दीपावली का माहौल है। चारों ओर रोशनी जगमगा रही है। खुशी और उत्साह का प्रकाश झिलमिला रहा है। नये कपड़े, मिठाइयां, मेल-मिलाप, बधाइयां, नये वर्ष की शुभकामनाएं। वैसे परंपरा यही कहती है, संस्कारों का यही तकाज़ा है कि पर्व-त्यौहार के समय सब कुछ अच्छा-अच्छा कहो। अच्छा सोचो। सद्भावना की बात करो। खुद खुश रहो और लोगों को खुश रखो। कमियों-कमजोरियों की बात फिर कभी करना। कमियां किसमें नहीं होतीं?
लेकिन यह भी तो है कि ‘सुख में करे न कोय।‘ और ‘जो सुख में सुमिरन करे तो दुख काहे का होय।‘ यदि पर्व-त्योहार के मौके पर थोड़ा आत्मविश्लेषण कर ही लिया जाये, तो बुरा क्या है? खुद को जानने-पहचानने का, खुद अपनी खोट निकालकर स्वयं को सुधारने का मौका आखिर कब निकालें? और यह कोशिश जब ‘स्व‘ की सीमा से ऊपर उठकर समाज के स्तर तक पहुंचती है, तब देश-समाज के हित में शायद बहुत महत्वपूर्ण भी साबित होती है। ऐसी ही विनम्र कोशिश यह मेरा लेख है।
कबीर ने कहा है-
‘पंडित और मसालची दोनों सूझै नाहिं
औरन को कर चांदनी आप अंधेरे माहिं।‘
मशालची दूसरों को रोशनी दिखाता है, खुद अंधेरे में रह जाता है। पंडित अपना ज्ञान दूसरों में बांटता है, लेकिन स्वयं उस ज्ञान पर अमल नहीं का पता। दीपावली की जगर-मगर में कहीं ऐसा न हो कि हम अपने खुद के अंधेरों को देख ही न पायें। हमारे साथ जो हुआ, जो हो रहा है, वह सब आगामी पीढ़ियों के साथ न हो, इसी भावना से यह आत्मविश्लेषण।
लिखता मैं रोज हूं। अच्छा-बुरा दिन नहीं देखता। निदा फाज़ली ने कहा भी है- ‘सातों दिन भगवान के,मंगल हो या पीर।‘ चूंकि लिखने से ही मुझे दोनों प्रकार की तुष्टियां मिलती हैं-पेट की भी, दिमाग की भी, और दोनों की ही आंच इतनी ज्यादा तेज है कि शुभ-अशुभ मुहूर्त की फिक्र किये बिना ही लिखने बैठ जाता हूं, आलस्य नहीं करता, क्योंकि- ‘जिस दिन सोया देर तक, भूखा रहा फकीर।‘ वैसे भी मैं भाग्य, शगुन, मुहूर्त वगैरह मानता नहीं।
लेकिन उस दिन जब लिखने की तैयारी करने लगा, तो पाया कि दिन वाकई बड़ा ही खराब निकला। सुबह-सुबह खबर आयी कि प्रसिद्ध नाट्यकर्मी हबीब तनवीर साहब नहीं रहे। मन शोक में डूब गया। इसी जनवरी 2009 में वर्धा स्थित महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के पांच दिवसीय ‘हिंदी समय‘ विचार गोष्ठियों के दौरान उनसे मुलाकात हुई थी। 86 वर्ष की उम्र और रोग के बावजूद उनकी कौंध में, चमक में धार में कोई कमी नहीं थी। सिर्फ छह माह बाद ही उस दिन की सुबह वह चले गये। दिन की शुरुआत वाकई बहुत खराब हुई।
लेकिन अभी तो उस दिन की खराब शुरुआत की कुछ और भी खराबियां बाकी ही थी। खबर आयी कि जिस भोपाल में हबीब तनवीर साहब ने आखिरी सांस ली, उसी भोपाल के सूखी सेवनिया क्षेत्र में उसी दिन 8 जून 2009 को सड़क दुर्घटना में हिंदी के तीन कवियों का निधन हो गया। दिग्गज हास्यकवि ओमप्रकाश आदित्य, नीरज पुरी और लाड़सिंह गुर्जर। चौथे कवि ओम व्यास भी गंभीर रूप से घायल। कोमा में। अत्यंत चिंताजनक स्थिति में। जब यह लेख लिख रहा था, तब तक की यह स्थिति थी।
चूंकि मैं पिछले 25-30 वर्षों से कवि सम्मेलनों में काव्य पाठ करता रहा हूं, इन सभी कवियों से मेरे बड़े ही आत्मीय संबध रहे हैं। ओमप्रकाश आदित्य के घर दिल्ली में कई बार ठहरा। नीरज पुरी के साथ छिंदवाड़ा, सिवनी, रायपुर आदि कवि सम्मेलनों की बड़ी प्यारी यादें हैं। नीरज पुरी के साथ मेरा एक चित्र मेरे अलबम में है। और ओम व्यास तो मुंबई के ही हैं। अक्सर मुलाकातें होती ही रही हैं। समझा जा सकता है कि दुर्घटना और मौतों की खबर से मैं कितना हिल गया। शोक का कैसा शूल दिल की अतल गहराइयों में उतर गया। वाकई, मेरा वह दिन बहुत बुरा निकला।
