Tuesday, May 05, 2009

गिरता मतदान- लोकतंत्र या अल्पतंत्र

रवि मिश्रा ओसामा से ओबामा तक और मैडोना से मल्लिका तक की ख़बर, हम तक पहुँचाने वाले एक ख़बरिया चैनल की बोलती ज़ुबान हैं। ज़ी (यूपी) में न्यूज़ एंकर रवि मिश्रा छपरा, बिहार से चलकर नोएडा पहुँचे हैं। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के 15वें महापर्व में वोटरों का घटता रूझान इन्हें चिंतित कर रहा है।

चुनाव आयोग ने जब चुनाव की घोषणा की तो कई आंकड़े दिये. सत्तर करोड़ से भी ज्यादा मतदाता बताये और ये भी बताया कि कितने नये मतदाता जुड़े हैं वोटर लिस्ट में. सुनकर लगा कि हमारे लोकतंत्र का दायारा बढ़ता जा रहा है. अब जबकी धीरे - मतदान आगे बढ़ रहा है और ये बात सामने आ रही है कि ये बड़ी संख्या में वोटर मतदान नहीं कर रहे हैं. मतदान का कम प्रतिशत भले ही चिंता की बात है- चुनाव आयोग और राजनीतिक दलों के लिए, लेकिन ये एक बेहद गंभीर संकेत है अल्पतंत्र की ओर बढ़ते क़दम का.पप्पू को जगाने के लिए जागो रे जैसे अभियान भी चले लेकिन लगता है पप्पू पप्पू ही बना रहना चाहता है.वोट नहीं डालता. ये सवाल तो ये है ही कि क्यों वोटिंग प्रतिशत कम है. देश को सबसे ज्यादा सांसद देने वाला राज्य उत्तर प्रदेश चालीस और पचास प्रतिशत के बीच झूल रहा है, जहां के चुनावी दंगल में नेता जितना ताल ठोक रहे हैं वहीं जनता ताली तक बजाने के मूड में नज़र नहीं आती. कारण कई हैं. पर इस सबसे लोकतांत्रिक व्यवस्था के आलोचकों के उस तर्क को बल मिलता है जो ये कहते हैं कि लोकतंत्र कुछ लोगों का ही तंत्र हैं. बहुमत सत्ता की भागीदारी से दूर रहती है. जब उत्तर प्रदेश में 44-45 प्रतिशत लोगों ने वोट दिया तो ये बात तो तय है कि नतीजे भी इन्हीं के दिये वोटों पर तय होंगे.यानि 55 प्रतिशत की आबादी बिना मत व्यक्त किए एक सरकार को स्वीकार कर लेगी. अगर पूरे भारत की भी बात कर लें तो हार जीत भी 50-60 प्रतिशत मतदान पर तय होगा. पार्टियों की हार जीत इन्ही वोटों पर तय होगी. फिर हार का अंतर कितना भी हो , जीता हुआ प्रत्याशी उस पूरे क्षेत्र के लोगों की नुमाइंदगी करेगा. सरकार बनवायेगा.ये कैसा शासन होगा जहां कम वोटिंग में भी हार जीत का फ़ैसला हो जाता है. सरकारे बन जाती हैं. अगर वोटिंग 40 प्रतिशत है जो बाक़ि के 60 प्रतिशत लोगों की राय लिए बिना हार जीत का फ़ैसला हो जाता है. और फिर फ़ैसला होता उनके पांच सालों का. इस अल्पतंत्र के तत्व के साथ पूर्ण लोकतांत्रिक व्यवस्था का दंभ कैसे भरता है हमारा सिस्टम, समझना मुश्किल है. वोटों का लगातार गिरता हुआ प्रतिशत हमें असल में एक ऐसी व्यवस्था की तरफ ले जा रहा है जहां अल्पमत बहुमत के छद्म रूप में दिखता है और लोकतांत्रिक व्यवस्थ का झूठा आभास दिलाता है. कई देशों में ख़ास कर सोवियत संघ के टूटे हूए घटकों में ऐसी व्यवस्था है जिसमें 50 प्रतिशत से कम वोटिंग होने पर हार-जीत का फ़ैसला नहीं होता. पुन: मतदान कराया जाता है. ये सुनिश्चित किया जाता है जो राज करेगा उसे असल में बहुमत का समर्थन प्राप्त है. अगर भारत में ये सिस्टम लागू हो जाये तो अल्पतंत्र की तरफ़ बढ़ते क़दम पर एक अवरोध लगाया जा सकता है. लेकिन ये स्पीडब्रेकर लगाने के लिए शायद चुनाव आयोग को ये सुनिश्चत करना होगा कि वोटिंग प्रक्रिया और ज्यादा प्रो- पीपुल हो. ताकि ज्यादा से ज्यादा लोग मतदान प्रक्रिया का हिस्सा बन सके. वोटरों की उदासीनता और नेताओं का चरित्र देखकर यह निकट भविष्य में आसान नहीं दिखता. और जब तक ऐसा नहीं होता तब तक पप्पू पप्पू बना रहेगा और इस लोकतंत्र के अल्पतंत्र द्वारा शासित रहेगा.

