कार्टूनः मनु बे-तक्खल्लुस |
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पहली बार ऐसा हुआ है कि आलीशान लोगों की शान में ग़ुस्ताख़ी हुई है। ये वो लोग हैं जिनके लिये संविधान बना, जिनके लिये जल, थल और वायुसेना का गठन हुआ, प्रशासन के तमाम महकमे जिनकी सुविधाओं के लिये पैदा किये गये। ग़ुस्सा इसी बात का है कि फिर इस पूरे ताम-झाम का क्या मतलब है? जब ये उसी चीज़ की गारंटी नहीं दे सकता जिसके लिये इसे पैदा किया गया। मौलिक लोगों के स्वाभाविक अधिकारों का हनन हुआ है इस बार। अब ये बर्दाश्त नहीं किया जायेगा, ये एलान हो चुका है। हमारी ज़मीन का आसमान हिल गया है। सितारे गर्दिश में हैं। देश की अस्सी प्रतिशत जनता तो पहले भी महफ़ूज़ नहीं थी लेकिन इन हमलों के बाद पहली बार लग रहा है कि देश महफ़ूज़ नहीं है।
पहली बार देश में सार्थक बहस चल पड़ी है कि जिन लोगों को सत्ता सौंपी गई वो इस क़ाबिल ही नहीं हैं कि इसे चला सकें। कोई और मौक़ा होता तो आलीशान लोगों के इन विचारों को वर्तमान सरकार की अक्षमता से जोड़ दिया जाता लेकिन इस बार गालियों के दायरे में हर नेता खड़ा है, क्या माकपा और क्या आरएसएस। और मज़े की बात ये है कि अलग-अलग नस्ल के ये नेता भी अपने ऊपर होने वाले इन हमलों के बाद संगठित होकर अपनी सफ़ाई देने की भरपूर कोशिश कर रहे हैं। किसी को लगता है कि भावनाएं सही थीं लेकिन शब्दों का चयन ठीक नहीं था तो कोई अपने नेता को संयम बरतने की नाकाम सलाह दे रहा है। नेता लोग भी गालियों पर तिलमिला जाते हैं ये देशवासियों ने पहली बार महसूस किया है।
पहली बार ऐसा हुआ है कि आतंक का हमला उन ऐवानों पर हुआ है जिनके दरो-दीवार से देवानंदों, फ़रीद ज़करियाओं और राजदीप सरदेसाईयों की यादें चस्पां हैं तो इसके मायनें भी अलग हैं। खैरलांजी के आदिवासियों और विदर्भ के किसानों की यादों में और इन ख़ास लोगों की यादों में कोई न कोई तो फ़र्क़ है ही। साउथ मुंबई और कोलाबा जैसे सुरक्षित इलाक़े भी अब ख़ौफ़ की बाहों में हैं। आतंकवाद जबतक देश में था और सीरियल ब्लास्ट के शक्ल में, ट्रेन ब्लास्ट की सूरत में, हैदराबाद और अक्षरधाम के रूप में, दिल्ली – जयपुर – मालेगांव और समझौता एक्सप्रेस के चेहरों से झलक रहा था तब तक ये सिर्फ़ अफ़सोसनाक था, एक बुरी ख़बर था, मसरूफ़ लोगों के विशिष्ठ कामों में ख़लल डालने जैसा था लेकिन अब देश के असरदार लोगों को पहली बार महसूस हो रहा है कि आतंकवाद तो उनके घर तक पहुंच गया है।
अब ये ख़ास लोग देश के नेताओं से, हुक्मरानों से ये पूछते हुए दिखाई दे रहे हैं कि–
क्या है हमारे सब्र की मंज़िल बताइये।
वो लोग तो हमारे मकां तक पहुंच गये।।
सिर्फ़ मुंबई ही नहीं, पहले भी हादसों से देश के कई हिस्से लहूलुहान हुए हैं, लेकिन पहले कभी ऐसा नहीं हुआ था कि हमारे नेताओं की क़ाबिलियत पर, नौकरशाही पर और पुलिसिया निज़ाम पर इतने तीखे प्रहार किये गये हों। देश के हुक्मरान और नोकरशाही तो पहले भी अक्षम थे, अपनी याददाश्त पर जोर डालिये तो पूर्व में हुए हर हमले के बाद ज़ख़्मी शहरों के दोबारा उठ खड़े होने की हिम्मत को सलाम किया जाता रहा है और इसी बुनियाद पर ये बताने की पुरज़ोर कोशिश होती रही है कि आतंकवादी अपने नापाक हौसलों में कभी भी कामयाब नहीं हो पायेंगे। लेकिन 26/11 की बात ही कुछ और है, इस हमले में पहली बार आतंकवादी अपने मंसूबों में न सिर्फ़ कामयाब हो गये हैं बल्कि नेता नाक़ाबिल, नौकरशाही बेढंगी और पुलिस तंत्र अशक्त हो चुका है।
ये बात अलग है कि मुंबई हादसे में बांबे वीटी और चौपाटी पर कीड़ों की तरह गोलियों का शिकार हुए लोग सुर्ख़ियों में नहीं हैं फिर भी देशवासियों के लिये ये सुकून की बात है कि पहली बार ज़ख़्म छुपाये नहीं जा रहे हैं, चीख़ें घोंटी नहीं जा रही हैं, आंसू रोके नहीं जा रहे हैं।
