Sunday, October 11, 2009

अमिताभ का सही उपयोग नहीं हो पाया

महानायक अमिताभ बच्चन के 67वें जन्मदिवस पर प्रस्तुत है अनिरुद्ध शर्मा का लेख....

अमिताभ बच्चन...बड़ा नाम, बड़ा कद, बड़ी शख्सियत. इतने सालों में कितना कुछ लिखा जा चुका है उनके बारे में लेकिन मेरा इस नाम के प्रति मोह मुझे लिखने के लिये बार-बार उकसाता है। सात हिन्दुस्तानी से लेकर भूतनाथ तक का सफर सभी जानते हैं। एक अभिनेता के तौर पर वे लाजवाब हैं इसमें कोई दो राय नहीं हैं। उनकी शख्सियत में जादू है। मैंने उनकी लगभग हर फिल्म देखी है और उनमें से कुछ ते कईं-कईं बार देखी हैं। लेकिन फिर भी एक बात मुझे महसूस होती है कि इस कमाल की शख्सियत और बेजोड़ अभिनेता का सही उपयोग नहीं हो पाया। जैसा कि मशहूर है कि अमिताभ एक सौम्य व्यक्ति हैं और रिश्तों को पूरी ईमानदारी से निभाते हैं, यही वजह है कि वे हमेशा कुछ निहायत ही अयोग्य व्यक्तियों के बीच फंसे रहे जिनमें फिल्म की सतही जानकारी थी। बिगबी की फिल्मों में से बहुत सी फिल्में ऐसी हैं कि उनमे से अगर उन्हें निकाल लिया जाये तो कुछ भी नहीं बचता, ना कहानी, ना निर्देशन, ना संवाद...लेकिन फिर भी लोग देखते हैं और खूब देखते हैं ये जादू सिर्फ और सिर्फ अमिताभ बच्चन का है। उनकी एक फिल्म जिसे मैं जब भी मौका मिलता है देख लेता हूं वो है ” अग्निपथ ”। मेरे हिसाब से (और श्रीमती जया बच्चन के हिसाब से भी :) ) अग्निपथ अमितजी के जीवन का सर्वश्रेश्ठ अभिनय है, ये उनकी अभिनय क्षमता का चरम है जिसने एक साधारण सी कहानी को असाधारण बना दिया। इस फिल्म में उनकी संवाद अदायगी अभिनय स्कूलों में पढ़ाये जाने योग्य है। एक-एक संवाद जबरदस्त है। वैसे अगर हम उनके जीवन की बेहतरीन फिल्में चुनें तो जो नाम सामने आएंगे वे हैं- जंज़ीर, अभिमान, शोले, दीवार, अग्निपथ, त्रिशूल, काला पत्थर, शक्ति, शराबी और मैं अक्स को भी शामिल करना चाहूँगा। चुपके-चुपके इसलिये छोड़ दी क्योंकि वो मुख्यतः धर्मेंद्र की फिल्म है और आनंद में भी बिगबी का छोटा सा ही रोल था, हालांकि इन दोनों फिल्मों में भी वे कमाल ही थे। परदे पर उनका आत्मविश्वास देखते ही बनता है खासकर पुरानी फिल्मों में। फिल्म त्रिशूल में उनका किरदार इस मायने में बेहतरीन था। “आज मेरी जेब में फूटी कौड़ी भी नहीं और मैं 5 लाख का सौदा करने आया हूँ“ इस डायलॉग की अदायगी पर तालियाँ और सीटियाँ बजना लाजमी है। यश चोपड़ा ने अपने जीवन की कुछ बेहतरीन फिल्में बिगबी के साथ बनाई हैं जैसे दीवार, काला पत्थर, त्रिशूल। कभी-कभी और सिलसिला भी यश चोपड़ा की ही फिल्में हैं लेकिन मैं व्यक्तिगत तौर पर इन दोनों फिल्मों को पसन्द नहीं करता क्योंकि इनमें नौटंकी तत्व की प्रधानता थी जो आजकल यशराज बैनर की फिल्मों का स्थाई फार्मूला है, अविश्वसनीय तरीकों से रोना-धोना और भावनाओं का भौंडा प्रदर्शन। दूसरे फिल्मकार जिनके साथ बिगबी ने काफी फिल्में की हैं वे हैं मनमोहन देसाई। देसाई साहब एक बेहद सीमित प्रतिभा वाले फिल्मकार थे। उन्होंने एक ही कहानी में फेर बदल कर-कर कई-कईं फिल्में बनाईं। लेकिन वे किस्मत के धनी थे और उनकी फिल्में सफल रहीं लेकिन एक समय तक ही क्योंकि दर्शक को मूर्ख बनाकर लंबी पारी नहीं खेली जा सकती इसलिये बाद की उनकी फिल्में अमिताभ बच्चन के नाम के बावजूद पिट गईं। एक फिल्म जो वास्तव में हर मायने में अच्छी है वो है शक्ति सामंत की ”शक्ति”। अच्छी कहानी, अच्छी पटकथा, अच्छे संवाद और बेहतरीन अदाकारी अमिताभ बच्चन और दिलीप कुमार की। बाप-बेटे के रिश्तों पर बनी इस फिल्म का विषय उस समय के ट्रेंड को