Sunday, March 07, 2010

आज की शिक्षा एकलव्य का अँगूठा ही नहीं उसकी गर्दन भी माँगती है

हिम्मत सेठ प्रतिष्ठित पाक्षिक महावीर समता सन्देश के प्रधान सम्पादक हैं और अपनी जनपक्षधरता, बेबाकी तथा जुझारूपन के लिये जाने जाते हैं। दक्षिणी राजस्थान की समस्याओं को राष्ट्रीय स्तर पर बहस के केन्द्र में लाने में आपकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। हाल में समान बचपन अभियान की प्रीति शर्मा उनसे की गयी बातचीत का प्रमुख अंश हम यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं-सम्पादक

प्रश्न - पूँजीवादी और पीत पत्रकारिता के इस दौर में नागरिक पत्रकारिता को अपना माध्यम बनाने के पीछे
आपकी कौन-सी मूल भावना काम कर रही थी?
उत्तर - हिन्दुस्तान जिंक मे काम करते हुए जब मैंने देखा कि मजदूरों की समस्याओं को नहीं सुना जाता है तो 1968 में कुछ लोगों के साथ मिल कर मैंने मजदूर यूनियन बनाया और इस यूनियन के माध्यम से हम मजदूरों की आवाज़ को प्रशासन के समक्ष लाने लगे। हिन्दुस्तान जिंक छोड़ने के बाद भी नागरिक पत्रकारिता के माध्यम से मैं वंचित वर्ग के मुद्दों को सामने लाने के लिए काम करता रहा, क्योंकि हमे लगता था कि वंचित और निम्न वर्ग के लोगों की आवाज़ को दबा दिया जाता है। हमारे देश में आज़ादी के 63 वर्ष बीत जाने के बाद विकास तो हुआ है पर निचले तबके के लोगों पर ध्यान नहीं दिया गया और उनके साथ गैरबराबरी की जाती रही है। मैं शुरू से समाजवादी विचारधारा से जुड़ा रहा हूँ और गैरबराबरी पर काम करता रहा हूँ। मेरा मानना है कि नागरिक पत्रकारिता ही बहुसंख्यक जनता की आकांक्षाओं को पूरा कर सकती है।

प्रश्न - समता संदेश के माध्यम से आप शिक्षा में भेदभाव के खि़लाफ आवाज़ उठाते रहे हैं। आपकी समझ से शिक्षा व्यवस्था के लगातार समाज के बहुसंख्यक वंचित तबके के प्रति संवेदन शून्य होते चले जाने के पीछे कौन से कारक ज़िम्मेदार हैं?
उत्तर- यह एकदम सही है कि आज की शिक्षा व्यवस्था समाज के बहुसंख्यक वंचित तबके के प्रति संवेदन शून्य है क्योंकि
इस शिक्षा व्यवस्था का माफियाकरण हो चुका है। शिक्षा में दलाली होने लगी है और पूँजीवादी लोग चाहते हैं कि शिक्षा को उच्च वर्ग के लिए सुरक्षित रखा जाए। जिस तरह की शिक्षा उच्च तबके के बच्चों को मिल रही है वैसी शिक्षा निचले तबके के लोगों को नहीं मिले। शिक्षा में यह जो गैरबराबरी की व्यवस्था है यह नयी नहीं है। यह तो महाभारत काल से ही ज़ारी है। उस काल में भी जब एकलव्य द्रोणाचार्य से धनुर्विद्या सीखना चाहता था तो गुरू ने मना कर दिया क्योंकि एकलव्य निम्न जाति का भील था। इतना ही नहीं जब एकलव्य अपने प्रयत्नों से धनुर्धारी बन गया तो द्रोणाचार्य ने छल से उसका अँगूठा ही कटवा दिया। इस प्रसंग से लगता है कि शिक्षा हमेशा से राजा महाराजाओं और श्रेष्ठ लोगों के लिए ही रही है। आज जब हमारे देश में लोकतन्त्र है जिसमें सभी को शिक्षा का अधिकार प्राप्त है तो अमीर और सत्ताधारी लोग, सरकार तथा प्रशासन से जुड़े लोग नहीं चाहते कि शिक्षा सभी के पास हो। वे नहीं चाहते कि हमारे बच्चे वहाँ तक पहुँच पाएँ जहाँ पर उनके बच्चे पहुँचते हैं। वे समाज में गैरबराबरी को कायम रखना चाहते हैं। आज वे एकलव्य से केवल उसका अँगूठा नहीं बल्कि उसकी गर्दन भी मांग रहे हैं। मेरा मानना है कि जितने भी एनजीओ हैं उनको अपने उद्देश्यों में शिक्षा का मुद्दा रखना चाहिए और जो एनजीओ सक्षम हैं उन्हें एक स्कूल ज़रूर खोलना चाहिए।

