Saturday, December 12, 2009

रॉकेट सिंह : आकाश की उंचाईयों में

प्रशेन ह. क्यावल द्वारा फिल्म समीक्षा

हृषिकेश मुखर्जी एक ऐसे निर्देशक हैं जिन्हें कभी भी डिजायनर ड्रेसेस और चमकते सेट्स की जरूरत नहीं पड़ी। फिर भी उनकी फिल्में आज क्लासिक्स कहलाती हैं। मैं ऐसे ही सोच रहा था कि आजकल की फिल्में इसलिए बेअसर होने लगी हैं क्योंकि उनमें सब कुछ डिजायनर हो गया है। सेट्स, कपड़े (हीरो कहानी में फटीचर हो तो भी डिजायनर जींस पहनेगा) और बुरी बात तो ये है कि एक्टिंग और भावनाएँ भी डिजायनर। तो होता ये है कि दर्शक किरदारों से जुड़ ही नहीं पाता तो उनके दुःख दर्द में कैसे घुल मिल सकेगा? और जब तक किरदार दर्शकों को नहीं लुभायेंगे, फिल्म कैसे लुभा पायेगी?

पर जैसे ही मैंने रॉकेट सिंह : द सेल्समैन ऑफ द यीअर देखी, मुझे उम्मीदें दिखने लगी कि आज भी भावनाओं और किरदारों पर काम कर के बिना चका-चौंध के फिल्में बनाने वाले हैं।

कथा सारांश :

कथा सारांश कुछ इस प्रकार है कि हरप्रीत (रणबीर कपूर) एक सीधा-साधा नौजवान है जो अपने दादाजी के प्यार और संस्कारों के साथ बड़ा हुआ है। वो पढ़ाई में अच्छा नहीं है पर आपसी रिश्तों में और लोगों से काम निकलवाने में उस्ताद है। इसलिए वह सोचता है कि वह सबसे अच्छा सेल्समन बन सकता है। हरप्रीत को जॉब भी मिल जाती है। पर कंपनी के तौर तरीकों से जब वह वाकिफ़ होता है तो उसे पता चलता है कि यह जगह उसके लिए नहीं है। फिर एक समय पे वह उसके इमानदारी के वजह से कंपनी में जलील होता है तो वह कंपनी में रहते खुद का काम चालू कर देता है। अपनी इस छोटी कंपनी को वह नाम देता है "रोकेट सेल्स"। देखते ही देखते ये कंपनी उसके मालिक के कंपनी को कारोबार में चुनौती देने लगती है। आगे क्या होता है यही कहानी है इस फिल्म की।

पटकथा:

जयदीप साहनी द्वारा लिखित इस फिल्म की कहानी और पटकथा को आनेवाली पीढियां फ़िल्मी अभ्यास का एक महत्वपूर्ण सन्दर्भ मानकर पढेंगी। इनके भरोसे और हिम्मत की दाद देनी चाहिए कि एक मामूली से सेल्समन की कहानी इतने रोचक तरीके से सुनहरे पर्दे पर लाने की कोशिश इन्होने की... और क्या असरदार कोशिश है ... माशाल्लाह ! आगे बढ़ते रहिये जयदीप सहनी !

दिग्दर्शन:

शिमित अमिन ने अपनी पिछली दोनों फिल्मों में अपने हुनर का लोहा मनवाया है। इस बार भी वह चूके नहीं हैं। ये फिल्म दिखने में जितनी सिम्पल है उतनी ही ज्यादा कठिन फिल्माने में है। सहजता और सादगी से भरी इस फिल्म की कहानी, पटकथा और किरदारों को बखूबी इन्साफ दिया है शिमित ने अपने सफल दिग्दर्शन से।

अभिनय:

अभिनय की बात करें तो फिल्म में गिने-चुने ही जाने-पहचाने चेहरे हैं और बाकी सब कलाकार नए हैं। पर शिमित ने जिस तरह से उनसे काम निकलवाया है उसे जितनी दाद दी जाय कम होगी। सभी के नाम नेट पर उपलब्ध नहीं है वरना सभी एक विशेष उल्लेख के हक़दार हैं। रणबीर कपूर हर फिल्म में साबित करते जा रहे है के वह किस मिट्टी से बने हैं। लगातार तीसरी दमदार अदाकारी वाली फिल्म देकर उन्होंने जल्द ही नंबर वन का मुकाम पाने की और दौड़ लगाना शुरू कर दिया है। इनका उतने ही अच्छे तरीके से साथ दिया है गौहर खान, डी. संतोष, प्रेम चोपड़ा ने। नयी लड़की शहनाज़ पदमसी ठीक है पर उसका रोले ही छोटा है। विशेष नाम लेना जरूरी है उन कलाकारों का जिन्होंने हरप्रीत के बॉस और कंपनी मालिक का रोल निभाया है।