देखते हुए नया और अच्छा था। सबसे बड़ी बात कि इसमें भावनाओं को बिना लाउड हुए प्रदर्शित किया गया था जिसमें योगदान दिलीप कुमार और बिगबी के अभिनय का भी था। मेरी एक और पसंदीदा फिल्म है जिसमें बिगबी का अभिनय अपनी बुलंदी पर है, वो है ”शराबी”। शराबी प्रकाश मेहरा की फिल्म थी जिन्होंने अमिताभ कों पहली बार बतौर नायक जंज़ीर में पेश किया था। प्रकाश मेहरा ने व्यावसायिक फिल्में बनाईं लेकिन अपने स्तर पर अच्छी ही बनाई। ”मुक़द्दर का सिकंदर” भी उनकी अच्छी फिल्मों में एक है। अमिताभ हृषिकेश मुखर्जी के बहुत बड़े प्रसंशक हैं जिन्होंने सबसे पहले अपनी फिल्म आनंद में उन्हें एक महत्वपूर्ण किरदार दिया था और अमिताभ ने भी उस किरदार में जान डाल दी थी। आनंद मेरी सबसे प्रिय फिल्मों में से एक है। इसके अंत के उस दृश्य में जहां डॉक्टर को पता चलता है कि आनंद मर चुका है, अमिताभ ने वो रुदन किया था कि आज भी देखता हूँ तो आँखों में आँसू आ जाते हैं। इसके बाद उन्होंने हृशिदा के साथ अभिमान, नमक हराम, चुपके-चुपके आदि फिल्मों में काम किया। 80 के दशक के मध्य में अमिताभ का सितारा गर्दिश में था लेकिन इसमें उनका फिल्मों का चुनाव भी एक कारण था। उन्होंने संबंधों की खातिर ऐसी वाहियात फिल्में कीं कि उन्हें देखना किसी सज़ा से कम नहीं। ”मर्द, कुली, जादूगर, तूफान, अकेला...“ ये ऐसी फिल्में हैं जो आजकल किसी ना किसी चैनल पर रोज़ आ रहीं हैं लेकिन इन्हें देखना सहनशक्ति की कठोर परीक्षा है। एक बात मैं अक्सर सोचता हूँ कि जब अमिताभ खुद ये फिल्में कभी देख लेते होंगे तो उन्हें कैसा महसूस होता होगा या कि उन्होंने ये फिल्में कभी देखी ही नहीं हैं। तूफान में एक विचित्र वेशभूषा पहने, जादूगर में फूहड़ हरकतें करते। शायद इस दौर में वे अति आत्मविश्वास से पीड़ित हुए थे। कुली में जब उनके साथ दुर्घटना हुई थी और पूरे देश में दुख की लहर फैल गई थी तब उन्हें अपने पर शायद ये भरोसा हो गया था कि वे कुछ भी करें चलेगा। उस दौर में एक फिल्म ज़रूर ऐसी आई थी जो बिल्कुल अलग थी, ”मैं आज़ाद हूँ”। ये फिल्म उस समय बनती कला फिल्मों की श्रेणी में है। मुझे याद है तब मैं ये सोचकर खुश हुआ था कि अब उनके अभिनय का बेहतरीन नमूना देखने को मिलेगा लेकिन उसके बाद ऐसी किसी फिल्म में उन्हें देखने का सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ लेकिन मैं एक सच्चे भक्त की तरह उनकी हर फिल्म देखता और उसकी तहेदिल से तारीफ भी करता था। फिर मुझ पर गाज गिरी जब उन्होंने 5 साल के लिये ब्रेक की घोषणा कर दी। मुझे बहुत गुस्सा भी आया लेकिन मैं बेचारा क्या कर सकता था? फिर 5 साल बाद उनकी वापसी की घोषणा हुई और मैं जितना खुश हुआ, मैं नहीं समझता कोई और उतना हुआ होगा। उनकी वापसी वाली फिल्म थी ”मृत्युदाता”। मैं बहुत उत्साहित था और पहले दिन ही मैंने फिल्म देखने का निश्चय किया था। मैंने अपने सभी साथियों से कहा लेकिन कोई भी फिल्म देखने के लिये राजी नहीं हुआ तो मैं अकेला ही चला पहला दिन, पहला शो। अंदर मेरी जो गत हुई मैं क्या कहूँ। ये फिल्म मेरे उत्साह के लिये सचमुच मृत्युदाता ही साबित हुई। दुनिया की सबसे बकवास फिल्मों में से एक थी ये फिल्म। मेरा मन खट्टा हो गया और ये फिल्म भी बुरी तरह पिट गई। फिल्म के निर्देशक मेहुल कुमार थे जिन्होंने और भी बहुत सी घटिया किस्म की फिल्में बनाई हैं। वे मनोज कुमार की नकली देशभक्ति के उत्तराधिकारी थे। इतना ही काफी नहीं था कि अमिताभ ने मेहुल कुमार के साथ एक और फिल्म "कोहराम” की जिसे आज तक मैं 10 मिनट से ज़्यादा नहीं देख पाया हूँ।