प्रश्न - आपके अनुसार वर्तमान शिक्षा में व्याप्त विषमता और वर्गीय भेदभाव के सामाजिक-राजनीतिक निहितार्थ क्या हैं?
उत्तर - उच्च वर्ग के व पूँजीवादी लोग कभी नहीं चाहते कि शिक्षा में समानता हो। अगर समानता होगी तो सब पढ़-लिखलेंगे और उच्च वर्ग के बच्चों से प्रतियोगिता करेंगे। इसलिए वे चाहते हैं कि विषमता बनी रहनी चाहिए और आज की जो शिक्षा है वह स्वयं विषमता को बढ़ावा दे रही है। आज कहीं दून स्कूल, कहीं केन्द्रीय विद्यालय, कहीं औपचारिक तो कहीं अनौपचारिक स्कूल खुले हुए हैं जो समाज में विषमता पैदा करते हैं। आज वही लोग शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं जिनके पास शिक्षा को खरीदने की क्षमता है। शिक्षा प्राप्त करने के लिए बच्चों को डोनेशन देना पड़ता है। आज अगर किसी को डॉक्टर बनना होता है तो 40-50 लाख रुपये तक डोनेशन देना पड़ता है। अब जो बच्चे डोनेशन देकर पढ़ेंगे वे भला क्यों सामाजिक हित के बारे में सोचेंगे। उनका लक्ष्य तो जल्दी से जल्दी अधिक से अधिक मुनाफा कमाना ही रहेगा।

