश्वर), ‘नौकर की कमीज’ (विनोद कुमार शुक्ल) आदि......................फिर कहानियों की तरफ जाता हूँ- ‘उसने कहा था’ (चंद्रधर शर्मा गुलेरी), ‘पूस की रात’, ‘कफन’(प्रेमचंद), ‘भेडिय़े’ (भुवनेश्वर), ‘परिंदे’ (निर्मल वर्मा), ‘हत्यारे’ (अमरकान्त), ‘राजा निरबंसिया’ (कमलेश्वर),‘जहां लक्ष्मी कैद है’ (राजेन्द्र यादव), ‘टेपचू’, ‘तिरिछ’, ‘और अंत में प्रार्थना’ (उदय प्रकाश) आदि। कविताओं में तत्काल निराला की ‘सरोज स्मृति’, ‘राम की शक्ति पूजा’ और मुक्तिबोध की ‘अंधेरे में’ याद आती है।
मैं खुद से सवाल करता हूँ- ‘ऊपर मैंने आधुनिक हिंदी साहित्य की जिन निर्विवाद रूप से महत्वपूर्ण कृतियों के नाम दिए ... और भी अनेक कृतियां, स्थानाभाव की वजह से जिनके नाम यहां दे पाना संभव नहीं, में से कोई ऐसी कृति है, जनमानस पर जिसका असर तुलसीदास के ‘रामचरितमानस’, मीरा के पद या कबीर के दोहे जैसा हो?’
बिना किसी दुविधा के तत्काल इस सवाल का जवाब दिया जा सकता है- ‘नहीं।’
यह कड़वी सच्चाई है कि आधुनिक हिंदी साहित्य की कोई ऐसी कृति नहीं जो ‘रामचरितमानस’ की तरह जनता की स्मृतियों में रची-बसी हो, नि:संदेह ‘रामचरितमानस’ क्लैसिक है। कोई यह कह सकता है कि तुलसी, सुर, मीरा या कबीर ने लोक जीवन में रच-बस जाने के लिए वक्त की एक लंबी दूरी तय की है। जबकि आधुनिक हिंदी साहित्य की उम्र महज सौ-डेढ़ सौ बरस की है। हिंदी साहित्य के कई सुरमा आज गर्व से यह कहते नजर आते हैं कि दो सौ या पांच सौ साल बाद जिस लेखक की कृतियां बची रह जाएं वही ‘सच्चा लेखक’ होगा। अफसोस कि उनकी आंखें बंद हैं, इसलिए 200-500 साल के बाद की कौन कहे आज ही उनकी किताबें ढाई सौ-पाँच सौ प्रतियाँ छपती हैं और सरकारी पुस्तकालयों के कब्रगाह में कैद हो जाती हैं। अगर हम जानना चाहें तो भारतीय भाषाओं में ही कालजयी लेखकों और क्लैसिक कृतियों के कई उदाहरण मिल सकते हैं।
रवीन्द्रनाथ टैगोर और उनकी कृतियाँ बंगाली जनमानस में किस कदर रची-बसी हैं यह बताने की जरूरत नहीं। यही नहीं, हिंदी के लेखकों, शोध छात्रों और साहित्यिक पाठकों से इतर मैंने हिंदी भाषी प्रदेशों के आम लोगों के बीच जिस कहानी की सबसे ज्यादा चर्चा सुनी है वह हिंदी कथा साहित्य के प्रतीक-पुरुष प्रेमचंद की नहीं, बांग्ला उपन्यासकार शरतचंद्र की है- देवदास। मुझे ऐसे कई लोग मिले हैं जो शरतचंद्र को नहीं जानते, न ही यह जानते हैं कि ‘देवदास’ एक उपन्यास है। देवदास और पारो की प्रेमकथा को वे किसी उपन्यासकार की कल्पना नहीं बल्कि सच्ची कहानी मानते हैं, जो वास्तव में कभी घटी थी।
मैं समझता हूँ जो कृति ऐसा असर पैदा करे, वही क्लैसिक कही जा सकती है। दुनिया भर में ऐसे कई लेखक हैं जिनकी कृतियाँ क्लैसिक के इस मानदंड पर खरी उतरती हैं। चेखव की कई कहानियों में हर तबके के लोगों के सर चढक़र बोलने वाला जादू मौजूद है। महान लातिनी-अमेरिकी उपन्यासकार गैब्रियल गार्सिया माक्र्वेज का उपन्यास ‘हन्ड्रेड इयर्स ऑफ सॉलिटयूड’ ऐसा ही क्लैसिक है जिसकी जादुई सफलता हैरतअंगेज है। वर्ष 1982 में ‘नोबल पुरस्कार’ से नवाजे गए इस उपन्यास की अब तक विभिन्न भाषाओं में ढाई करोड़ से ज्यादा प्रतियाँ बिक चुकी है। माक्र्वेज अभी जीवित हैं और किंवदंती बन चुके हैं। जो कोलंबिया गए हैं वे जानते हैं कि माक्र्वेज एक लेखक का नहीं, जनता में समाहित एक विचार का नाम है और ‘हन्ड्रेड इयर्स ऑफ सॉलिटयूड’ सहित माक्र्वेज की कई कृतियाँ समीक्षाओं-आलोचनाओं से परे सचमुच क्लैसिक हैं यानी जनता की स्मृतियों में रच-बस गई हैं।
बेशक हिंदी को ऐसे लेखकों और ऐसी क्लैसिक कृतियों की सख्त दरकार है। आने वाले समय के लिए हिंदी साहित्य के लिए इससे अच्छी शुभकामना और क्या हो सकती है।