Wednesday, October 14, 2009

लक्ष्मी के चक्कर में

.........रात के ग्यारह बज चुके थे। पत्नी द्वारा बार बार पड़ोसियों के द्वार दौड़ाए जाने के बाद अब मैं पूरी तरह थक चुका था। जब भी पत्नी को लगता कि बगल के फलां पड़ोसी के घर से कोई आवाज नहीं आ रही है तो वह झट से चार लड्डुओं के डिब्बे को मेरे हाथ में पकड़ा उस पड़ोसी के घर यह जासूसी करने यह आदेश दे भेज देती कि हे रा के एजेंट! जाकर पता लगाओ कि उनके घर लक्ष्मी तो नहीं आ गई! मैं सहमा हुआ सा दबे पांव पड़ोसी के घर बहाने से घुसता वहां, सूंघता और उस घर में लक्ष्मी की खुशबू न पा मुस्कुराता लौट आता। जब तक मैं अपने घर न आता पत्नी की जान उसके गले में अटकी रहती और ज्यों ही वह मेरे मुस्कुराते चेहरे को देखती तो खुशी के मारे उछल पड़ती।
पड़ोसियों के घर जासूसी करने के लिए स्पेशल आर्डर पर बनवाए चार चार लड्डुओं के तमाम जब डिब्बे खत्म हो गए तो पत्नी ने निराश होते पूछा,‘ अब ??’
‘ अब क्या??’
‘ डिब्बे तो खत्म हो गए। अब?? अच्छा ऐसा करो ...’ कह उसने जिम्हाई ली।
‘क्या करूं अब?? अब बचा ही क्या है करने को??’
‘ लगता है मुहल्ले में किसीके घर भी अभी तक लक्ष्मी नहीं आई है...’
‘ तो???’
‘तुम मुहल्ले के नाके पर चले जाओ और जैसे ही वह आए उसे जैसे भी हो अपने घर ले आना।’
‘ इतनी रात को? अब तो कुत्ते भी सो गए हैं!’
‘ तो क्या हुआ! इसी रात की तो बात है। बस एक बार अबके हमारे घर में लक्ष्मी आ गई तो पूरे जन्म की कंगाली गई पानी में।’
‘पर पानी में तो भैंस जाती है।’ मैंने मुहावरा ठीक किया तो वह झल्लाई। पता नहीं क्यों?
‘ क्या तुम नहीं चाहते कि लाला रोज हमारे घर पर उधार दिया मांगने न आए? क्या तुम नहीं चाहते कि तुम्हारे पास भी कबाड़ी के बदले ब्रांडेड सूट हो? क्या तुम नहीं चाहते कि तुम भी अपने बेटे को डोनेशन देकर एमबीए कराओ? क्या तुम कबाड़ी से खरीदे कोट में प्रसन्न हो? मेरा क्या! मैं तो जैसे कैसे जी लूंगी। पर मैं नहीं चाहती कि मेरा मर्द.......’ पता नहीं क्यों आदर्श पत्नी के ये कथन सुन मेरा कलेजा पसीज गया और मैं बिन टार्च, डंडे के घुप्प अंधेरी रात में कुत्तों की परवाह किए बिना मुहल्ले के नाके की ओर कूच कर गया।
बड़ी देर तक मुहल्ले के नाके पर दुबक कर बैठा रहा हनुमान चालीसा पढ़ता। पर कहीं से भी किसीके आने की कोई आहट नहीं।
ठंड भी लगने लगी थी कि अचानक किसीके आने की आहट सुनाई दी। मैं चैकन्ना हुआ। आंखों की नींद को लात मार परे भगाया तो देखा कि सामने लक्ष्मी। हाय रे मेरे भाग! सरी ठंड हवा होती रही। सब्र का फल पहली बार चखा।
‘प्रणाम देवि!!’ कह मैं पूरा का पूरा जुड़ गया।
‘कौन???’
‘ मैं, लच्छमी नंद।’
‘यहां क्या करे हो इतनी अंधेरी रात में?पी के गिरे हो?’
‘नहीं,तुम्हारा इंतजार कर रहा था देवि! बड़ी देर कर दी अबके आने में। पड़ोसी तो सो भी गए होंगे। अबके इतनी लेट कैसे हो गईं आप?’
‘मेरा वाहन दिल्ली में मेट्रो साइट हादसे में घायल हो गया था, पैदल आने में देरी हो गई।’ कह देवि ने माथे से पसीना पोंछा।
‘ तो मुझे बुला लेते। मैं आपको ले आता।’ अब पता चला विश्व में मंदी का दौर क्यों चला है?
‘ नहीं वत्स! तुम तो ईश्वर की सबसे श्रेष्ठ कृति हो। कहां तुम और कहां मेरा वाहन उल्लूक!’
‘नहीं देवि नहीं। मैं देखने में ही लच्छमी नंद हूं। इसलिए मुझे अपने वाहन के रूप में सहर्ष सवीकार कर कृतार्थ करो।’ कह मैं घोड़ा बन गया।
‘ पर तुम मेरे वाहन से कैसे?’
‘देखो देवि! यह जानते हुए भी की लोकतंत्र में मत अमूल्य है और मैं हर चुनाव में चंद लोभों में बिक उल्लू बनता रहा हूं। अन्याय के खिलाफ आवाज बुलंद करने के बदले अन्याय को चुपचाप सहता रहा हूं। ऐसा उल्लू ही कर सकता है न! घरवाली कहती मर गई कि अब तो बच्चे बड़े हो गए। महंगाई दम ले रही है,। भगवान ने भी रिश्वत लेनी शुरू कर दी है। तुम भी रिश्वत लेना ‘ाुरू कर दो,पर नहीं ले पा रहा हूं। ऐसा उल्लू ही कर सकता है न? न मुझे अपने अधिकारों का पता है और न अपने कत्र्वयों का। अपना दिमाग मेरे पास है ही नहीं। बस, जो घरवाली कहती है उसे ही संसार का अंतिम सत्य मानता रहा हूं। घर में बिजली नहीं होती मैं बिजली वालों से शिकायत नहीं करता। नलके में पानी नहीं आता मैं पानी वालों से शिकायत नहीं करता। लाला कम तोलता है । मैं सरकार के बार बार जगाने के बाद भी सोया खड़ा रहता हूं। सोया ग्राहक हूं न!......... अब अपने उल्लूपने के और कितने प्रमाण तुम्हें दूं देवि??’
‘तो ऐसे उल्लू के घर जाकर मैं करूंगी क्या वत्स??’
‘ तो जाओगी किसके घर देवि!!’
‘ पूंजीपति के। वह मुझे संभालना जानता है।’
उस रात को जो ठंड लगी थी आज भी बीमार चल रहा हूं मित्रो! हजार रूपये की दवा खा चुका हूं। पर ठंड है कि जाने का नाम ही नहीं ले रही।

अशोक गौतम
गौतम निवास,अप्पर सेरी रोड, सोलन-173212
हि.प्र.,

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2 बैठकबाजों का कहना है :

मनोज कुमार का कहना है कि -

मैं जानता हूं कि ये ख़्वाब झूठे हैं, और ये ख़ुशियां भी अधूरी हैं,
मगर ज़िन्दा रहने के लिए मेरे दोस्त, कुछ ग़लतफ़हमियां भी ज़रूरी हैं।

Shamikh Faraz का कहना है कि -

बहुत बढ़िया लगा अशोक जी . कोई इस आलेख की तारीफ न करे "ऐसा उल्लू ही कर सकता है न"

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