आजकल बोर्ड का इम्तहान चर्चा का विषय बना हुआ है. हो भी क्यों ना, भई इसी से तो बच्चों के भविष्य की डोर बँधी हुयी है. इस विषय में सभी ने अपने-अपने विचार रखे. किसी ने बोर्ड परीक्षा को बच्चों पर बोझ और आत्महत्या का कारण बताया तो किसी ने कहा कि परीक्षा बच्चों को मज़बूत बनाती है साथ ही आगे आने वाली परीक्षाओं के लिये तैयार करती है.मुझे दोनों ही वर्गों की बातें अपनी-अपनी जगह ठीक लगीं. मैं यहां विस्तार से कहना चाहूंगी. जो लोग बोर्ड की परीक्षाओं को आत्महत्या का कारण मानते हैं उन्हें ये भी जानना चाहिये कि आखिर बोर्ड की परीक्षा आत्महत्या का कारण क्यों बनती है. यहां कई कारण हैं जैसे कि--माँ-बाप की उम्मीदें, शिक्षकों का व्यवहार और कापियाँ चैक करने की तथा रिजल्ट बनाने की प्रक्रिया में गलतियां.
अगर हम पहला कारण देखें तो सभी इस बात से सहमत होगें कि आजकल ज्यादातर माँ-बाप अपने बच्चों से कल्पना चावला, सचिन तेंदुलकर, सानिया मिर्जा़ आदि जैसे कई आइकॉन की तरह बनने की उम्मीदें लगाते हैं, बच्चे की उम्र, रूचियाँ और उसकी मानसिक तथा शारीरिक क्षमता को अनदेखा करते हुए हर वो काम करवाने की कोशिश करते हैं जो बच्चे की सामर्थ्य से बाहर होता है. दूसरों की होड़ में हाई प्रोफाइल स्कूलों में दाखि़लाकरवाते हैं, चाहे बच्चा वहाँ सीखने की बजाय जो आता है वो भी भूल जाये. लेकिन उन्हें तो अपने बच्चे को जीनियस बनाना होता है.
दूसरामहत्वपूर्ण कारण है, बच्चों की क्षमता. जब भगवान ने इतने सारे इंसान बनाये हैं तो जाहिर है कि हर किसी की मानसिक वा शारीरिक क्षमता भी अलग-अलग होगी. इसी तरह उनमें गुणों तथा अवगुणों में भी अंतर होगा. अगर हम अपनी क्षमता के विपरीत कार्य करेंगे तो नतीजा गलत ही होगा. कहा गया है कि "जाको काम वाही को साजे ,कोइ और करे तो डंडा बाजे".यानि बच्चों को उनकी रूचियों, शारीरिक व मानसिक क्षमता के अनुसार ही विषय चुनने दें. साथ ही उनकी कमियों को सुधारने की कोशिश की जाये ना कि उनका मजाक बनाये और दुत्कारें.
तीसराकारण है शिक्षकों का व्यवहार. मैं इस कारण को सबसे अधिक महत्वपूर्ण मानती हूँ. वो इसलिये घर-आँगन से निकलकर जब बच्चा स्कूल जाता है तो शिक्षक ही उसका अभिभावक होता है. बच्चे के सम्पूर्ण विकास में शिक्षक का बहुत ज्यादा योगदन होता है. बच्चे शिक्षक पर अंधविश्वास करते हैं चाहे वो सही बताये या गलत. आपने कई बार देखा होगा ,अगर हम शिक्षक द्वारा बतायी गयी किसी विषय की गलती को सुधारने का प्रयास करते हैं तो बच्चे मानने से साफ़ इंकार कर देते हैं, क्योंकि बच्चों को उन पर पूर्ण विश्वास होता है. अत: उन्हें गलत जानकारी न दें. इसी तरह शिक्षक का डाँटना-फटकारना, उत्साह बढ़ाना आदि बातें भी बच्चों के नाजुक मन पर असर डालती हैं. शिक्षकों को ध्यान में रखना चाहिये कि हर बच्चे की मानसिक क्षमता एक जैसी नहीं होती और हर बच्चे की पारिवारिक, शैक्षिक तथा आर्थिक पृष्ठभूमि भी अलग होती है. ऐसे में केवल होशियार बच्चों पर ध्यान देना, कमजोर बच्चों को मारना-पीटना, उनका मजाक बनाना आदि भी बच्चों को अंधकार में ढकेलने का काम करता है.
अब मैं बात करती हूँ चौथे कारण की. कापियाँ चैक करना तथा रिजल्ट बनाना बहुत ही जिम्मेदारी का काम है. इन पर बच्चों का भविष्य टिका होता है. शिक्षकों की जरा सी लापरवाही हजारों बच्चों के भविष्य तथा जिन्दगियों के साथ खिलवाड़ कर सकती है. इससे हम अच्छी तरह वाकि़फ हैं आज बोर्ड की परिक्षाओं में प्राइमरी विद्यालयों के शिक्षक तक कापियां चैक करते हैं. उन्हें ना तो विषय की जानकारी होती है और ना ही वो उस स्तर के होते है जो कि बोर्ड की कापियां चैक कर सकें. उऊपर से ज्यादातर शिक्ष्क कापियां चैक करने के लिए संजीदा कम ,उससे मिलने वाले पैसे के प्रति ज्यादा आकर्षित होते हैं. ऐसे में जल्दबाजी में चैक की गयी कापियां क्या रिजल्ट देगीं कहने की जरूरत नहीं है. यही नहीं हमने कइ बार कापियां गायब होने, कूड़े में पायी जाने आदि की भी ख़बरें पढ़ी सुनी हैं यह भी बच्चों के रिजल्ट पर असर डालती हैं. आजकल बोर्ड के रिजल्ट में बहुत ही ज्यादा गल्तियां सामने आ रही हैं. इसी के चलते कई बार बच्चों ने आत्महत्या की है और बाद में पता चला है कि वो बच्चे फर्स्ट क्लास पास हुए थे.