चित्रांकन :

बिना किसी चमक-धमक और ऊँचे सेट्स के सिनेमेटोग्राफ्रर नौलखा ने फिल्म को प्रदर्शनीय रूप दिया है। ये अपने आप में बड़ी सफलता है।

संगीत और पार्श्वसंगीत:

कहानी और पटकथा में गानों के लिए कोई जगह नहीं है पर पार्श्वसंगीत में सलीम सुलेमान ने अच्छा काम किया है।

संकलन:

अरिंदम घटक का संकलन उत्तम है पर मुझे लगता है पटकथा और दिग्दर्शन इतना परिणामकारक है कि उन्हें विशेष कुछ करने की जरूरत नहीं पड़ी होगी।

निर्माण की गुणवत्ता:

जिस तरीके के माहौल की पटकथा को जरूरत है, उसे निर्माण करने में ज्यादा लागत नहीं लगी होगी पर पटकथा के तौर पर इमानदारी बरतकर निर्माता ने जो रिस्क लिया है वह काबिले तारीफ है। ये फिल्म चलेगी कि नहीं, ये तो आप दर्शक ही बताएंगे पर मेरे हिसाब से ये इस साल की कुछ अच्छी फिल्मों में से एक जरूर है।

लेखा-जोखा:

*** (4 तारे)

ये लगातार दूसरे सप्ताह मुझे 4 तारे देने का मौका मिला है। जब अच्छी फिल्म आती हैं तो मुझे खूब खुशियाँ मिलती हैं। आप भी ये खुशियाँ अपने दोस्तों और रिश्तेदारों के साथ समेट लें। जिन्हें हृषिकेश मुखर्जी की फिल्में पसंद हैं (न कि सिर्फ उनकी कॉमेडी) उन्हें ये फिल्म जरूर देखनी चाहिए।

चित्रपट समीक्षक:--- प्रशेन ह.क्यावल

Thursday, December 10, 2009

मजा आ गया

अपने देश की सरकार की वैसे तो बहुत सी खासियतें हैं पर उसकी सबसे बड़ी खासियत है कि वह जिंदों को रोटी देने में भले ही कोताही बरते पर उनके हताहत होने पर उन्हें बड़ी धूमधाम से श्रद्धांजलि देना कभी नहीं भूलती।
त्रासदियों के दौर में उस त्रासदी में खासतौर पर उन हताहतों को श्रद्धांजलि लेने के लिए विशेष रूप से महीना पहले निमंत्रण पत्र जारी कर दिए गए थे जिनके पीछे बचों को लचर व्यवस्था के चलते राहत राशि न मिल सकी थी । और उनके पीछे बचे वाले उस राहत राशि में से हताहतों के क्रिया कर्म पर अनमने मन से ही सही, फूटी कौड़ी भी खर्च नहीं कर पाए थे जिस कारण वे अभी तक प्रेत यानि में ही विचरण कर रहे थे।

अशांत प्रेतों को जैसे ही निमंत्रण पत्र मिले तो वे फूले न समाए। उन्हें इस बात की प्रसन्नता थी कि चलो! आज सरकार बेशक सबकुछ भूल रही है पर प्रेतों को श्रद्धांजलि वाली डेट तो नहीं भूली। जनता को सरकारी डिपुओं पर समय पर राशन पहुंचे या न पहुंचे पर प्रेतों को उनके श्रद्धांजलि समारोह के निमंत्रण पत्र समय पर मिलते रहे हैं। सरकार के प्रति एकबार फिर उन प्रेतों के मन में गहरी आस्था जगी। अब जनता चिल्लाती रहे तो सरकार क्या करे साहब! जनता को चाहिए कि वह प्रेतों से कुछ सीखें।

नियत समय से दो घंटे बाद एक खुले अति सुरक्षित मैदान में त्रासदी में हताहत प्रेतात्माओं को श्रद्धांजलि देने का दौर शुरू हुआ। श्रद्धांजलि की तैयारियां वैसे तो डीसी साहब की देखरेख में पिछली शाम ही पूरी तरह पूरी हो चुकी थीं। नेता जी ने उन्हें साफ कह दिया था कि दो चार दिन वे जिले के सारे कामों को छोड़ श्रद्धांजलि के आयोजन पर खुद को केंद्रित करें ताकि विपक्ष को उंगली उठाने को कोई भी मौका हाथ न लगे। अगर ऐसा वे नहीं कर पाए तो उनके पास उन्हें किसी पिछड़े जिले में भेजने के अतिरिक्त और कोई चारा न होगा। अब डीसी साहब कहां जाते बेचारे!
श्रद्धांजलि समारोह का उदघाट्न नेता जी ने किया तो पूरा पंडाल तालियों से गूंज उठा। श्रद्धांजलि समारोह में आए हताहतों के परिवार जनों के खाने पीने का विशेष इंतजाम किया गया था ताकि उन्हें इस बात का मलाल न हो कि उन्हें तो अनदेखा किया ही जा रहा है पर प्रेतों के प्रति भी सरकार उदासीन है।

