हिन्दी चिट्ठाकारी: एक और नई चाल?
राकेश कुमार सिंह
अंग्रेजी-कार्टून का हिन्दी अनुवाद। स्रोत- वीब्लॉगकार्टून
क्या है चिट्ठाकरी
उत्तर बिहार के तरियानी छपरा की पैदाइश। 15 बरस पहले मैनेजमेंट का ख़्वाब लिए दिल्ली टपके। दूसरे साल छात्र-आंदोलन की संगत में आ गये। बृहत्तर सामाजिक सवालों से रू-ब-रू हुये। लिखने-उखने में दिलचस्पी थी। कुछ समय तक फ्रीलांसिंग, अनुवाद, इत्यादि के रास्ते शोध की दुनिया में उतरे। मीडिया, बाजार, शहर और श्रम पर माथापच्ची कर रहे है। तीन 'मीडियानगर' का संपादन कर चुके हैं। सराय और सफ़र के बीच डोलते हुए सामुदायिक मीडिया में दिलचस्पी जगी। प्रयोग जारी है और सहयोगियों की तलाश भी। फ़ोन- +91 9811 972 872
लेखक का चिट्ठा- हफ्तावार
चलिये अब ब्लॉग बना लिया है तो कुछ लिखा भी जाए इसमें। वैसे ब्लॉग की हिन्दी क्या होगी? पता नहीं। पर जब तक पता नहीं है तब तक ब्लॉग ही रखते हैं, पैदा होने के कुछ समय बाद ही नामकरण होता है न। पिछले ३ दिनों से इंस्क्रिप्ट में लिख रहा हूँ, अच्छी खासी हालत हो गई है उँगलियों की और उससे भी ज़्यादा दिमाग की। अपने बच्चों को तो पैदा होते ही इंस्क्रिप्ट पर लगा दूँगा, वैसे पता नहीं उस समय किस चीज़ का चलन होगा...1
आलोक के इस पोस्ट पर ग़ौर करें तो ब्लॉग के नामकरण और फॉण्ट को लेकर उनकी परेशानी साफ़ झलकती है. आज छह साल बाद न केवल आलोक की दोनों परेशानियों का हल ढूंढ लिया गया है बल्कि हिंदी ब्लॉग अन्य भारतीय भाषाओं, और कहें तो अंग्रेज़ी को भी पछाड़ने की स्थिति में आ चुका है. भारत में इंटरनेट उपयोक्ताओं पर ‘जक्स्ट कंसल्ट’ नामक एक कंपनी द्वारा कराए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार
कुल इंटरनेट इस्तेमालकर्ताओं में से 44 प्रतिशत ने हिंदी वेवसाइटों के प्रति उत्साह जताया जबकि 25 प्रतिशत उपयोक्ता अन्य भारतीय भाषाओं में इंटरनेट पर काम-काज़ के प्रति उत्सुक दिखे. अंग्रेज़ी को विश्वव्यापीजाल का पर्याय मान चुके लोगों के लिए सचमुच यह आंख खोलने वाला अध्ययन है ...2
वाकई आज क़रीब साढ़े छह साल बाद हिंदी में लगभग 12 हज़ार से ज़्यादा ब्लॉग्स, 1 हज़ार से ज़्यादा वेबसाइटें तथा 50 हज़ार से ज़्यादा विकिपृष्ठ3 हैं, और 12 लाख से ज़्यादा पन्ने इंटरनेट पर लिखे जा चुके हैं. हो सकता है कि इन आंकड़ों में सौ, दो सौ का अंतर आ जाए पर ये हक़ीक़त है कि आज अंतर्जाल पर हिन्दी फ़र्राटे से दौड़ रही है. ऐसे में ज़रूरी है कि इंटरनेट पर हिंदी के इस्तेमाल, उसके स्वरूप और अन्तर्वस्तु पर थोड़ा विचार किया जाए. निश्चित तौर पर चिट्ठा इसके लिए एक मुकम्मल ज़रिया है क्योंकि यह इंटरनेट पर हिंदी बरतने का एक वृहद मंच बन चुका है.
यूं देखा जाए तो अब तक ब्लॉग की कोई औपचारिक परिभाषा गढ़ी नहीं गयी है. हालांकि हर ब्लॉगर के पास ब्लॉगिंग की कोई न कोई परिभाषा ज़रूर है. किसी के लिए यह एक ऐसी डायरी है जिसका पन्ना कोई फ़ाड़ नहीं सकता और इस प्रकार इसमें एक ऑनलाइन अभिलेखागार बनने की पर्याप्त संभावना दिखती है. कुछ के लिए यह पत्रकारिता का अद्भुद माध्यम है: एक ऐसा माध्यम जो अब तक उपलब्ध तमाम माध्यमों से ज़्यादा अवसरयुक्त है, जहां अब तक की तमाम मानक लेखन शैलियों और भाषा से इतर मनचाहा ईज़ाद और इस्तेमाल करने की बेइंतहां आज़ादी है: लेखक, रिपोर्टर और संपादक सब ब्लॉगर ख़ुद होता है. कुछ लोगों के हिसाब से यह स्वांत: सुखाय लिखा जाता है, और ऐसा लिखकर लोग अपने मन की भड़ास निकालते हैं. ‘भड़ास’ का तो टैगलाइन ही है:
अगर कोई बात गले में अटक गई हो तो उगल दीजिये, मन हल्का हो जाएगा...4
हालांकि अपनी समृद्ध मौखिक परंपरा के बरअक्स ब्लॉग के बारे में जो छिटपुट लिखा गया है उनमें सुश्री नीलिमा चौहान का शोधपत्र ‘अंतर्जाल पर हिंदी की नई चाल: चन्द सिरफिरों के खतूत’ प्रमुख है. ब्लॉग को परिभाषित करते हुए नीलिमा लिखती हैं :
... चिट्ठे या ब्लॉग, इंटरनेट पर चिट्ठाकार का वह स्पेस है जिसमें वह अपनी सुविधा व रुचि के अनुसार सामग्री को प्रकाशित कर सार्वजनिक करता है. इस चिट्ठे का तथा इसकी हर प्रविष्टि का जिसे पोस्ट कहते हैं एक स्वतंत्र वेब – पता होता है. सामान्यत: पाठकों को इन पोस्टों पर टिप्पणी करने की सुविधा होती है! यदि चिट्ठाकार स्वयं इस पते को मिटा न दे तो यह सामग्री इस वेबपते पर सदा – सर्वदा के लिए अंकित हो जाती है. अंतर्जाल के सूचना प्रधान हैवी ट्रैफिक – जोन से परे व्यक्तिगत स्पेस में व्यक्तिगत विचारों और भावों की निर्द्वंद्व सार्वजनिक अभिव्यक्ति को ब्लॉगिंग कहा जा सकता है.5