ज़ख़्म अभी गहरा है, मुंबई के नारीमन हाउस, ताज और ओबरॉय होटल्स का ख़ून अभी ताज़ा है इसलिये इनसे जुड़ा हुआ ग़म और ग़ुस्सा भी अभी थमा नहीं है। जो लोग पहले से ही असुरक्षित थे वो इन नये असुरक्षितों के साथ तो स्वाभाविक रूप से शामिल हैं ही और उन्हें लग भी रहा है कि शायद (यक़ीन नहीं है) इस बार देश आतंक की इस महामारी से निपटने के लिये कोई पुख़्ता और कारगर क़दम उठाये। एक फेडेरल एजेंसी बनाने की बात भी हो रही है। हर उस देशवासी के लिये ये ख़बरें ख़ुशी की सौग़ात हैं जिनकी आंखों के आंसू भी अब सूख चुके हैं।
मुंबई हादसे के बाद देश कई चीज़ें पहली बार महसूस कर रहा है। और पहली बार उसे ये समझने में भी कोई दिक़्क़त नहीं हो रही है कि हर ख़ून एक जैसा नहीं होता, दर्द की भी अलग-अलग मर्यादाएं होती हैं, हर चीख़ का पैमाना एक नहीं होता, हर आंख से निकलने वाले पानी को आंसू की संज्ञा नहीं दी जा सकती। 24 साल पहले जब किस ने कहा था कि " जब कोई कद्दावर पेड़ गिरता है तो धरती हिलती है" तो हमने एक स्वर में उसे नकारा था। लेकिन अब पहली बार उसकी प्रधानता को मानना पड़ेगा और इसी बुनियाद पर पहली बार ये संभावनाएं भी ताक़त पा रही हैं कि देर सवेर हमारा ग़म और तुम्हारा ग़म की सरहदें भी खिंचेंगी।
नाज़िम नक़वी
naqvinazim@yahoo.com
दैनिक भास्कर से साभार
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12 बैठकबाजों का कहना है :
""ज़र्रों की मौत पे कब देखे थे मातम ऐसे,
ज़रूर अब के अंधेरों ने चांदनी पी है...""
naazir bhaayi...bahut khub...kaash sab aisa hi soch paate.....!!
यदि इस बार भी ट्रेन में ब्लास्ट हुआ होता... या किसी सड़क पर...या सी.पी या किसी बाज़ार में.. तो ये "बड़े" लोग आगे नहीं आते.. इस बार धक्का उन्हें लगा है..
बहुत अच्छा लेख नाज़िम जी...
ये शे’र क्या खूब लिखा है:
क्या है हमारे सब्र की मंज़िल बताइये।
वो लोग तो हमारे मकां तक पहुंच गये।।..
मनु जी..बहुत सार्थक कार्टून बनाया है आपने..
निखिल और साहिल को बधाई... बैठक की शुरुआत हो गई है... अब ये जारी रहनी चाहिये...
सार्थक चर्चा । बैठक का भविष्य उज्जवल है ।
बधाई ।
विनय
nahin ji,dhamaka pahlibar nahin hua,log pahli baar nahin mare,par asal baat hai ki.
bade aur rayis log pahli bar iski aanch mein tape,to pareshani to honi thi na.
ALOK SINGH "SAHIL"
इस आक्रोश के साथ बैठक शुरु होगी, उम्मीद नहीं थी....मगर जो हुआ,वो अच्छा ही हुआ....ये लेख बैठक के आने वाले दिनों की तसवीर है....सार्थक लेखों के साथ सब आमंत्रित हैं...
निखिल आनंद गिरि
निखिल जी ,मैं आपसे सहमत होते हुए एक फिल्मी गीत की लाइने लिख रहा हूँ..
मुझे बहुत पसंद हैं....कैफी की हैं शायद..........
""जंग रहमत है के लानत ,ये सवाल अब ना उठा ,,
जो सर पे आ पड़ी है जंग तो रहमत होगी,,
गौर से देखना जलते भड़के हुए शोलों का जलाल,
इसी दोज़ख के किसी कोने में जन्नत होगी...""
नाजिम जी,
आपने ठीक कहा, पहली बार आतंकवादियो के हमले से देश हिल गया
मुझे याद नही आज से पहले कब ये सितारे आतंकवाद के खिलाफ जमीन पर आए थे, हममे तो ये आक्रोश पहले से था पर आज इसे सितारो और कुछ पहुची हुई हस्तियो का साथ मिल गया
इस बात पर दुश्यंत जी का एक शे'र याद आ रहा है
मेरे सीने मे नही तो तेरे सीने मे ही सही,
हो कहीं भी आग, आग जलनी चाहिए,
सिर्फ हंगामा खडा करना मेरा मकसद नही,
अपनी कोशिश है ये सूरत बदलनी चाहिए
सुमित भारद्वाज
लेकिन मुझे अभी भी नही लग रहा सरकार नींद से जागेगी
मनु जी,
आपके शब्दों का स्वागत है...अब लगातार लिखते रहने के लिए तैयार हो जाये...
निखिल
बैठक की अच्छी शुरुआत कई बधाईयां.
ये हम सब का प्रिय जाजम बनें इसकी अपेक्षा , और अनुरोध सबसे, जो इसे सजाये अपने उत्तम विचारों की फ़ुलवारी से.
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