Saturday, October 03, 2009

इस बार भी तैयारी से निकली है कादम्बिनी

पिछले हफ़्ते 'कादम्बिनी' के पत्रिका के स्वरूप को लेकर विद्वानों ने अपनी चिंता ज़ाहिर की थी। इस बार हमारे एक प्रबुद्ध पाठक ने कादम्बिनी के अक्टूबर 2009 अंक की समीक्षा भेजी है॰॰॰

1) प्रधान सम्पादक के संपादकीय स्तम्भ को 'परिचय' नाम दिया गया है और पृष्ठ पर सम्पादकीय के साथ संपादक का परिचय भी प्रकाशित किया गया है। यूँ सम्पादकीय के साथ सम्पादक का परिचय प्रकाशित करना भी हिन्दी पत्रकारिता की एक ऐतिहासिक घटना है।
2) हँसी-दिल्लगी पृष्ठ (पृष्ठ 62) पर यूसुफ़ नाज़िम का एक व्यंग्य छपा है जिसमें जो चित्र लगा है उस चित्र का उस व्यंग्य से कोई लेना-देना नहीं लगता। उसी पृष्ठ पर नीचे खोजा के किस्से छपे हैं, उसके साथ लगे चित्र का भी मैटर से कोई सम्बंध नहीं है।
3) अंक में प्रकाशित तीन कहानियों में से 2 के रचनाकारों का कानपुर से ताल्लुकात है, तीसरे कहानीकार जयशंकर प्रसाद है।
4) प्रतिभा पृष्ठ पर प्रकाशित कुल 3 रचनाकारों में से 2 कानपुर के हैं। इस अंक में प्रकाशित सर्वाधिक रचनाकार कानपुर के हैं। सम्पादक का कानपुर प्रेम उल्लेखनीय है।
5) आवरण पर परमहंस योगानंद की डायरी से एक रचना विज्ञापित है, जबकि पत्रिका में यह रचना है ही नहीं। हाँ, परमहंस योगानंद पर एक सामग्री पत्रिका में ज़रूर है, जो रॉय यूज़िन डेविस की पुस्तक 'परमहंस योगानंद'- जैसा मैंने जाना- से उद्धृत है।
6) पत्रिका में गुरुदत्त पर प्रकाशित एक लेख में सबसे बड़ी तस्वीर किशोर कुमार की लगी है, गुरुदत्त की नहीं।
7) घर-परिवार स्तम्भ में आयुर्वेद पर आधारित पंचकर्म पर एक सामग्री प्रकाशित है, जिसे स्त्म्भ में वेद से बताया गया है। वेद तो चार ही हैं, संपादक आयुर्वेद को पाँचवाँ वेद मानते हैं।
8) मतांतर पृष्ठ पर तीसरा पत्र-दो छपे हैं- तीसरा पत्र-1, तीसरा पत्र-2। जबकि पहला और दूसरा पत्र कहीं नहीं छपा है। तीसरा पत्र 1-2 छापने का आशय क्या है? तीसरा पत्र-चौथा पत्र क्यों नहीं।
9) अगले अंक से कादम्बिनी अपने 50वें वर्ष में प्रवेश करने जा रही है। देखना है उसकी भी कितनी तैयारी है।

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9 बैठकबाजों का कहना है :

Arvind Mishra का कहना है कि -

यह बिस्मिलाह ही गलत हो गया ! क्या मृणाल पाण्डेय अब नहीं हैं वहां ?

Manju Gupta का कहना है कि -

कादम्बरी परिवार को हमारी ५० वें वर्ष के लिए शुभ कामनाएं .फिर से वह अपना गौरवपूर्ण स्थान ले ले .

