Tuesday, December 30, 2008

दिल्ली की दोपहर में चार घंटे हिंदी के नाम....

हिन्द-युग्म वार्षिकोत्सव २००८ के अतिथिगण


डर की सुबह
नोएडा से जब हम अपने कंधे पर हिंद-युग्म का झोला लादे रूममेट नसीम के साथ 11 बजे बस में आईटीओ के लिए बैठे तो मन में कुलबुलाहट शुरू हो गयी थी…कई सारे डर थे...एक तो दिल्ली की सर्दी, साल का आखिरी इतवार और वो भी हिंदी का कोई कार्यक्रम....कितने लोग आ पायेंगे....क्या पता मुख्य अतिथि राजेंद्र यादव ही नहीं आयें...नसीम भाई ने हौसला दिया....कहा, कम लोग ही सही, जो लोग भी आयेंगे, वो असल में हिंद-युग्म के प्रति इमानदार होंगे...आनन-फानन में आटीओ चौक पर पराठे खाकर बढ़ चले हिंदी भवन की ओर...

डेढ बजे से पहले नहीं घुसने देंगे....
भारत की सबसे मज़ेदार बात ये है कि जब तक आप “बड़े” आदमी जैसे दिखते नहीं, आपको कोई भाव नहीं देता...जब हम हिंदी भवन के गेट पर पहुंचे तो दरबान ने हमें देखते ही रोक दिया...कहा, प्रोग्राम दो बजे से है, बारह बजे क्यूं आ गये....जब हमने बताया कि प्रोग्राम के आयोजक हम ही हैं तो उसे भरोसा ही नहीं हुआ...हमें शैलेश जी के आने तक का इंतज़ार करना पड़ा....चूंकि, शैलेश भी मुझे “बड़े” आदमी जैसे दिखते नहीं, तो मेरा डर कम नहीं हुआ कि कहीं गार्ड उन्हें भी कोई नसीहत न दे दे... ख़ैर, शैलेश आये रुपम चोपड़ा की कार में और मुझे तसल्ली मिली की कोई तो “बड़ा” आदमी पहुंचा...तब तक हम हिंदी-भवन की बाहरी दीवार पर कूद-फांद कर हिंद-युग्म का बड़ा सा बैनर टांग चुके थे... बैनर पर दूर से हिंद-युग्म-“हिंदी को खून चाहिए” देखकर मन रोमांच से भर गया था....बैनर टांगने में हमें मदद मिली पंकज से जो वहां प्रोजेक्टर लगाने के लिए नियत समय पर पहुंच गया था... बहरहाल, शैलेश जी ने भी थोड़ी मशक्कत के बाद एक बजे ही अंदर जाने की इजाज़त ले ही ली....


गिने-चुने लोग
धर्मवीर संगोष्ठी कक्ष में जब मैं पहुंचा तो हिंद-युग्म के भी गिने-चुने लोग ही साथ थे...कार्यक्रम शुरू होने में अब भी 45 मिनट थे....शैलेश प्रो़जेक्टर पर स्लाइड शो की तैयारी में लग गये और हम एक-एक कर आने वाले आगंतुकों के अभिवादन में जुटे थे...सुमित भारद्वाज, तपन शर्मा अपनी छोटी-सी टोली लेकर आ गये थे और अपने अभियान में लग गये थे...लोगों की संख्या अब बढ़ने लगी थी और हमारी धड़कनें भी...दो बजे तक स्थिति ये थी कि आधे से ज़्यादा कुर्सियां भर गयी थीं..बस, एक भी मुख्य अतिथि नहीं पहुंचे थे...हम रेडियो के कार्यक्रमों की तरह श्रोताओं को हिंद-युग्म के स्वरबद्ध गीत सुनवाए जा रहे थे और आये हुए लोगों को बहला रहे थे...


वो घड़ी आ गई…
शैलेश जी से गहन विमर्श के बाद तय हुआ कि कोई आए न आए, पौने तीन बजे कार्यक्रम शुरू कर देंगे...ठीक पौने तीन बजे जब मैं मंच पर पहली लाइन बोलने के लिए सांसें भर रहा था, कक्ष के दरवाज़े पर बैसाखी के सहारे एक शख्स हमारी ओर बढ़ रहा था..मैंने माइक छोड़ा और उनकी अगवानी में दौड़ पड़ा....वो राजेंद्र यादव थे...लगा, कि सारा आकाश हिंद-युग्म के आंगन में उतर आया हो....


