कल दफ्तर में सारा दिन मूड ऑफ रहा । इसलिए नहीं कि सुबह उठते ही पत्नी का थोबड़ा देखा था । इसलिए भी नहीं कि दफ्तर आते-आते रोज की तरह पड़ोसन की प्रेम भरी चितवन ने विदा नहीं किया था। इसलिए भी नहीं कि दफ्तर जाते ही दफ्तर में साहब के चरण चाटने पड़े । साहबों का तो हमारा खानदान जन्मजात भक्त रहा है। जब तक मैं साहब के चरण न चाटूं पिछले दिन का कम्बख्त खाना ही हजम नहीं होता। मैं ज्यों ही बिल काटने बैठा बिल देने वालों की लाइन में एक गधा न जाने कहां से आकर खड़ा हो गया था। गधा होने के लिए चार टांगें होना जरूरी नहीं ! बड़े-बड़े कान होना जरूरी नहीं!! पूंछ होना जरूरी नहीं !!! गधे आजकल कई रूपों में यहां-वहां सर्वत्र उपलब्ध हैं, सुगमता से । और असली गधे बेचारे दर-दर ठोकरें खाने को मजबूर, गुप्ता की तरह ।
रोज की तरह बिल काटने शुरू ही किए थे कि... उसूलन मैं ही क्या, आज के दौर में कोई भी बकाया के दो-चार रूपये वापस नहीं करता। वैसे भी महंगाई के दौर में दो-चार रूपये का आता क्या है भैया ! इसीलिए कई समझदार तो बकाया मांगते भी नहीं । इन जैसों की दया से शाम तक दो चार सौ बन जाते हैं ।
उस गधे का बिल था 145 का और उसने दिए 150 । बिल काट मैंने उसे रसीद दी तो वह धन्यवाद करने की बजाय भी वहीं अड़ा रहा । दूसरे को दिक्कत हो रही थी । आखिर मुझे ही कहना पड़ा,` यार , पिछले को आने दो । अब क्यों अड़े हो ? ´
` 5 रूपये वापस दीजिए ।´ यों बोला मानो कुबेर का खजाना रख लिया हो ।
`छुट्टे नहीं हैं । ´ गुस्सा आ गया । सारा दिन इनके लिए कुर्सी से चिपके रहो ,और ये हैं कि ....वरना अपना क्या? पगार तो मिलनी ही मिलनी है । 5 न हुए .....(ख़ैर, जाने दीजिये)
` अच्छा , पांच रूपये दे दीजिए । ´ उसने फिर साधिकार कहा । लगा गधा पहली बार बिल देने आया है , सो पूछा ` भैया, पहली बार बिल दे रहे हो क्या ? ´
` क्यों ? ´
` हर महीने देते होते तो अपना टाइम बरबाद न करते । ´
` पर पांच रूपये ?´ `टुट्टे होंगे तो ले जाना । ´ मैंने कहा तो वह किनारे खड़ा हो गया ।
अगले का बिल भी 145 , पर उसने 150 में से पांच नहीं मांगे । समझदार लोग ऐसे ही होते हैं ।
उसने फिर कहा ,` तो अब 10 दे दीजिए । ´
` किस बात के ?´
` 5 इनके , 5 मेरे । ´
` क्यों ? ´
` हम पांच -पांच बांट लेंगे । ´
` मुझे विश्वास नहीं तुम पर । देश में बांट कर खाने का रिवाज खत्म हो गया है । हद है यार , पांच रूपये के लिए पचास रूपये का समय बरबाद कर दिया । ´ बस , उसके बाद मन ही नहीं किया बैठने का । घर आते ही पत्नी ने बताया कि पण्डित जी को कुछ हो गया है। आनन-फानन में उनके यहां पहुंचा तो उनके मुंह से झाग निकल रहा था । लोग-बाग उन्हें घेरे हुए थे ।
` क्या हो गया ? ´
` इन्हें काट लिया। ´
` किसने ? ´
` सांप ने। ´
` सांप ने तो इन्हें पहले भी काटा था तो सांप मर गया था। ´ गुप्ता ने हंसते हुये कहा।
`तो सांप से ज्यादा जहरीला तो कुछ नहीं? ´
` होता होगा ! तभी इनकी यह दशा हुई है । ´ उनकी पत्नी परेशान । पेंशन सीधे हाथ में आने का मौका कौन हाथ से जाने दे ?
` झाड़-फूंक वाला नहीं बुलाया क्या ? ´
`आया था , कह रह था इस पर मन्त्र नहीं चल रहा । किसी भयानक कीड़े ने काटा है।´
` तो ? ´
` अस्पताल ले जाना पड़ेगा। ´
` तो? ´
और पड़ोसी धर्म के नाते न चाहते हुए भी उन्हें अस्पताल ले जाना पड़ा । सब धर्म तो मर गए साले , ये धर्म क्यों बचा है भैया ? जेब में लगाने लायक आज कुछ पड़ा न था। फिर भी सौ-पचास लगा दिए, शायद परलोक सुधर जाए ।
झल्लाए डॉक्टर ने पूछा,` कहां से लाए हो ? ´
`वार्ड 10 से । ´
`क्या हो गया मरे को ? ´
` काट दिया है। ´ मैंने मरी आवाज में कहा।
` किसने ? बिच्छू ने ? ´
` नहीं । ´
` सांप ने ? ´
`नहीं।´
` कुत्ते ने ? ´
` नहीं । ´
` पत्नी ने ? ´
` नहीं ! दफ्तर गया था जमाबन्दी की कापी लाने ।´ अचानक पण्डित जी की बेहोशी टूटी ।
`तो ? ´
` पैसे घर भूल गया था । ´ वे बेहोशी में ही बड़बड़ाए।
`उसने जेब पर डंक मारा ।' और वे फिर बेहोश हो गए ।
डॉक्टर ने गम्भीर हो कहा ,` इसका जहर नहीं कट सकता । ´
`क्यों ? ´
` इसे व्यवस्था के भरोसे छोड़ दीजिए । व्यवस्था ने चाहा तो ..... ´
` वर्ना ? ´
` व्यवस्था का डसा वैसे तो आजतक बचा नहीं । समाज गवाह है । ´ कह वह एमआर से वहीं गिफ्ट लेने जुट गया । और मैं मरते हुए पंडित जी का सिर धुनते हुए मृतात्म मंथन करने लगा, हालांकि उनके सिर में धुनने के लिए बालों के नाम पर कुछ भी शेष न बचा था।
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डॉ.अशोक गौतम
गौतम निवास, अप्पर सेरी रोड, सोलन -173212 हि. प्र.
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6 बैठकबाजों का कहना है :
Aajkal ki vyvastha par achchha katakhsh kiya hai
dhanyvaad
Hashy-vyangy ke lekh ko padker maja aa gaya. Aj ki vyvastha ka katu sach hai.
Aabhar.
हा हा हा जोर का झटका धीरे से बहुत बडिया व्यंग है गौतम जी को धब्यवाद एवं बधाई
व्यंग्य तो अच्छा है लेकिन फोकट में पढना पडा यह बात अच्छी नहीं लगी। छुट्टे पैसे तो आप रख लेते हैं और हम पाठकों को वैसे ही पढा देते हैं। भई यह तो ठीक नहीं। बढिया व्यंग्य, ऐसे ही लिखते रहिए।
सुन्दर शब्दों में सुन्दर व्यंग.
हिंदी में लिख रही हूँ हास्य व्यंग से आज की व्यवस्था का कतु सत्य पता लगा
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