अंग्रेजी-कार्टून का हिन्दी अनुवाद। स्रोत- वीब्लॉगकार्टून
तमाम मौखिक और लिखित परिभाषाओं के मद्देनज़र मेरा ये मानना है कि ब्लॉग स्वांत: सुखाय कदापि नहीं हो सकता. ब्लॉग पर प्रकाशित हो जाने के बाद उस लिखे हुए के साथ लेखक और प्रकाशक के अलावा पाठक भी जुड़ जाता है. यह पाठक पर निर्भर करता है कि वह उस लिखे पर सहमति-असहमति, ख़ुशी-नाख़ुशी, तारीफ़ या खिंचाई में से, जो चाहे करे. मेरा यह मानना है कि किसी भी प्रकार की अभिव्यक्ति के सार्वजनिक हो जाने के बाद उसका एक असर होता है. हर ब्लॉगलिखी किसी न किसी सामाजिक पहलू, प्रक्रिया, प्रवृत्ति, परिस्थिति या परिघटना पर उंगली रख रही होती है, कुछ उकेर रही होती है, कहीं उकसा रही होती है, या फिर कुछ उलझा या सुलझा रही होती है. मिसाल के तौर पर 12 सितंबर 09 को कसबा पर रवीश कुमार की इस अभिव्यक्ति पर ग़ौर कीजिए:
आज हिंदी डे है। कई सरकारी दफ्तरों में बाहर भगवती जागरण की बजाय पखवाड़ा वाला बैनर लगा है। पखवाड़ा। फोर्टनाइट का फखवाड़ा। इस फटीचर कांसेप्ट की आलोचना बड़े बड़े ज्ञानीध्यानी बिना बताये कह गए हैं कि पेटीकोट कैसे पुलिंग है और मूंछ कैसे स्त्रीलिंग है। हर भाषा इस तरह की दुविधाओं के साथ बनी होती है। अब हिंदी के साथ डेटिंग किया जाना चाहिए। डेट विद हिंदी।नवरतन तेल,विको वज्रदंती,डॉलर अंडरवियर और बाक्सर बाइक का उपभोग करने वाला हिंदी का बाज़ार। एक अखबार ने विज्ञापन दिया कि इस दीवाली पर हमारे पाठक पांच लाख वाशिंग मशीन खरीदेंगे। आप विज्ञापन देंगे न। हद है। यही ताकत है हिंदी की। और भाषा की ताकत क्यों हो। भाषा को कातर ही होना चाहिए। रघुवीर सहाय ने क्यों लिखा कि ये दुहाजू(स्पेलिंग सही हो तो) की बीबी है। मुझे तो ये दुहाई हुई गाय लगती है। जिसका अब दिवस नहीं मनना चाहिए। जिसके साथ अब डेटिंग करना चाहिए। चैट करनी चाहिए। चैट स्त्रीलिंग है या पुलिंग। किसने बताया कि क्या है।6
रवीश की इस अभिव्यक्ति को आप ये कहेंगे कि उन्होंने उपर्युक्त बातें यूं ही ख़ुद को ख़ुश करने के लिए लिखा है? मुझे तो इसमें साल में एक दिन हिंदी को धो-पोछ कर सजाने की दृष्टि से फ्रेम में जड़ कर दीवार पर टांगने जैसी औपचारिकता का प्रतिरोध झलकता है. ज़रा रवीश की पोस्ट पर सतीश पंचम की टिप्पणी पर ग़ौर करते हैं:
वैसे ये बात तो सच है कि हाशिये, चिंतन, संगोष्ठी जैसे शब्द सुनते ही जहन में बूढे पोपले चेहरे, श्वेत बालों वाले लोगों की तस्वीर उभरती है।
एक गीत सुना था जिसमें 'दिल' शब्द की जगह 'हृदय' शब्द का इस्तेमाल हुआ था - वह गाना था... कोई जब तुम्हारा 'हृदय' तोड दे....। खोज बीन करने पर एक औऱ गीत का पता चला - अनामिका फिल्म का जिसमें पूरा तो याद नहीं पर कहीं अंतरे में शब्द है कि ...तुझे 'हृदय' से लगाया...जले मन तेरा भी...तू भी तडपे.....
इन दो गीतों के बाद मैंने थोडा सोचना शुरू किया कि आखिर क्यों फिल्म लाईन में 'दिल' शब्द को 'हृदय' शब्द के मुकाबले तरजीह दी जाती है।
जो जबान पर चढे है....वही भाषा बढे है...कम से कम फिल्म लाईन में तो यही चलन है। ...
उपर्युक्त दोनों उद्धरणों से ये स्पष्ट हो जाता है कि ब्लॉग महज़ दिल को ख़ुश रखने के लिए तो नहीं लिखा जाता है, और यह भी कि कि पोस्ट के साथ-साथ टिप्पणी/प्रतिक्रिया भी ब्लॉगिंग का एक अहम पहलु है. यह ब्लॉगिंग को इंटरैक्टिव बनाती है और ये इसकी बहुत बड़ी ताक़त है. अख़बारों की तरह नहीं कि संपादकीय पृष्ट पर कोई लेख छप गया और फिर ख़ुद उसका कतरन लिए यार-दोस्तों के सामने लहराते फिर रहे हैं (माफ़ कीजिएगा, मेरे साथ ऐसा लंबे समय से होता आ रहा है), किसी ने अपनी राय दे दी तो ठीक वर्ना ... आप समझ ही सकते हैं कि लेखक की क्या हालत होती है! और अगर किसी संवेदनशील पाठक की राय छपी भी तो कौन-से संपादक महोदय फ़ोन करके बताते हैं कि ‘बंधुवर, आपके लेख पर किसी पाठक ने सज्जनपुर से चिट्ठी भेजी है, देख लीजिएगा’. इधर ब्लॉगिंग में माल प्रकाशित हुआ नहीं कि टिप्पणी हाजिर. मन माफिक प्रतिक्रिया मिल गयी तो बल्ले-बल्ले वर्ना बहस खड़ा करने वाली मुद्रा में आने से कौन रोक लेगा. यानी यहां एक तो टिप्पणी झट से मिल जाती है, और ऐसी मिलती है कि पट आने पर भी जी खट्टा नहीं होता.