कलम आज उनकी जय बोल
मेरे कार्यक्रम के शुरू करने और श्याम सखा “श्याम” जी को आगे की कमान सौंपने के अंतराल में लगभग सभी कुर्सियां भर चुकी थीं...आये हुए लोगों में कुछ तो जानने वाले थे, ज़्यादातर, पहली बार हिंद-युग्म से मिले थे...उनका आना इस बात पर मुहर लगा रहा था कि अगले चार घंटों तक वो हमें बस सुनने ही आये हैं, कोई रस्म निभाने के लिए नहीं....नाज़िम नक़वी, जो हमसे हाल ही में जुड़े हैं, राजेंद्र यादव के बाद आये....फोन पर हमने उन्हें ढाई बजे याद दिलाया कि प्रोग्राम बोरिंग भी हो तो भी घर का है, सो आना ही पड़ेगा..

हिंद-युग्म ने पिछली बार कोई बड़ा कार्यक्रम पिछली फरवरी में कराया था...प्रगति मैदान के पुस्तक मेले में “पहला सुर का विमोचन”...तब के हिंद-युग्म के कई नामी चेहरे ग़ायब थे...कई नए चेहरे दुगने जोश के साथ जुटे थे...शिवानी सिंह, प्रेमचंद सहजवाला चुपचाप हमारी रवानी देखकर संतुष्ट थे...सुनीता चोटिया शालीन श्रोता की तरह पूरे कार्यक्रम में बैठी रहीं और मन ही मन वाहवाही भी देती रहीं....नीलम मिश्रा व शोभा जी न सिर्फ बाल उद्यान संभाल रही हैं, बल्कि हिंद-युग्म की हालिया ऊर्जा का केंद्र भी हैं....गौरव, अभिषेक, मनुज अलग ही मोरचा संभाले हुए थे.... किस-किस का नाम लें...क्या बताएं कि कार्यक्रम का सबसे सम्मानित पाठक आलोक “साहिल” आखिरी समय तक गुलदस्ते लाने में लगा हुआ था....सबको सलाम करने का जी करता है...सजीव सारथी, सुनीता यादव आदि की कमी बेहद खल रही थी...

वाह ! शैलेश.....
शैलेश एक अलग ही मूड में दिख रहे थे..उनके चेहरे पर आम तौर से ज़्यादा गंभीरता थी...उन्होंने जब ब्लॉगिंग की क्लास लेनी शुरू की तो राजेंद्र यादव भी सीखने के मूड में आ गये....हालांकि, मैं चाहता था कि शैलेश कम देर तक ही बोलें मगर लोगों की रुचि देखकर शैलेश बोलते गये और समय का पता ही नहीं चला...बाद में मैं भी पूरे ध्यान से उन्हें सुनने लगा और काफी कुछ सीखने को मिला...

उम्दा कवि, उम्दा श्रोता, उम्दा संचालक
हिंद-युग्म मंच के अधिकांश कवि किसी भी बड़े काव्य मंच के नियमित चेहरे नहीं है...फिर भी जब वो कविताएं पढ़ते हैं तो कहीं से नहीं लगता कि वो साल में इक्का-दुक्का बार ही पढ़ने के लिए मंच पर उतरे हैं....गौरव, पावस, रूपम, मनुज आदि जब कविताएं पढ़ रहे थे, तो मैं दर्शक दीर्घा को निहार रहा था...सब लोग डूब कर सुन रहे थे...नाज़िम जी आखिर में आए तो सब तालियां बटोर कर ले गये....”अंकल जैसे लोग थे सब....” मेरे दिल में अब तक चुभ रहा है...मज़े की बात ये रही कि पूरे कार्यक्रम के दौरान राजेंद्र यादव भी कवियों को देखते रहे, सुनते रहे और डूबते-उतरते रहे... श्याम जी का संचालन भी सबका दिल जीत रहा था...लग ही नहीं रहा था कि वो कार्यक्रम के ठीक पहले दिल्ली पहुंचे हैं …पूरे कार्यक्रम में मैं उनसे संचालन के गुर सीखता रहा और जहां ज़रूरत पड़ी, उन्हें आवश्यक निर्देश भी देता रहा...