Monday, May 04, 2009

यथा-राजा तथा-प्रजा


जी हाँ वक्त के साथ-साथ न केवल कहावतों, मुहावरों के अर्थ बदल जाते हैं अपितु उनकी शब्दावली में भी उलट-फ़ेर हो जाता है। पिछले जमाने में राजा का पद वंशानुगत होता था और पीढियों तक चलते-चलते प्रजा मजबूरी में राज-परिवार की फ़ितरत-स्वभाव के मुताबिक खुद को ढाल लेती थी, गुजारा जो करना था। जैसा हमने सुना है कि कई रजवाड़ों में नवविवाहिता को अपनी पहली रात मजबूरन राजमहल में गुजारनी पड़ती थी। मेरे गांव में कलानौर के नवाब के महल से पहली रात को भाग कर एक नवविवाहिता ने लगभग १२५ साल पहले शरण लेने व उसके बाद गांव वालों के कलानौर पर चढाई कर नवाब के कत्ल की कथा आज भी कही जाती है। उसके महल के बुर्ज पर लगे हवा की दिशा जानने हेतु लगाए गए यंत्र व नवाब के नगाड़े जो आज भी एक संत की समाधि-स्थल पर सुरक्षित है, को सबूत बतलाया जाता है। यह कथा आसपास के गावों तथा भांदो द्वारा आज भी गाई जाती है। खैर यह कथा एक ओर।

आज देश में प्रजातन्त्र है, यानी प्रजा अपना राजा या प्रतिनिधि चुनने में स्वतंत्र है, तो हम कह सकते हैं कि जैसी प्रजा है वैसा राजा होगा। मैं, आप यानी प्रजा यह मानने को कतई तैयार न होगी कि गैंगस्टर-अपराधियों को चुनने में उसका कोई दोष है। हम सब विकल्प न होने की दुहाई देने लगते हैं- क्या मैं गलत कह रहा हूँ?
पर हम यानी जनता-जनार्दन खासी तंग है अपने चुने गये प्रतिनिधियों से। तो क्या करें ? हमें इस चुनाव तथा आगे आने वाले चुनावों में कुछ बातों पर ध्यान देना चाहिये।

हम सब जानते हैं कि पिछले कुछ बरसों से देश में संयुक्त मोर्चा सरकारें राज कर रहीं है क्योंकि कांग्रेस या भाजपा दोनो तथाकथित राष्ट्रीय पार्टियाँ बहुमत प्राप्त नहीं कर पा रहीं और उन्हे क्षेत्रिय दलों की वैशाखी पर आश्रित रहना पड़ता है। और उनकी ब्लैकमेलिंग तो हमने पिछली लोक सभा के शक्ति परीक्षण काल में देखी ही है, शिबू सोरेन और देवगौड़ा एक दिन में ही 3-4 बार इधर-से उधर होते नजर आए। हम यह भी जानते हैं (आज मीडीया आंकड़े दे रहा है) कि ये क्षेत्रिय दल ही सब से ज्यादा अपराधिक पृष्ठभूमि वाले प्रत्याशी खड़े करते हैं, जो अपने धन-बल व जातीय समीकरण द्वारा जीत भी जाते हैं। अब ऐसे तत्वों की जीत की संभावनाओं के चलते राष्ट्रीय पार्टियाँ भी उन्हें टिकट देने को मजबूर हो गयीं, मैं यह नहीं कहता कि ये तथाकथित राष्ट्रीय पार्टियां दूध-धुलीं हैं। वे तब तक ऐसे तत्वों को टिकट देंगी, जब तक वे जीतते रहेंगे। तो हमें चाहिये कि
इस चुनाव व आगे आने वाले चुनावों में भी केवल इन तथाकथित राष्ट्रीय पार्टियों के उम्मीदवारों को ही वोट दें चाहे वह कैसा ही हो। जहां इन तथाकथित राष्ट्रीय पार्टियां का उम्मीदवार न हो वहां भी क्षेत्रिय पार्टी के उम्मीद्वार के स्थान पर किसी निर्दलीय कोवोट दें। जहां इन तथाकथित राष्ट्रीय पार्टियों में किसी पार्टी ने दल-बद्लू को टिकट दी हो वहां उसे वोटे न दें।

इससे आज ही कोई परिणाम आएगा ऐसा नहीं है लेकिन धीरे-धीरे हवा बदलेगी और जब इन तथाकथित राष्ट्रीय पार्टियों को जनता की मनसा का ज्ञान होने लगेगा तो वे खुद भी इस और ध्यान देंगी। तब जनता इन तथाकथित राष्ट्रीय पार्टियों के उस उम्म्मीद्वार को नकारना आरम्भ करेंगे जो आपराधिक पृष्ठभूमि का होगा।
हमें (हम पढे लिखे लोगों) को यह अभियान केवल चुनाव के समय ही नहीं अपितु सतत जारी रखना होगा, जिससे अगले-उससे अगले चुनाव तक आमजन इस बात को अपना ले और सच मानें आमजन जो ब्लॉगिंग नही जानता, अब इस बात को मानता है कि देश में दो पार्टियां ही होनी चहियें, उसे जरूरत है मार्ग-दर्शन की। यह विश्वास दिलाने की कि ऐसा संभव है। अब तक ये आपराधिक तत्व उन्हे विश्वास दिलाने में काम्याब रहें है कि उनकी जाती का सासंद-विधायक ही उनका भला कर सकता है, पर अब वे भी जान गये हैं कि यह केवल दिखावा है और वे आपकी रहनुमाई की राह देख रहे हैं। इस चुनाव में हरियाणा की जनता का मूड देखकर मैं यह बात कह रहा हूं और चुनाव नतीजे बतला देंगे कि मेरा आकलन सही है या गलत है। केवल कुछ दिनों की बात है।
आगे चलकर हम ब्लॉगिंग व सेमिनारों-सभाओं मे जहां ये सांसद-इन तथाकथित राष्ट्रीय पार्टियों के बुलाए जाएंगे इन्हें ही कुछ बातें पहुंचाएं (हम हरयाणा मे ऐसा करने में लगे है)कि

