Thursday, September 10, 2009

अपने-अपने मोहल्ले, अपने-अपने रावण...

अपने बारे में आपको एक बात क्लीयर कर दूं - मैं तुलसीदास स्टाइल का पति कतई नहीं हूं कि श्रीमती गईं मायके और जनाब दो घंटे बाद ही जलने लगे धूं-धूं श्रीमती के वियोग में । झोला उठाया और चल पड़े ससुराल । रास्ते में शव नदी में तैरता दिखा तो बंधु समझे कि श्रीमती ने नदी पार करने के लिए पति परमेश्वर को नाव तैयार रखी है। और हो लिए प्रिया प्रेमी शव पर ही सवार! ससुराल के घर में ऊपर से लटका सांप दिखा तो महाशय समझे कि श्रीमती ने उन्हें अपने शयन कक्ष में आने के लिए रस्सी लटका कर रखी है कि पति को रात को आते वक्त ससुराल वालों को जगाना न पड़े।

अपन तो एक अदद उत्तर-आधुनिक हसबैंड हैं। पत्नी जब-जब मायके जाती है, जश्न मना लेते हैं, चार कुंआरे दोस्तों को घर आमंत्रित कर अपने बीते दिनों को श्रद्धांजलि दे लेते हैं। अभी अपनी शादी को मात्र एक साल भर ही हुआ है,पर लगता है ज्यों सात जन्म से खूंटे बंधा हूं। गले में रस्सी के निशान, हाय रे हाय। ऐसे निशान तो कोल्हू के बैल के गले में भी नहीं पड़ते होंगे भाई साहब!

अबके भी मायके जाने के चिरपरिचित बहाने के क्रम में अपनी ताजी टटकी पत्नी पिछले हफ्ते मायके चली गई। यह कहकर कि त्यौहार है, वह दीपावली के बाद ही आएगी। जाओ भाई! हम भी कौन होते हैं आपको रोकने वाले। हम तो चाहते हैं कि बीच-बीच में थोड़ी खुले में सांस ली जाए। सच कहूं , पत्नी के साथ लगातार रह लूं तो अपना तो अभी से दम घुटने लगा है। धन्य हैं वे जो एक ही पत्नी के साथ सात जन्म काटने का दावा करते फिरते हैं।

पत्नी ने यह खुशखबरी ज्यों ही दी तो मन बाग-बाग हो उठा। मन ने कहा ,`जा बच्चे, इस खुशी में मुहल्ले भर में लड्डू बांट आ। ऐसे मौके अब जिंदगी में बार-बार नहीं आने वाले।´ पर डरा, पत्नी ने गलती से प्रोग्राम कैंसिल कर दिया तो गए न लड्डुओं पर किए पैसे बरबाद! सहमा-सहमा ही सही, पर फिर भी मैं खुश था कि चलो....

......और वह सच्ची को मायके चली गई! मुझे उसके डयोढ़ी पार करते ही भीतर से किसी ने आवाज दी,` सुन ली न भगवान ने तेरी आर्त आवाज! अब तो आस्तिक हो जा मेरे बाप! भगवान किसीकी आवाज सुनें या न सुनें ,पर आदर्श पत्नियों से पीड़ितों की आवाज अवश्य सुनते हैं , भले ही उनकी अपनी आवाज भी न निकल पा रही हो।´

अभी मुहल्ले में बांटने के लिए आने वाले लड्डुओं पर होने वाले खर्च का हिसाब लगा ही रहा था कि अचानक सामने खूंटी पर टंगी श्रीमती की नाइटी पर नजर गई तो पता चला ,नहीं गधे ! तू कुंआरा नहीं, अब शादी-शुदा है । यह बुरा पता चलते ही मन एक बार फिर रोया।

अभी रोई आंखों के आंसू पोंछने की सोच ही रहा था कि दरवाजे पर दस्तक हुई, बचकाना सी। जाहिर था मुहल्ले के बच्चे ही होंगे। कोई पिछले जन्म की प्रेयसी होती तो कोमल सी थाप दरवाजे पर यों देती कि वह दस्तक सीधे मन में उतर जाती।

हंसते हुए अपने वर्तमान के आंसू खुद ही पोंछता उठा। वाह रे वैवाहिक जीवन! अपने आंसू खुद ही पोंछने पड़ते हैं।

दरवाजा खोला तो सामने मुहल्ले के चार-पांच बच्चे। सबने एक साथ कहा,` अंकल! चंदा चाहिए।´

`यार, अभी से चंदा मांगना शुरू कर दिया। देखो, तथाकथित शरीफ घरों के बच्चे सब कुछ मांगते हैं पर चंदा नहीं। शरीफ बापों के बच्चे हो तो चंदा मांगना बंद करो और चुपचाप घर जाकर पढ़ने के बहाने टीवी के आगे डट जाओ। ´

`पर अंकल जब देश ही चंदे पर चला हो तो चंदा मांगना कौन सी बुरी बात है´ सबने एक साथ कहा।

` अच्छा तो चंदा किसलिए इकट्ठा किया जा रहा है´

`सोच रहे हैं अबके हम भी मुहल्ले में अपना रावण बनाते। हर मुहल्ले के तो अपने-अपने रावण हैं। बहुत बुरा लगता है अंकल, जब हमें औरों के यहां दशहरे को रावण जलते देखने जाना पड़ता है।
´ गोलगप्पे बेचने वाले के लाडले ने रूआंसेपन में कहा तो उस पर बड़ी दया आई।

`तो कितना बड़ा रावण बनाना चाहते हो´ मैंने पूछा ।

`सरकारी कालोनी वालों के रावण से बड़ा।
´ टिक्की बेचने वाले के लड़के ने सिकुड़ा सीना फुलाते कहा तो मैं परेशान हो उठा। तभी टेलर मास्टर साहब के लड़के ने बड़ी मासूमियत के साथ पूछा,`पर अंकल! सरकारी कालोनी वालों का रावण हर साल बड़ा ही क्यों होता जा रहा है´