गूंज उठा "सारा आकाश"
ठीक छह बजे राजेंद्र जी के आगे माइक पहुंचा और उन्होंने बोलना शुरू किया...उनको कभी पहले सामने सुनने का मौका नहीं मिला था...उन्होंने जो कुछ कहा, उसमें एक बात साफ थी..उन्होंने तीन घंटे तक हमें बड़े ध्यान से सुना था....उन्होंने बड़ी इमानदारी से अपनी तकनीकी अक्षमता को स्वीकारा और हिंद-युग्म को ये जिम्मा भी दिया कि उन्हें हम तकनीक से जोड़ सकें...फिर बड़ी महीन बातें भी की...हमें ये निर्देश भी दिया कि तकनीक में आधुनिकता के साथ-साथ विचारों में भी आधुनिकता समय की मांग है....कई और बातें भी कहीं जो वहां कई लोगों को नाराज़ करने के लिए काफ़ी था....पर, ये तो उनका परिचित अंदाज़ है....दस गालियां और ढेर सारी तालियां बटोरे बग़ैर तो वो किसी भी कार्यक्रम से रुखसत नहीं होते...
बहरहाल, हिंद-युग्म के लिए राजेंद्र यादव का आना एक सुखद संयोग था....किताबी साहित्य का पुरोधा तकनीक के कर्णधारों की सभा में आया था...एक सेतु बनकर, जो कई और साहित्यकारों को भी ब्लॉगों की तरफ़ मुड़ने को बाध्य करेगा....


इंतिहां और भी हैं...
कार्यक्रम के बीच में कई बार हमें कुर्सियां बढ़ानी पड़ी...कार्यक्रम के आखिर में नाश्ते के पैकेट भी कम पड़ गये...ये सब हमारे लिए खुशी की बात है...इतने शुभचिंतक आये कि वो हमसे किसी भी विशेष सम्मान की अपेक्षा लेकर नहीं आये थे...जाते-जाते वो बस मुझे, शैलेश या हिंद-युग्म के किसी और सदस्य को मिलकर पीठ थपथपाकर ही गये...गज़ल की किताबें बांट रहे दरवेश भारती हों या अपनी पैनी नज़र रखे हिंद-युग्म के कार्टूनिस्ट मनु बेतख्खल्लुस, सबके सब हिंद-युग्म के कार्यक्रम में पहली बार आये थे मगर आये तो हमारे होकर रह गये....

मुझे लगता है कि अगला साल हिंदयुग्म के लिए मील का पत्थर साबित होगा...हम अपने साथ कई लोगों को जोड़ चुके हैं....अब बारी है हिंदी की मशाल सबके हाथों में थमाने का....ताकि, तकनीक और साहित्य की हर विधा से हिंदी जुड़ सके.....सबको महसूस हो कि हिंदी की बात करने वाले लोग झोलाछाप नहीं हैं..उनके पास विज़न है और हिंदी को सर्वप्रिय बनाने का माद्दा भी....

निखिल आनंद गिरि


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साहित्यकार राजेन्द्र यादव का कार्टून

हिन्द-युग्म के वार्षिकोत्सव जिसका आयोजन हिन्दी भवन में 28 दिसम्बर 2008 को हुआ, में कार्टूनिस्ट मनु बे-तख्खल्लुस भी उपस्थित थे। इन्होंने मुख्य-अतिथि देश के प्रख्यात साहित्यकार राजेन्द्र यादव के ऊपर एक कार्टून बनाया। आप भी देखें।

Monday, December 29, 2008

आज का कार्टून 29 दिसम्बर 2008



कार्टूनिस्ट- मनु-बेतख्खल्लुस

Friday, December 19, 2008

बिहार-रत्न भिखारी का साक्षात्कार

समय को पहचानने का एक माध्यम लोकरंग की विविध रंगों को समझना भी है। २०वीं शताब्दी के बिहार और उसके आसपास के भारत का मन टटोलना हो तो भिखारी ठाकुर का लोकसाहित्य बहुत उपयोगी है। पौष मास के कृष्ण पक्ष की पंचमी को इसी महान कलाकार का जन्म हुआ था। आपने हिन्द-युग्म के आवाज़ पर इनका संक्षिप्त परिचय, इनकी आवाज़ में काव्यपाठ, इनका लिखा लोकगीत 'हँसी, हँसी पनवा खियौलस बेइमनवा' कल ही पढ़-सुन चुके हैं। हम चाहते हैं कि इंटरनेट का हर पाठक भी इस बिहार-रत्न से रुबरू हो। इसलिए हम 'बिदेसिया डॉट को डॉट इन' से साभार इनका एक दुर्लभ साक्षात्कार प्रकाशित कर रहे हैं। जस का तस। फ्लैश से यूनिकोड में बदलने में हमे सहयोग दिया है फैज़ाबाद से आशीष दुबे ने।



