मसिजीवी ने कहा॰॰॰॰
आधुनिकता केवल टपर टपर कीबोर्ड चलाने से आएगी नहीं, यूँ आप आनलाइन हैं लेकिन उवाचेंगे गत्यात्मक ज्योतिष, जाहिर है ये नहीं चलेगा। मध्यकालीन सोच व साहित्य, स्त्री व वंचितवर्गों के प्रति अवमाननात्मक है ये स्थापित तथ्य है, इन्हीं आधारों पर इसे अजायबघर में रखे जाने की सलाह दी गई थी। ये प्रतीकात्मक है तथा उपयुक्त है। दलित यदि तुलसी से तथा स्त्री बिहारी से तादात्मय महसूस नहीं करते तो उन्हें पूरा हक है ऐसा सोचने का। राजेंद्र इनके परिप्रेक्ष्य में ही कह रहे थे।
Anonymous ने कहा.....
मसिजीवी की भी रचना अब हंस में छाप जायेगी आख़िर स्तुति भी कुछ शय है -दिल जीवी
Atul Sharma ने कहा....
न तो मैं राजेन्द्र यादव जी के कैंप का हूं और न उनके विरोधी कैंप का . मैं तो सिर्फ इतना भर जानता हूं कि राजेन्द्र यादव जी की एक भी ऐसी रचना मुझे नहीं पता जो किसी एक आम आदमी की जबान पर हो . उनकी एक किताब हंस मैंने देखी है जो सभंवत: उसी जमाने की प्रतीत होती है जिस जमाने के वे विरोधी नजर आते हैं . एक बात और, मूंछ लगाने से कोई मर्द नहीं बन जाता, काले पीले चश्मे लगाने से कोई जवान नहीं हो जाता, किताबें छपवाने से कोई साहित्यकार नहीं बन जाता.
Anonymous ने कहा...
Well you want to hang Rajendra Yadav for smoking in a country where, hard core criminals and murders are siting in parliament and making laws.
डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल ने कहा...
अधिकांश टिप्पणियां यह ज़ाहिर करती हैं कि हम वही सुनना चाहते हैं जो हमारे मन में है. अगर हम दूसरों की वह बात सुनने को तैयार न हों जो हमारे सोच से अलग है, तो फिर हमारे विवेक खुले मन वाला होने का क्या प्रमाण हो सकता है?
राजेन्द्र यादव ने ऐसा भी बुरा क्या कह दिया? क्या समय के साथ चीज़ों को बदलना नहीं चाहिये? मैं लगभग चालीस बरस से हिन्दी पढा रहा हूं और जानता हूं कि हमारे पाठ्यक्रम कितने जड़ हैं. चन्द बरदाई, कबीर, तुलसी, सूर, बिहारी, केशव सब महान हैं, अपने युग में महत्वपूर्ण थे, लेकिन सामान्य हिन्दी के विद्यार्थी को उन्हें पढाने का क्या अर्थ है? तुलसी, सूर, बिहारी की भाषा आज आपकी ज़िन्दगी में कहां काम आएगी? मन्दाक्रांता, छन्द और किसम किसम के अलंकार आज कैसे प्रासंगिक हैं? अगर हम अपने विद्यार्थी को इन सब पारम्परिक चीज़ों के बोझ तले ही दबाये रखेंगे तो वह नई चीज़ें पढने का मौका कब और कैसे पाएगा?
मुझे इस बात की ज़रूरत लगती है कि चीज़ों पर खुले मन से विचार किया जाए, न कि रूढ चीज़ों की बेमतलब जुगाली की जाए.
Arvind Mishraने कहा...
मैं शुरू से ही इस वाद में आने से कतरा रहा था -क्योंकि कथित /तथाकथित मठाधीशों से जुडी चर्चाओं से मुझे अलर्जी रही है -मैं तो एक बात ही शिद्दत के साथ महसूसता हूँ कि श्रेष्ठ साहित्य कालजयी होता है .अब आप नयी पीढी को क्या पढाएं क्या न पढाएं यह अलग मुआमला है मगर कबीर /तुलसी का साहित्य अप्रासंगिक नही हो जाता .और ये टिप्पणी कार महोदय तो धन्य ही है जो अपने जीवन के चालीस वर्ष बकौल उनके ही बरबाद कर चुके हैं और अब अपने फरमानों से आगामी पीढियों को बरबाद करने में लग जायेंगे .
भाषा ,ज्ञान को करियर के काले चश्मे से देखने पर हम कहीं अपने जमीर से ही गद्दारी करते हैं सरोकारों से हटते हैं .
बहुत कुछ लिखा जा सकता है मगर मैं हठात रोक रहा हूँ -अब राजेन्द्र यादव का खेमा दादुर धुन छेड़ रहा है !
Rajesh Ranjan ने कहा...
आलोचना से राजेन्द्र यादव को कतई परहेज नहीं होगा जैसा कि मैं उन्हें जानता रहा हूँ लेकिन हम दो-चार ब्लॉग लिखकर अपने को हिन्दी का सबसे बड़ा सेवक समझने वालों को जरूर कुछ लिखने के पहले समझना चाहिए हमारी बात किसे संदर्भ में लेकर कही जा रही है...वह व्यक्ति पिछले साठ वर्षों से सिर्फ हिन्दी में लिख -सोच रहा है...मुझे तो लगता है कि हिंदी को अधिक विचारशील बनाने में जितना यादवजी का योगदान है उतना किसी का नहीं...नहीं तो हिन्दी के ज्यादातर गोष्ठियाँ वाह रे मैं वाह रे आप के प्रतिमानों पर चला करती थी.