रिश्ते गढ़े पहचान दिलाए
मुझे ब्लॉग के बारे में एक बात और लगती है, वो ये कि किसी मसले को एक व्यापक ऑडिएंस तक ले जाने और एक नये दायरे से रू-ब-रू होने व रिश्ता बनाने का यह एक ज़बर्दस्त ज़रिया है. यहां अकसर ऐसा होता है कि कोई शख़्स आपसे कभी साक्षात न मिला हो पर आभासी दुनिया में आपकी उपस्थिति से वो वाकिफ़ हो, और अपने मन में उसने आपकी कोई छवि तैयार कर ली हो. यानी आप व्यापक ऑडिएंस तक तो जाते ही हैं पर उससे भी आगे बढ़कर लोग आपसे जुड़ते हैं और आपकी एक पहचान गढ़ते है. यानी यहां ब्लॉगबाज़ों को एक पहचान मिलती है जो नितांत उनकी आभासी उपस्थिति के आधार पर निर्मित होती है. मिसाल के तौर पर, आपसी बातचीत में साथी ब्लॉगर विनीत कुमार अकसर बताते हैं कि जब तक वे मीडिया की नौकरी करते थे तो सहकर्मी भी भाव नहीं देते थे. और अब उनके पोस्ट पढ़-पढ़ कर मीडिया से बाबाओं के फ़ोन उनके पास आते हैं और घर आने का न्यौता भी.
कहां तक पहुंचा ब्लॉग
अंग्रेजी-कार्टून का हिन्दी अनुवाद। स्रोत- रामब्लिंग विद् वेलूर |
2007 के शुरुआती महीनों में हिंदी चिट्ठों की संख्या तक़रीबन 700 थी और नीलिमा के मुताबिक़ उसमें तेज़ी से वृद्धि हो रही थी15. पाठकों की संख्या में भी थोड़ा-बहुत इज़ाफ़ा होने लगा था और लोग टेक्नॉल्जी में दिलचस्पी भी लेने लगे थे. 2007 तक आते-आते कुछ मुद्दे आधारित ब्लॉग भी अस्तित्व में आने लगे थे. कविताओं, कहानियों, संस्मरणों से आगे बढ़ कर ताज़ा ज्वलंत मुद्दों पर चर्चाएं होने लगी थीं. उसी साल शुरू हुए मोहल्ला16, कबाड़खाना17 और भड़ास जैसे सामुदायिक ब्लॉगों की मौज़ूदगी से बहस-मुबाहिसों को सह मिलने लगा था. तभी दिसंबर 2007 की 13 तारीख को अगले साल, 2008 की ब्लॉगकारिता कैसी हो – के बारे में वरिष्ठ पत्रकार और संवेदनशील ब्लॉगर श्री दिलीप मंडल ने अपनी राय कुछ इस तरह ज़ाहिर की:
एक रोमांचक-एक्शनपैक्ड साल का इंतजार है। हिंदी ब्लॉग नाम का शिशु अगले साल तक घुटनों के बल चलने लगेगा। अगले साल जब हम बीते साल में ब्लॉगकारिता का लेखा जोखा लेने बैठें, तो तस्वीर कुछ ऐसी हो। आप इसमें अपनी ओर से जोड़ने-घटाने के लिए स्वतंत्र हैं.18
और फिर उन्होंने निम्नलिखित बिंदुओं को रेखांकित किया:
हिन्दी ब्लॉग्स की संख्या कम से कम 10,000 हो ...
हिंदी ब्लॉग के पाठकों की संख्या लाखों में हो ...
विषय और मुद्दा आधारित ब्लॉगकारिता पैर जमाए ...
ब्लॉगर्स के बीच खूब असहमति हो और खूब झगड़ा हो ...
टिप्पणी के नाम पर चारण राग बंद हो ...
ब्ल़ॉग के लोकतंत्र में माफिया राज की आशंका का अंत हो ...
ब्लॉगर्स मीट का सिलसिला बंद हो ...
नेट सर्फिंग सस्ती हो और 10,000 रु में मिले लैपटॉप और एलसीडी मॉनिटर की कीमत हो 3000 रु ...
हैपी ब्लॉगिंग!19
जिस ऑर्डर में दिलीपजी ने शुभकामनाएं व्यक्त की थी, थोड़े-बहुत उलट-फेर के साथ भी यदि उनकी पूर्ति हो जाती तो हिंदी ब्लॉगिंग की सेहत में सुधार आता. बेशक 12 हज़ार से ज़्यादा ब्लॉग बन गए हों, मुद्दा आधारित ब्लॉगों के पैर जमने लगे हों, असहमतियों और झगड़ों से गली-नुक्कड़ भी झेंपने लगे हों किंतु मठाधीशी, चारण-वंदन, मिलन समारोहों और वार्षिकियों जैसे छापे की दुनिया के रोगों से चिट्ठाकारी पूरी तरह आज़ाद नहीं हो पायी है. इंटरनेट के व्यापकीकरण तथा कंप्युटर की उपलब्धता में अवरोध से तो हम वाकिफ़ हैं ही.
ब्लॉग कैसे–कैसे
अंग्रेजी-कार्टून का हिन्दी अनुवाद। स्रोत- वीब्लॉगकार्टून
पिछले पांच-छह सालों में ब्लॉग ने तमाम किस्म की अभिव्यक्तियों को प्रबल और मुखर बनाया है. व्यक्तिगत तौर पर लोग ब्लॉगबाज़ी कर रहे हैं, अपने ब्लॉग पर लिख रहे हैं; मित्रों के ब्लॉग के लिए लिख रहे हैं, सामुदायिक ब्लॉगों पर लिख रहे हैं. कई दफ़े ये लेखन असरदार भी साबित हो रहे हैं. इससे पहले कि ब्लॉग के अन्य पहलुओं पर बातचीत की जाए थोड़ी चर्चा ब्लॉग के स्वरूप पर.
अंतर्जाल पर ज़्यादातर चिट्ठे साहित्य-साधना में लीन नज़र आते हैं. उनमें भी भांति-भांति की कविताई करते ब्लॉगों की संख्या ख़ास तौर से ज़्यादा है. सामुदायिक ब्लॉगों को छोड़ भी दिया जाए तो पिछले दो-ढ़ाई सालों से व्यक्तिगत ब्लॉगों पर भी सरोकार और चिंताएं दिख रही हैं. मिसाल के तौर पर गिरीन्द्र के ब्लॉग अनुभव पर 10 अप्रैल 2006 को प्रकाशित उनकी पहली पोस्ट के इस अंश पर ग़ौर करते हैं:
... दिल्ली से नज़दीकी रिस्ता रख्नने वाले प्रदेश इस बात को भली-भाती ज़ानते है. उतर प्रदेश, हरियाणा के ज़्यादातर ग्रामीण इलाके के लोग रोज़ी-रोटी के लिए दिल्ली से सम्बध बनाए रखे है.