लोंगों की भीड़ को देख नेता जी का सीना फूलता ही जा रहा था। वे मन ही मन त्रासदी में मरने वालों का धन्यवाद कर रहे थे कि न वे लोग इस त्रासदी का शिकार होते और न ही उन्हें उम्मीद से अधिक भीड़ को संबोधित करने का सुअवसर मिलता। आज मजा आ गया भाषण देने का।

नेता जी के काजू बादाम पर हाथ साफ करने के बाद श्रद्धांजलि आयोजन संयोजक ने नेता जी से कार्यक्रम को आरंभ करने की इजाजत मांगी तो उन्होंने खिलखिलाकर इजाजत दी।

सामने के पेड़ पर उल्टी सीधी लटकी प्रेतात्माएं दिल को थाम कार्यक्रम को देख फूली न समा रही थीं। उनके दिल की धड़कनें रूकी हुईं थी। उन्हें इस त्रासदी में मरना भूख से मरने वालों से सौ गुणा बेहतर लग रहा था। राहत राशि मिले न मिले। इससे उन्हें क्या! जो बचे हैं वे चोरी चकारी कर खाएं कमाएं। जिन हताहतों के परिवारों को राहत राशि मिली भी उन्हें कौन सी नरक से राहत मिली? हां उससे उनके पीछे बचों के महीना दो महीना मौज जरूर रही।
तभी एक चमचमाती कार से फिल्मों की हीरोइन उतरी तो पेड़ों पर लटकी त्रासदी की शिकार प्रेतात्माएं झूम उठीं। वे तो बड़ी देर से इस हीरोइन का इंतजार कर रही थीं। ज्यों ही हीरोइन ने गाड़ी से अपने कदम जमीन पर रखे तो सारा पंडाल तालियों से गूंज उठा। लगा भीड़ त्रासदी में हताहतों को श्रद्धांजलि देने के लिए नहीं , हीरोइन के दर्शन के लिए इकट्ठी हुई हो। नेता जी हीरोइन के गले लगे तो जन्नत मिली।

श्रद्धांजलि आयोजन के संयोजक ने हीरोइन के हाथ में चार फूल धरे तो हीरोइन के हाथों का हल्का सा स्पर्श पा वह भी भवसागर पार हुआ।

हीरोइन ने मंद मंद चल मंच पर त्रासदी के हताहतों के प्रतीक रूपी बुत के आगे फूल पूरे फिल्मी स्टाइल में चढ़ाए तो श्रद्धांजलि देने आए लोग तो लोग, श्रद्धांजलि कार्यक्रम देखने आई पे्रतात्माएं भी अपनी प्रेत योनि को भूल कुलांचे भरती हुई प्रेतलोक को बिना किसी डर के सपनों में खोई वापस लौट गईं इस आस के साथ कि अगले साल इस बहाने सरकार इससे भी खूबसूरत हीरोइन के दर्शन करवाएगीे। यार, मजा आ गया,कसम से। मेरा भी सरकार से आग्रह रहेगा कि वह अगले श्रद्धांजलि समारोह में अच्छी सी हीरोइन को विशेष अतिथि के रूप में लाए ताकि प्रेत होने का मजा बना रहे। राहत राशि जाए भाड़ में।

अशोक गौतम
गौतम निवास,अप्पर सेरी रोड, सोलन-173212 हि.प्र.