एक जनवरी 1965 के दिन के एक बजे लोक कलाकार भिखारी ठाकुर की 77वीं वर्षगांठ के शुभ अवसर पर धापा (कोलकाता के पूर्वी सीमांत) स्थित श्री सत्यनारायण भवन परिसर में भव्य अभिनंदन समारोह का आयोजन हुआ था। अभिनंदन के समापन समारोह के उपरांत संत जेवियर कालेज, रांची के हिंदी विभाग के पूर्व अध्यक्ष प्रो. रामसुहाग सिंह ने भिखारी ठाकुर का साक्षात्कार किया। प्रो. सिंह द्वारा किये गये इस साक्षात्कार को काफी वर्षों बाद रांची से प्रकाशित होने वाली अश्विनी कुमार पंकज की पत्रिका विदेशिया में 1987 में प्रकाशित किया गया था.
लोकरंग की दुनिया में इसे एक दुर्लभ साक्षात्कार भी कह सकते हैं। इस साक्षात्कार को पढ़ने के बाद भिखारी ठाकुर के व्‍यक्तित्‍व के बारे में कई बातें स्वत: ही सामने आ जायेंगी। कैसे बुलंदियों के दिन में भी भिखारी अपने बारे में कुछ बढ़ा-चढ़ाकर नहीं बताना चाहते थे. भिखारी को शायद तब ही इस बात का अहसास था कि आनेवाले दिनों में तमाशाई संस्कृति लोकरंग को निगल लेगी, तभी तो एक सवाल के जवाब में वे कहते हैं कि अगले जनम में वे यही करना चाहेंगे, अभी से नहीं कह सकते। भिखारी अपने निजी व सार्वजनिक जीवन में कोई रहस्य का पर्दा नहीं डालना चाहते थे, इसीलिये जब उनसे नाच का उद्देश्य पूछा गया तो उन्होंने धनार्जन को भी स्वीकारा।

यहां हम विदेशिया से साभार उसी साक्षात्कार को प्रस्तुत कर रहे हैं-

प्रो.सिंह:- भिखारी ठाकुर जी आपकी जन्म तिथि क्‍या है?

भिखारी ठाकुर- सिंह साहब, 1295 सा ल पौष मास शुक्‍ल पक्ष, पंचमी, सोमवार, 12 बजे दिन।

प्रो.सिंह:- आपका जन्म स्थान कहां है?

भिखारी ठाकुर-कुतुबपुर दियर, कोढ़वापटी, रामपुर,सारण

प्रो.सिंह:- आपके पिताजी का क्‍या नाम है?

भिखारी ठाकुर-दलसिंगार ठाकुर।

प्रो.सिंह:- आपके दादाजी का नाम क्‍या है?

भिखारी ठाकुर- गुमान ठाकुर।

प्रो.सिंह:-क्‍या आपके पिताजी पढ़े-लिखे थे?

भिखारी ठाकुर- वे अशिक्षित थे.

प्रो.सिंह:- आपकी शिक्षा किस श्रेणी तक हुई?

भिखारी ठाकुर- स्कूल में केवल ककहरा तक, मैंने एक वर्ष तक पढ़ा, लेकिन कुछ नहीं आया। भगवान नामक लड़के ने मुझे पढ़ाया।

प्रो.सिंह:-आपके पिताजी की आर्थिक स्थिति कैसी थी?

भिखारी ठाकुर-जमीन तथा अन्य संपत्ति बहुत ही कम थी, गरीब थे।

प्रो.सिंह:-आपके जमींदार कौन थे?

भिखारी ठाकुर-मेरे जमींदार आरा के शिवसाह कलवार थे।

प्रो.सिंह:-आपके साथ उनका व्यवहार कैसा था?

भिखारी ठाकुर-उनका व्यवहार अच्छा था।

प्रो.सिंह:-क्‍या लड़कपन से ही नाच-गान में आपकी अभिरुचि है?

भिखारी ठाकुर-मैं तीस वर्षों तक हजामत करता रहा।

प्रो.सिंह:-कैसे नाच-गान और कविता की ओर आपकी अभिरुचि हुई?

भिखारी ठाकुर-मैं कुछ गाना जानता था। नेक नाम टोला के एक हजाम रामसेवक ठाकुर ने मेरा गाना सुनकर कहा कि ठीक है। उन्होंने यह बताया कि मात्रा की गणना इस प्रकार होती है। बाबू हरिनंदन सिंह ने मुझे सर्वप्रथम रामगीत का पाठ पढ़ाया। वे अपने गांव के थे।

प्रो.सिंह:-आपके गुरुजी का नाम क्‍या था?

भिखारी ठाकुर- स्कूल के गुरुजी का नाम याद नहीं है।

प्रो.सिंह:-आपने अपना पेशा कब तक किया?

भिखारी ठाकुर-तीस वर्ष की उम्र तक।

प्रो.सिंह:-क्‍या अपने पेशे के समय भी आप नाच-गान का काम करते थे?

भिखारी ठाकुर-तीस वर्ष के बाद से नाच-गान का काम कभी नहीं रुका।

प्रो.सिंह:-सबसे पहले आपने कौन कविता बनायी?