हरियाणा का होड्ल ग्राम आश्रय के इसी फार्मुले पर विश्वास रखता है... कृषि बहुल भुमि वाले इस गाव मे एक अज़ीब किस्म का व्यवसाय प्रचलन मे है,ज़िसे हम छोटे -बडे शहरो के सिनेमा हालो या फैक्ट्री आदि ज़गहो पर देखते है.वह है-साइकल्-मोटरसाइकल स्टैड्.दिल्ली मे काम करने वाले लोग रोज़ यहा आपना वाहन रख कर दिल्ली ट्रैन से ज़ाते है. एवज़ मे मासिक किराया देते है.
ज़ब मै होड्ल के स्थानिय स्टेशन से पैदल गुजर रहा था तो मैने एक ८० साल की एक् औरत को एक विशाल परती ज़मीन पर साईकिलो के लम्बे कतारो के बीच बैठा पाया...उस इक पल तो मै उसकी उम्र और विरान जगह को देखकर चकित ही हो गया पर जब वस्तुस्थिती का पता चला तो होडल गाव के आश्रयवादी नज़रिया से वाकिफ हुआ.जब मैने उस औरत से बात करनी चाही तो वह तैयार हो गयी और अपने आचलिक भाषा मे बहुत कुछ बताने लगी.उसने कहा कि खेती से अच्छा कमाई इस धधा मे है ...20
इस अध्ययन के सिलसिले में उपर्युक्त पोस्ट के बरअक्स 2006 के अप्रैल-मई महीने में कुछ और तलाशने के लिए मैंने तक़रीबन 80-90 ब्लॉगों का भ्रमण किया. ज़्यादातर पर कविताएं मिलीं. यहां यह बताना भी ज़रूरी है कि तब या अब ही, जितनी प्रतिक्रियाएं कविताओं को मिलती हैं उतनी मुद्दे आधारित पोस्टों को नहीं. मिसाल के तौर पर उपर्युक्त पोस्ट पर आज तक एक प्रतिक्रिया भी नही आयी है. यानी इसे इस बात का संकेत माना जा सकता है कि मुद्दों पर लिखना कितना इकहरा काम होता है. मुझे ऐसा लगता है कि हिंदी चिट्ठाकारी से चारण-राग ख़त्म न होने की एक वजह ये भी है. वैसे भी कविताई या अन्य विशुद्ध साहित्यिक विधाओं में चारण-राग चलता आया है.
जहां तक सामुदायिक ब्लॉगों का प्रश्न है तो उनका उदय ही किसी न किसी मुद्दे, विषय या प्रसंग विशेष के कारण होता है. मिसाल के तौर पर अविनाश के ब्लॉग ‘मोहल्ला’, जो कि बाद में सामुदायिक घोषित कर दिया गया – के इस पहले पोस्ट पर ग़ौर करते हैं:
साथियो, नेट पर बहुत सारे पन्ने हैं, फिर इस पन्ने की कोई जरूरत नहीं थी. लेकिन हसरतों का क्या किया जाए? हम सब मोहल्ले-कस्बे के लोग हैं. पढ-लिख कर जीने-खाने की जरूरत भर शहर में रहने आते हैं और रहते चले जाते हैं. शायद हम उम्र भर शहरों में रहना सीखते हैं. हर ऊंची इमारत को फटी आंखों से देखते हैं, और ये देखने की कोशिश करते हैं कि कब इसकी फर्श पर हमारे पांव जमेंगे. लेकिन जडों से उखडना क्या इतना आसान है? आइए, हम अपनी उन गलियों को याद करें, जहां हमारी शक्ल ढंग से उभर कर आयी थी... अविनाश21
अब ‘भड़ास’ पर उसके मॉडरेटर यशवंत सिंह ने लोगों को अपने ब्लॉग से जोड़ने के लिए जो न्यौता प्रकाशित किया था, ज़रा उस पर ग़ौर फ़रमाते हैं:
भई, जीना तो है ही, सो भड़ास जो भरी पड़ी है, उसे निकालना भी है। और, इसीलिए है यह ब्लाग भड़ास। जब दिल टूट जाए, दिमाग भन्ना जाए, आंखें शून्य में गड़ जाएं, हंसी खो जाए, सब व्यर्थ नज़र आए, दोस्त दगाबाज हो जाएं, बास शैतान समझ आए, शहर अजनबियों का मेला लगे .....तब तुम मेरे पास आना प्रिये, मेरा दर खुला है, खुला ही रहेगा, तुम्हारे लिए।22
अशोक पांडे ने जब ‘कबाड़खाना’ आरंभ किया तो लोगों को अपना हमसफ़र बनाने के लिए उन्होंने विरेन डंगवाल की इन पंक्तियों का सहारा लिया:
पेप्पोर रद्दी पेप्पोर
पहर अभी बीता ही है
पर चौंधा मार रही है धूप
खड़े खड़े कुम्हला रहे हैं सजीले अशोक के पेड़
उरूज पर आ पहुंचा है बैसाख
सुन पड़ती है सड़क से
किसी बच्चा कबाड़ी की संगीतमय पुकार
गोया एक फ़रियाद है अज़ान सी
एक फ़रियाद है एक फ़रियाद
कुछ थोड़ा और भरती मुझे
अवसाद और अकेलेपन से
सामुदायिक ब्लॉग काफ़ी हद तक अपने मिशन में सफल भी रहे. अनेक सामाजिक सरोकार के मसलों पर वहां बहसें हुई. कुछ लोगों ने बहस में प्रत्यक्ष यानी लेखों या विचारों के ज़रिए शिरकत की और कुछ ने टिप्पणी के मार्फ़त. आज इन सामुदायिक ब्लॉगों में से कोई ख़बर छानने में व्यस्त है तो कोई मीडिया की ख़बर ले रहा है, कुछ विचारधाराओं की रेहड़ी लगाए बैठे हैं तो कुछ पामिस्ट्री किए जा रहे हैं, कहीं बेटियों के बारे में आदान-प्रदान हो रहा है तो कहीं बेटों के बारे में. जिन सामुदायिक ब्लॉगों का अभी हवाला दिया गया उनके अलावा दर्जनों अन्य सामुदायिक ब्लॉग हैं. यह सच है कि सामुदायिक चिट्ठों से इस माध्यम को और ज़्यादा लोकप्रियता मिली. हालांकि, यह भी सच है कि साल 2009 के अपराह्न तक आते-आते सामुदायिक ब्लॉगों की धार और रफ़्तार मंद पड़नी शुरू हो गयी है. कुछ चिट्ठे तो तक़रीबन बंद हो चुके हैं, बस औपचारिक घोषणा होना बाक़ी है. मॉडरेटरों की व्यक्तिगत प्राथमिकताओं में आया बदलाव इसकी सर्वप्रमुख वजह लगती है. कल तक जो सामुदायिक ब्लॉग चला रहे थे आज डॉटकॉम चलाने लगे हैं, या यूं कहें कि कल तक जो सामुदायिक ब्लॉग थे आज डॉटकॉम में तब्दील हो रहे हैं.