निदा साहब कहते हैं चूंकि सातों दिन, तीन सौ पैसठों दिन भगवान के हैं, सो सबके सब अच्छे। भगवान अच्छे सो उनके दिन भी अच्छे। तो फिर 8 जून 2009 का दिन इतना बुरा क्यों? ‘अच्छे भगवान के दिन भी अच्छे‘-इस सिद्धांत को लागू करता हुआ आगे सोचा तो पाया-‘बुरे देश के दिन भी बुरे।‘
लेखक परिचय-आलोक भट्टाचार्य
हिन्दी के सुपरिचित कवि एवं पत्राकार, मातृभाषा-बंगाली, हिन्दी में मौलिक लेखन।
प्रकाशित पुस्तकें-
1-भाषा नहीं है बैसाखी शब्दों की ( कविता संकलन)
2-सात समंदर आग (कविता संकलन)
3-अपना ही चेहरा (उपन्यास)
4-आंधी के आस पास (आत्म कथात्मक कहानियां)
5-पथ के दीप (संस्मरण)
6-अधार्मिक (वैचारिक लेख संग्रह)
इसके अलावा प्रभूत साहित्यिक एवं पत्राकारीय लेखन। हिन्दी की सभी स्तरीय पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशन। अमेरिका में कविता पाठ के लिए आमंत्रित।
पुरस्कार एवं सम्मानः
1-महाराष्ट्र राज्य साहित्य अकादमी का ‘सन्त नामदेव‘ पुरस्कार
2- महाराष्ट्र राज्य साहित्य अकादमी का ‘जैनेन्द्र कुमार‘ पुरस्कार
3- निराला पुरस्कार
4- नागरी भूषण पुरस्कार
5- साहित्य भूषण पुरस्कार
6- अखिल भारतीय श्रेष्ठ हिन्दीतर भाषी हिन्दी लेखक पुरस्कार
7- साम्प्रदायिक सौहार्द्र पुरस्कार
8-श्रेष्ठ मंच संचालक पुरस्कार
बंगला के रवीन्द्रनाथ ठाकुर, काज़ी नजरुल इस्लाम, सुकान्त भट्टाचार्य,सुभाष मुखोपाध्याय, सुनील गंगोपाध्याय आदि की कुछ रचनाओं के हिन्दी अनुवाद। पूर्व राष्ट्रपति डॉ. ए पी जे अब्दुल कलाम के काव्य संग्रह ‘माई जर्नी‘ का हिन्दी अनुवाद ‘मेरी यात्रा‘।
जी हाँ। दिन इसलिए बुरे, कि खुद देश बुरा है। एक बुरे देश में आखिर अच्छे दिन हो भी कैसे सकते हैं? दीपावली के पावन मौके पर कह रहा हूं और कहते हुए मुझे बहुत क्षोभ है कि मैं, आप, इस देश की सवा अरब जनता, हम सब एक बुरे देश में पैदा हुए। जैसा कि हम सब को पढ़ाया-बताया जाता है, रहा होगा कभी यह देश विश्व का सिरमौर-तब हम नहीं थे। आज तो इस देश की गिनती संसार के सबसे बुरे देशों में होती है। बहुत ही दुख की बात है यह। इस बात को मानने का जी ही नहीं करता। लिखते हुए भी कलेजा टूक-टूक हो रहा है। लेकिन आज का सच यही है कि भारत एक बुरा देश है। बहुत ही बुरा।हिन्दी के सुपरिचित कवि एवं पत्राकार, मातृभाषा-बंगाली, हिन्दी में मौलिक लेखन।
प्रकाशित पुस्तकें-
1-भाषा नहीं है बैसाखी शब्दों की ( कविता संकलन)
2-सात समंदर आग (कविता संकलन)
3-अपना ही चेहरा (उपन्यास)
4-आंधी के आस पास (आत्म कथात्मक कहानियां)
5-पथ के दीप (संस्मरण)
6-अधार्मिक (वैचारिक लेख संग्रह)
इसके अलावा प्रभूत साहित्यिक एवं पत्राकारीय लेखन। हिन्दी की सभी स्तरीय पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशन। अमेरिका में कविता पाठ के लिए आमंत्रित।
पुरस्कार एवं सम्मानः
1-महाराष्ट्र राज्य साहित्य अकादमी का ‘सन्त नामदेव‘ पुरस्कार
2- महाराष्ट्र राज्य साहित्य अकादमी का ‘जैनेन्द्र कुमार‘ पुरस्कार
3- निराला पुरस्कार
4- नागरी भूषण पुरस्कार
5- साहित्य भूषण पुरस्कार