Wednesday, December 09, 2009

सवाल मानसिकता बदलने का है

बड़ी अजीब बात है। जलवायु परिवर्तन पर पूरी दुनिया की परेशानियां बढ़ती जा रही हैं। परेशानी ये है कि पहली बार एक ऐसी बात पर लोगों को अपना पैसा, समय और दिमाग़ ख़र्च करना पड़ रहा है जिससे कोई फ़ायदा नहीं उठाया जा सकता। वरना हर चिंता और हर फ़िक्र को धंधे में बदल देना हमारे बाएं हाथ का खेल है। बीमारी, लाचारी, धर्म, मजबूरी और सुकून की चाह, हर चीज़ का कारोबार करना और उससे मुनाफ़ा कमा लेना हमें अच्छी तरह आता है। लेकिन दुनिया का गर्म होना एक ऐसा मुद्दा है जो कारोबर नहीं बन पा रहा है, उल्टे संयम बरतने पर मजबूर कर रहा है।
हमारे देश की संसद भी बेवक़्त थोपी गई लिब्राहन रिपोर्ट से कुछ वक़्त निकालकर अगर दुनिया बचाने की इस मुहिम में शामिल होती है तो महज़ इतना कर पाती है कि हमारे सांसद और सियासी पार्टियों का विरोध दर्ज कर ले। दुनिया के मंच पर हम जैसे ही इस बात का ऐलान करते हैं कि 2020 तक हम कार्बन उत्सर्जन में 20-25 प्रतिशत की कमी लाने की कोशिश करेंगे, एक कोहराम मच जाता है। राज्य सभा में हंगामा और वॉक-आउट करके नाराज़गी जताई जाती है। विपक्ष का इल्ज़ाम है कि सरकार अमरीकी दबाव में झुक कर ये बयान देने पर मजबूर हुई है।
सवाल ये है कि क्या हमारे पास इतना वक़्त है कि हम इस घोषणा को सियासी चश्में से देखें। कोपेनहेगन में जलवायु परिवर्तन पर हो रहे सम्मेलन के मौक़े पर एक एतिहासिक क़दम उठाते हुए 45 देशों के 56 अख़बारों ने एक संयुक्त संपादकीय लिखा है। ज़ाहिर है कि इस संपादकीय में गर्म होती दुनिया के ख़तरे और उससे वक़्त रहते निपटने के लिए पूरी मानवता द्वारा क़दम उठाने की ज़रूरत पर ज़ोर दिया गया है। आजतक कभी ऐसा नहीं हुआ कि पूरी दुनिया के अख़बार किसी एक विषय पर इस तरह से एक आवाज़ बने हों। इस संपादकीय को जलवायु परिवर्तन से उपजी आशंकाओं पर एक सार्थक दस्तावेज़ माना जा सकता है। वक्त बहस और मुबाहिसे का नहीं है। इस संपादकीय की शुरूआत में ही ये कह दिया गया है कि “इस विषय पर वैज्ञानिक-पत्रिकाओं में पहले भी चर्चा होती रही है कि सारी गड़बड़ी इंसानों की ही की हुई है यह शताब्दियों की गड़बड़ी का नतीजा है और इसके अपने आप ख़त्म होने की संभावना बिलकुल नहीं है। लेकिन अब मुद्दा यह नहीं है। अब चर्चा का विषय यह है कि हमारे पास अब इस मुसीबत से बचने के लिए कितना वक़्त रह गया है।”
ऐसे हालात में हमारी संसद में नेता प्रतिपक्ष का ये कहना कि कार्बन कटौती का हमारा एक तरफा फैसला गलत है “हमने अपने पत्ते खोलकर गलत किया है...”, निराशाजनक है। एक तरह से ये चिंता ठीक भी है कि हमें अंतर्राष्ट्रीय मंच पर किसी दबाव में आकर वो फैसले नहीं करने चाहिए जो देश के विकास में बाधा डालते हों, क्योंकि विकासशील देशों की अपेक्षा विकसित देशों ने ज्यादा खतरनाक माहौल बनाया है और उन्हें अब इस असुरक्षा से दुनिया को बचाने में भी ज्यादा बड़ी भूमिका भी निभानी चाहिए। जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर पिछली तमाम कोशिशों में ये भी देखने को मिला है कि विकसित देश किसी न किसी बहाने के आधार पर अंकुश की बाध्यता से बच निकलने में कामयाब होते रहे हैं, लेकिन अब गर्म होती दुनिया किस ख़तरनाक मोड़ पर आकर खड़ी हो गई है इसका अंदाज़ा अमरीकी सरकार के उस बयान से लगाया जा सकता है जिसमें पहली बार आधिकारिक तौर पर ये मान गया है कि ग्रीन हाउस गैसें इंसान की सेहत के लिए बेहद ख़तरनाक हैं। ये भी माना जा रहा है कि इस घोषणा के बाद बराक ओबामा बिना सीनेट की मंज़ूरी लिए कार्बन उत्सर्जन में कटौती का निर्देश जारी कर सकते हैं।
सोचिये अगर अमरीकी सीनेट में भी कोई यही कहकर ओबामा का रास्ता रोक लेता कि इस तरह अपने पत्ते खोलकर अमरीका ठीक नहीं कर रहा है क्योंकि अब इसी आधार पर उसे आगे बढ़ना होगा लिहाज़ा अमरीका को इस बाध्यकारी समझौते से बचना चाहिये था।
लेकिन हालात के मद्देनज़र अमरीकी सरकार ने ये पहल की है और उसका ये क़दम स्वागत के क़ाबिल है। 56 अख़बारों के संयुक्त संपादकीय में आगे लिखा गया है कि “दिक्क़त यह है कि विकसित या संपन्न देश जलवायु परिवर्तन पर होने वाली बहसों में वर्तमान आंकड़े पेश करने लगते हैं और कहते हैं कि विकासशील देशों को चाहिए कि वे अपना गैस उत्सर्जन कम करें, या एक बहस ये होने लगती है कि अमरीका और चीन आज की तारीख में सबसे ज्यादा प्रदूषण कर रहे हैं, उन्हें इस पर रोक लगाना चाहिए। सबको मालूम है कि इनमें से कोई भी बात स्वीकार नहीं होने वाली है। ये भी सबको मालूम है कि १८५० से अब तक जितना भी कार्बन डाई आक्साइड वातावरण में छोड़ा गया है उसका तीन चौथाई विकसित और औद्योगिक देशों की वजह से है। इसलिये विकसित देशों को पहल करनी पड़ेगी कि वे ऐसे उपाय करें कि अगले १० वर्षों में गैसों का उत्सर्जन स्तर ऐसा हो जाए जो १९९० तक था”।
हमारे नेताओं को और वार्ताकारों को ये समझना चाहिये कि जलवायु पर उठी चिंताएं अब बहस से आगे निकलकर यथार्थ के धरातल पर खड़ी हैं। इसके लिए पूरी दुनिया के साथ-साथ हमें भी संयम बरतना पड़ेगा। अगर भारत 20-25 फीसदी कटौती की अपनी तरफ़ से पेशकश कर रहा है तो ये भी अमरीकी सरकार की घोषणा की ही तरह स्वागत येग्य है। इस पहल को सियासी रंग नहीं दिया जाना चाहिए। एक सुनामी का कहर हम देख चुके हैं। वो जब आयेगी तो बस फिर आयेगी, दुनिया की कोई भी ताकत उसे नहीं रोक पायेगी, इसलिए हम सिर्फ यही कर सकते हैं कि उन लक्षणों को कम कर दें जो सुनामी जैसी स्थितियों के लिए मददगार होते हैं। इसके लिए राष्ट्रीय स्तर पर जागरूकता फैलानी होगी। व्यक्तिगत तौर पर भी बहुत सी ऐसी सावधानियां बरती जा सकती हैं जो कार्बन उत्सर्जन में बड़ी कटौती कर सकती हैं। एडस और कैंसर जैसी बीमारियां सिर्फ उनके लिए घातक हैं जिन्हें ये बीमारियां घेर लेती है लेकिन जलवायु में फैल रही गंदगी किसी को भी, कहीं भी चपेट में ले सकती है। इसलिए कोपेनहेगन में बिताए जा रहे 14 दिनों के बाद नतीजे अगर सकारात्मक न भी निकलें तो भी हमें अपने तौर पर कार्बन उत्सर्जन में कमी लाने की अपनी प्रतिबद्धता से पीछे नहीं हटना चाहिए। सवाल मानसिकता बदलने का है।