प्रश्न - सरकार द्वारा शिक्षा की संवैधानिक जवाबदेहियों से पलायन और निर्बाध निजीकरण-बाज़ारीकरण कीनीतीयों के क्या परिणाम होंगे?
उत्तर - निजीकरण व बाज़ारीकरण से नीचे के तबके के लोग शिक्षा से वंचित रह जाएँगे और पूँजीपतियों के बच्चे ही शिक्षा प्राप्त कर पाएँगे। पर क्या वे सभी वर्ग के लोगों के लिए सोच पाएँगे? आज अखबारों में हम पढ़ते हैं कि फलाने आई.ए.एस. के घर में छापा पड़ा और उसके पास करोड़ों की सम्पत्ति बरामद हुई। तो क्या इस तरह की लूट मार वाली संस्कृति वर्तमान शिक्षा व्यवस्था का परिणाम नहीं है? दरअसल यह सब सरकार, विश्व बैंक, तथा यूनिसेफ की साज़िश है। हम देखते हैं कि अमेरिका जो सबसे बड़ा पूँजीवादी देश है उसकी शिक्षा व्यवस्था सरकार के हाथ में है और भारत में दिन-दूने रात-चौगुने की रफ़्तार से रोज़ नये-नये निजी स्कूल खुलते जा रहे हैं। एक तरफ हमारे देश में दिल्ली पब्लिक स्कूल हैं जहाँ छोटी कक्षाओं की फ़ीस भी 50 हजार रुपये तक होती है और दूसरी तरफ गाँव के वे स्कूल हैं जहाँ बच्चों को पढ़ाने के लिये शिक्षक नहीं हैं। अब गाँव से पढ़ने वाला बच्चा दिल्ली पब्लिक स्कूल के बच्चे के साथ प्रतियोगिता कैसे कर पाएगा? उदयपुर में काफी जोर-शोर से आईआई. टी. खुलवाने का आन्दोलन चला पर कोई बताये कि इस आई.आई.टी. के खुलने का फ़ायदा क्या है। जितना बजट आई.आई.टी. व आई.आई.एम. में खर्च होगा उससे तो गाँव के स्कूलों का कायापलट हो सकता है। गाँव के स्कूलों में पूरी सुविधा नहीं मिल पाती है। सोचने की बात है कि गाँव से जो बच्चे दसवीं व बारहवीं करके निकलते हैं क्या वे इन संस्थानों मे प्रवेश पा सकेंगे? तो फिर क्या इन संस्थानों में बाहर से आकर बच्चे पढ़ेंगे? अभी कपिल सिब्बल द्वारा संसद लाया गया विधेयक जिसमें 6 से 14 साल के बच्चों के लिए मुफ़्त व अनिवार्य शिक्षा की बात की गई है। उसी विधयक लिए प्राइवेट स्कूलों को 25 प्रतिशत का अनुदान देने का प्रस्ताव भी है। कपिल सिब्बल संसद के इसी सत्र में यह भी कहते है कि नये स्कूल खोलने के लिये हमारे पास बजट का प्रावधान नहीं है। इसका मतलब यह हुआ कि थोड़े से गरीब बच्चे भी वहाँ पढ़ सकें लेकिन बाकी बच्चों का क्या होगा?

प्रश्न - वर्तमान मुख्यधारा मंे मीडिया का शिक्षा अथवा आम जनता के सरोकार के दूसरे मुद्दों से कोई वास्ता नहीं दिखाई देता। इस मीडिया को ज़िम्मेदार बनाने के लिये किस तरह के प्रयासों की ज़रूरत है?
उत्तर - मैं मीडिया को दोषी नहीं मानता क्योंकि व्यवस्था ही गड़बड़ है। इस व्यवस्था में सभी पूँजी के पीछे भाग रहे हैं। आज सरकारें बदल जाती हैं पर नीतियों में कोई परिवर्तन नहीं होता। इससे पता चलता है कि तमाम सत्ताधारी पार्टियाँ आम जनता के हितों से जुड़े मुद्दों की अनदेखी करने के मामले में लगभग एक जैसी राय रखती हैं और मौका मिलने पर वही काम करती हैं जिनसे पूँजीपति वर्ग का फ़ायदा हो। आज का मुख्यधारा का मीडिया एक उद्योग है और वह केवल अपना व्यवसाय चमकाने में लगा है। अगर लोग चाहते हैं कि आम जनता का मुद्दा मीडिया में आए तो उन्हें उन मुद्दों को लेकर आन्दोलन करना पड़ेगा। स्कूलों में अध्यापकों की कमी पहले भी रही है पर जब स्कूलों में ताले लगा दिए गए तभी यह खबर अखबारों में छपी। इसलिए मीडिया को जवाबदेह बनाने के लिये जनता को आगे आना होगा।

प्रश्न -दक्षिणी राजस्थान में शिक्षा में समान अवसर की मांग को लेकर जो अभियान चल रहा है उसे प्रभावशाली बनाने के लिए आपकी समझ से क्या किया जाना चाहिए?
उत्तर - समान बचपन अभियान अच्छा अभियान है क्योंकि यह बचपन से समानता की बात करता है और समान अवसर की लड़ाई लड़ते हुए शिक्षा की गैरबराबरी को ख़त्म करना चाहता है। पर इसके साथ ही और भी जो सामाजिक विषमताएँ हैं जैसे जाति प्रथा व स्त्री-पुरुष के बीच भेदभाव आदि उन पर भी ध्यान देना होगा।

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