6- अखिल भारतीय श्रेष्ठ हिन्दीतर भाषी हिन्दी लेखक पुरस्कार
7- साम्प्रदायिक सौहार्द्र पुरस्कार
8-श्रेष्ठ मंच संचालक पुरस्कार
बंगला के रवीन्द्रनाथ ठाकुर, काज़ी नजरुल इस्लाम, सुकान्त भट्टाचार्य,सुभाष मुखोपाध्याय, सुनील गंगोपाध्याय आदि की कुछ रचनाओं के हिन्दी अनुवाद। पूर्व राष्ट्रपति डॉ. ए पी जे अब्दुल कलाम के काव्य संग्रह ‘माई जर्नी‘ का हिन्दी अनुवाद ‘मेरी यात्रा‘।
मौत तो सभी को आती है, लेकिन यदि आपने भारत में जन्म पाया है, तो भारत की अयोग्यता, भारत की लापरवाही की वजह से आप असमय ही काल के गाल में समाने को मजबूर हो सकते हैं, जैसे कि 8 जून 2009 को ओमप्रकाश आदित्य, नीरज पुरी और लाड़सिंह गुर्जर को समय से पहले मरना पड़ा। इसलिए मरना पड़ा कि अपना भारत वह देश है, जहां विश्व में सबसे ज्यादा सड़क दुर्घटनाएं होती हैं, जबकि विश्व में सबसे कम गति में वाहन यहां दौड़ते हैं। 135 कि.मी. प्रति घंटा की स्पीड से अमेरिका की गाड़ियां वहां दौड़ती हैं, दुर्घटनाएं नहीं होतीं, कम होती हैं, यहां भारत में 55-60-65 कि.मी. प्रति घंटे से ज्यादा स्पीड में गाड़ियां दौड़ नहीं पातीं, वैसी सड़कें ही नहीं हमारे पास, फिर भी विश्व में सबसे ज्यादा दुर्घनाओं का ‘वर्ल्ड रेकॉड‘ भारत के ही नाम है। इस मामले में वाकई हम दुनिया के सिरमौर हैं। नेशनल क्राइम रेकॉर्ड्स ब्यूरो के अनुसार भारत में प्रतिदिन हर घंटे 13 लोगों की मौत सड़क दुर्घटनाओं में हो जाती है।
अपनी एक कविता में मैंने कहा है-‘दुर्घटनाएं आकस्मिक तो होती हैं, अकारण कभी नहीं होतीं।‘ अपने देश में सड़क दुर्घटनाओं के क्या कारण हो सकते हैं? सड़कें खराब, यानी सार्वजनिक निर्माण विभाग खराब, सड़क-परिवहन विभाग खराब, आर.टी.ओ. खराब। रिश्वत लेकर अयोग्य आदमी को ड्राइविंग लाइसेंस दे दिया, चुकी हुई पुरानी गाड़ियों को रिश्वत लेकर ‘पास‘ दे दिया, ड्राइवर खुद खराब कि शराब पीकर ड्राइव कर रहे हैं, घमंडी कि दूसरी गाड़ियों को पीछे छोड़ने के अहंकार में गाड़ी तेज चला रहे हैं, ओवरटेक कर रहे हैं, यातायात-नियम तोड़ रहे हैं। किसी की जान चली जाये तो बला से। पुलिस तथा प्रशासन के परेशान करने वाले निहायत ही असंवेदनशील रवैये के कारण कोर्ट-कचहरी के चक्करों के डर से राह चलते साधारण लोग दुर्घटनाग्रस्त घायलों की मदद के लिए जल्दी आगे भी नहीं आना चाहते। कैसी विडम्बना है कि असंवेदनशील पुलिस-प्रशासन के रूखे रवैये ने जन-साधारण को भी असंवेदनशील बना दिया है।
सिर्फ सड़क दुर्घटना में ही हम सिरमौर नहीं हैं। अभी हाल के ही केपीएमजी नाम की विश्वविख्यात सर्वे कन्सलटेंसी फर्म द्वारा विश्वव्यापी सर्वेक्षण के बाद जारी की गयी रिर्पोट में कहा गया है कि भारत दुनिया के सर्वाधिक दस भ्रष्टतम देशों में एक है। भारत के लिए यह अत्यंत शर्म की बात है कि सूची में शामिल बाकी के जो नौ देश हैं, उनमें भारत की तरह बड़ा, विकासोन्मुख, प्राचीन, कला-संस्कृति-शिक्षा-ज्ञान से समृद्ध ऐतिहासिक तौर पर प्रतिष्ठित दूसरा कोई भी देश नहीं। बाकी नौ जो देश हैं, वे गरीबी, भुखमरी, अशिक्षा के मारे छोटे-छोटे देश हैं, इथियोपिया, नाइजीरिया, नामीबिया, यूगांडा जैसे देश, जहां इतनी भयंकर गरीबी है कि भ्रष्टाचार को माफ किया जा सकता है। आदमी आखिर भूखा ही मर जाये ? प्राकृतिक संपदा और ज्ञान संपदा में भारत उन नौ देशों से इतना ज्यादा आगे और समृध्द है कि कोई मुकाबला ही नहीं, लेकिन भ्रष्टाचार में उनके कान काट रहा है। राम, महावीर, बुध्द और गांधी उन नौ देशों में पैदा नहीं हुए। गंगा-जमुना-कावेरी-कृष्णा-कावेरी-गोदावरी वहां नहीं बहतीं। उन भूखों-नंगों-अनपढ़-अज्ञानियों को तो चोरी-चकारी की माफी मिल सकती है, लेकिन भारत ? इस हिसाब से दुनिया का सबसे बड़ा भ्रष्ट, बेईमान, झूठा, ढोंगी और पाखंडी देश है भारत। इस शर्म को छिपाने तक की कोई जगह नहीं।