--नाज़िम नक़वी

पा : एक चमत्कार, एक जादू !

प्रशेन ह. क्यावल द्वारा फिल्म समीक्षा

कुछ ऐसे कलाकार हर सदी में होते है जो दर्शकों की सोच से परे कुछ ऐसा पेश करते है की सारी दुनिया उनके सामने झुकने के लिए बेबस हो जाये. और ये झुकना इतना सम्मान सहित होता है जोकि शायद किसी सम्राट को भी न नसीब हो. पर एक सम्राट ऐसे है जिन्होंने बार-बार दुनिया को उसी तरह के सम्मान से अपने आगे झुकने के लिए मजबूर किया अपने हुनर से, अपनी अदाकारी से! और वे हैं... इस सदी के महानायक ....अमिताभ बच्चन. जहाँ उनके उम्र के कई अभिनेता इतिहास के पन्नों में गुम हो गए या लाइफ टाइम एचिवमेंट अवार्ड लेके रिटायर हो चुके है, वही बिग बी आज भी सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के श्रेणी में नए-पुराने कलाकारों को चुनौती देते है.

इसबार उन्होंने कुछ ऐसा किया है जो हॉलीवुड में भी शायद ही किसी ने किया हो. पा .... अमित जी के अभिनय कार्यकाल के चमचमाते तारामंडल में ध्रुव तारे सा अटल और जगमगाता सितारा है ... पा !

कथा सारांश :

ये कथा है विद्या (विद्या बालन) और अमोल आर्ते (अभिषेक बच्चन) की जो कॉलेज के वक्त एक-दूसरे से टकराते हैं और वहीं से उनमें प्यार बढ़ता है. एक क्षण की गलती से विद्या प्रेग्नेंट होती है पर अमोल जो एक सफल राजनेता का बेटा है, इंडिया को सुधारने का जिसका सपना है, वो विद्या को इस परिस्थिति से छुटकारा पाने को कहता है. विद्या उसे छुटकारा दिलाती है पर उसके जिंदगी से दूर जा कर.