जैसा कि मैंने कहा, अमिताभ की प्रतिभा का पूरा उपयोग नहीं हो पाया और वे हमेशा गलत लोगों के बीच फंस गये। उनकी तीसरी पारी जो चरित्र भूमिकओं के साथ शुरु हुई उसमें भी वे आदित्य चोपडा और करण जौहर जैसे लोगों से घिर गये जो फिल्मकार नहीं बिजनेसमैन हैं, जो फिल्मों में कहानी, पटकथा, चरित्र-चित्रण को महत्व नहीं देते बल्कि मार्केटिंग पर ज़्यादा विश्वास रखते हैं। इन्हीं लोगों के बीच रहकर शाहरुख खान ने एक दशक से अभिनय नहीं किया है। अमिताभ बच्चन के फिल्म मोहब्बतें में एक बेहद कमज़ोर और अपमानजनक किरदार दिया गया। फिर करण जौहर ने ”कभी खुशी कभी गम” में उन्हें अपमानित किया जिसमें सभी लोग पूरे वक्त बिना बात के रोते रहते हैं। इस पारी में एक बात और नज़र आती है कि अमिताभ को कहीं ये ग्रंथि मन में बैठ गई कि वे बिगबी हैं और जो सहजता दीवार के वक़्त उनके अभिनय में दिखाई देती थी वो गायब हो गई। ”ब्लैक” की चाहे जितनी भी तारीफ हुई हो लेकिन बिगबी ने फिल्म के अंत को छोड़कर पूरी फिल्म में ओवरएक्टिंग की है। ”कांटे” उनके कॅरियर पर एक धब्बा है जो कि बेहद घटिया और फूहड़ फिल्म थी। लेकिन इस पारी में भी जब भी उनके लायक कोई किरदार और निर्देशक उन्हें मिला उन्होंने वही जौहर दिखाए हैं, जैसे ”अक़्स”। इस फिल्म में उनका अभिनय उनके जीवन के सर्वश्रेष्ठ में से एक है। ”आँखें” भी अच्छी फिल्म थी। एक फिल्म आई थी ”फैमिली” जिसमें बिगबी का जबर्दस्त किरदार था। इसमें फिर वे अपने पूरे फॉर्म में हैं। इस फिल्म के अंत का दृश्य ज़रूर देखना चाहिये जिसमें फिर उसी महान अभिनेता के दर्शन होते हैं हालांकि ये फिल्म चली नहीं क्योंकि फिल्म का नायक अभिनयशून्य था। पिछले वर्ष आई फिल्म ”द लास्ट लीयर” ने फिर से मैं आज़ाद हूँ वाली उम्मीद जगा दी। ये फिल्म कला का नमूना है।