मुझे मालूम है, मेरी यह बात कुछ लोगों को बहुत बुरी लगेगी। उन्हें आडवाणियों-अटलों-नरेंद्रों-तोगड़ियाओं ने बता जो रखा है कि अपना देश महान, अपना धर्म महान। इन झूठों के इस झूठे को लोगों ने मान भी लिया, क्योंकि मानना अच्छा लगता है। आखिर किसको भला यह मानना अच्छा नहीं लगता है कि अपना देश दुनिया का सबसे अच्छा, सबसे महान देश है। यह सत्य है कि कभी था। लेकिन आज जो कुछ यह देश है, वह इस देश की जनता के लिए सिर्फ और सिर्फ शर्म तथा अपमान का ही कारक है। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के पाखंड में डूबे इन झूठे नेताओं, ज्ञानपापियों, आंख के अंधों या फिर भोले-भ्रमियों के सूचनार्थ कुछ तथ्य यहां मैं अत्यंत क्षोभ और दुख के साथ दे रहा हूं।
इस वक्त हमारे इस महान देश में काले धन के तौर पर कुल 10 लाख करोड़ रुपये प्रचलित हैं। ये रुपये काले इसलिए हैं कि इनके मालिकों ने आयकर चोरियां कीं। आयकर की चोरी से बचाया-छिपाया गया यह धन है- 10 लाख करोड़ रुपये! इसके अलावा अपने इस महान देश के महान लोगों ने स्विस बैंकों में जो कुल रुपया जमा रखा है, वह है 1 अरब करोड़ रुपये। इस रकम से हम आज हम पर जो कुछ विदेशी कर्ज है, उसे 13 बार चुका सकते हैं! गरीबी रेखा से नीचे जीने को मजबूर जो 45 करोड़ अभागे हैं इस देश में, उनमें यदि स्विस बैंकों में जमा बेईमान भारतीयों के ये 1 अरब करोड़ रुपये बराबर-बराबर बांट दिये जायें, तो हर व्यक्ति लखपति हो जाये।
अभी हाल ही एक और रिर्पोट आयी है। यह एक बिजनेस सर्वे की रिर्पोट है। उसमें 12 देशों को शामिल किया गया- सिंगापुर, हांगकांग, थाईलैंड, दक्षिण कोरिया, जापान, मलेशिया, ताइवान, वियतनाम, चीन, फिलीपिन्स, इंडोनेशिया और अपना यह भारत महान! पाया गया कि इन बारह देशों की अफसरशाही, यानी नौकरशाही, यानी प्रशासन में भ्रष्टतम है भारत की अफसरशाही। भारत के नौकरशाह (चपरासी से लेकर,क्लर्क, हेडक्लर्क, मैनेजर, कैशियर, डाइरेक्टर, कलक्टर, कमिश्नर, सचिव आदि) काम ही नहीं करते। हाजिरी बजाते हैं, हाजिर नहीं रहते। आलसी होते हैं। रिश्वतखोर हैं और रिश्वत लेकर भी काम नहीं करते।‘ट्रान्सपरेन्सी इंटरनेशनल इंडिया सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज़‘ के वर्ष 2007 के प्रतिवेदन में (जो 2008 को पेश किया गया) कहा गया है कि ‘देश में गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन करने वालों को एक साल में मूलभूत, अनिवार्य तथा जनकल्याणकारी सरकारी सेवाओं को प्राप्त करने के लिए लगभग नौ सौ करोड़ रुपयों की रिश्वत देनी पड़ती है। ज़ाहिर है, नौ सौ करोड़ की यह सारी रिश्वत भारत के नौकरशाहों की बेईमान-बेशर्म जेबों में जाती है। यहां एक बात पर गौर करना होगा। वह यह कि नौ सौ करोड़ की यह रिश्वत भारत की ‘गरीबी रेखा के नीचे का जीवनयापन करने वाले लोग‘ ही देते हैं, जो कुल आबादी में 45 करोड़ ही है। बाकी के 90 करोड़ लोग जो रिश्वत देते हैं, वे आर्थिक क्षमता में उन गरीबों से बहुत ज्यादा आगे हैं। जाहिर है, इनके भी सरकारी-गैरसरकारी दफ्तरों के काम बिना रिश्वत के बनते नहीं। उन गरीबों की तुलना में 90 करोड़ लोग ज्यादा ही रिश्वत देते होंगे। एक अनुमान के अनुसार भारत में हर साल रिश्वत के तौर पर कुल 3200 करोड़ रुपये दिये जाते हैं।