बहरहाल, इतना तो तय है कि हिंदी में हर वैसे विषय, प्रश्न या मुद्दे पर ब्लॉगिंग हो रही है जो इस वक़्त आपके कल्पनालोक में घुमड़ रहे हैं. ये ज़रूर है कि यहां साहित्य का बोलबाला है. 12 हज़ार में से लगभग 10 हज़ार ब्लॉगों पर साहित्य साधना हो रही है, और उनमें भी कविताई करने वालों की तादाद ज़्यादा है. साहित्यकुंज, अनुभूति, बुनो कहानी, मातील्दा, तोत्तोचान, अंतर्मन, उनींदरा, अवनीश गौतम वग़ैरह हिंदी ब्लॉगिंग में प्रमुख साहित्य-साधना-स्थली हैं. उदय प्रकाश, हिंदी ब्लॉगिंग में सक्रिय बड़े साहित्यारों में से एक हैं. फिल्म और सिनेमा को समर्पित ब्लॉगों में इंडियन बाइस्कोप, आवारा हूं और चवन्नी चैप का स्थान अग्रणी है. गीतायन और रेडियोवाणी पर तमाम तरह के हिंदी गीतों का भंडारण हो रहा है. गाहे-बगाहे और टीवी प्लस टेलीविज़न की दुनिया में हो रहे हलचलों पर निगाह टिकाए हुए है. ज्ञान-विज्ञान, रवि-रतलामी का हिंदी ब्लॉग, प्रतिभास, मे आइ हेल्प यू, क्रमश:, देवनागरी, इत्यादि विज्ञान और तकनीकी से मुताल्लिक़ नए-नए अनुसंधानों की जानकारी प्रदान करने के साथ-साथ ब्लॉगरों को तकनीकी परेशानियों से निजात भी दिलाता है. अनुनाद सिंह इतिहास पर महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक लेखों को संकलित कर रहे हैं. रिजेक्ट माल, अनुभव और हाशिया जनपक्षधर पत्रकारिता और वैचारिकी के विलक्षण उदाहरण हैं, कस्बा, अनामदास का चिट्ठा, कानपुरनामा और फुरसतिया, उड़न-तश्तरी, मसिजीवी संस्मरणों और वैचारिकी के कुछ चुने हुए ठीहे हैं, खेती-बाड़ी अपने नाम को चरितार्थ करता इससे संबंधित जानकारियों का स्रोत है, दाल रोटी चावल पर लज़ीज़ व्यंजनों की जानकारी बनाने की विधि समेत एकत्रित की जा रही है, मस्तराम मुसाफिर अंतर्जाल पर प्रिंट वाले ‘मस्तराम’ की नुमाइंदगी करता है, हालांकि, साल 2005 के बाद इस पर कुछ नया माल नहीं चढ़ाया गया है.
अंग्रेज़ी ब्लॉगिंग के विपरीत हिंदी ब्लॉगिंग में आंदोलनों, अभियानों, संघर्षों, संगठनों या मुद्दों पर आधारित ब्लॉगों की संख्या नगण्य है. अंग्रेज़ी में इराक़ तथा अफ़गानिस्तान में अमरीकी गुण्डागर्दी, पाकिस्तान की आंतरिक हालत, जाति और जेंडर भेद, बचपन, वृद्धावस्था जैसे मसलों, पर्यावरण या ग्लोबल वार्मिंग पर चलने वाले अभियानों, तथा मानवाधिकार और पशुअधिकार आंदोलनों के बारे में समर्पित ब्लॉगिंग हो रही है. हिंदी में फिलहाल ये ट्रेंड नहीं बन पाया है. हालांकि, ये ज़रूर है कि अब इस माध्यम के प्रति आंदोलनों और संगठनों में संजीदगी दिखने लगी है और कुछेक ब्लॉगों की शुरुआत हुई भी है. मिसाल के तौर पर सफ़र, जहां संगठन से जुड़े कार्यक्रमों और गतिविधियों पर यदा-कदा कुछ लिखा-पढ़ा जाता है या फिर सूचना का अधिकार, जहां नियमित रूप से इस मुद्दे और इससे संबधित अभियानों की ख़बरें शेयर की जाती हैं. इस कड़ी में स्त्री प्रश्नों पर फ़ोकस्ड हिन्दी के पहले सामुदायिक ब्लॉग चोखेरबाली का काम सराहनीय रहा है. हिंदी के प्रचार-प्रसार और इसकी तरक्कती के लिए समर्पित हिंदयुग्म के अनूठे प्रयासों का यहां उल्लेख किया जाना ज़रूरी है. हिंदयुग्म पर तमाम विधाओं में साहित्य रचना के अलावा कला, संस्कृति और आम जन-जीवन से जुड़े प्रश्नों पर भी संजीदगी से चर्चा होती है.
चिट्ठाकारी को सरल और लोकप्रिय बनाने में एग्रीगेटरों की भूमिका बेहद महत्त्वपूर्ण है. प्रकाशन के चंद मिनटों के अंदर चिट्ठों को व्यापक चिट्ठाजगत तक पहुंचाने तथा चिट्ठा संबंधी आवश्यक जानकारियां उपलब्ध कराने में एग्रीगेटरों का बड़ा योगदान है. साल 2005-06 में ही जीतू ने ‘अक्षरग्राम’ नामक हिंदी का पहला एग्रीगेटर आरंभ किया था. उसके बाद ‘नारद’ नामक एग्रीगेटर भी जीतू और उनके कुछ मित्रों के सामुहिक प्रयास से ही अस्तित्व में आया. साल 2007 में ‘ब्लागवाणी’ और ‘चिट्ठाजगत’ नामक दो और एग्रीगेटर्स अस्तित्व में आए और उन्होंने हिंदी ब्लॉगिंग को काफ़ी सहूलियतें मुहैया कीं.