भिखारी ठाकुर- बिरहा-बहार पुस्तक।

प्रो.सिंह:-सबसे पहले आपने कौन नाटक बनाया?

भिखारी ठाकुर-बिरहा-बहार ही नाटक के रूप में खेला गया।

प्रो.सिंह:-सबसे पहले बिरहा-बहार नाटक कहां खेला गया?

भिखारी ठाकुर- सबसे पहले बिरहा-बहार नाटक सर्वसमस्तपुर ग्राम में लगन के समय खेला गया।

प्रो.सिंह:-क्‍या आपके पहले भी इस तरह का नाटक होता था?

भिखारी ठाकुर-मैंने विदेशिया नाम सुना था, परदेशी की बात आदि के आधार पर मैंने बिरहा-बहार बनाया।

प्रो.सिंह:-इस तरह के नाम की प्रेरणा आपको कहां से मिली?

भिखारी ठाकुर- कोई पुस्तक मिली थी, नाम याद नहीं है।

प्रो.सिंह:- क्‍या आप छंद-शास्‍त्र के नियमों के अनुसार कविता बनाते हैं?

भिखारी ठाकुर-मैं मात्रा आदि जानता हूं, रामायण के ढंग पर कविता बनाता हूं।

प्रो.सिंह:- आपकी लिखी हुई कौन-कौन पुस्तकें हैं?

भिखारी ठाकुर-बिरहा-बहार, विदेशिया, कलियुग बहार, हरिकीर्तन, बहरा-बहार, गंगा-स्नान, भाई-विरोधी, बेटी-वियोग, नाई बहार, श्रीनाम रत्न, रामनाम माला आदि।

प्रो.सिंह:- सबसे हाल की रचना कौन है?

भिखारी ठाकुर-नर नव अवतार।

प्रो.सिंह:- आपकी अधिकांश पुस्तकें कहां-कहां से प्रकाशित हैं?

भिखारी ठाकुर- पुस्तकों से मालूम होगा.

प्रो.सिंह:- आपके विचार में सबसे अच्छी रचना कौन है?

भिखारी ठाकुर- भिखारी हरिकीर्तन और भिखारी शंका समाधान.

प्रो.सिंह:- आप जब कोई पुस्तक लिखते हैं तो क्‍या दूसरों से भी दिखाते हैं?

भिखारी ठाकुर- मानकी साहक्‍गांव के ही हैं। वे अभी जीवित हैं। वे सिर्फ साफ-साफ लिख देते हैं। उन्हें शुद्ध-अशुद्ध का ज्ञान नहीं है। रामायण का सत्संग बाबू रामानंद सिंह के द्वारा हुआ। श्लोक का ज्ञान दयालचक के साधु गोसाईं बाबा से हुआ।

प्रो.सिंह:- रायबहादुर की उपाधि आपको कब मिली?

भिखारी ठाकुर-रायबहादुर आदि की जो मुझे उपाधियां मिलीं उन्हें मैं नहीं जानता हूं। कब क्‍या उपाधियां मिलीं मुझे कुछ मालूम नहीं है।

प्रो.सिंह:- क्‍या आपको आशा है कि आपका कोई उत्तराधिकारी होगा?

भिखारी ठाकुर- मेरे भतीजा गौरीशंकर ठाकुर मेरी रचनाओं के आधार पर काम कर रहे हैं।

प्रो.सिंह:- आपकी संतानें कितनी हैं? आपके लड़के क्‍या करते हैं?

भिखारी ठाकुर- एक लड़का है शिलानाथ ठाकुर। वह घर-गृहस्थी का काम करता है। उसे नाच आदि से कोई संबंध नहीं है।

प्रो.सिंह:- क्‍या आप विश्रामपूर्ण जीवन बिताना चाहते हैं?

भिखारी ठाकुर- मैं इस काम से अलग रहकर जीवित नहीं रह सकता।

प्रो.सिंह:- आप तो जनता के कवि हैं, इस लिये स्वतंत्रता के पहले और बाद में क्‍या अंतर पाते हैं?

भिखारी ठाकुर- मैं कुछ कहना नहीं चाहता।

प्रो.सिंह:- वर्तमान शासन से क्‍या आप खुश हैं?

भिखारी ठाकुर- उत्तर देना संभव नहीं।

प्रो.सिंह:- अभी तक कितने पुरस्कार-पदक मिले हैं?

भिखारी ठाकुर- याद नहीं है।

प्रो.सिंह:- हाल में आपको क्‍या कोई उपाधि मिली है?

भिखारी ठाकुर-हां, बिहार रत्न की।

प्रो.सिंह:- बिहार के बाहर आप अपना नाच दिखाने कहां-कहां गये हैं?