सिर्फ रिश्वतखोरी और कामचोरी में ही नहीं, गबन में भी अपना भारत महान है। ताजा मामला तो ‘सत्यम‘ का है ही। ‘इंडिया फ्रॉड सर्वे‘ की वर्ष 2008 की रिर्पोट में कहा गया है कि गबन की वजह से देश की 5 % कंपनियों को प्रति कंपनी 10 करोड़ रुपयों से अधिक का नुकसान हुआ, और 10 % कंपनियों को 1 करोड़ से 10 करोड़ रुपयों तक का नुकसान। वर्ष 2009 की तुलना में भारत में गबन के शिकारों में 54 % बढ़ोतरी हुई है। यानी अपना देश तरक्की कर रहा है। बधाई!
सिर्फ अफसरशाह ही क्यों, उनके आकाओं को लीजिये। सुखरामों की कोई कमी तो नहीं इस देश में। लेकिन एक सुखराम ही को यदि आप लें- जिन्हें हाल ही अदालत ने आय से अधिक साढ़े चार करोड़ रुपयों की संपति रखने के अपराध में दोषी मानकर सजा दी है, तो भी आपका सर शर्म से झुक जायेगा, आश्चर्य से चकरा जायेगा। मज़ा यह है कि सुखराम की जिन संपत्तियों की कीमत साढ़े चार करोड़ आंकी गयी, उनकी मौजूदा कीमत सौ करोड़ रुपये की है। पिछले साल मध्य प्रदेश के स्वास्थ्य संचालक योगीराज शर्मा से भी करोड़ों की राशि और जमीन-जायदाद के कागज़ात मिले। सुखराम जैसे नेताओं और योगीराज जैसे अफसरों की कोई कमी नहीं यहां, लेकिन मज़ा यह है कि अपनी न्याय-व्यवस्था भी इतनी मज़ेदार कि दोनों में से किसी को एक दिन के लिए भी जेल नहीं जाना पड़ा। गिरफ्तारी-जमानत-सजा की घोषणा के बाद ऊपरी अदालतों को अपील करने तक बेल की व्यवस्था-इस बात को तो अपने स्वदेशी-सांस्कृतिक राष्ट्रीयवादी, ‘गर्व से कहो‘ वादी धुरंदर देशप्रेमी-धर्मप्रेमी लोग भी मानेंगे ही कि भारत जननी की जो सबसे भ्रष्ट और बेईमान संतानें हैं, वे हैं वकील और पुलिस। झूठे, मक्कार, बेईमान। कू्रर। इधर कुछ जजों के किस्से उजागर हुए हैं। मुंबई की एक अदालत के एक माननीय जज पिछले पांच-छह साल से फरार हैं। मुंबई की (देश की सबसे काबिल) पुलिस उन्हें ढूंढ ही नहीं पा रही ! भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो (एंटी करप्शन ब्यूरो) की ताजा रिर्पोट बताती है कि भ्रष्टाचार के मामलों में देशभर की पुलिस में महाराष्ट्र पुलिस अव्वल है। बधाई! महाराष्ट्र पुलिस के खिलाफ 81 मामले साल भर में दर्ज हुए। साल भर में 103 पुलिसकर्मी घूसखोरी में पकड़े गये। जो पकड़े नहीं गये, उनका हिसाब कौन बताये! और तो और, महाराष्ट्र के एंटी करप्शन ब्यूरो का भी एक अधिकारी रिश्वत लेते हुए पकड़ा गया। ‘ट्रान्सपरेन्सी इंटरनेशनल इंडिया‘ की रिर्पोट से पता चलता है कि अपने इस महान देश में सार्वजनिक वितरण प्रणाली, राष्ट्रीय रोजगार गारंटी, पाठशालाओं के बच्चों के लिए मघ्याह्न भोजन, पोलियो उन्मूलन आदि विभागों में किस कदर भ्रष्टचार का बोलबाला है।
राजनीति और नेताओं की बात करें क्या? मेरी ही एक ग़ज़ल का एक शेर इस संदर्भ में-
‘कुछ और भी कहें क्या, अल्लाह रे, तौबा
आदाब कहां जायें अपनी जुबान के !‘