विद्या अपनी माँ की मदद से अपने बेटे को पाल-पोस कर बड़ा करती है पर उसे तकदीर एकबार फिर से एक झटका देती है. विद्या का बेटा प्रोगेरिया नमक एक अनोखी बीमारी से पीड़ित है जिसमें बच्चे का शरीर उसकी असली उम्र से ४-५ गुना ज्यादा दीखता और बढ़ता है। माने 10 साल का लड़का ५० साल का दीखता और शरीर उसका वैसे रहता है. पर डॉक्टर होने के कारण विद्या उसे सम्हाल सकती है और एक नॉर्मल लड़के की तरह उसकी परवरिश करती है. उसका नाम रहता है औरो.

औरो को स्कूल के इंडिया व्हिजन स्पर्धा में प्रथम पुरस्कार मिलता है एक खासदार के हाथों. वह खासदार होता है अमोल आर्ते. अमोल एक आशावादी, आदर्शवादी और प्रगतिशील राजनेता है जो औरो के व्हिजन से प्रभावित होकर उसके तरफ आकर्षित होता है. आगे क्या होता है. कैसे औरो को पता चलता है कि अमोल ही उसके पिता है और कैसे उनकी फेमिली फिर से मिलती है... ये कहानी है फिल्म की.

पटकथा:

अगर औरो की अनोखी बीमारी को फिल्म से निकाल दें तो फिल्म की कहानी किसी और साधारण फिल्म जैसी ही है. पर यही एक अलग चीज ... औरो और उसकी अजीब बीमारी ... इस फिल्म को अलग लेवल पर लेकर जाती है और एक अलग तरीके की ट्रीटमेंट मांगती है. और आर. बालाकृष्णन ने सही तरीके से इस डिमांड को पूरा किया है. उनका किरदारों और घटनाओं की तरफ देखने का एक अपना ही पॉजिटीव तरीका है जो पूरे स्क्रीनप्ले और फिल्म पे छाया है. इसी कारण इतने बुरे बीमारी के गिर्द घुमती कथा एक अल्हड़ और आनंदमयी कहानी के रूप में उजागर हो पाई है.

इस तरीके से सोचने और लिखने के लिए आर. बालाकृष्णन का हार्दिक अभिनन्दन. हिंदी फिल्म जगत को उनके जैसे लेखकों की सख्त आवश्यकता है.

दिग्दर्शन:

आर. बाल्की एक सुलझे हुए लेखक और एक उम्दा निर्देशक हैं. उनकी फिल्में अनोखी होती हैं और कठिन से कठिन परिस्थितियों को भी सहज तरीके से प्रस्तुत करती हैं. इनका ये नजरिया अगर असल जिंदगी में भी हम उतार पाए तो जिंदगी स्वर्ग बन जाएगी.

इसी नजरिये से जब बाल्की फिल्म को प्रस्तुत करते हैं तो फिल्म एक मजेदार अनुभव बन जाती है. उनकी लेखनी और दिग्दर्शन दोनों माध्यमों पर जबरदस्त पकड़ है. जिस तरीके की सादगी और संजीदगी उनके काम में है वैसा किसी और निर्देशक के काम में नहीं दिखाई देता. उनका काम वाकई काबिले तारीफ है.

अभिनय:

अभिनय .... अभिनय का क्या कहना... ये तो एक जादू है... चमत्कार है. अमिताभ बच्चन इस फिल्म में है ऐसा जयाजी स्टार्ट में बोलती है पर मुझे तो वो दिखाई ही नहीं दिए पूरे फिल्म में... दिखाई दिया तो 12-13 साल का एक बच्चा जो प्रोगेरिया से पीड़ित है. दर्शकों को झंझोड़ कर रख दिया है अमितजी ने. उनके लिए ऐसे कई सारे दर्शक सिनेमाघर में दीखते है जो सालों से कभी सिनेमाघर में नहीं गए. उन सब संजीदा और उच्च शिक्षित लोगों को सिनेमाघर खिंच के लाये हैं बिग बी.

विद्या बालन सुंदर दिखी हैं और बहुत ही सटीक अभिनय है उनका. परेश रावल पूरी तरह से अभिषेक के किरदार को सहारा देते हैं. विद्या की माँ बनी अभिनेत्री एक बेहतरीन और सहज अभिनय का प्रदर्शन कराती हैं.

चित्रांकन :

पी. सी. श्रीराम की सिनेमाटोग्राफी बेहतरीन है और फिल्म की ऊँची लेवल को और ऊँचा बनाती है.