कितनी सक्रिय है ये चिट्ठाकारी
18 सितंबर 2009 को दोपहर साढे चार बजे के आसपास चिट्ठाजगत के मुताबिक़ कुल 10 हज़ार 259 चिट्ठों में से कुल सक्रिय चिट्ठों की संख्या 40 थी. निश्चित रूप से ऐसी कोई भी सूचि स्थाई नहीं होती, क्योंकि रियल समय में सूचि में बदलाव होते रहते हैं. कभी कोई दसवें नंबर पर होता है तो चंद मिनटों या घंटे बाद वही 38वें नंबर पर या पहले नंबर पर हो सकता है या फिर सूचि में दिखे ही नहीं. बहरहाल, मैं उन ब्लॉगों को सक्रिय मानता हूं जिन पर हफ़्ते में दो नहीं तो कम से कम एक पोस्ट ज़रूर प्रकाशित होते हैं, यानी पोस्टिंग की निरंतरता बनी रहती है, और उस लिहाज़ा से देखा जाए तो हिंदी में सक्रिय ब्लॉगों की संख्या 200 के आसपास है. उड़न तश्तरी, गाहे-बगाहे, हिंदयुग्म, रचनाकार, अगड़म-बगड़म, फुरसतिया, रेडियोवाणी, कसबा, महाजाल, निर्मल-आनंद, मसिजीवी, मोहल्ला, कबाड़खाना, चोखेरबाली, इत्यादि अग्रिम पंक्ति के सक्रिय चिट्ठे हैं. लगे हाथ हिंदी चिट्टाकारी में सक्रिय लोगों की पृष्ठभूमि पर भी एक नज़र डाल ली जाए. दरअसल, हिन्दी ब्लॉगिंग में आए इस रेवल्यूशन के पीछे तीन अलग-अलग पृष्ठभूमि के लोगों का योगदान है: पेशेवर टेकीज़ (तकनीकीविशारद) जो हिंदी के प्रति कमिटेड हैं और प्रकारांतर में जिनमें लेखन एक ज़बर्दस्त हॉबी की तरह विकसित हुआ, पत्रकार (नियमित या अनियमित दोनों तरह के) जिन्हें अपने माध्यमों में स्वयं को अभिव्यक्त करने का मुनासिब मौक़ा नहीं मिल पाता है, या जो यहां लिखकर लोगों का फ़ीडबैक हासिल करते हैं तथा उससे अपने पेशे में पैनापन लाने की कोशिश करते हैं (ऐसे लोग सोशल नेटवर्किंग साइटों का भी फ़ायदा उठाते हैं) और वैसे लोग जिन्हें पत्रकारीय कर्म में दिलचस्पी है; तथा अंतिम श्रेणी में वैसे साहित्य-साधक शामिल हैं जिन्हें आम तौर पर छापे में मन माफिक मौक़ा नहीं मिल पाता है या फिर जो इस माध्यम की उपयोगिता देखते हुए यहां भी अपनी मौज़ूदगी बनाए रखना चाहते हैं या फिर वैसे लोग जिन्होंने ये ठान लिया है कि वे ब्लॉग के ज़रिए ही साहित्य सृजन करेंगे.
ब्लॉगिंग की सतरंगी भाषा
ज़ाहिर है जहां इतने विविध पृष्ठभूमियों वाले लोग ब्लॉगिंग कर रहे हैं वहां भाषाई विविधता तो होगी ही. मैं इस विविधता को हिंदी ब्लॉगिंग की पूंजी मानता हूं. यही इसकी सबसे बड़ी ख़ासियत है. दरअसल, भाषाई प्रयोग और इस्तेमाल के मामले में अंतर्जाल पर मौज़ूद यह स्पेस घरों की उन दीवारों की तरह है जहां बच्चों को अपनी मर्ज़ी के मुताबिक चित्र उकेरने की आज़ादी होती है. दुहराने की ज़रूरत नहीं है कि किस हद तक यहां भाषाई प्रयोग हो रहे हैं; हां, ये ज़रूर उल्लेखनीय है कि फ़ॉर्म और एक हद तक कंटेन्ट को लेकर जो आज़ादी है यहां, उससे भाषा के स्तर पर प्रयोग करने में काफ़ी सहुलियत मिलती है. इस पर्चे में मैंने पहले कुछ चिट्ठों के नाम गिनाए थे, उन पर एक बार विचरण कर लें तो पता चल जाएगा कि सामग्री कैसे भाषा तय कर रही है या फिर क्या लिखने के लिए कैसी भाषा का इस्तेमाल किया जा रहा है.
यह सच है कि अख़बारों के लिए रिपोर्टिंग या स्पेशल एडिट लिखने अलावा ज़्यादातर ऑफ़लाइन लेखन (चाहे किसी भी तरह का हो) किस्तों में होता रहा है. जबकि ब्लॉग में ऐसा बहुत कम होता है. यहां तो कई बार बैठते हैं प्रतिक्रिया लिखने, बन जाता है लेख. ब्लॉगिंग में अकसर एक ही बैठक में लोग हज़ार-डेढ़ हज़ार शब्द ठेल देते हैं.
यह भी सच है कि कुछ बलॉगों, विशेषकर सामुदायिक ब्लॉगों ने अपनी एक शैली विकसित कर ली है और भाषा को लेकर भी वे चौकन्ने हैं. उनकी पोस्टों से गुज़रते हुए इस बात का अंदाज़ा लग जाता कि मॉडरेटर महोदय, क़ायदे से जिनका काम मॉडरेट करना भर होना चाहिए – चिट्ठों को अपनी स्टाइल में फिट करने के लिए किसी तरह अच्छा-खासा समय लगा रहे हैं. यहां इस तथ्य की ओर भी इशारा करना चाहूंगा कि मीडिया, विशेषकर इलेक्टॉनिक मीडिया वाली सनसनी और टीआरपी वाला गेम यहां भी ख़ूब प्ले किया जाता है. मूल पाठ से लेकर शीर्षक तक में यह ट्रेंड झलकता है.
अकसर हम देखते आए हैं कि बोलचाल में धड़ल्ले से प्रयोग होने वाले शब्दों का लेखन में बहुत कम इस्तेमाल होता है. पर अंतर्जाल पर स्थिति काफ़ी बदली-बदली सी दिखती है. और-तो-और यहां, क्षेत्रीय भाषाओं के शब्दों का भी धड़ल्ले से प्रयोग हो रहा है. हिंदी के कुछ ब्लॉग अपनी विशिष्ट क्षेत्रीय शैली की वजह से पॉप्युलर भी हुए हैं. मिसाल के तौर पर ज़रा ‘ताउ रामपुरिया’ की भाषा पर ग़ौर कीजिए:
इब राज भाटिया जी और योगिन्द्र मोदगिल जी ने गांव के चोधरी को कहा कि इस बटेऊ से सवाल पूछने का मौका ताऊ को भी दिया जाना चाहिये ! आखिर गांव की इज्जत का सवाल है ! चोधरी ने उनका एतराज मंजूर कर लिया !