सच है, देश के नेताओं के बारे में कुछ कहना खुद अपनी जबान गंदी करना है, भाषा को बेअदब बनाना है। इस बार के लोकसभा चुनाव में पिछली बार (वर्ष 2004) की तुलना अपराधिक पृष्ठभूमि वाले सांसदों की संख्या में 30.9 % की वृद्धि हुई है। बधाई! इस बार 150 ऐसे उम्मीदवार संसद में पहुंचे हैं, जिनके खिलाफ अपराधिक मामले दर्ज हैं। 73 सांसदों के खिलाफ संगीन अपराधों के 412 मामले चल रहे हैं। पिछली बार 128 ऐसे सांसद थे, इस बार 150-वाकई, तरक्की कर रहा है देश, ‘शाइनिंग इंडिया !‘ सांसदों पर जो आरोप लगे हुए हैं, उनके एवज में उन्हें आजीवन कारावास या फांसी तक की सज़ाएं हो सकती हैं। ऐसे सांसदों की सबसे ज्यादा संख्या इस देश की सबसे चरित्रावान, पवित्रा, राष्ट्रभक्त पार्टी भाजपा में है ! ‘हिंदू कभी आतंकवादी हो ही नहीं सकता‘ का गर्वपूर्ण उद्घोष करने वाली इस पार्टी के 23 सांसद बाहुबली अपराधी हैं। यह भी तब, जबकि इस बार बहुत से बाहुबली हारे हैं।
विश्व के इस सबसे बड़े लोकतंत्र के तीन पाये हमने देख लिये- विधायिका यानी नेता, संसद आदि, कार्यपालिका यानी प्रशासन, अफसर वगैरह, और न्यायपालिका (जहां बेईमान पुलिस, झूठे वकीलों, फर्जी गवाहों का दुष्चक्र तो है ही, जजों के रवैयों की वजह से 10-15-20 वर्षों तक लटके हुए लाखों मामले हैं, जवान आदमी बूढ़ा हो जाता है, मर जाता है, न्याय नहीं मिलता और देर से मिला भी, तो न्याय नहीं रह जाता अंततः), अब आइये, लोकतंत्र के हमारे चौथे पाये को भी जरा देख लें कि वह कितना सच्चा माई का लाल है। यह पाया है मीडिया। अदालत से ज्यादा भरोसा जिस पर जनता को है। जिस मीडिया को हम समाज का सजग प्रहरी कहते नहीं अघाते। जिस मीडिया के पास जनता के विचारों को मोड़ने की ताकत है। दुख है कि इस महान देश का महान मीडिया, लोकतंत्रा का चैथा खंभा, जनता की आवाज- वह भी इस महान देश के महान बेईमान चरित्रा के उसी महान अंधकूप में पड़ा हुआ है। देश या जनता की सेवा नहीं, मीडिया का उद्देश्य आज सिर्फ ग्लैमर और पैसा कमाना रह गया है। वह बेईमान नेता और लोभी उद्योगपति के हाथों बिक गया है। वह यह तो बहुत गाजे-बाजे के साथ बताता है कि भारत का सुनील मित्तल विश्व का स्टील किंग बन गया है, या टाटा ने कैसे बहुराष्ट्रीय कंपनियों को अधिग्रहण करके भारत की साख दुनिया में बढ़ायी, लेकिन वह इस बात का जिक्र तक नहीं करता कि कृषिप्रधान इस देश के ढाई हज़ार किसानों ने आत्महत्या कर ली, और आत्महत्याओं का सिलसिला थम ही नहीं रहा। विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष की वार्षिक रिर्पोट की वह बात भी मीडिया नहीं बताता, जिसमें आंकड़ों के सहारे यह बताया गया है कि गरीबी और भुखमरी से निपटने की भारत की स्थिति इथियोपिया और पाकिस्तान से भी गयी-गुजरी है। अखबारों और टीवी चैनलों को इस बात का भी होश नहीं कि भारत में प्रतिदिन 20 करोड़ लोग रात का भोजन नहीं कर पाते, भूखे ही सो जाते हैं। पत्रकार यह नहीं बताते कि देश के 80 % लोगों की दैनिक आय 20 रुपये से भी कम है। वे नहीं बताते कि पिछले साल भर में मध्यप्रदेश के कोरकू आदिवासियों के 62 बच्चों की मौत भूख से हो गयी। नहीं बताते कि महाराष्ट्र के जव्हार-मोखाड़ा और चिखलदरा के आदिवासी बच्चे पिछले 12-12 वर्षों से हर वर्ष 25-30-40 की संख्या में कुपोषण का शिकार होकर मर रहे हैं।