भिखारी ठाकुर- आसाम, बनारस, कलकत्ता और बम्बई सिनेमा में एक गीत देने के लिये।

प्रो.सिंह:- कैसे आप समझते हैं कि आपके नाच से लोग प्रसन्न हो रहे हैं?

भिखारी ठाकुर- कोई उत्तर नहीं।

प्रो.सिंह:- क्या आप पूजा-पाठ, संध्या वंदना भी करते हैं? किन देवताओं की पूजा करते हैं?

भिखारी ठाकुर-सिर्फ राम-नाम जपता हूं।

प्रो.सिंह:- जिंदगी को आप सुखमय या दुखमय समझते हैं. हिंदी छोड़कर और कोई भाषा जानते हैं?

भिखारी ठाकुर- मौन।

प्रो.सिंह:- आपके आधार पर अभी कौन-कौन नाच हैं?

भिखारी ठाकुर- अनेक नाच इसी आधार पर हो गये हैं।

प्रो.सिंह:- क्या कुछ दिनों तक सिनेमा में भी आप थे? सिनेमा का जीवन आपको कैसा मालूम हुआ था?

भिखारी ठाकुर-नहीं।

प्रो.सिंह:- आप अपने दल के लोगों का क्या खुद अभ्यास करवाते हैं?

भिखारी ठाकुर-उस्ताद से सिखवाते हैं।

प्रो.सिंह:- आप जो नाटक दिखाते हैं उसका लक्ष्य धनोपार्जन के अतिरिक्त और क्या समझते हैं?

भिखारी ठाकुर-उपदेश और धनोपार्जन।

प्रो.सिंह:- स्वास्थ्य कैसा रहता है?

भिखारी ठाकुर- अब तक सिर्फ तीन दांत टूटे हैं।

प्रो.सिंह:- नाटक के बाद की थकावट कैसे दूर होती है?

भिखारी ठाकुर- मौन।

प्रो.सिंह:- आप क्या राजनीति में भाग लेना चाहते हैं?

भिखारी ठाकुर- मौन।

प्रो.सिंह:- पुन: आपका जन्म इसी देश में हुआ तो क्यया आप यही कार्य करना चाहते हैं?

भिखारी ठाकुर- कोई निश्चित नहीं।

प्रो.सिंह:- कविता लिखने या नाटक करने के लिये क्या आपको तैयारी करनी पड़ती है?

भिखारी ठाकुर- पहले तैयारी करनी पड़ती थी पर अब नहीं।

प्रो.सिंह:- अपने नाटकों के कथानक आप कहां से लेते हैं?

भिखारी ठाकुर- समाज से।

प्रो.सिंह:- इस समय आपके अनन्य मित्र कौन-कौन हैं?

भिखारी ठाकुर- अब कोई नहीं है। पहले बाबू रामानंद सिंह थे।

प्रो.सिंह:- क्या आपकी कोई स्थायी नाट्यशाला है?

भिखारी ठाकुर- कोई स्थायी जगह नहीं है।

प्रो.सिंह:- अच्छे नाटक या कविता के आप क्या लक्षण समझते हैं?

भिखारी ठाकुर- जनता की भीड़ से।

प्रो.सिंह:- क्या आपको मालूम है कि इस समय आपका उच्च कोटी के कलाकारों में स्थान है?

भिखारी ठाकुर-जो प्राप्त हुआ है वही मेरे लिये पर्याप्त है।

प्रो.सिंह:- भूतपूर्व राष्ट्रपति देशरत्न डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद से सबसे पहले और अंत में भेंट कब हुई?

भिखारी ठाकुर- मुझे याद नहीं।

प्रो.सिंह:- क्या आप वर्तमान राष्ट्रपति डॉ॰ राधाकृष्ण्न और वर्तमान प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री से मिले हैं?

भिखारी ठाकुर- कभी नहीं।

प्रो.सिंह:- पंडित जवाहर लाल नेहरू जी ने कभी आपका नाटक देखा?

भिखारी ठाकुर-कभी नहीं।

प्रो.सिंह:- गांधीजी ने आपका नाटक देखा या कभी भेंट हुई थी?

भिखारी ठाकुर- निकट से साक्षात्कार नहीं हुआ।

प्रो.सिंह:- आपकी ससुराल कहां है?

भिखारी ठाकुर- मेरा प्रथम विवाह मानपुरा, आरा के स्वर्गीय देवशरण ठाकुर की लड़की से हुआ। उसके निधन के बाद दूसरा विवाह आमडाढ़ी, छपरा में हुआ. उसका गंगालाभ होने के बाद तीसरा विवाह हुआ, उसकी भी मृत्यु...

प्रस्तुति:- निराला

Tuesday, December 09, 2008

क्या ये पहली बार हुआ है?