Anonymous ने कहा...
वो क्या है कि लेखक को अपना व्यक्तित्व दिखाने के लिये कुछ चटाक पटाक करना पड़ता रहता है, बेचारे राजेन्द्र यादव के साथ में भी कुछ एसा ही है. इन्हें बिना पाइप के लोग पहचानते ही नहीं सो क्या करें... अब भले ही पियें या न पियें, मुंह में दबाये तो रखगे ही हैं.
कहीं पढ़ा था कि ये शायद रात को सोते समय भी पाइप दबा कर सोते हैं
अविनाश ने कहा...
संसार की सर्व श्रेष्ट भाषा की ऐसी प्रशंसा? हिंदी कब संसार की सर्वश्रेष्ठ भाषा हो गयी... और राजेंद्र यादव ने गलत क्या कहा... पुराने साहित्य और नये समय के अंतर्विरोध को समझाने की कोशिश की। आपलोगों को मजे और वाहवाही के लिए नहीं, बल्कि समाज का दर्पण बनने के लिए साहित्य रचना चाहिए। शुभकामनाएं।
blog pathak ने कहा...
बिल्कुल ठीक ऐसे ही है जैसे आप चुतियापा कहकर पोस्ट लिखते है फ़िर किसी ब्लॉग पर गाली देने को ग़लत कहते है ,आप जैसे लोग दोगले लोग है जो ख़ुद कही सिगरेट फूंकते है ओर यहाँ कानून का रोना रोते है
Amit Gupta ने कहा....
हिन्दी या किसी अन्य भाषा का मान कोई बेसन का लड्डू नहीं है कि कोई आया और आराम से गप्प कर गया।
अमां यार, उनका सिगार है, सभा का कोई ऐसा नियम न होगा कि धूर्मपान करना निषेध है, तो आपको क्यों तकलीफ है कि वे सिगार पी रहे थे? वे ५०२ पताका बीड़ी फूँक रहे होते तो ठीक रहता?
सिगरेट चाहे जितनी भी महंगी क्यों न हो, सभा आदि में प्रतिष्ठित व्यक्ति उसको फूँकना इसलिए नहीं पसंद करते क्योंकि वह चीप (Cheap) लगती है, जो चार्म (Charp) सिगार में है वह सिगरेट में नहीं है।
Arvind Mishra ने कहा...
जिस आदमी को देश के क़ानून का जरा भी ख्याल न हो और पूरी उद्धतता के साथ पब्लिक प्लेस पर धूमपान निषेध क़ानून की धज्जियाँ उडा रहा वह काहे का साहित्यकार ! आश्चर्य यह भी कि किसी ने उन्हें टोका तक नहीं !! मैं होता तो उन्हें टोकता और क़ानून का संज्ञान करा कर राजपत्रित अधिकारी की हैसियत से सिगार जब्त कर लेता !
खुली किताब ने कहा...
मुझे लगता है ब्लॉगिंग अपने आप में साहसिक कदम है। इसके लिए नामवर और राजेंद्र यादव जैसे लोगों की वाहवाही की जरूरत नहीं है। अगर साहित्य के मठाधीश इसे खारिज भी करते हैं तो किसी को कोई फ़र्क नहीं पड़ता। मैंने सुना ही कि नामवर जी ब्लॉगिंग को दो कौड़ी से ज्यादा अहमियत नहीं देते। अगर वाकई ऐसा है तो इसके पीछे वजह एक ही है--सांचे के टूटने का भय। जमी जमाई दुकान के गिरने का भय। वाकई ब्लॉगिंग बड़ा दीगर का काम है। जिसमें आपको हर तरह की प्रतिक्रिया के लिए तैयार रहना है। यहां चेहरे देखकर प्रतिक्रिया नहीं दी जाती है। अगर राजेंद्र यादव ब्लॉगिंग के पक्षधर हैं तो ये उनका समझदारी है।
Pramod Singh ने कहा...
बीन बजाने की तर्ज़ पर युह नया मुहावरा गढ़ सकते हैं- बैल के आगे चुरुट जलाना?
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3 बैठकबाजों का कहना है :
राजेन्द्र यादव एकतरफा बयानबाजी अच्छी कर लेते है लेकिन जब सवाल-जवाब की बात आती है तो उनकी बोलती बन्द हो जाती है। मैने उन्हें इन्दौर के पुस्तक मेले में एक बार ऐसे ही किंकथविमूढ होते देखा है। उनका बड़ा सीधा फण्डा है - नामी साहित्यकारों ( जैसे तुलसी ) को गाली देने से बड़ा साहित्यकार बना जा सकता है।
अधिकांश टिप्पणियां यह ज़ाहिर करती हैं कि हम वही सुनना चाहते हैं जो हमारे मन में है. अगर हम दूसरों की वह बात सुनने को तैयार न हों जो हमारे सोच से अलग है, तो फिर हमारे विवेक खुले मन वाला होने का क्या प्रमाण हो सकता है?
राजेन्द्र यादव ने ऐसा भी बुरा क्या कह दिया? क्या समय के साथ चीज़ों को बदलना नहीं चाहिये? मैं लगभग चालीस बरस से हिन्दी पढा रहा हूं और जानता हूं कि हमारे पाठ्यक्रम कितने जड़ हैं.durgaa prshaad ji ki is baat se sahmat...shubhkaamaanaayen
अब यह बहस संकलित रूप में संदर्भणीय बन गयी है -ताकि सनद रहे .....साधुवाद !
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