संगीत और पार्श्वसंगीत:

संगीत जगत के पुराने सितारे श्री इल्लायाराजा ने इस फिल्म को अपने साजों संगीत से सँवारा है. फिल्म में दो ही गाने है और तीसरा आखरी में है. पहला गाना "उड़ी उड़ी" एक बेहेतरीन सुरीला गाना है. फिल्म का पार्श्वसंगीत फिल्म के साथ पूरी तरह से न्याय करता है.

संकलन:

अनिल नायडू का संकलन फिल्म की गति को बहता हुआ रखता है और दर्शकों को कहानी और किरदारों से बंधे हुए रखने में सफल होता है.

निर्माण की गुणवत्ता:

उच्चतम गुणवत्ता इस फिल्म के हर भाग में दिखाई देती है हालाँकि फिल्म कम लागत से बनी है. कम लागत और ऊँची गुणवत्ता के चलते ये फिल्म रिलीज़ के पहले ही प्रॉफिट में होगी. बॉक्स ऑफिस पर फिल्म को अच्छा रेस्पोंस है. बाकी सभी अधिकारों की बिक्री से बहुत सारी कमाई एबीसीएल को दे पायेगी.

लेखा-जोखा:

****(4 तारे)

इस फिल्म की जितनी भी तारीफ की जा सके कम है. फिल्म में प्रोगेरिया के परेशानियों से नहीं डील करती बल्कि एक लाइट फिल्म है जो सभी उम्र के दर्शकों को पसंद आएगी. आप पूरी फेमिली और दोस्तों के साथ ये फिल्म देखने जरुर जाइए.

चित्रपट समीक्षक:
--- प्रशेन ह.क्यावल

Saturday, December 05, 2009

रेडियो : फटा हुआ ट्रांजिस्टर

प्रशेन ह. क्यावल द्वारा फिल्म समीक्षा

भगवान् जब देता है तो छप्पर फाड़ के देता है ये मुहावरा जिन कुछ ही लोगो के साथ सत्य होता है उनमे से एक है हिमेश रेशमिया!

कम उम्र में अपनी टीवी सेरिअल्स से धूम मचानेवाले हिमेश म्यूजिक की दुनिया में इस कदर छा गए के सबसे जादा फिल्मे उनके ही पास थी. उसके बाद हिमेश ने खुद गाना शुरू किया और ऐसा तहलका मचा दिया के एक के बाद एक ऐसे २८ हिट सोंग्स देने के बाद भी पब्लिक में उनका डिमांड बढती ही गयी.

इसी माहौल का फायदा उठाकर हिमेश ने एक्टर बनाने की सोची और उनके नसीब और म्यूजिक के चलते "आपका सुरूर" सुपर हिट फिल्म हो गयी. हिमेश को लगा के उनका सिक्का चल पड़ा और उन्होंने ५ फिल्मे साईन कर ली. सुभाष घी की "कर्ज" का रिमेक कर के उन्होंने कुछ और शेड उसमें लगा के पेश की पर नहीं चल पाई.

हिमेश की किस्मत अब टिकी है इस हफ्ते रिलीज़ फिल्म "रेडियो" की तकदीर पर. देखते है कैसे है रेडियो की तकदीर.

कथा सारांश :

कथा है आज के "confused" जेनेरेशन की जिनका relationship status "complicated" है. विवान शाह (हिमेश रेशमिया) एक रेडियो जोकी है जिनकी शादी तलाक के बुरे वक्त से गुजर रही है. तलाक तो हो जाता है. पर विवान की बीवी पूजा (सोनल सहगल) उसे भुला नहीं पाती है और विवान के लाइफ में आते जाते रहती है. इसी कारण विवान अपने जिंदगी में प्यार के संबंधों में आगे नहीं बढ़ पाता है. इसी वक्त उसकी जिंदगी में शनाया (शहनाज़ ट्रेजरीवाला) आती है जो उसके साथ को-जोकि कर के काम करती है. शनाया विवान से प्यार करने लगती है पर विवान confused है. आगे उनके संबंधो का क्या होता है यही कहानी है फिल्म की.

पटकथा:

कथा आज के पीढ़ी के हिसाब से ठीक है और वो उससे जुड़ पायेगे. पर पटकथा मार खाती है नकलीपन में. यहाँ सब नकली लगता है. भावनाए नकली, अभिनय नकली, कहानी नकली. कही कही पर फिल्म दर्शंकों के दिलों को छूती जरुर है पर बहुत ज्यादा जगह पर वोह प्रभावपूर्ण नहीं हो पाई है. केवल अच्छे म्यूजिक के कारण दर्शक फिल्म में टिके रहते है. लेखक इशान त्रिवेदी ने निर्देशक इशान त्रिवेदी के लिए बहुत ही कमजोर नींव बना के दी है. देखते है निर्देशक इशान त्रिवेदी इस कमजोर नीव पे किस तरह अपनी फिल्म की ईमारत बना पाए है.