मंदी के दौर के बहाने चैनलों ने यह बात तो बहुत बढ़-चढ़कर बतायी कि कितनी बड़ी कंपनियों को कितने लाखों-करोड़ों का भारी नुकसान हुआ, लेकिन यह नहीं बताया कि उन कंपनियों में पिछले दस-पंद्रह वर्षों में भारी पूंजी निवेश भी हुआ। उसका करोड़ों का जो लाभ हुआ, वह किसकी जेब में गया? यह नहीं बताया कि मुक्त बाजार के नाम पर जो बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने भारत में अपना व्यापार फैलाया, उन्होंने भारत की सरकारी बैंकों, बीमा कंपनियों से करोड़ो-अरबों का लोन लिया, उसका कितना लौटाया? किसी चैनल ने नहीं बताया कि अगर वामपंथी पार्टियों ने रोक-टोक नहीं लगायी होती, तो मनमोहन सरकार बेलगाम होकर बैंकिग व्यवस्था में परिवर्तन, बीमा सेक्टर और रेल्वे का निजीकरण और श्रमिक सुधार के नाम पर देश को बेच ही देती।
स्टिंग ऑपरेशन के नाम पर भी मीडिया झूठ कितना खतरनाक है, और कितना ज्यादा गैर जिम्मेदाराना, यह तब पता चला जब एक चैनल फर्जी स्टिंग ऑपरेशन के जरिये दिल्ली की एक अध्यापिका को अपने स्कूल की छात्राओं द्वारा देह-व्यवसाय कराने के लिए फुसलाते दिखाया गया। बाद में किस्सा सिरे से सफेद झूठ निकला। ऐसे ही एक और चैनल ने ‘स्टिंग ऑपरेशन‘ के नाम पर तत्कालीन गृहराज्यमंत्री माणिकराव गावित को जेल में कैद एक कुख्यात माफिया सरगना से मोबाइल पर बातचीत करते दिखाया कि गावित कह रहे हैं कि जेलर बदल दिया जायेगा, बदले में सरगना छूटने के बाद गावित के दामाद को किसी भूमि-विवाद से मुक्त करा देगा। दोनों स्टिंग ऑरपेशन झूठ के पुलिंदे साबित हुए।
दरअसल इस बेईमान देश के बेईमान पत्राकार भी पूरी तरह धंधेबाज हो गये हैं। चैनलों ने शेयर बाजार में पैसा लगा रखा है। पब्लिक ईशू के जरिये धन बटोरा है। जाहिर है इनके हित शेयर बाजार में हैं। ये सच्ची पत्राकारिता कैसे करेंगे? ये धंधेबाज पत्राकार तो इस हद तक चले गये हैं कि अपने ही कर्मचारियों के पेंशन और प्रोविडेंड फंड का पैसा भी शेयर बाजार में लगाने की तैयारी में हैं।
इन सब का परिणाम जो होना था, वह होकर रहा। आज हमारे देश के राष्ट्रीय चरित्रा की ही तरह देश की जनता का भी ‘सामाजिक-सार्वजनिक चरित्र‘ निहायत ही बेईमान है। देश की जनता परम स्वार्थी, संकीर्णहृदय और पाखंडी है। गांवों के स्कूल टीचर रोज स्कूल नहीं जाते। किसी तरह एक दिन जाकर छह दिनों की हाजिरी लगा देते हैं। कॉलेज के लेक्चरर-प्रोफेसर कॉलेज में क्लास नहीं लेते, प्राइवेट ट्यूशन या कोचिंग क्लास से लाखों कमाते हैं। मिड डे मील का पैसा डकार जाते हैं। डॉक्टरों ने तो मानों लूटने की दुकान ही लगा रखी है। गांवों की पंचायतराज की व्यवस्था भ्रष्टाचार में डूबी है। गांवों की जो महिलाएं अपने खेत में काम करना अपनी शान के खिलाफ समझती हैं, वे स्वयं को कागजों पर मजदूर बताकर ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना का पैसा उड़ा रही हैं। गांव में जो तालाब है ही नहीं, उसी की खुदाई हो रही है चार-चार साल से। जो परिवार किसी एनजीओ को बता रहा है कि बच्चे भूखे मर रहे हैं, पता कीजिये तो पाइयेगा कि उस परिवार ने अपने बेटे की शादी में 5,000 रुपयों की कारतूस दागीं।