अब बस करता हूँ क्योंकि ये विषय तो इतना बड़ा है कि मेरे हाथ रुक ही नहीं रहे हैं, बातें खत्म ही नहीं हो रहीं हैं। अंत में इस उम्मीद के साथ इतिश्री करता हूँ कि निकट भविष्य में बिगबी के अभिनय के विविध रंग अपनी पूरी छटाओं के साथ हमें देखने को मिलेंगे। उनकी जल्द ही आने वाली फिल्में हैं ”अलादीन” और ”पा”।

धन्यवाद!

--अनिरुद्ध शर्मा

आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)

6 बैठकबाजों का कहना है :

kulwant happy का कहना है कि -

आपका लेख बहुत अच्छा लगा मुझे, अगर समय हो तो एक नजर इधर भी मार लेना जी...

http://filmichitchat.blogspot.com

Anonymous का कहना है कि -

पहली बात यह कि अपने मन से यह गलत फहिमी निकल दो कि आप ही सही हो। मैदान के बाहर बैठ कर सचिन, गवास्कर और कपिल जैसों को क्रिकेट सिखाने वाले हजारों मिल जायेंगे।

निर्मला कपिला का कहना है कि -

आपकी बात से शतप्रतिशत सहमत हैं ।सटीक आलेख बधाई

Aniruddha Sharma का कहना है कि -

बहुत बहुत धन्यवाद् कुलदीपजी और निर्मलाजी.
कुलदीपजी आपका आलेख बहुत ही अच्छा लगा...मैं बिलकुल यही कहना चाहता था लेकिन आपने बहुत अच्चे तरीके से कहा.
anonimasji मैंने कहीं नहीं कहा कि मैं सही हूँ सही तो एक बस आप ही हैं...

मनोज कुमार का कहना है कि -

बहुत खूब। बागवान और रोटी कपड़ा और मकान, रेश्मा शेरा आदि भी कुछ ऐसी फिल्में हैं जहां उनका सही इस्तेमाल हुआ है। आपने विषय को एक अलग नज़रिए से देखने की कोशिश की है। अच्छा लगा।

Shamikh Faraz का कहना है कि -

आपकी सोच अपनी जगह ठीक है लेकिन हर इंसान के जीवन में उतार चदाव आते हैं और गलतियाँ होती है. हर कामयाब आदमी की कुछ बढ़ी गलतियाँ होती हैं इसी लिए वह कामयाब होता है. इसी तरह की गलतियाँ अमिताभ बच्चन की तूफान और जादूगर जैसी फिल्म साइन करने की रही. लेकिन आपकी कुछ बातों से मैं बिलकुल भी इत्तेफाक नहीं रखता जैसे कुहब्बतें में अमिताभ का किरदार कमज़ोर था. ऐसा बिलकुल भी नहीं है.

आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)