फिल्म समीक्षा
इस हफ्ते हमारे आसपास के सिनेमगृह मे आई है "आसिड फॅक्टरी". जबरदस्त हैरतअंगेज़ कारनामो से भरपूर ये चलचित्र साथ मे ही एक रहस्यमयी कथा प्रस्तुत करने का दावा करता है.
क्या वो अपना वादा पूरा करने मे सफल होते है? और ऐसे करते समय क्या वो दार्शको के पसंद आ पाती है? तो चलिए शुरू करते है इस चलचित्र की समीक्षा.
कथा सारांश :
ये कहानी है मे ६ किरदारों की जो एक दूसरे को एक आसिड फॅक्टरी मे फ़सा पाते है. बल्कि इतना ही नही वो खुद को ही अपने शरीर के अंदर फसा पाते है.... नही ये कोई भूत-प्रेत की फिल्म नही.... पर मे ये ऐसा इसलिए कर रहा हूँ क्यूंकी सभी लोगों की याददाश्त जा चुकी है और वो खुद को अपने जिस्म के क़ैद पाते है (इसीलिए वो गाना है "ये जिस्म जो है ये किसका है?"). सबसे पहले उठते है फ़रदीन ख़ान जो खुद आसपास पड़े हुए और बेहोश लोगो को पाते है. वो कुछ लोगो को उठाते है. बाकी दो लोग बँधे पड़े होते है. सबको पता चलता है के सबकी याददाश्त जा चुकी है. इसी बीच एक फोन आता है जिससे उन्हे इतना तो पता चलता है यहा किसिका कत्ल होने वाला है. पर वो किसका होनेवाला है और कौन करने वाला है? और भी बाकी क्या क्या सवाल उन्हे पारेशान करते है ? अब ये लोग खुद को किस तरह बचा पाते है कातिल से... यही कहानी है इस चलचित्र की. कागज़ पे ये कथा बहुत ही दिलचस्प लगती है. अब देखते है के पर्दे पर ये कितनी खरी उतरी है.
पटकथा:
सुपर्ण वेर्मा , सौरभ शुक्ला , संजय गुप्ता ने मिल के ये पटकथा लिखी है जो और अच्छी हो सकती थी. पटकथा मे जब भी आसिड फॅक्टरी के अंदर की याने चलचित्र के वर्तमान की कहानी चल रही होती है तो बहुत ही दिलचस्प होती है. पर जैसे ही फ़्लैश बैक के दृश्य बीच बीच मे आते है दर्शको का ध्यान विचलित हो जाता है. सो कहानी का कथन अगर किसी और तरीके से होता, अगर लेखक और दिग्दर्शक फ्लैश बैक के कड़ियोंको किसी और तरीके से पिरोते तो चार चाँद लग जाते (४ स्टार मिल जाते!). शुरूवाती आधे घंटे मे फ्लैश बॅक ना होता तो मज़ा आता ताकि फॅक्टरी मे की कहानी टूटती नही. पर उसके बाद कहानी गतिमान हो जाती है और मज़ा आने लगता है.
दिग्दर्शन:
सुपर्ण वर्मा का दिग्दर्शन और कथा कथन रोचक है. चलचित्र मे सबका अभिनय बेहेतर हुवा है इसका श्रेय विशेषता सुपर्ण को देना चाहिये. किसी जहाज़ के मुखिया की तरह उन्होने सभी कर्मीदल से अच्छा काम करा लिया है. उनकी दृश्यात्मकता उत्कृष्ट है.
अभिनय:
ये चलचित्र मे फ़रदीन ख़ान का अब तक का सबसे अच्छा अभिनय है. दिया मिर्ज़ा, दीनो मोरिओ और आफताब शिवदसानी ने भी अच्छी अदाकारी की है. डैनी और मनोज बाजपेई की अदाकारी दर्शकों से तालिया बटोरति है. इरफ़ान ख़ान भी अपने छोटे पर मह्त्त्व्पुर्ण किरदार मे छा जाते है. गुलशन ग्रोवर् का काम बहुत ही कम है और उन्होने वो बखूबी निभाया है. उनके हिसाब से ये रोल ठीक नही था. और कोई भी उसे निभा सकता था.
संगीत:
इस प्रकार के चलचित्रा मे गानो का होना कहानी के कथा रुकावट सा लगता है. "ये जिस्म जो है वो किसका है" ये छोड़ दिया तो सभी गीत साधारण से है और दिगदर्शक ने उन्हे अच्छे से इस्तेमाल किया है. "जब अंधेरा छाता है" ये पुराना गीत रेमिक्स कर के आखरी नामांकन मे दिखाया गया है.
चलचित्रंकन और एक्शन:
सिनेमाटोग्राफी एकदम बढ़िया है. विश्वस्तरीय गुणवत्ता की कसौटी पे खरी उतरती है. एक्शन दृश्य अच्छे बन पड़े है. उसके लिए टीनू वर्मा की सराहना की जानी चाहिए.
चलचित्रंकन:
सिनेमाटोग्राफी एकदम बढ़िया है. एक्शन दृश्य अच्छे बन पड़े है.
लेखाजोखा:
तो आख़िर मे सब मिला के आसिड फॅक्टरी का लेखाजोखा ये कहता है के "सब तो है पर कुछ कमी है". इसलिए अगर इस हफ्ते मूवी जाना ही है (और पुराने हफ्ते के मीवीस देख लिए हो) तो ये एक अच्छा विकल्प है. आपका पैसा बरबाद नही होगा. पर अगर आप राह देख सकते है तो इसके DVD का इंतेजार करे क्यूंके ये एक अच्छा DVD WATCH hai.
चित्रपट समीक्षक: --- प्रशेन ह.क्यावल
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3 बैठकबाजों का कहना है :
well i will wait for dvd release...:) thanks for this new series prashen, waiting for "blue"
धन्यवाद इस समीक्षा के लिये। देखें कब देख पाते हैं
कथा सारांश सुनवाने के लिए शुक्रिया. समीख्सा बहत शानदार रही. हर चीज़ पे खुलकर लिखा है आपने.
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