  1. संसद में ऐसा नियम कानून लाया जाए कि किसी पार्टी में अगर किसी पार्टी का विघटन होता है, तो जो घटक एक पार्टी से समर्थन वापिस लेकर (जिसे अब तक पूरी पार्टी समर्थन दे रही थी) दूसरी पार्टी को समर्थन देना चाहे तो उसे इस नई पार्टी में विलय होना पड़ेगा अन्यथा उसके सदस्यों की सदन सदस्यता स्वत: खत्म हो जाएगी (ऐसा अब तक तब होता है जब इन की संख्या पार्टी की अविभाजित संख्या के एक तिहाई से कम हो)।

  2. यही नहीं अगर कोई पूरी की पूरी पार्टी भी एक मोर्चे से समर्थन वापिस लेकर दूसरे मोर्चे का समर्थन करना चाहे तो उसे भी दूसरे मोर्चे की सबसे बड़ी पार्टी मे विलय करना पड़ेगा।

  3. किसी को भी बहुमत प्राप्त न होने पर अगर कई पार्टियां मिलकर सरकार बनाना चाहें तो उन्हें अपनी पार्टी का विलय उस मोर्चे की सबसे बड़ी पार्टी मे करना अनिवार्य कर दिया जाए।

  4. चुनाव में अगर किसी पार्टी को कम से कम 5 राज्यों में प्रतिधित्व प्राप्त नहीं हो तो उसके सदस्यों का किसी राष्ट्रीय पार्टी में विलय अनिवार्य हो। अगर वे ऐसा न करें तो उनकी सदस्यता खत्म कर दी जाए।

  5. निर्दलीय सदस्य अगर किसी एक मोर्चे में शामिल होने के बाद अपना समर्थन वापिस लेना चाहे तो उसकी सदस्यता खत्म हो।


यह सच है कि ऐसा होना अभी संभव नहीं है लेकिन अगर देश के बुद्धिजीवी लामबंद हो जाएं तो निकट भविष्य में स्थिति अवश्य सुधरेगी।
आमजन को अगर दिशा दी जाए तो वह करने को तैयार रहता है। हमारे देश में एमरजेंसी के बाद के चुनाव, बोफ़ोर्स के बाद के चुनाव व बर्लिन की दीवार का टूटना-सोवियत संघ व ईस्टर्न यूरोप की तथाकथित तानाशाहियों का टूटना,आमजन की ताकत का नमूना नहीं तो क्या हैं ? जरा सोचें

कुछ और विकल्प
एक अन्य विचारधारा- हमें अमेरिकन यानि राष्ट्रपति पद्धति अपनानी चाहिये, जिससे यह अनिश्चितता खत्म हो जाए। सरकार गिरने का खतरा न रहे। अगर आप ध्यान करें तो देखें केवल दो उदाहरण- बिल क्लिंटन कांड अगर हिन्दुस्तान में होता (जब बिल क्लिन्टन अपने रक्षामन्त्री से बात कर रहा था तो मोनिका लेविन्सकी से संलग्न था), क्या भारतीय प्रधानमन्त्री ऐसी बात उजागर होने पर इस्तीफ़ा देने को बाध्य नहीं होता? ब्रिटेन में प्रोफ़्मयो कांड का उदाहरण देखें।
हमारे यहां न्यूक्लियर संधि में मनमोहन की कुर्सी ही नहीं, सरकार भी येन-केन प्रकारेण बची, लेकिन जनाब बुश तो गलत रिपोर्ट बनवाकर इराक पर हमला कर बैठे। क्योंकि उन्हें तानाशाह जैसी ताकत हासिल थी।

एक और विचार- चुनाव में जिस पार्टी को जितने प्रतिशत वोट मिलें उतने ही सांसद उसे मिल जाने चाहियें। दोस्तो, हमारे समाज मे जाति-धर्म का दुरुपयोग चुनाव में जिस तरह होता है, यह तरीका उसे और बढावा देगा। मित्रो, हमारे पुरखों ने जो आजादी की लड़ाई से तपकर कुन्दन बनकर निकले थे और उस वक़्त उनके दिमाग में आमजन की भलाई व आमजन की स्वतंत्रता कायम रखने व उनके मौलिक अधिकारों को सुरक्षित रखने के अलावा कोई और विचार नहीं था। दुनिया के सर्वश्रेष्ठ सविंधानो को पढ़कर-मनन कर एक बेहतरीन संविधान हमें दिया था, जिसमें जो कमियां नजर आईं उन्हें आहिस्ता-आहिस्ता दूर भी करने के प्रयत्न जारी हैं। जैसे दल-बदल पर कानून, सूचना का अधिकार अधिनियम आदि। मुझे लगता है कि अगर वोटर सही प्रतिनिधियों को चुनकर भेजेंगे तो आमजन के कल्याण हेतु और भी नियम बनेंगे। हमारा संविधान एक बहुमूल्य दस्तावेज है। बस यह जिनके (हमारे) लिये बनाया गया है, उन्हें जागरूक रहना है।

लेखक- डॉ॰ श्याम सखा 'श्याम'

Sunday, May 03, 2009

बढ़ता खाद्य तेल आयात घातक

भारत एक कृषि प्रधान देश है और तिलहन उत्पादन के क्षेत्रफल में विश्व में भारत का स्थान चौथा है लेकिन कम उत्पादकता के कारण देश में खाद्य तेलों का आयात दिनों दिन बढ़ता ही जा रहा है। आज स्थिति यह हो गई है कि खाद्य तेलों के आयात बिल का नम्बर कच्चे तेल के आयात बिल के बाद आता है।