Anonymous का कहना है कि -

लगभग सभी के विचार कुल मिलाकर कादम्बिनी के प्रति विरोधाभासी ही रहे। वैसे भी यह देखा गया है एक पत्रिका कभी दूसरी पत्रिका का फ़ेवर नहीं करती खास कर हिन्दी साहित्य जगत में तो ऐसा ही चलता है वरना आज हिन्दी की इतनी फ़्जीहत न होती। हिन्दी भाशी देश में हिन्दी साहित्यकारों की अपे्क्षा अंग्रेजी साहित्यकारों का नाम है कारण साफ़ है हिन्दी साहित्यकारों में एकता की कमी! कुछ लोगों को ये बात जरुर बुरी लग सकती है पर ये सच है। ॰॰॰पंकज सिंह (कवि, आलोचक) के अनुसार कादंबिनी के बजाय हंस को बंद कर देना चहिए। ये उनके अपने विचार हो सकते हैं। जबकि हंस एक बेहतरीन पत्रिका मानी जाती है। चाहे अंग्रेजी हो या फ़िर हिन्दी पत्रिका, अपनी खूबियों के साथ खामियों को भी साथ लिए चलती है। पाठक हर मूड का होता है। जरुरी नहीं कि एक सामग्री दूसरे को भी उतनी ही पसन्द आए। कहने का मतलब सिर्फ़ इतना है कि हमें पूर्वाग्रह छोड्कर थोडी ढील देनी चाहिए।

Shanno Aggarwal का कहना है कि -

कादम्बिनी पत्रिका के बारे में इतने बिचार-विमर्श पढ़ने को मिले, इतना फजीता भी मचा उसके संपादन के बारे में. अब एक पाठक की तरफ से और दिलचस्प जानकारी मिल रही है इसकी कुछ और खामियों के बारे में. इसका भविष्य क्या और कैसा होगा और किनके हाथों में है यह जानना बाकी है. लेकिन एक और मजेदार बात जाहिर हुई की कानपुर विख्यात हो रहा है अधिक रचनाकारों की वजह से. खैर, कादम्बिनी को उसकी आने वाली ५० वीं वर्षगाँठ पर शुभकामनाएं.

prabudh.pathak@rediffmail.com का कहना है कि -

Anonymous का कहना है कि -
विजय किशोर मानव के बाद कौन

kadambini ko lekar chal rahi charcha ke bad ab hindustan times ke sotro ke anusar charcha yah hai hai ki vijay kishor manav ke bad koun? kynoki sotro ke अनुसार विजय किशोर मानव अब खुद इस्तीफा देने का मन बना चुके हैं अगर वे इस्तीफा नहीं देते तो संभव है की उनसे इस्तीफा ले लिया jaye . ऐसे में सवाल यह है की उनके बाद कादम्बिनी की कमान कौन संभालेगा? yon तो sochi में कई nam हैं लेकिन sabase prabal davedar bataye जाते हैं कादम्बिनी के sahayak sampadak श्री arun कुमार jaimini. श्री जैमिनी का मनेजमेंट में भी काफी दखल बताया जाता है. वे पिचले पंद्रह bees वर्षो से कादम्बिनी की athak seva कर रहे हैं. उनका एक कविता संग्रह भी है. भूतपूर्व संपादक राजेंद्र अवश्थी उन्हें अपना हनुमान मानते थे. उन्होंने तीन तीन संपादको के साथ सफल पारी खेली है. वे बहुत मेहनती व्यक्ति बताये जाते हैं. ve bahut achche jyotishi bhi hain. unke jyotish gyan ka loha manejment me bhi bahut log mante hain. इन दिनों वे कादम्बिनी में ये जो दुनिया है नाम से charchit tippaniyan लिखते हैं. dekhana है की क्या कादम्बिनी के pachasve varsh में श्री jamini कादम्बिनी को कोई नया रूप देते हैं.
prabhudha pathak