दिग्दर्शन:

जब पटकथा ही कमजोर हो तो भगवान भी अगर दिग्दर्शक रहे तो फिल्म को असरदार नहीं कर पाएंगे. ऐसा ही कुछ है रेडियो के साथ. कमजोर नींव पे चमकधमक भरी सजावट कर के भी फिल्म खोखली लगती है. किरदार ऐसे है के जैसे जबरदस्ती एक टाइप में प्रस्तुत किये गए हो. सब कुछ गृहीत किया गया है. बार बार ये शब्द आ रहा है पर सब कुछ नकली सा लगता है. दूसरा कोई शब्द ही नहीं है. फिर भी फिल्म में एक फ्रेशनेस है और समय समय पर फिल्म अच्छी लगती है और बहुत जादा जगह पर बुरी. मुझे लगता है अनुभवों का डेप्थ काम रहने के कारण आज के नए निर्देशक दर्शकों के दिलों को छूने में असफल है क्योंकि उनकी भावनाए simulated है.

मैंने कभी भी किसी रेडियो स्टेशन में ८-१० लोगो को रेडियो जोकि को मोनिटर करते हुए नहीं देखा है. वोह तो बेचारा एक बंद कमरे में अकेला बकते रहता है. पर फिल्म में वोह सेट एक डबिंग या रेकॉर्डिंग स्टूडियो जैसा दिखाया है जहा ८-१० स्टाफ शो को मोनिटर करते रहते है. ये क्या मजाक है?

अभिनय:

माशाअल्लाह! ये डिपार्टमेंट में तो हर जगह नकलीपन का भंडार है. हिमेश जब संजीदा दृश्यों में ठीक लगते है पर लाइट मूड में उनका अभिनय बहुत ही ठोसा हुवा लगता है. शहनाज़ और सोनल ठीक ठाक है. हिमेश के ससुरजी के किरदार में जाकिर हुसैन misplaced लगते है. वही अजीबो गरीब पहनावे में व्हील चैर पे बैठे हुए राजेश खट्टर एक बहुत बड़ा मजाक लगते है.

चित्रांकन :

इस डिपार्टमेंट में फिल्म एकदम जबरदस्त है. सब कुछ चकाचक और आँखों को लुभाने वाला है.

संगीत और पार्श्वसंगीत:

फिल्म की सबसे तगड़ी चीज इसका म्यूजिक है. इतना मेलोडी भरा म्यूजिक बार बार नहीं आता है. पर फिल्म में हर गाना टुकड़ो टुकड़ो में आता है और दर्शकों को गाने सुनाने का मजा तक नहीं मिलता है. हिमेश के गाने ही है जो इस फिल्म में बंधे रखते है वरना ये फिल्म को तो एक स्टार भी न मिले.

संकलन:

संकलन अच्छा है और फिल्म छोटी है पर पठकथा और निर्देशन में मात खाती है.

निर्माण की गुणवत्ता:

काम बजट पर बनी ये फिल्म कही पे भी ऐसा नहीं दिखाती के निर्माण की गुणवत्ता में कही कमी है. और हिमेश के दावा करते है के फिल्म का पूरा खर्च उनके म्यूजिक के कमाई से ही निकल गया है. फिल्म निर्माता के लिए घाटे में न हो पर दर्शकों का क्या ? उनके लिए तो ये एक घाटे का ही सौदा है.

लेखा-जोखा:

जहा तक अंदाजा है ये फिल्म तुरंत टीवी पे आ जाएगी. आप इंतज़ार कीजिये और टीवी पे देखिये. टीवी पे देखने के लिए ये एक ठीक मूवी है. बस हिमेश के लिए इतनी सलाह है कि हरेक को अपना काम कर लेने दो. आपको जादा पैसे कमाने है तो आप निर्माता बन जाईये.... अभिनय में ही क्या रखा है ? आप तो फिल्म किये बिना भी एक स्टार है. अभी जो आपने ५ फिल्मे की है वोह ख़तम हो जाएगी तो निर्माता और म्यूजिक निर्देशक ही बन के रहिये ... ये दर्शको पर महेरबानी होगी जो आपसे इतना प्यार करते है. यार फिर ऐसे रोले कीजिये जो आपके अभिनय क्षमता के दायरे में हो. मै ये इसलिए बोल रहा हूँ के मै आपके म्यूजिक का बहुत बड़ा फैन हूँ.

**(२ तारे)