सौरभ के.स्वतंत्र ब्लॉगिंग की गलियों में विचरते हुए अचानक मिल गए....इनका यायावर मिज़ाज अच्छा लगा तो बैठक पर आने का न्योता देना पड़ा...बिहार से दिल्ली के बीच सौरभ की दुनिया बसती है.....ब्रेकिंग व्यूज़ नाम से नई पत्रिका के संपादन की तैयारी में सौरभ इन दिनों व्यस्त हैं....पर्यावरण संदेश पत्रिका का संपादन फिलहाल ये करते हैं....कभी-कभी पढ़ाने का भी शौक रखते हैं..और, ब्लॉगिंग में तो सक्रिय हैं ही...इस लेख के साथ ही बैठक में आना भी तय हो गया....
नेपाल अब चीन की शह पर कूटनीतिक चाल चल रहा है। दरअसल, राजशाही के अंत के बाद कम्युनिस्ट विचारधारा का जो अभ्युदय हुआ, वह कहीं न कहीं चीनी ताकतों के विचारों से ओत-प्रोत है। तभी तो सुगौली संधि को वे जबरन भारत के सामने उछाल रहे हैं। ताकि भारत और नेपाल में वैमनस्य पैदा हो जाये। पेश है माओवादियों के मंसूबों को खंगालती यह रपट-
प्रकृति सरहद नहीं समझती। प्रकृति बाड़ नहीं समझती। प्रकृति कोई भारत-नेपाल नहीं समझती और न हीं वह कोई संधि समझती। पंक्षी हो या नदियां, प्रकृति के ये रूप उन्मुक्त अपनी मंज़िल की तरफ बढ़ती जाती हैं। ऐसा हीं कुछ भारत और नेपाल के साथ प्रकृति ने किया। गोरखाओं के आगमन से पहले गंडक नदी(नारायणी)को ही भारत और नेपाल की सीमा माना जाता था। पर गंडक नदी की धारा ने जब अपना रूख भारत की तरफ किया तो हजारों एकड़ भारतीय भू-भाग गंडक उस पार चला गया। लिहाजा, नेपाल उस भू-भाग पर अपनी दावेदारी करने लगा। और दावेदारी का जो तरीका था वह हिंसात्मक। मसलन, भारतीय किसानों को प्रताड़ित करना। उन्हें डराना-धमकाना। इसके लिए नेपाली राजशाही ने तो भारतीय भगोड़े अपराधियों को भाड़े पर रखा हीं, उन्हें संरक्षण भी दिया। उन्हें अग्नेयास्त्र से लैस किया। जिसका फलसफा यह हुआ कि भारतीय सीमावर्ती किसानों को खाने के लाले पड़ गये। वे अपने हीं भू-भाग पर डर और सहम के रहने लगें। सीमा विवाद हर जगह बढ़ता गया। बिहार स्थित चंपारण का सुस्ता हो या ठोरी। नेपाल का अतिक्रमण बदस्तूर जारी रहा। आज भी कमोबेश जारी है। तकरीबन हर सीमाई इलाकों में।
इसके निमित्त भारत-नेपाल के बीच सैकड़ों दफे बैठके हुईं। नतीजा फलाफल सिफर रहा। नेपाल के दबंगई के आगे, सीमा विवाद का कोई हल नहीं निकला। नेपाल बस चिल्लाता रहा कि भारत अभी भी 1816 में हुए सुगौली संधि पर अमल कर रहा है। यह चीं-पों अब राजशाही के बाद माओवादी कर रहे हैं। नेपाल में जो कुछ भी बुरा हो रहा है, माओवादी नेता प्रचंड बस भारत को उसके लिए जिम्मेदार ठहरा देते हैं और यह उच्चारने से नहीं चूकते कि भारत अभी भी सुगौली संधि पर अमल कर रहा है, भारत नेपाल के साथ बड़े भाई के जैसा बर्ताव कर रहा है। माओवादियों का बारम्बार यहीं अलापना, यह अहसास कराता है कि चीन की शह पर माओवादी भारत से जबरिया दुश्मनी मोल लेना चाहते हैं।
बीते दिनों का वाकया
जब नेपाल के राश्ट्रपति रामबरन यादव ने सेना प्रमुख जनरल रूकमांगद कटवाल को हटाने से इंकार कर दिया तो प्रधानमंत्री व माओवादी नेता पुश्प कमल दहल प्रचंड ने इस्तीफा दे डाला। इस बाबत प्रचंड यह कहने से नहीं चूके कि यह सब भारत के इशारो पर हो रहा है। उन्होंने कहा कि नई दिल्ली का नेपाल के साथ संबंध का आधार आज भी सुगौली संधि है। उन्होंने धमकी भरे लहजे में यह भी कहा कि इसका परिणाम बहुत बुरा होगा। जाहिर है कहीं न कहीं माओवादियों में भारत के प्रति वैमनस्य की भावना है।
सुगौली संधि : एक ऩजर
