Saturday, January 09, 2010

क्या न्याय के लिये जान देना जरूरी है?

जी हां, शायद लग तो यूँ ही रहा है। रुचिका जैसी तमाम कई लड़कियाँ रोज आत्महत्याएँ करने के लिए मजबूर हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि इनकी पुकार न्याय के मंदिर तक नहीं पहुंच पातीं...और दुनिया बदस्तूर चलती रहती है। न्याय पाने में उन्नीस वर्ष का समय लग जाना और डीजीपी को बचाने के लिये हरियाणा के मुख्यमंत्रीी समेत पूरी राज्य व्यवस्था द्वारा अपनी पूरी ताकत लगा देना हमारी समूची कानूनी व्यवस्था को नग्न कर देता है। दोषी डीजीपी राठौर का साथ देने वाले भी उतने ही गुनाहगार हैं जितने कि स्वयं डीजीपी। राठौर को केवल छह माह की सजा और एक हजार जुर्माना लगाया जाना क्या न्याय संगत था ? जबकि छेड़छाड़ के लिए धारा 354 के तहत 2 साल की सजा का प्रावधान है। आखिर क्यों डीजीपी जैसे लोगों के लिए अलग और आम आदमी की सजा के लिए अलग कानून हैं? हालांकि अब इस मामले को मीडिया द्वारा उछाले जाने के बाद और लोगों की प्रतिक्रियाओं को देखते हुए सीआरपीसी के तहत अहम संशोधन लागू हुआ है। पर अब देखना यह है कि यह किस हद तक लागू होगा। क्योंकि इससे पहले भी कई ऐसे कानून बनाये गये हैं, और तोड़े भी गये हैं तो इन्हीं कानून के रक्षकों द्वारा ही।
अब यह सोचने वाली बात तो यह है कि आखिर क्यों रुचिका को जान देने के लिए मजबूर होना पड़ा? यदि पुलिस ने सही समय पर पीड़िता की शिकायत पर संज्ञान लिया होता तो आज रुचिका जिंदा होती। रुचिका जैसी लड़कियां प्रताड़ित होकर या तो आत्महत्या कर लेती हैं या फिर परिवार वालों पर पुलिसिया दवाब के चलते चुप रह जाती हैं ताउम्र सिसकने के लिए। यह कोई पहला किस्सा नहीं जब कोई रक्षक ही भक्षक बन गया हो । ऐसे ही भ्रष्ट अफसरों की लंबी फेहरिस्त है। शिवानी हत्याकांड में दोषी पाये गये आई पी एस अधिकारी आर के शर्मा, और अभी-अभी सुर्खियों में आया 13 साल पहले पूर्व डीआईजी टंडन पर आदिवासी लड़की को अगवा कर बलात्कार का मामला दर्ज है। इन सभी केसों में यह देखा गया है कि भ्रष्ट अफसरों के आरोप कभी सामने आये भी हैं तो यह सर्वविदित है कि उन्हें सत्तासीन किसी वरिष्ठ नेता का प्रश्रय मिला होता है जिससे यह सजा पाने में साफ बच निकलते हैं या फिर इनकी सजाओं में रियायत हो जाती है। दूसरे हमारे देश की सबसे बड़ी विडंबना यह है कि जब निचली अदालतें राजनीतिक प्रभुत्ववालों के सामने या उंचे पदों पर बैठे भ्रष्ट अफसरों के सामने न्याय करने में अवश सी नजर आती है तब रही सही कसर उंची अदालतें उनके फैसलों को अनपेक्षित ढंग से बदल कर उनके हित में फैसले कर देती है। उससे भी बड़ी दुर्भाग्यपूर्ण बात तो यह है कि यदि कोई ईमानदार अफसर अपने काम के प्रति ईमानदारी बरते तो उस पर रोक लगाना, उसका तबादला करा देना या फिर उसे हाशिये पर डाल दिया जाना कोई नयी बात नहीं। आईपीएस अधिकारी किरन बेदी को सच बोलने की सजा ’’सोशल इनजस्टिस‘‘ के तौर पर मिलेगी इसकी उन्हें कत्तई उम्मीद न थी। आला दर्जे की अधिकारी ने ऐसी संड़ांध व्यवस्था से क्षुब्घ होकर ही स्वैच्छिक सेवा निवृति ले ली थी।

