आज यानी 3 मार्च को अपने ही ढंग के अलमस्त शायर फिराक़ गोरखपुरी की पुण्यतिथि है। फिराक़ साहब को याद करते ही मैं लौट जाती हूँ अपने बचपन के दिनों में।
चूँकि मेरे पिताजी फिराक़ साहब के स्टूडेंट रहे है तो वे काफी करीबी से उनसे वाकिफ़ रहे है। फिराक़ की शायरी का अंदाज, उनका चुटकी बजाकर सिगरेट झाड़ना, बड़ी-बड़ी आंखे फैलाकर बात करना या 'वर्डस्वर्थ' पड़ते-पड़ते शायरी करने लगना सब कुछ अनोखा था। फिराक़ साहब मेरे पिता को इलाहाबाद यूनिवेर्सिटी में अंग्रजी पढ़ाते थे।
उर्दू जगत और शायरी की दुनिया में फिराक़ गोरखपुरी का अपना एक अलग ही वजूद है। उनका पूरा नाम रघुपति सहाय था। 'फिराक'उनका तख़ल्लुस था।
28 अगस्त 1896 को जन्मे रघुपति सहाय का फिराक़ गोरखपुरी बनने का सफ़र बड़ा रोचक रहा है। यूँ तो फिराक़ साहब के शुरूआती दिनों का सफ़र गोरखपुर से शुरू हुआ लेकिन पहचान उन्हें अपनी कर्मभूमि इलाहबाद से मिली। आई.सी.एस. में चयन के बाद उन्होंने एक साल के बाद ही त्यागपत्र दे दिया और १९३० में इलाहबाद यूनिवर्सिटी में प्राध्यापक नियुक्त हुए। कहने को तो वे अंग्रेजी के एक अध्यापक थे लेकिन प्रतिष्ठित हुए एक उर्दू शायर के रूप में। फिराक़ ने उर्दू जगत को
गजलों, नज़्मों और रुबाइयो की एक बड़ी सौगात दी है।
"बहुत पहले से उन कदमों की आहट जान लेते हैं,
तुझे ऐ जिंदगी हम दूर से पहचान लेते है"
या फिर ... "शामे-ग़म कुछ उस निगाहे-नाज़ की बातें करो, बेखुदी बढ़ती चली है राज़ की बातें करो"
"न हैरत कर तेरे आगे जो हम कुछ चुप से रहते हैं
हमारे दरमियां-ऐ-दोस्त लाखों ख़्वाब हायल है"
फिराक़ साहब एक सौन्दर्यप्रिय व्यक्ति थे। बदसूरती उन्हें किसी सूरत में बर्दाश्त नहीं थी शायद यही कारण था जिसने उनके पारिवारिक जीवन को तहस-नहस कर दिया था। फिराक़ के एक वक्तव्य के अनुसार, "उनका एक ऐसी बदसूरती से पाला पड़ा जिसने उनके खून में ज़हर घोल दिया"। शायद यही वजह है कि फिराक़ ने जिस बीवी को ठुकरा दिया था, उसकी तलाश "रूप" की रुबाइयों में करते रहे।
उनकी रुबाई की झलक देखिये-
आइन ए नील गूं से फूटी है किरन
आकाश पे अधखिले कंवल का जोबन
यूँ उदी फ़ज़ा में लहलहाती है शफ़क
जिस तरह खिले तेरे तबस्सुम का चमन।
फिराक़ एक बेहद मुँहफट और दबंग शख्सियत थे। एक बार वे एक मुशायरे में शिरकत कर रहे थे, काफी देर बाद उन्हें मंच पर आमंत्रित किया गया। फिराक़ ने माइक संभालते ही चुटकी ली और बोले, 'हजरात! अभी आप कव्वाली सुन रहे थे अब कुछ शेर सुनिए'।
इसी तरह इलाहाबाद विश्वविद्यालय के लोग हमेशा फिराक़ और उनके सहपाठी अमरनाथ झा को लड़ा देने की कोशिश करते रहते थे। एक महफिल में फिराक़ और झा दोनों ही थे एक साहब दर्शकों को संबोधित करते हुए बोले,'फिराक़ साहब हर बात में झा साहब से कमतर हैं" इस पर फिराक़ तुरंत उठे और बोले, "भाई अमरनाथ मेरे गहरे दोस्त हैं और उनमें एक ख़ास खूबी है कि वो अपनी झूठी तारीफ बिलकुल पसंद नहीं करते"। फिराक़ की हाज़िर-जवाबी ने उन हज़रत का मिजाज़ दुरुस्त कर दिया।
अपने अंतिम दिनों में जब शारीरिक अस्वस्थता निरंतर उन्हें घेर रही थी वो काफी अकेले हो गए थे। अपने अकेलेपन को उन्होंने कुछ इस तरह बयां किया-
'अब अक्सर चुप-चुप से रहे हैं, यूँ ही कभूं लब खोले हैं, पहले फिराक़ को देखा होता अब तो बहुत कम बोले हैं'।
फिराक़ गोरखपुरी उर्दू नक्षत्र का वो जगमगाता सितारा हैं जिसकी रौशनी आज भी शायरी को एक नया मक़ा दे रही है। इस अलमस्त शायर की शायरी की गूँज हमारे दिलों में हमेशा जिंदा रहेगी।
बकौल फिराक़ 'ऐ मौत आके ख़ामोश कर गई तू, सदियों दिलों के अन्दर हम गूंजते रहेंगे'।
प्रस्तुति- स्मिता मिश्रा
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6 बैठकबाजों का कहना है :
फिराक गोरखपुरी जैसे महान शक्स के बारे में जानना बहुत बढ़िया लगा..ऐसे महान शायर को दिल से सलाम...स्मिता जी इस प्रस्तुति के लिए आपको भी बहुत बहुत धन्यवाद..
बहुत संक्षिप्त किन्तु सारगर्भित आलेख .प्रस्तुति यक़ीनन दिलचस्प है .स्मिता जी ने बहुत थोड़े में इस महान शायर के जीवन पर जो प्रकाश डाला ,अच्छा लगा . स्मिता जी को पुनः धन्यवाद् . (रवीन्द्र शर्मा 'रवि ')
smita ji
aap ka likha aaj dekha bahut achchha laga .aap ne bahut achchhe shbdon me jankari di hai .padh ke achchha laga
dhnyavad
rachana
vinodji,ravindraji and rachnaji utsahvardhan ke liye dhanyvaad.smita mishra
hi smita vah kya baat hai tareef kae liye hindi typing seeknee paregee.keep it up
mujhe garv hai ki mai gorakhpur se hu jaha hriday samrat shayar ne janm lia..
Aise pratibha ke dhani shayar ko bhawbhini sradhanjali
jai hind
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