1960 में लिखी गई चंपारण गजेटियर के विस्तृत अध्ययन से यह मालूम चलता है कि सुगौली संधि ईस्ट इंडिया कम्पनी और नेपाल के गोरखाओं के बीच 1816 में हुआ था। जिसके तहत यह कहा गया है कि राप्ती और गंडक के बीच के तराई क्षेत्र पर भारत का अधिपत्य रहेगा। केवल बुटवल खास को छोड़कर। दरअसल, नेवार राजवंश के बाद जब गोरखाओं का नेपाल में पदार्पण हुआ तो ईस्ट इंडिया कम्पनी के साथ उनकी पटी नहीं। लिहाजा, ईस्ट इंडिया कम्पनी ने 1814 में नेपाल पर हमला कर दिया और तराई क्षेत्र में अपना झंडा गाड़ दिया। इसके बाद चंपारण के सुगौली में कम्पनी और गोरखाओं के बीच एक संधि हुई। जिसे आज सुगौली संधि कहा जाता है। कालांतर में नेपाल से रिश्ते सुधरने के बाद 1950 में भारत और नेपाल के बीच एक ‘शांति' समझौता भी हुआ। इस समझौते में गंडक उस पार तराई के कुछ हिस्से नेपाल को फिर मिल गये। पर, ज्यों-ज्यों गंडक ने अपना रूख भारत की तरफ किया। त्यों-त्यों भारतीय भू-भाग पर नेपाल का अतिक्रमण शुरू हुआ। भारत के विरोध पर नेपाल ने तर्क दिया कि सुगौली संधि को 1950 में निरस्त कर दिया गया है। सो, नदी उस पार के जो भी भू-भाग हैं, वह नेपाल के हैं।
जाहिर है, नेपाल अब चीन की शह पर कूटनीतिक चाल चल रहा है। दरअसल, राजशाही के अंत के बाद कम्युनिस्ट विचारधारा का जो अभ्युदय हुआ, वह कहीं न कहीं चीनी ताकतों के विचारों से ओत-प्रोत है। तभी तो पुरानी परंपरा को तोड़ प्रचंड प्रधानमंत्री बनने के बाद भारत के बजाय पहले चीन जाना ज्यादा मुफीद समझे। पर माओवादियों को यह नहीं भूलना चाहिए कि उन्होंने राजशाही के अंत का जो गांडीव तैयार किया, उसके लिए उनलोगों ने भारत के जमीन का इस्तेमाल किया। यह जगजाहिर है कि नेपाल को कुछ भी करना होता है, उसे भारत के जमीन की जरूरत पड़ती है। अगर भारतीय विदेश मंत्रालय तथा गृह मंत्रालय वर्तमान स्थिति को भांपते हुए अभी चाहे तो पासपोर्ट सिस्टम लागू कर सकती है। जिससे नेपाल को ऑक्सीजन देने वाले भारतीय सीमाई भू-भाग पर नेपाली जनता का बगैर पासपोर्ट पैर रखना दूभर हो जायेगा। परिणामस्वरूप, नेपाल में दाने-दाने के लिए कोहराम मच जायेगा। फिर चीन भी नेपाल की मदद नहीं कर पायेगा। जिसके दम पर आज माओवादी हो-हल्ला कर रहे हैं।
दरअसल, वे भारत के उदारता का फायदा उठा रहे हैं। वे भूल रहे हैं कि राम और सीता की विरासत आज भी हमारे भाइचारे का प्रतीक है। फिलहाल, भारत सरकार को चाहिए कि भारतीय भू-भाग को बाडा़ लगाकर महफूज करे। सीमांकन के लिए उच्चस्तर पर नेपाल के नव-निर्वाचित प्रधानमंत्री माधव नेपाल से बात करे। ताकि सीमावर्ती किसानों को उनका हक मिल सके। उन्हें उनकी भूमि मिल सके। अगर हमारी उदारता का फायदा उठा रहे माओवादी इसमें अड़ंगा लगाते हैं तो हमारे पास कई कूटनीतिक अस्त्र हैं। जिससे मानसिक तौर पर भ्रष्ट हो चुके माओवादिओं पर लगाम लगाया जा सकता है।
सौरभ के. स्वतंत्र
(लेखक शीघ्र ही प्रकाशित होने वाली हिंदी मासिक पत्रिका Breaking Views के संपादक हैं)
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6 बैठकबाजों का कहना है :
नया विषय का नया आलेख की नई,अद्भुत व्यापक जानकारी मिली .आभार
एक चोरी की गयी लेख ,,,,
सादर
सुमित दिल्ली
सुमित जी इस ताज़ा जानकारी के लिए धन्यवाद...
आपका ही
सौरभ के.स्वतंत्र
सुमित जी पता दें तो चंपारण गजेट की एक प्रति आपके पास भिजवा देता.
काश मैं अपने जिले में हो रहे इन किसानो पर जुल्म और उनके दर्द को भी भिजवा सकता...
सौरभ
भेजिए सौरभ जी,
किसानों का दर्द भी भेजिए....यही तो चाहिए बैठक पर.....चोरी के सुमित जी भी तो बैठक पर आते ही हैं....यहीं पढ़ लेंगे आलेख....मिट्टी की खबरें जब तक ब्लॉग का हिस्सा नहीं बनेंगी, ब्लॉगिंग का सरोकार नहीं सुधरेगा..
सौरभ जी बैठक में पहली बार आपसे रूबरू हुआ. काफी अच्छा आलेख आपका. संधि को बहुत ही अच्छी तरह से समझाया आपने. आगे भी मुलाक़ात होगी. मुबारकबाद.
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