पिछले कुछ वर्षों से खाद्य तेलों का आयात बढ़ता ही जा रहा है। यदि चालू तेल वर्ष 2008-09 (नवम्बर-अक्टूबर) की बात करें तो मार्च तक के 34.34 लाख टन खाद्य तेलों का आयात किया जा चुका है जबकि गत वर्ष इसी अवधि में 19.34 लाख टन का आयात किया गया था। वास्तव में इस वर्ष के आरंभ से ही महीने दर महीने खाद्य तेलों का आयात बढ़ता आ रहा है और आगामी महीनों में भी इसके जारी रहने का अनुमान है।

तेल वर्ष 2005-06 के दौरान कुल 44.16 लाख टन खाद्य तेलों का आयात किया गया था जो 2006-07 में बढ़ कर 47.14 लाख टन और गत वर्ष यानि 2007-08 में बढ़ कर 56.08 लाख टन के स्तर पर पहुंच गया था।

खाद्य तेलों के आयात की वर्तमान स्थिति को देखते हुए चालू वर्ष में आयात 70 लाख टन तक पहुंच सकता है। क्योंकि आयात शुल्क न होने के कारण आयात सस्ता पड़ रहा है।

इसमें कोई संदेह नहीं है कि देश में तिलहनों का उत्पादन कम होता है और खाद्य तेलों की मांग को पूरा करने के लिए आयात पर निर्भर होना पड़ता है। लेकिन चिंता का विषय यह है कि यह निर्भरता दिनों दिन बढ़ती जा रही है।
कोई समय था जब खाद्य तेलों के आयात पर निर्भरता केवल 10 प्रतिशत ही थी लेकिन अब यह 50 प्रतिशत से ऊपर पहुंच चुकी है। देश में खाद्य तेलों की सालाना मांग लगभग 110 लाख टन है।

खाद्य तेलों पर विदेशी निर्भरता बढ़ते जाने कारण सरकारी नीतियां हैं। गत वर्ष जब देश में मंहगाई बढ़ रही तो खाद्य तेलों के भाव भी पीछे नहीं थे। विदेशों में भी खाद्य तेलों के भाव रिकार्ड स्तर पर थे। इन पर काबू पाने के लिए सरकार ने पहले खाद्य तेलों पर आयात शुल्क कम किया और बाद में कच्चे तेलों पर तो आयात शुल्क समाप्त ही कर दिया।

इसी बीच, विश्व बाजार में खाद्य तेलों के भाव में लगभग 40 प्रतिशत की गिरावट आ गई लेकिन चुनाव को देखते हुए सरकार ने आयात शुल्क नीति में कोई परिवर्तन नहीं किया। इससे आयातकों ने खाद्य तेलों का आयात अधिक मात्रा में किया (भले ही इससे किसानों को नुकसान हो रहा है।) और आज देश में आयातित खाद्य तेलों की बाढ़ आ गई है।
इससे न केवल देश के तिलहन उत्पादक किसानों को अपेक्षा से कम भाव मिल रहे हैं अपितु सूरजमुखी उत्पादकों को तो सरकार द्वारा तय न्यूनतम समर्थन मूल्य भी नहीं मिल रहे हैं।

इसके अलावा खाद्य तेल उद्योग भी बुरी तरह प्रभावित हो रहा है क्योंकि भारी मात्रा में रिफाईंड तेलों का आयात किया जा रहा है जबकि देश के रिफाईंनिंग उद्योग की स्थापित क्षमता बेकार पड़ी है।

सस्ते खाद्य तेलों के आयात का असर आगामी वर्षो में और भी भंयकर होगा क्योंकि किसानों की दिलचस्पी तिलहन उत्पादन में कम होती जा रही है। तिलहन उत्पादन कम होने से देश के खाद्य तेल उद्योग पर भी प्रतिकूल असर पड़ेगा।
ऐसे में बेहतर होगा कि सरकार उपभोक्ता के हितों के साथ-साथ तिलहन उत्पादक किसानों की हितों का भी ध्यान करे। अन्यथा कुछ वर्षों बाद खाद्य तेल उद्योग केवल इतिहास बन कर रह सकता है।

--राजेश शर्मा

Saturday, May 02, 2009

सोने का पिंजर (अंतिम अध्याय)