बटेऊ की तो कुछ समझ नही आया कि आखिर तमाशा क्या है ? बटेऊ को यही समझ मे नही आया कि वो कैसे हार गया और ये ५ वीं फ़ेल छोरा कैसे जीत गया ! ले बेटा..और उलझ ताऊओं से !
गाम आलों का चौधरी बोला- भाई बटेऊ, तन्नै तो आज सवाल पूछ लिया ! और म्हारै गाम के छोरे ताऊ नै बिल्कुल सही जवाब भी दे दिया ! इब उसको भी तेरे तैं सवाल बुझनै का मौका देणा पडैगा ! कल दोपहर म्ह इसी चौपाल म्ह म्हारा छोरा ( ताऊ ) तेरे तैं सवाल बुजैगा अंग्रेजी म्ह और तन्नै जवाब देना पडैगा!23
दरअसल, ‘ताउ रामपुरिया’ की लेखन शैली ने हरियाणवी हिंदी को एक तरह से अंतर्जाल पर इस्टैब्लिश कर दिया है. उनके चिट्ठों पर मिलने वाली टिप्पणियां इस बात का प्रमाण हैं. इधर संजीव तिवारी जब अपने ब्लॉग पर अपनी भाषा के प्रति छत्तीसगढियों से अपील करते हैं तो उन्हें भी ठीक-ठाक समर्थन मिलता है. ज़रा देखिए उनके इस चिट्ठांश को:
छत्तीसगढ हा राज बनगे अउ हमर भाखा ला घलव मान मिलगे संगे संग हमर राज सरकार ह हमर भाखा के बढोतरी खातिर राज भाखा आयोग बना के बइठा दिस अउ हमर भाखा के उन्नति बर नवां रद्दा खोल दिस । अब आघू हमर भाखा हा विकास करही, येखर खातिर हम सब मन ला जुर मिल के प्रयास करे ल परही । भाखा के विकास से हमर छत्तीसगढी साहित्य, संस्कृति अउ लोककला के गियान ह बढही अउ सबे के मन म ‘अपन चेतना’ के जागरन होही । हमला ये बारे म गुने ला परही, काबर कि हम अपन भाखा के परयोग बर सुरू ले हीन भावना ला गठरी कस धरे हावन।24
कमोबेश यही स्थिति भोजपुरी और मैथिली के साथ भी है.
प्रयोग और इस्तेमाल की आज़ादी का ही नतीज़ा है कि इंटरनेट पर मस्तराम मार्का भाषा भी फल-फूल रही है. मिसाल के तौर पर किसी पोस्ट पर डॉ. सुभाष भदौरिया द्वारा की गयी इस प्रतिक्रिया पर ग़ौर करें:
यार यशवंतजी एक जमाना हो गया, न हमने किसी को गाली दी, न किसी ने हमें दी, पर इस डिंडोरची ने वही मिसाल कर दी गांड में गू नहीं नौ सौ सुअर नौत दिये. यार हम तो आप सब में शामिल सुअर राज हैं.गू क्या गांड भी खा जायेंगे साले की, तब पता पता चलेगा. नेट पर बेनामी छिनरे कई हैं, अदब साहित्य से इन्हें कोई लेना देना नहीं हैं, सबसे बड़ा सवाल इनकी नस्ल का है, न इधर के न उधर के.
भाई हम सीधा कहते हैं, भड़ासी पहुँचे हुए संत है, शिगरेट शराब जुआ और तमाम फैले के बावजूद उन पर भरोसा किया जा सकता है. इन तिलकधारियों का भरोसा नहीं किया जा सकता.कुल्हड़ी में गुड़ फोड़ते हैं चुपके चुपके.इन का नाम लेकर इन्हें क्यों महान बना रहे हैं आप. देखो हम ने कैसे इस कमजर्फ को अमर कर दिया.25
आम तौर पर हिंदी ब्लॉगिंग में प्रतिक्रिया देते हुए या किसी मसले पर चर्चा करते वक़्त शब्दकोश सिकुड़ने लगते हैं और भाषा हांफने लगती है. हिंदी ब्लॉगजगत ऐसी मिसालों से भरी पड़ी है. पिछली जुलाई में शीर्षस्थ साहित्यकार उदयप्रकाश से जुड़े एक प्रकरण को लेकर उठे बवंडर, इसी साल जनवरी में नया ज्ञानोदय की संपादकीय पर मचे अंतर्जालीय घमासान, या मार्च-अप्रैल में रविवार डॉट कॉम पर राजेंद्र यादव के एक साक्षात्कार, या फिर हाल ही में रविवार डॉट कॉम पर प्रभाष जोशी और राजेंद्र यादव के साक्षात्कार से उपजे विवाद पर ग़ौर करें तो भाषा के इस पक्ष से रू-ब-रू हुआ जा सकता है. मिसाल के तौर पर, उदयप्रकाश प्रकरण पर रंगनाथ सिंह ने हिंदी साहित्य में विष्ठावाद : अप्पा रे मुंह है कि जांघिया के मार्फ़त कुछ इस तरह अपनी राय ज़ाहिर की:
एक कवि हैं। सुना है उनके दोस्त उनके बारे में एक ही सवाल बार-बार पूछते रहतें हैं कि वो नासपीटा तो जब भी मुंह खोलता है, मल, मूत्र या उनके निकास द्वारों के लोक-नामों से अपनी बात का श्री गणेश करता है।
उनके मित्र आपस में अक्सर यही पूछते हैं कि अप्पा रे, उसका मुंह है कि जंघिया…??
हिंदी साहित्य के दिग्गजों (इसमें उदय प्रकाश भी शामिल हैं) ने और उनके चेलों ने उदय प्रकाश प्रकरण में हुए विवाद में बार-बार उस कवि की और उनके मित्रों को जंघिया वाले यक्ष प्रश्न की याद दिलायी।
जिस किसी ने जिस किसी के भी पक्ष या विपक्ष में लिखा, उसके खिलाफ़ दूसरे पक्ष के तीरंदाज-गोलंदाज आलोचना या भर्त्सना लिखने के बजाय गाली-गलौज पर उतर आये। या उस कवि के मित्रों की भाषा में कहें, तो इन सब के नाड़े ढीले थे।
इन सभी स्वनामधन्य कवि-लेखकों-पत्रकारों को धन्यवाद देता हूं कि उन्होंने अपनी आस्तीन से अपना असल शब्दकोश निकाला और उसका खुल कर प्रयोग किया। निस्संदेह उन्होंने इंटरनेशनल लेवल का सुलभ भाषा-कौशल दिखाया है।26
मेरा ये मानना है कि किसी भी माध्यम मे भाषा के विकास के लिए ज़रूरी है भरपूर लेखन और संवाद. जितना अधिक लेखन होगा उतने ही अधिक प्रयोग होंगे और भाषा में निखार आएगा. विगत पांच-छह सालों की हिंदी ब्लॉगिंग में निश्चित रूप से लेखन में उत्तरोत्तर इज़ाफ़ा हुआ है और ये इज़ाफ़ा क्वान्टिटी और क्वालिटी दोनों ही स्तरों पर हुआ है. पर इतना नहीं कि उसके आधार पर किसी ठोस नतीजे पर पहुंचा जाए. संवाद भी हो रहे हैं, पर संवाद के स्तर पर ज़्यादातर छींटाकसी या खींचातानी ही दिखती है. कुछ-कुछ प्रिंट जैसी. वैसे बेहतर होगा कि भाषाविज्ञानी इस बात की पड़ताल करें और रोशनी डालें कि हिंदी चिट्ठाकरी में बरती जाने वाली भाषा क्या है. तब तक मैं यही कहूंगा कि काफ़ी कुछ नया है, पहले से अलग है, हट के है, सतरंगी है.