नाज़िम नक़वी की कलम से आप सब परिचित हैं....मुंबई की घटना के बाद इन्होंने हिंदयुग्म को फोन किया और कहा कि अवाम की ये आग इस बार बुझनी नहीं चाहिए.....उन्होंने हिंदयुग्म पर लगातार प्रकाशित हो रहे काव्यात्मक आक्रोशों को भी ख़ुद से जोड़ा.....चूंकि अब वो हमारे सदस्य भी हैं तो दैनिक भास्कर में छपा ये लेख हिंदयुग्म के पाठकों के लिए भी लाज़मी हो जाता है ताकि जो आतंक के खिलाफ जो अलख इस बार जगी है, उसकी लौ बुझने ना पाए....आमीन.....



कार्टूनः मनु बे-तक्खल्लुस
पहली बार मुंबई में हुए आतंकवादी हमले के बाद दर्द की जो लहर पूरे देश में है वो देशवासियों के लिये ख़ुशी का पर्याय बन गई है। क्योंकि पहली बार ऐसा हो रहा है कि देश की सुरक्षा में पैदा ख़ामियों पर ग़ुस्सा फूट रहा है। देश के नेताओं को गालियां पड़ रही हैं। ये गुस्सा और ये गालियां नई नहीं हैं। विदर्भ के किसानों की शव यात्राओं में भी ये दोनों बिंब हज़ारों बार दिखाई दिये। गुजरात के दंगों में भी इनसे हमारा साक्षात्कार हुआ लेकिन इनमें वो पैनापन नहीं था। बात भी ठीक है क्योंकि सबसे अहम तो ये है कि गालियां देने वाला है कौन? जी हां इसबार ये गालियां अति विशिष्ट लोगों के मुंह से निकल रही हैं। इस बार ग़ुस्सा उन चेहरों पर है जिन्हें नाराज़ होने का हक़ है। क्योंकि अब तो वो असुरक्षित महसूस कर रहे हैं जिन्हें सुबह से शाम तक सुरक्षा के घेरों में रहने की आदत हैं।
पहली बार ऐसा हुआ है कि आलीशान लोगों की शान में ग़ुस्ताख़ी हुई है। ये वो लोग हैं जिनके लिये संविधान बना, जिनके लिये जल, थल और वायुसेना का गठन हुआ, प्रशासन के तमाम महकमे जिनकी सुविधाओं के लिये पैदा किये गये। ग़ुस्सा इसी बात का है कि फिर इस पूरे ताम-झाम का क्या मतलब है? जब ये उसी चीज़ की गारंटी नहीं दे सकता जिसके लिये इसे पैदा किया गया। मौलिक लोगों के स्वाभाविक अधिकारों का हनन हुआ है इस बार। अब ये बर्दाश्त नहीं किया जायेगा, ये एलान हो चुका है। हमारी ज़मीन का आसमान हिल गया है। सितारे गर्दिश में हैं। देश की अस्सी प्रतिशत जनता तो पहले भी महफ़ूज़ नहीं थी लेकिन इन हमलों के बाद पहली बार लग रहा है कि देश महफ़ूज़ नहीं है।
पहली बार देश में सार्थक बहस चल पड़ी है कि जिन लोगों को सत्ता सौंपी गई वो इस क़ाबिल ही नहीं हैं कि इसे चला सकें। कोई और मौक़ा होता तो आलीशान लोगों के इन विचारों को वर्तमान सरकार की अक्षमता से जोड़ दिया जाता लेकिन इस बार गालियों के दायरे में हर नेता खड़ा है, क्या माकपा और क्या आरएसएस। और मज़े की बात ये है कि अलग-अलग नस्ल के ये नेता भी अपने ऊपर होने वाले इन हमलों के बाद संगठित होकर अपनी सफ़ाई देने की भरपूर कोशिश कर रहे हैं। किसी को लगता है कि भावनाएं सही थीं लेकिन शब्दों का चयन ठीक नहीं था तो कोई अपने नेता को संयम बरतने की नाकाम सलाह दे रहा है। नेता लोग भी गालियों पर तिलमिला जाते हैं ये देशवासियों ने पहली बार महसूस किया है।