तेरहवां अध्याय

अमेरिका का उत्तरी छोर, बर्फीली ठण्डी हवाएं चलना प्रारम्भ हो गयी हैं, कुछ ही दिनों में यहाँ बर्फ ही बर्फ होगी। तब किसी भी पक्षी का यहाँ रहना सम्भव नहीं होगा। पक्षियों के एक दल का नेता आकाश को निहार रहा है, बर्फ का गिरना महसूस कर रहा है। अब मुझे दक्षिण छोर की ओर चले जाना चाहिए, मन में चिन्तन चल रहा है। कहीं तो नवीन आशियाना तलाशना ही होगा! क्या हम इस बार सुदूर देश की यात्रा कर लें? मन में अचानक प्रश्न कौंध गया। भारत का नाम सुना था, क्या हम सात समुद्र पार कर भारत जा सकेंगे, मन में संशय बना हुआ था। बुजुर्ग और युवा पक्षियों से सलाह-मशविरा किया गया।
युवाओं ने कहा कि जब हमारा सैनिक, ईराक पर युद्ध कर सकता है तो क्या हम भारत में आश्रय की तलाश नहीं कर सकते? हम में भी हवाईजहाज जितनी ताकत है, उड़ने की।
अचानक सिकन्दर याद आ गया, उसने कैसे भारत पर चढ़ाई की थी? वह भी तो आज से दो हजार वर्ष से भी पूर्व समुद्र और रेगिस्तान को पार करता हुआ भारत पहुँचा था, तो फिर हम क्यों नही? हमारे यहाँ भी 500 वर्ष पूर्व यूरोप से कोलम्बस आया था।
प्रश्न पूर्ण हुए, उत्तर केवल एक ही था कि पक्षियों में असीमित शक्ति होती है और वे पूर्ण आकाश को नापने की क्षमता रखते हैं। बस फिर क्या था, दल को संकेत मिल गए, उड़ने को तैयार हो जाओ। संकेत मिलते ही सारा दल पंक्तिबद्ध खड़ा हो गया। उन्हें कहाँ मनुष्यों की तरह सामान लादना था, बस उन्हें तो अपने दल के नेता के एक इशारे पर उड़ जाना था। वे सब उड़ चले, अपना लक्ष्य निर्धारित कर, अपनी मंजिल की ओर। युवा पक्षियों के मन में कौतुहल था, भारत को जानने की इच्छा थी, प्रश्न मन में कुलबुला रहे थे। आखिर पूछ ही लिया एक युवा पक्षी ने, कैसा है भारत?
प्रौढ़ पक्षियों के संक्षिप्त ज्ञान ने बाहर झाँकने की इच्छा जागृत की। वे बता रहे थे कि भारत एक प्राचीन देश हैं, वहाँ की जलवायु सभी प्रकृतिजन्य जीवों के अनुकूल हैं। वहाँ के पक्षियों को दूसरे देश की तलाश नहीं करनी होती। वहाँ के जंगल हरे-भरे हैं। बहुत प्रकार की वनस्पतियां वहाँ होती हैं। जंगलों में इतने फल होते हैं कि अधिकतर पक्षी वहाँ शाकाहारी हैं।
एक पक्षी ने प्रश्न कर लिया कि ये सब तुमको कैसे मालूम?
उसने कहा कि यहाँ चिड़ियाघर में भारत से पक्षी लाए जाते हैं। मुझे उनसे एकाध बार बात करने का अवसर मिला है।
फिर आपकी जानकारी ठीक ही होगी, वे सब खुश होकर बोले। यदि ऐसा अद्भुत देश हमारी धरती पर है तब तो उसे अवश्य देखना चाहिए।
सुना है कि वहाँ साइबेरिया आदि देशों से तो नियमित पक्षी जाते हैं। वो भारत से पास अवश्य हैं लेकिन हमारे हौंसले भी बुलन्द हैं। हम भी भारत की धरती को देखकर ही आएंगे। हमारे बच्चे भी हम पर गर्व करेंगे कि हमारे पूर्वज कभी भारत जाकर आए थे।
अब वे सब खुश होकर उड़ रहे थे और सम्वेत स्वरों में गा रहे थे।

एक पक्षी- जाना है उस देश जहाँ पंछी चहचाते
दूसरा पक्षी- जाना है उस देश जहाँ जंगल मदमाते
तीसरा पक्षी- पेड़ जहाँ के फल से लदते, रस बिखराते
चौथा पक्षी- जाना है उस देश जहाँ जंगल बौराते।

एक पक्षी- हमने सुना है भारत में तो जंगल में भी आम लदा करते हैं
दूसरा पक्षी- हमने सुना है भारत में तो मरूधर में भी मोर नचा करते हैं
तीसरा पक्षी- जाने कितने तोते, चिड़िया, बंदर, भालू,
हाथी, चीते, जंगल में सब ही रहते हैं
चौथा पक्षी- जंगल उनको खाना देता, रहना देता
जाना है उस देश जहाँ जंगल इठलाते।