`कालोनी भी तो सरकारी है न, बस इसीलिए।´
बच्चे बड़े होंगे तो खुद समझ जाएंगे। वक्त से पहले बच्चों को बड़ा कर क्यों उनका बचपना खराब करना।

`तो अंकल चंदा दीजिए न!´ एक ने मेरी पैंट खींचनी शुरू की तो न चाहते हुए पैंट में हाथ डालना ही पड़ा। दूसरा मेरे आगे चंदे का डिब्बा ठनकाता रहा।

मैंने यह सोचकर बच्चों को चंदा दे दिया कि शायद इनके जलाने से सच्ची को रावण जल जाए तो जल जाए। वरना बड़ों ने तो दशहरे को जितने रावण जलाए दूसरे ही दिन ठहाके लगाते हुए उससे चार गुणा और समाज में कुलांचे मारते देखे गए।

सच कहूं तो अब मुझे उतनी खुशी पत्नी के मायके जाने की नहीं है जितनी खुशी इस बात की है कि अबके अपने मुहल्ले के पास भी अपना रावण होगा।

बच्चे चंदे का धंधा तो क्या ही करेंगे....

डॉ. अशोक गौतम
सोलन-173230 हि.प्र.

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7 बैठकबाजों का कहना है :

Anonymous का कहना है कि -

heyyyyyy, no body wants to read your gossip... idiot go away and tell to your wife.......

Shanno Aggarwal का कहना है कि -

अशोक जी,

कौन जाने की आपके दिमाग में जो छोटा सा शक है वह साकार ही हो जाये तो......? ' बच्चे चंदा का धंधा तो क्या ही करेंगें..... '
तो मेरा मतलब है की वह पैसा उन छोटे रावणों ने अगर टिक्की और गोलगप्पे खाने में ही उड़ा डाला तो.....???? च्च च्च च्च च्च.......

Manju Gupta का कहना है कि -

तुलसी का प्रेम तो जग जाहिर है .आप तो पत्नी पीड़ित लगे हो .भाभी जी को पढा दो ,मायके से आ गयी होंगी .कहीं हास्य तो कहीं करारा व्यंग्य है.आज तो हर जगह रावण मिल जायेगें . आभार .

Shanno Aggarwal का कहना है कि -

पत्नी को मायके भेजने की इतनी तमन्ना न होती तो न ही लड्डुओं पर व्यर्थ पैसा खर्च करने का खुराफाती idea दिमाग में आता और कम से कम कोई बख्त-बेबख्त आंसू पोंछने वाला भी होता.

हाय राम ! नारी जीवन कैसी है तेरी
यह दुख भरी अजब कहानी
तेरी absence में पति की आँखों में
क्यों भर - भर आता है पानी?

Shamikh Faraz का कहना है कि -

अशोक जी बहुत करार व्यंग है. मज़ा आ गया. हम तो आपके व्यंग्बाजी के मुरीद हो गए.

राजीव थेपड़ा ( भूतनाथ ) का कहना है कि -

सारे लोग रावण के.....पुतले जला-जला कर रावण को मारने का डोंग करते हैं ....मगर अपने भीतर उससे भी बड़ा और भयानक रावण पैदा किये रहते हैं....धीरे-धीरे हर आदमी और भी बड़ा रावण होता जा रहा है...और बतलाता है कि वही एक मर्यादा पुरुषोत्तम राम है....हम भूतों को तो ऐसे रावनों से बड़ी कोफ्त होती है....हम भूत भी ऐसी कारगुजारियों को देख-देख कर बार-बार मरते रहते हैं....इंसान की इंसान के प्रति अपनी किसी भी जिम्मेवारी से बेखबर और लापरवाह इंसान की तमाम नाकामियों को देखकर हर भूत बड़ा व्यथित होता है....वो बार-बार चाहता है कि वो धरती पर फिर से आ जाए....!!
मगर एक बार जो मर गया उसका धरती पर ना तो संभव है...और ना वाजिब....इसीलिए धरती पर इंसान कहलाने वाले इन स्वनामधन्य विवेकशील जीव इंसान की तमाम कारगुजारियों को देख-देख कर हम भूत एक तरह से पागल ही हो जाया करते हैं....भीतर-भीतर ही क्या बाहर-बाहर भी रोते हैं...कलपते हैं....दहाड़ मार-मार कर चीखते हैं ......मगर फिर यह भी सोचते हैं कि जब हम धरती पर थे तब हमने भी वहां होकर क्या "कबाड़"लिया था.....अपने होने का कौन सा फ़र्ज़ अता कर पाए थे हम....और यह सोचकर हम और भी ज्यादा रोने लगते हैं....दरअसल यह रोना किसी और इंसान के "रावण-पने"पर ना होकर अपनी विफलताओं पर रोना है....अपने अंहकार का ही पोषण है....इसीलिए...यह रावण पना कभी मिटने को नहीं आता...क्यूंकि इंसान का लालच कभी ख़त्म ही नहीं होता....लालच के लिए इंसान तमाम फरेब....बे-इमानी...और ना जाने क्या-क्या करता है....जिसको लिखते-लिखते ना जाने कितने ही लेखक मर-खप गए....जिससे चेताते-चेताते कितने ही साधू-संत स्वर्ग-सिधार गए.....आदमी रावण था....रावन है....और रावण रहेगा.....!!

निर्मला कपिला का कहना है कि -

इतने हलके फुलके शब्दों मे एक बहुत तीखी चोट है । अशिक जी को बहुत बहुत बधाई

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