गांव बेईमान, शहर बेईमान, नेता बेईमान, जनता बेईमान-इस बुरे देश में पैदा होकर इतने सारे बुरे लागों के बीच रहकर कोई व्यक्ति भला अच्छा कैसे बन सकता है? यहां तो सच बोलने तक का अधिकार नहीं। आज जो मैं महान भारत, विश्वगुरू भारत, ज्ञान का प्रथम प्रकाश भारत, विश्व का सर्वश्रेष्ठ धर्म हिंदुत्व आदि-आदि के बारे में थोड़ा-बहुत सच बोल-लिख गया, तुरंत बाल ठाकरे, उध्दव ठाकरे, आडवाणी-जोशी-मोदी जैसे सत्य के पुतले दूध के धुले आर्य, हिंदू, भारतीय वीर मुझ पर टूट पड़ेंगे। कहेंगे ‘हिंदू कभी आतंकवादी नहीं होता‘ और ठाकरे पत्रकारों को पीटेंगे, दूकानें लूटेंगे, अखबार जलायेंगे, राज ठाकरे परप्रांतियों की हत्या करवायेंगे, नरेंद्र मोदी अपनी सरकारी मशीनरी के माध्यम से खुले आम गणहत्या करवायेंगे। पाखंड, झूठ और बेईमानी की हद है।
सड़क दुर्घटना हो, एनकाउंटर हो, दंगा हो, मिलावटी दवा हो-मरना इस देश की जनता को बेमौत ही है-
‘अब तो अपनी भी मौत मरना नहीं नसीब
हत्या से बचोगे, तभी तो अपनी मौत मर पाओगे!‘
हबीब तनवीर को भोपाल के अस्पताल में सही इलाज मिला ही होगा, गलत-लापरवाह चिकित्सा और मिलावटी दवा भी मिलती, तो अजब क्या था। इस देश के अस्पताल भी तो इसी देश के हैं आखिर! जिस देश में पैकेट का दूध भी सिर्फ मिलावटी ही नहीं, नकली भी हो, उस देश में क्या नहीं हो सकता! सो सड़क दुर्घटना में मारे गये ओमप्रकाश आदित्य, नीरज पुरी, लाड़सिंह गुर्जर-तुम अच्छे लोग, अच्छे और सच्चे कवि जो इस देश में पैदा हुए, तो तुम्हें तो यूं ही मरना था। अब तुम इस देश की हद से बाहर चले गये हो, तुम्हारी आत्माओं को अब शांति तो जरूर ही मिल रही होगी। तुम्हें श्रद्धाँजलि देते हुए मैं आज के इस बुरे दिन में यही कामना करता हूं कि तुम्हारी संतानों, तुम्हारे नातियों-पोतों को, हमारे बाद आने वाली पीढ़ियों के नन्हें-मुन्नों को अच्छे दिन नसीब हों। मेरी तरह उन्हें अपने ही देश को कोसने के बुरे दिन कभी नसीब न हों। दीपावली के मौके पर आत्मविश्लेषण करने की उन्हें जरूरत न पड़े।
आमीन!
(आलोक भट्टाचार्य)
18, अंबिका निवास, (मॉडेल इंग्लिश स्कूल के पीछे)
पांडुरंगवाड़ी, डोंबिवली (पूर्व) 421201
फोन- (0251) 2883621, मो॰- 09869680798
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6 बैठकबाजों का कहना है :
आत्मा को झकझोरता अलेख
सुन्दर और बढिया
हर रोशनी के पीछे कोई न कोई अंधेरा होता ही है। इसपर किसी का वश नहीं चलता।
धनतेरस की हार्दिक शुभकामनाएँ।
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दीपावली के मौके पर आत्मविश्लेष्ण तो होना ही चाहिए। त्यौहारों को मनाते हुए हम उन मूल्यों को खोते जा रहे हैं जिन मूल्यों की रक्षा हेतु ही त्योहारों का उदभव हुआ। आलोक भट्टाचार्यजी को उनके इस विचारोत्तेजक लेख के लिए बधाई ! ्खबर के लिए हिन्द युग्म का आभार। साथ ही हिन्दयुग्म और सभी पाठ्कों को धनतेरस और दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं !
इस निबंध का स्थायी महत्त्व है। पढ़ने पर ऐसा लगा कि आप बहुत सूक्ष्मता से एक अलग धरातल पर चीज़ों को देखते हैं।
पर इन समस्यायों पर बैठक तो बाद में भी जम सकती थी, आज ही क्यों? ऐसा नहीं है कि इस विषय से हम जी चुरा रहें हैं, चा मुंह मोड़ रहें हैं। पर हम आज धनतेरस मना रहें हैं और प्रकाश के पर्व का स्वागत करने का मूड बना चुके हैं। इस लिए इस बैठक में शामिल नहीं होंगे। क्षमा करें।
अच्छा लगा
दीपोत्सव अभिनन्दन !
दीवाली पर आपने जो आत्मविश्लेषण की बात कही बहुत ही बढ़िया लगी. आपका आलेख में कुछ ऐसा है ही नहीं जो घटिया कहा जा सके. पढ़कर लगा की आप किसी भी चीज़ को गहरे तक जानने में यकीन रखते हैं. बहुत फिलोस्फिकल सोच है.
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