कई समुद्र पार करते हुए, आखिर एक दिन उनकी निगाहें मंदिर के गुम्बज पर पड़ी, जहाँ कतारबद्ध पक्षी बैठे थे।
शहर आ गया, भारत भूमि आ गयी, खुशी की लहर छा गयी।
एक सुंदर सी झील में, छोटा सा एक टापू, उसमें अनेक पेड़ लगे थे, उन्होंने वहीं अपना डेरा डाल दिया। झील में मछलियां भी खूब थी, तो भोजन की समस्या भी हल हो गयी। कई महिने यहाँ गुजारने थे, घौंसले बनाने शुरू हुए, कई अन्य भारतीय पक्षी भी उनके स्वागत में आ जुटे। भूरे और कृष्ण वर्ण के भारतीय पक्षी, उनके धवल स्वच्छ रंग को देख-देखकर आर्किर्षत होते, उनके साथ रहने का अवसर तलाशते। यहाँ के युवा पक्षियों ने उनकी आवाभगत में कोई कसर नहीं छोड़ी। यहाँ के स्वादिष्ट फलों को चखाया, जंगल की गंध से परिचित कराया। वे कभी बड़ के पेड़ से, कभी गूलर से, कभी आम से, कभी अमरूद से, कभी जामुन के पेड़ से फल तोड़कर लाते और उन फलों से उनको परिचित कराते। वे सब मछलियों पर निर्भर थे, उन्होंने कभी भी ये फल नहीं देखे थे। मीठे, खट्टे, तीखे फल उन्हें अच्छे लगने लगे थे। वे सारे ही इतने भांत-भांत के पेड़ों को देखकर आश्चर्यचकित थे। उन्होंने कभी भी अपने जंगल में फलदार पेड़ देखे ही नहीं थे।
आखिर, एक दिन उनके वापस जाने का समय आ गया। भारत के कुछ पक्षियों ने उनसे निवेदन किया कि हम भी तुम्हारा देश देखना चाहते हैं, क्या हम तुम्हारे साथ चल सकते हैं? उन्होंने सहजता से स्वीकृति दे दी।
अमेरिकी पक्षियों के दल के पीछे-पीछे भारतीय दल मुक्त गगन में उड़ान भर रहा था। उनका मन बल्लियों उछल रहा था, वे बड़े खुश थे कि हम एक बेहद खूबसूरत देश को देखने जा रहे हैं। कुछ पक्षी कल्पना करते और सोचते कि क्यों न हम वहीं रह जाएं? हमारे यहाँ की गर्मी, पानी की समस्या से हमें निजात भी मिल जाएगी। सुना है कि वहाँ के जंगल बहुत विशाल हैं! वहाँ रेत के अंधड़ भी नहीं हैं।
लेकिन वहाँ बर्फिली आँधियां हैं।
अरे कौन सा हमें हमेशा के लिए वहाँ रहना है। फिर किसी का रहने को मन भी करेगा तो क्या हम वहाँ नहीं रह पाएंगे? वहाँ भी तो इतने पक्षी रहते हैं।
पक्षियों का दल उड़ रहा था, समुद्र की सीमा प्रारम्भ हुई। रात में विश्राम लेने के लिए एक पहाड़ी का सहारा लिया गया। अमेरिकी पक्षी समुद्र में गोता मारकर मछलियां पकड़ लाए। अब भारतीय पक्षियों के होश उड़ गए। वे मछली नहीं खाते, उनका भोजन तो फल होता था। पहाड़ के पेड़ों पर भी फल नहीं, आखिर समुद्री बेलों के फलों से ही जैसे-तैसे करके काम चलाया। लम्बी यात्रा और भोजन की समस्या उनके सामने मुँह-बाए खड़ी थी। रास्ते में शहर आने लगे और अब वे बगीचों से फल चुराने लगे, क्योंकि जंगल में ही उनका हक था और जंगल में फल नहीं थे। लम्बी थका देने वाली यात्रा, भूखे-प्यासे रहकर जैसे-तैसे कटी। सोचा अमेरिका पहुँचकर सब कुछ ठीक हो जाएगा।
आखिर एक दिन उनके सपनों का शहर अमेरिका आ ही गया। वहाँ बर्फ विदा ले चुकी थी, पेड़ों पर पीत पत्तियां, सुनहरी आभा का निर्माण कर रही थी। कहीं-कहीं कोपलें भी फूटने लगी थीं। आभास हो रहा था कि बसन्त शीघ्र ही हरितिमा को जन्म देगा। लम्बे रास्ते की थकान उनके चेहरों पर थी, भूख-प्यास से उनकी ताकत क्षीण हो गयी थी। लेकिन फिर यहाँ घने जंगलों को देखकर उनकी थकान फुर्र हो गयी और अपने छितराए जंगलों पर शर्म आने लगी। अमेरिकी पक्षी ने बताया कि बहुत जल्दी ही यहाँ हरीतिमा छा जाएगी, तब चारों तरफ केवल हरियाली होगी। तुम देखना हमारे यहाँ का जंगल, कितना विशाल है!
सभी ने पेड़ पर अपना ठिकाना बना लिया। अब भोजन की तलाश शुरू हुई। पेड़ों पर कहीं भी फल नहीं थे, एक पेड़ से दूसरे पेड़, एक जंगल से दूसरे जंगल जाते रहे, लेकिन खाने को कुछ नसीब नहीं हुआ। पत्तियां खाकर भला कितने दिन जिन्दा रहा जा सकता है? कभी चोरी-छिपे बगीचों में पहुँच जाते और वहाँ के फलों से अपना गुजारा चलाते। लेकिन वहाँ हमेशा खुद के ही शिकार होने का खतरा मंडराता रहता। एक दो बार मछली खाने का भी प्रयास किया, लेकिन भारतीय शरीर उन्हें पचा नहीं पाया। एक दिन जंगल में फलों की तलाश करते-करते उनकी आशा ने दम तोड़ दिया। आखिर समय से पहले ही उन्होंने वापस जाने का मन बना लिया।
वे आपस में बतिया रहे थे कि इतने घने जंगल, फिर भी एक भी फल नहीं! ऐसे जंगलों से तो हमारे जंगल ही अच्छे, जहाँ सारे पेड़ों पर ही फल लगा करते हैं। पंछी भी कितने कम है यहाँ, हमें भी अपने अस्तित्व का खतरा पैदा होता जा रहा है। बहेलिया यहाँ नहीं हैं, लेकिन शिकारी तो हैं, चिड़ियाघर तो हैं!
आज वे सब बहुत खुश थे, वापस जाने को कतारबद्ध खड़े थे। अपने दल के नेता के इशारे का इंतजार कर रहे थे। इशारा हुआ और वे उड़ चले भारत के आकाश की ओर। वे सब गा रहे थे, वही गीत, जो विदेशी पक्षियों ने बनाया था। एक-एक पक्षी अपने स्वर में गीत गा रहा था और एक लम्बी यात्रा पर इस उत्साह से उड़ा जा रहा था कि मैं अपने देश में वापस लौट रहा हूँ।

पक्षी गा रहे थे -
जाना अपने देश जहाँ हम मिलजुल गाते
जाना अपने देश जहाँ जंगल चहचाते
पेड़ जहाँ के फल से लदते, रस बिखराते
जाना अपने देश जहाँ जंगल मदमाते।