मौजूदा न्याय व्यवस्था इतनी रुग्ण और अनउपयुक्त है जिसके इलाज के लिये सख्त से सख्त रास्ता खोजा जाना बेहद जरुरी हो गया है। कानून का चाबुक केवल आम आदमियों को पड़ता है क्योंकि वह बचने के उटपटांग रास्ते नहीं जानता या फिर किसी का वरदहस्त उसके सिर पर नहीं होता। सबसे पीड़ादायक बात तो तब होती है जब वर्षों तक न्याय नहीं हो पाता और उस पर भी जब अफसरों के नाम मामला दर्ज होता है,तब या तो वे प्रमोशन पा जाते हैं या लंबित जांच का उनके प्रमोशन पर कोई असर नहीं पड़ता। यानिकि कानून को ठेंगा दिखाने वाले स्वयं ही सरकारी तंत्रा के लोग होते हैं। उदाहरणार्थ कुछ समय पहले ही अपहरण के मामले में एक डीसीपी पर आरोप लगा था। आलम यह कि न तो उस पर कोई कार्रवाई हुई और न ही उसे गिरफतार किया गया। जबकि हुआ यूं कि प्रमोशन के तौर पर इसी डीजीपी ने सीआईडी में भी काम किया।

भारत को तात्कालिक न्यायिक सुधार की जरुरत है खासकर बलात्कार के मामले में कठोर से कठोर दंड की, जहां दुधमुंही बच्चियों को तक शिकार बनाने से नहीं चूका जाता। आये दिन बलात्कार की घटनाओं से पटे पड़े रहते हैं हमारे न्यूज पेपर जैसे कि यह आम बात हो गई हो। सरकार को चेतना होगा आखिर क्यों बार-बार ऐसी पुनरावृत्तियां होतीं हैं ? यौन उत्पीड़न और बलात्कार जैसे मामलों के लिये सख्त कानून क्यों नहीं बन रहे हैं? आखिर सवाल यह भी पैदा होना लाजमी है कि कौन हैं वे लोग जो ऐसे कठोर कानून नहीं चाहते ? और कौन हैं वे लोग जो ऐसे घृणित लोगों की पैरवी करते हैं ?क्या उन्हें सजा का प्रावधान नहीं होना चाहिए? आखिर कब तक ऐसी कई और रुचिकाओं को न्याय पाने के लिये जान देनी पड़ती रहेगी??
सुमीता केशवा

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2 बैठकबाजों का कहना है :

शब्दातीत का कहना है कि -

यह सब कुछ जो आपने कहा टनों के हिसाब से रोज छपता है ... किसी के दिलो दिमाग पर इसका कोई असर नहीं है.. क्योंकि यह पत्ते हैं .. कभी जड़ों में उतरने कि हिम्मत दिखाइये..काम उतनी ही नैसर्गिक भूख है जितनी कि पेट कि भूख .. लेकिन हमारे समाज का पूरा का पूरा ढांचा जो कि छोटे परिवार पर आधारित है इतनी इतनी वर्जनाओं में जकडा जा चुका है खास कर सेक्स और शादी ब्याह के मामलों को लेकर कि इससे किसी बेहतर परिणामों की कोई उम्मीद करना बेवकूफी है .. इफ्दाये इश्क है रोता है क्या आगे आगे देखिये होता है क्या .. यह सब यूं ही नहीं लिख रहा बहुत बड़ी कीमत बहुत बड़ी कीमत चुकाई है इस सच तक पहुँचने के लिए ..जितने भी उपद्रव जितनी भी मुसीबतों से आज हमे दो चार होना पड़ रहा है उसके पीछे यही परिवारवाद है.. मैं और मेरा परिवार.. जब तक यह पारिवारिक निर्भरता और खानदानियत के अहंकार का सम्मोहन नहीं टूटता तब तक कोई कानून कोई धर्म कोई नैतिकता कोई शिक्षा कुछ नही कर पाएंगे.. पानी प्रतिदिन और मैला और और मैला होता जायेगा .. और इसके लिए सरकारें नहीं युवा चेतना को आगे आना होगा .. उन्हें शादी के पूरे सिस्टम को ही नकारना होगा .. सुकरात से लेकर ओशो तक सभी ने इस शादी सिस्टम के खिलाफ कुछ न कुछ कहा है लेकिन हम सब अंधे बहरे लोग हैं ..मजा तो तब है यदि आप इस बात को यहीं पर न रोक कर आगे चलायें किसी निष्कर्ष तक बात को पहुँचाने के लिए

राजेन्द्र अवस्थी का कहना है कि -

मेरी समझ में नहीं आता कि, जो देश शिक्षा के मामले में संस्कृति के मामले में,आध्यात्म के मामले में विश्व गुरू का दर्जा रखता हो...उसी देश में परम्पराओं को लेकर,नैतिकता को लेकर,समाजिक व्यवस्था को लेकर,महिलाओं के प्रति भी दृष्टिकोण में भीषण विषमता और विडम्बनाएं प्रत्येक व्यक्ति के विचारों में अपना अस्तित्व बनाए हुए है।
और ये सब सदियों से इस देश के कण कण में व्याप्त है...
फिर भला हम किसी के भी प्रति ईमानदार कैसे हो सकते हैं?

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