पहली बार ऐसा हुआ है कि आतंक का हमला उन ऐवानों पर हुआ है जिनके दरो-दीवार से देवानंदों, फ़रीद ज़करियाओं और राजदीप सरदेसाईयों की यादें चस्पां हैं तो इसके मायनें भी अलग हैं। खैरलांजी के आदिवासियों और विदर्भ के किसानों की यादों में और इन ख़ास लोगों की यादों में कोई न कोई तो फ़र्क़ है ही। साउथ मुंबई और कोलाबा जैसे सुरक्षित इलाक़े भी अब ख़ौफ़ की बाहों में हैं। आतंकवाद जबतक देश में था और सीरियल ब्लास्ट के शक्ल में, ट्रेन ब्लास्ट की सूरत में, हैदराबाद और अक्षरधाम के रूप में, दिल्ली – जयपुर – मालेगांव और समझौता एक्सप्रेस के चेहरों से झलक रहा था तब तक ये सिर्फ़ अफ़सोसनाक था, एक बुरी ख़बर था, मसरूफ़ लोगों के विशिष्ठ कामों में ख़लल डालने जैसा था लेकिन अब देश के असरदार लोगों को पहली बार महसूस हो रहा है कि आतंकवाद तो उनके घर तक पहुंच गया है।
अब ये ख़ास लोग देश के नेताओं से, हुक्मरानों से ये पूछते हुए दिखाई दे रहे हैं कि–
क्या है हमारे सब्र की मंज़िल बताइये।
वो लोग तो हमारे मकां तक पहुंच गये।।
सिर्फ़ मुंबई ही नहीं, पहले भी हादसों से देश के कई हिस्से लहूलुहान हुए हैं, लेकिन पहले कभी ऐसा नहीं हुआ था कि हमारे नेताओं की क़ाबिलियत पर, नौकरशाही पर और पुलिसिया निज़ाम पर इतने तीखे प्रहार किये गये हों। देश के हुक्मरान और नोकरशाही तो पहले भी अक्षम थे, अपनी याददाश्त पर जोर डालिये तो पूर्व में हुए हर हमले के बाद ज़ख़्मी शहरों के दोबारा उठ खड़े होने की हिम्मत को सलाम किया जाता रहा है और इसी बुनियाद पर ये बताने की पुरज़ोर कोशिश होती रही है कि आतंकवादी अपने नापाक हौसलों में कभी भी कामयाब नहीं हो पायेंगे। लेकिन 26/11 की बात ही कुछ और है, इस हमले में पहली बार आतंकवादी अपने मंसूबों में न सिर्फ़ कामयाब हो गये हैं बल्कि नेता नाक़ाबिल, नौकरशाही बेढंगी और पुलिस तंत्र अशक्त हो चुका है।
ये बात अलग है कि मुंबई हादसे में बांबे वीटी और चौपाटी पर कीड़ों की तरह गोलियों का शिकार हुए लोग सुर्ख़ियों में नहीं हैं फिर भी देशवासियों के लिये ये सुकून की बात है कि पहली बार ज़ख़्म छुपाये नहीं जा रहे हैं, चीख़ें घोंटी नहीं जा रही हैं, आंसू रोके नहीं जा रहे हैं।
ज़ख़्म अभी गहरा है, मुंबई के नारीमन हाउस, ताज और ओबरॉय होटल्स का ख़ून अभी ताज़ा है इसलिये इनसे जुड़ा हुआ ग़म और ग़ुस्सा भी अभी थमा नहीं है। जो लोग पहले से ही असुरक्षित थे वो इन नये असुरक्षितों के साथ तो स्वाभाविक रूप से शामिल हैं ही और उन्हें लग भी रहा है कि शायद (यक़ीन नहीं है) इस बार देश आतंक की इस महामारी से निपटने के लिये कोई पुख़्ता और कारगर क़दम उठाये। एक फेडेरल एजेंसी बनाने की बात भी हो रही है। हर उस देशवासी के लिये ये ख़बरें ख़ुशी की सौग़ात हैं जिनकी आंखों के आंसू भी अब सूख चुके हैं।
मुंबई हादसे के बाद देश कई चीज़ें पहली बार महसूस कर रहा है। और पहली बार उसे ये समझने में भी कोई दिक़्क़त नहीं हो रही है कि हर ख़ून एक जैसा नहीं होता, दर्द की भी अलग-अलग मर्यादाएं होती हैं, हर चीख़ का पैमाना एक नहीं होता, हर आंख से निकलने वाले पानी को आंसू की संज्ञा नहीं दी जा सकती। 24 साल पहले जब किस ने कहा था कि " जब कोई कद्दावर पेड़ गिरता है तो धरती हिलती है" तो हमने एक स्वर में उसे नकारा था। लेकिन अब पहली बार उसकी प्रधानता को मानना पड़ेगा और इसी बुनियाद पर पहली बार ये संभावनाएं भी ताक़त पा रही हैं कि देर सवेर हमारा ग़म और तुम्हारा ग़म की सरहदें भी खिंचेंगी।


नाज़िम नक़वी
naqvinazim@yahoo.com

दैनिक भास्कर से साभार