कुछ फुटकर विचार
अंग्रेजी-कार्टून का हिन्दी अनुवाद। स्रोत- डियर किट्टी |
यह साफ़ है कि बीते 5-6 सालों में अंतर्जाल पर, ख़ास तौर से चिट्ठाकारी के मार्फ़त हिंदी के प्रयोग और रफ़्तार में तेज़ी आयी है. ग़ौर करने वाली बात ये है कि इसने साहित्य, संस्कृति और पत्रकारिता के बहुत सारे अवयवों, मूल्य मान्यताओं, परिपाटियों तथा मानकों से ख़ुद को आज़ाद कर लिया है जिन्हें आधुनिकता ने अपने लिए निर्धारित किए थे. सेंसरशिप, कॉपीराइट, नियंत्रण और निगरानी जैसी आधुनिक अवधारणाएं फिलहाल दरकिनार हैं. ब्लॉगर्स तो जैसे दायें-बाएं, आगे-पीछे देखे बिना सरपट दौड़े चले जा रहे हैं.
संदर्भ-
1. http://9211.blogspot.com
2. http://techtree/techtee/jsp
3. http://hindyugm.com
4. http://bhadas.blogspot.com
5. http://linkitman.blogspot.com
6. http://naisadak.blogspot.com/2009/09/blog-post_12.html
7. http://9211.blogspot.com
8. http://nuktachini.blogspot.com
9. http://devnaagrii.net
10. http://rachnakar.blogspot.com
11. http://hindini.com/eswami
12. http://hindini.com/fursatiya
13. http://pratibhaas.blogspot.com
14. http://www.jitu.info
15. http://linkitman.blogspot.com
16. http://mohalla.blogspot.com
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
18 बैठकबाजों का कहना है :
आपने तो शैलेश भाई इसको दुल्हन की तरह सजा-धजा दिया है. मुझे तो यही लुभा रहा है लिपस्टिक और बिंदी की तरह ...
कंटेंट पर बैठकबाज़ों की राय महत्त्वपूर्ण रहेगी. इंतजार कीजिए, शायद कोई दो-चार शब्द छोड़ जाएं.
शुक्रिया
शोधपरक आलेख है। बहुत श्रम किया गया है। इस तरह के आलेख ही ब्लागिंग के बारे में जानकारी देने और उस का महत्व स्थापित करने का काम करेंगे।
इस आलेख से आप का श्रम सुस्पष्ट है, वैसे इतिहास के पन्नों में आप भी दर्ज हो चुके हैं...:)
बधाई...
शैलेष जी आपका यह लेख ब्लाग जगत का एक मील का पत्थर है, आपने पुरा इतिहास समेट दिया
बहुत ही ज्ञान वर्धक लेख, शुभकामनाएं
सचमुच बहुत मेहनत की है राकेश जी ने .. और हिन्दी ब्लागिंग का सही विश्लेषण किया है .. पढकर बहुत अच्छा लगा !!
बहुत ही जानकारी वाला व दिलचस्प आलेख पढ़ने को मिला. धन्यबाद.
बहुत ही शानदार आलेख है. वाकई गहरा शोध किया गया है. ब्लोग्स के बारे में जानकारी बढाने के लिए धन्यवाद्
हिंदी ब्लॉग्गिंग को अभी बहुत से आयामों से गुजरना है.....हमें तो उम्मीद ही नहीं विश्वास है की हिंदी इन्टरनेट पर कुछ बहुत बड़ा धमाल करने वाली है :), अच्छी शोध है
इस शोधपत्र पर भी शोध की पूरी गुंजायश है
यह तो लगती जोर आजमाईश है
जोर आजमाने दो
सबको सामने आने दो
अपनी अपनी गाने दो
हिन्दी को सीढ़ी दर सीढ़ी
बढ़ चढ़ जाने दो।
राकेश एक लाइन में कहूं तो, आपने जबर्दस्त लिखा है. मजा आया पढ़कर.
हम भी डेब्यू वालों में से ही हैं। एक साथ इतनी जानकारी परोसने के लिए धन्यवाद। पहले मैं सोचता था कि लंबा-लंबा आलेख लोग नहीं पढ़ते होंगे पर जब आपने हमसे पढ़वा लिया तो लगा कि अच्छा, सच्चा और मेहनत से लिखा हो तो पढ़ना ही पड़ता है।
्राकेश जी इस शोधपत्र के लिये बहुत बहुत बधाई काफी श्रमसाध्य कार्य किया है आपने। दोचार क्यों इतने शब्द छोड दिये हैं शुभकामनायें
राकेश भाई,
मुख्तसर में कहना,
यूँ ही बहते रहना,
पंकज पुष्कर
ब्लाग के बारे में अच्छी जानकारी है। काफ़ी श्रम किया है। शुक्रिया।
सचमुच कोई भी कार्य इतनी आसानी से नही होता जितना आसानी से हम उसे समझते है और ऐसे में किसी विषय पर शोध कार्य करना बहुत परिश्रम का कार्य है ... राकेश जी आपने अपने शोध कार्य में इतिहास को काफी हद तक समेटा है ...हम आशा करते है की आप आगे भी हमे अन्य विषयो पर जानकारी प्रदान करते रहेंगे ...!
सचमुच कोई भी कार्य इतनी आसानी से नही होता जितना आसानी से हम उसे समझते है और ऐसे में किसी विषय पर शोध कार्य करना बहुत परिश्रम का कार्य है ... राकेश जी आपने अपने शोध कार्य में इतिहास को काफी हद तक समेटा है ...हम आशा करते है की आप आगे भी हमे अन्य विषयो पर जानकारी प्रदान करते रहेंगे ...
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