मनोज कुमार का कहना है कि -

इस बार बैठक में शामिल होने का मन तो नहीं था पर बैठकबाजों को यह बताना ज़रूरी हो गया है कि कभी हमारे पास धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान, दिनमान, सारिका, रविवार जैसी पत्रिकाएं थीं जो अंग्रेजी पत्रिकोओं से टक्कर ले सकती थीं। आज हमारे पास एक भी पत्रिका नहीं है जो अखिल भारतीय स्तर पर पढ़ी जाती हो। ऐसे में इतने सारे लोग कादंबिनी के पीछे पड़ गए हैं। बेचारी कादंबिनी कहती होगी
मैं कौन हूं, क्या हूं, नहीं इसका पता मुझे,
जो जानते हैं राज, अब उनकी तलाश है।
कादंबिनी अपने ऐसे आलोचकों से कह रही होगी
दामन है तार तार मुझे कुछ पता नहीं
कब चली गई बहार मुझे कुछ पता नहीं।
इक शक्ल है जो दिल को सताती है बार बार
वो फूल है कि ख़ार मुझे कुछ पता नहीं।
और उन्हें, जो चाहते हैं कि कादंबिनी को बस अब बंद कर ही दिया जाना चाहिए, आगाह करना चाहूंगा कि
तुम तैश में आकर जो इन्हें काट रहे हो,
जब सर पे धूप होगी शज़र याद आएंगे।

और बस कादंबिनी को मैं इतना ही कहना चाहूंगा कि
हर दफा कहकहे हमराज नहीं हो सकते
खुशनुमा गीत के अंदाज नहीं हो सकते।
कामयाबी तो तुझे ढूंढ ही लेगी एक दिन
रोज तो देवता नाराज नहीं हो सकते।

Unknown का कहना है कि -

दामन है तार तार मुझे कुछ पता नहीं
कब चली गई बहार मुझे कुछ पता नहीं।
kya khoob kaha aapne manojji. mai bhi baithkbajo se kahna chahungi, be possative.Kadambini bhi kabhi hamaeri premika rahi thi.

करण समस्तीपुरी का कहना है कि -

"तुम तैश में आकर जो इन्हें काट रहे हो,
जब सर पे धूप होगी शज़र याद आएंगे।"

बहुत खूब ! मैं आपके विचारों से इत्तेफ़ाक़ रखता हूँ ! हालांकि सुदूर दक्षिण भारत मे रहने के कारण हिंदी की पत्रिकाएं ससमय नहीं मिल पाती हैं. तथापि कादम्बिनी प्रभृति कुछ पत्रिकाएं देर सबेर पढता अवश्य हूँ ! हालांकि मैं भी कादम्बिनी के बाह्य-सज्जा और गुणवत्ता मे आपेक्षिक ह्रास महसूस कर रहा हूँ किन्तु मुझे इस परिचर्चा के नियंत्रक महोदय द्वारा इसे "समीक्षा" कहने पर थोड़ा ऐतराज़ है ! मेरी साहित्यिक समझ कहती है कि समीक्षा मतलब - "गुण-दोष का समान विवेचन" ! इसे आलोचना कहें तो बेहतर है ! पुनश्च कलेवर पर आलोचना या कादम्बिनी के वर्चस्व पर .... सवाल कलेवर का है तो "परिवर्तन ही एक मात्र शाश्वत है" !बैठक में मैं यह कहना चाहूँगा कि "साहित्य और पत्रकारिता मे अंतर यह है कि पत्रकारिता पढने लायक नहीं होती और साहित्य पढा नहीं जाता !!" कादम्बिनी साहित्य और पत्रकारिता की योजक कड़ी है ! यह हमारी साहित्यिक विरासत का अवशेष है! इसके संरक्षण की आवश्यकता है न कि विसर्जन की ! साथ ही छोटी जुबान से एक बड़ी बात,
"अगर फुरसत मिले, पानी की तहरीरों को पढ़ लेना,
हर इक दरिया हजारों साल का अफ़साना कहता है !
तुम्हारे शहर के सारे दिए तो बुझ गए कब के,
हवा से पूछना दहलीज़ पे ये कौन जलता है !!"
गुजारिश है कि बैठक मे स्वस्थ्य बहस की श्रंखला जारी रहेगी !!
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Shamikh Faraz का कहना है कि -

कादम्बनी को ५० वर्षा पूरे करने पर बधाई.

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