भारत में तो जंगल में भी आम लदा करते हैं
भारत में तो मरूधर में भी मोर नचा करते हैं
जाने कितने तोते, चिड़िया, बंदर, भालू,
हाथी, चीते, जंगल में सब ही रहते हैं
जंगल उनको खाना देता, रहना देता
जाना अपने देश जहाँ जंगल इठलाते।

भारत में तो जंगल में भी भँवर उड़ा करते हैं
भारत में तो पेड़ों से भी गंध बहा करती है
मद झरते, गदराए, बौराए पेड़ों से
उड़ते प्रतिपल, कण पराग के रहते हैं
देखो मधुमक्खी भी शहद बनाया करती
जाना अपने देश जहाँ जंगल बौराते।



नोट- हमें यह बताते हुए अत्यंत खुशी हो रही है कि डॉ॰ अजित गुप्ता की इस यात्रा-संस्मरण की यह शृंखला जल्द ही मुद्रित संस्करण के रूप में उपलब्ध होगी, जिसे हिन्द-युग्म अपने आने वाले सार्वजनिक कार्यक्रम में लोकार्पित करेगा।

Friday, May 01, 2009

भाजपा प्रचार जानी पहचानी लीक पर

हिन्द-युग्म के प्रेमचंद सहजवाला उम्र के इस पड़ाव पर भी हाथ में कैमरा लिये कोई न कोई चुनाव रैली में शामिल हो जाते हैं। आम जनता और उनके भावी प्रतिनिधियों से एक पेशेवर पत्रकार की तरह बात करते हैं। सभाओं में श्रोता बनना इन्हें ख़ासा रुचिकर लगता है। पिछले हफ़्ते इन्होंने कांग्रेस के अजय माकन को कैमरे में कैद किया था और उसकी एक रिपोर्ट दी थी। आज कैद हुए है भाजपा के रविशंकर प्रसाद॰॰॰॰


लोक सभा चुनाव 2009 कई अर्थों में बेहद महत्वपूर्ण हो रहे हैं। एक तो यह कि 15वीं लोक सभा शायद सरकार बनाने वाली पार्टी के लिए सर्वाधिक चुनौतीपूर्ण होगी। पार्टियों और नेताओं का एक लंबा जुलूस सा है। कांग्रेस के बारे में भले ही यह कहा जा रहा हो कि भाजपा की तुलना में उस की स्थिति थोड़ी सी ही बेहतर है, पर दिन ब दिन कांग्रेस की मुश्किलें भी बढ़ती नज़र आ रही हैं और कांग्रेस-भाजपा की टक्कर और अधिक तीखी होती जा रही है। कभी तो कांग्रेस को लालूप्रसाद और मुलायम सिंह छोड़ कर अपनी डफली बजाने में लगे हैं, कभी शरद पवार को प्रधानमंत्री बनने के सपने आते हैं। तो कभी अचानक क्वात्राची का पुराना भूत आकर 10 जनपथ पर मंडराने लगता है। कभी कोई कह देता है कि मनमोहन सिंह तो केवल 'नाइट वॉचमैन' हैं और चुनाव जीतते ही कांग्रेस सहसा राहुल गाँधी को प्रधानमंत्री बना देगी। टीवी चैनलों के भी खूब मौज हो गई है। कोई-कोई चैनल ग्लैमर को बढ़ावा देने के लिए प्रियंका गाँधी की साड़ियों की प्रदर्शनी लगा देता है, जिन में प्रियंका अपनी दादी माँ यानी इंदिरा गाँधी की साड़ियों में से अपने लिए साड़ी चुनती नज़र आती हैं। पर सारी चमक-दमक व मनमोहन सिंह की साफ़ सुथरी छवि के बावजूद कांग्रेस पर यह खतरा बना हुआ है कि जैसे 2004 के चुनावों में उम्मीद वाजपेयी की जीत की थी और जीत गई थी सोनिया, तो कहीं इस बार ठीक उल्टा न हो जाए। नए प्रधान मंत्री को शपथ दिलवाने के तैय्यारी कर रही हों सोनिया जी और बाज़ी मार ले जाएँ आडवानी जी! आडवानी और मोदी के द्वंद्व पर भी मीडिया अच्छे पैसे कमा लेता है, यह कह कर कि क्या मोदी ही भाजपा का असली चेहरा हैं?

बहरहाल, इस बीच मैं दिनांक 24 अप्रैल को जनकपुरी मेट्रो स्टेशन के नज़दीक बने 'एस के बैंकेट हाल' में आयोजित भाजपा नेता रविशंकर प्रसाद का भाषण सुनने चला गया। रविशंकर प्रसाद वाजपेयी के नेतृत्त्व वाली सरकार में मंत्री भी रह चुके हैं तथा भाजपा की सांप्रदायिक छवि के तुलना में एक 'सेकुलर' नेता व सुलझी हुई सभ्य शख्सियत माने जाते हैं। पर जैसा कि हर चुनाव में होता है, इस बार भी भाजपा का प्रचार नकारात्मक वोटों पर ही आधारित है। कांग्रेस के विफलताओं की रोटियां सेंक कर खाना भाजपा का बहुत पुराना खेल है। रविशंकर प्रसाद सुप्रीम कोर्ट के एक जाने माने वकील भी हैं तथा भाषण बहुत प्रभावशाली करते हैं। उन्होंने सब से पहले अपने समय की एन.डी.ए सरकार की एक बड़ी उपलब्धि यही मानी कि सन 98 में परमाणु परीक्षण कर के एन.डी.ए सरकार ने भारत को अग्रणी देशों में ला खड़ा किया। परन्तु जब मैंने भाषण के अंत में मंच पर जा कर यह प्रश्न किया कि परमाणु शक्ति होने के कारण भारत पाकिस्तान पर हमला ही नहीं कर पा रहा, वरना इतने आतंकवादी हमलों के बाद भारत के पास यही विकल्प है कि पाकिस्तान पर हमला कर के उन के आतंकवादी अड्डे नेस्तनाबूद कर दे। पर रवि शंकर प्रसाद यह मानने को तैयार नहीं हैं। बल्कि रोचक बात यह है कि उन्होंने पाकिस्तान को सीधा करने का वही तरीका बताया जो इस समय कांग्रेस को अपनाना पड़ रहा है। वे कहते हैं कि भारत के पास कई और तरीके हैं, जैसे कि सख्ती। और दुनिया के कई देश भारत की बात मानते हैं. यानी राजनयिक (diplomatic) तरीका। मुझे इस से भी अधिक रोचक बात यह लगती है कि कांग्रेस और भाजपा की आर्थिक व विदेशी नीतियां एक दूसरे के फोटो-कॉपी ही हैं। कुछ दिन पहले तो रजत शर्मा ने 'आप की अदालत' में भाजपा नेता अरुण जेटली से पूछ ही लिया कि इतने ढेरों दलों के खिचडी से तो बेहतर है कि कांग्रेस और भाजपा मिल-जुल कर सरकार बनाएं। अरुण जेटली ने वही जवाब दिया जिसकी उम्मीद थी, हालांकि उपस्थित दर्शक-गण ने रजत के सवाल पर भरपूर ठहाका लगाया था। जेटली कहते हैं कि समय के साथ राजनैतिक ध्रुवीकरण भी हो चुका है। अतः भाजपा और कांग्रेस का मिलना तो अब दूर की बात ही रही। रविशंकर प्रसाद ने अपने भाषण में मंहगाई, आतंकवाद, काला धन, अफज़ल गुरू, कांधार विमान-अपहरण, बंगलादेशी घुसपैठिये, कसाब के बजाय दूसरे मृत आतंकवादी का डी.एन.ए टेस्ट पाकिस्तान भेज देना, सन 84 की सिख हत्याएं, हिंदू- मुस्लिम प्रश्न... इन सब जाने पहचाने प्रश्नों के चिरपरिचित लीक पर अपना प्रभावशाली भाषण रखा। हिंदू-मुस्लिम प्रश्न पर भाजपा की गिरगिट बाज़ी का प्रदर्शन उन्हें भी करना पड़ा शायद। वोटों के समय भाजपा एक नकली मुखौटा चढ़ाती है कि वह मुसलमानों की दुश्मन नहीं है। पर ज़रूरत पड़ने पर जैसा गुजरात में हुआ, नरसंहार अपनी आंखों से होता देखते रहने में कोई संकोच नहीं करती। न ही वह उड़ीसा की शर्मनाक ईसाई हत्याओं का कोई जवाब देती है। रोचक बात यह कि रविशंकर प्रसाद जी का कहना है कि उन की पार्टी मौलाना आजाद, परम वीर चक्र विजेता अब्दुल हमीद, इरफान पठान व सानिया मिर्जा पर गर्व करती है। वास्तविकता यह है कि मौलाना आजाद की छवि पुराने जनसंघी नेता चुन-चुन कर बिगाड़ते रहे और अब्दुल हमीद के विषय में उन का प्रचार यही था कि सन 65 की लड़ाई के बाद दिखावे के तौर पर एक मुस्लिम को भी परम वीर चक्र दे दिया गया। बैंकेट हॉल में जहाँ शादी के बाद दूल्हा दुल्हन बैठते हैं, ऐसे एक हॉल में लगभग 600 लोग थे जिन में कई तो कार्यकर्त्ता थे। पर रविशंकर प्रसाद अपने प्रस्तुतीकरण में काफ़ी सशक्त रहे. वोटों के दिन जनता क्या करती है, यह जनता के गत जनता जाने।
इधर दिनांक 29 अप्रैल को मैं अपने घर बैठा चंगा भला फिल्मी गाने सुन रहा था कि नीचे कार्यकर्ताओं का शोर सा सुनाई दिया. 'भारतीय जनता युवा मोर्चा' के कार्यकर्ता एक वैन में प्रचार को निकल पड़े थे और उनके साथ थी यहाँ रमेशनगर की निगम पार्षद उषा मेहता, जो यहाँ की एक लोकप्रिय नेता हैं, अपनी सुंदर वाणी और हावभाव के लिए प्रसिद्ध। उन से मैंने पूछा कि नई दिल्ली निर्वाचन क्षेत्र को ले कर उन की क्या योजनाएं हैं तो उन्होंने भी मंहगाई की बात कर के यह कहा कि नई दिल्ली में अजय माकन के होते जो तबाही हुई है, उस से दिल्ली को बचाना हमारा ध्येय है. हर बार की तरह कार्यकर्ताओं में उत्साह और धूमधड़ाका था पर आडवानी और मनमोहन सिंह की तुलना में आख़िर इस चुनाव का ऊँट किस करवट बैठता है, यह जानने के लिए सब को इंतज़ार है चुनाव ख़त्म होने का और 16 मई को परिणाम आने शुरू होने का।

रविशंकर प्रसाद से सवाल करते प्रेमनिगम पार्षद उषा मेहता का जवाब