अंत में निष्कर्ष यही निकलता है कि बोर्ड परीक्षा का ना कराया जाना समस्या का हल नहीं है बल्कि इससे जुड़े कारणों में सुधार लाने की आवश्यकता है. बच्चों को मानसिक रूप से सशक्त बनाया जाये साथ ही उन्हें परीक्षाओं से डराने की बजाय परीक्षा के लिये तैयार किये जाने की जरूरत है. जीवन में पग-पग पर एक परीक्षा है वो कहाँ-कहाँ से भागेगें. इसलिए मेरा यह निवेदन है कि बच्चों के भविष्य के साथ-साथ देश के भविष्य से खिलवाड़ ना किया जाये. अगर नींव ही कमजोर होगी तो इमारत कहाँ से खड़ी होगी.
अगर हम पहला कारण देखें तो सभी इस बात से सहमत होगें कि आजकल ज्यादातर माँ-बाप अपने बच्चों से कल्पना चावला, सचिन तेंदुलकर, सानिया मिर्जा़ आदि जैसे कई आइकॉन की तरह बनने की उम्मीदें लगाते हैं, बच्चे की उम्र, रूचियाँ और उसकी मानसिक तथा शारीरिक क्षमता को अनदेखा करते हुए हर वो काम करवाने की कोशिश करते हैं जो बच्चे की सामर्थ्य से बाहर होता है. दूसरों की होड़ में हाई प्रोफाइल स्कूलों में दाखि़लाकरवाते हैं, चाहे बच्चा वहाँ सीखने की बजाय जो आता है वो भी भूल जाये. लेकिन उन्हें तो अपने बच्चे को जीनियस बनाना होता है.
दूसरामहत्वपूर्ण कारण है, बच्चों की क्षमता. जब भगवान ने इतने सारे इंसान बनाये हैं तो जाहिर है कि हर किसी की मानसिक वा शारीरिक क्षमता भी अलग-अलग होगी. इसी तरह उनमें गुणों तथा अवगुणों में भी अंतर होगा. अगर हम अपनी क्षमता के विपरीत कार्य करेंगे तो नतीजा गलत ही होगा. कहा गया है कि "जाको काम वाही को साजे ,कोइ और करे तो डंडा बाजे".यानि बच्चों को उनकी रूचियों, शारीरिक व मानसिक क्षमता के अनुसार ही विषय चुनने दें. साथ ही उनकी कमियों को सुधारने की कोशिश की जाये ना कि उनका मजाक बनाये और दुत्कारें.
तीसराकारण है शिक्षकों का व्यवहार. मैं इस कारण को सबसे अधिक महत्वपूर्ण मानती हूँ. वो इसलिये घर-आँगन से निकलकर जब बच्चा स्कूल जाता है तो शिक्षक ही उसका अभिभावक होता है. बच्चे के सम्पूर्ण विकास में शिक्षक का बहुत ज्यादा योगदन होता है. बच्चे शिक्षक पर अंधविश्वास करते हैं चाहे वो सही बताये या गलत. आपने कई बार देखा होगा ,अगर हम शिक्षक द्वारा बतायी गयी किसी विषय की गलती को सुधारने का प्रयास करते हैं तो बच्चे मानने से साफ़ इंकार कर देते हैं, क्योंकि बच्चों को उन पर पूर्ण विश्वास होता है. अत: उन्हें गलत जानकारी न दें. इसी तरह शिक्षक का डाँटना-फटकारना, उत्साह बढ़ाना आदि बातें भी बच्चों के नाजुक मन पर असर डालती हैं. शिक्षकों को ध्यान में रखना चाहिये कि हर बच्चे की मानसिक क्षमता एक जैसी नहीं होती और हर बच्चे की पारिवारिक, शैक्षिक तथा आर्थिक पृष्ठभूमि भी अलग होती है. ऐसे में केवल होशियार बच्चों पर ध्यान देना, कमजोर बच्चों को मारना-पीटना, उनका मजाक बनाना आदि भी बच्चों को अंधकार में ढकेलने का काम करता है.
अब मैं बात करती हूँ चौथे कारण की. कापियाँ चैक करना तथा रिजल्ट बनाना बहुत ही जिम्मेदारी का काम है. इन पर बच्चों का भविष्य टिका होता है. शिक्षकों की जरा सी लापरवाही हजारों बच्चों के भविष्य तथा जिन्दगियों के साथ खिलवाड़ कर सकती है. इससे हम अच्छी तरह वाकि़फ हैं आज बोर्ड की परिक्षाओं में प्राइमरी विद्यालयों के शिक्षक तक कापियां चैक करते हैं. उन्हें ना तो विषय की जानकारी होती है और ना ही वो उस स्तर के होते है जो कि बोर्ड की कापियां चैक कर सकें. उऊपर से ज्यादातर शिक्ष्क कापियां चैक करने के लिए संजीदा कम ,उससे मिलने वाले पैसे के प्रति ज्यादा आकर्षित होते हैं. ऐसे में जल्दबाजी में चैक की गयी कापियां क्या रिजल्ट देगीं कहने की जरूरत नहीं है. यही नहीं हमने कइ बार कापियां गायब होने, कूड़े में पायी जाने आदि की भी ख़बरें पढ़ी सुनी हैं यह भी बच्चों के रिजल्ट पर असर डालती हैं. आजकल बोर्ड के रिजल्ट में बहुत ही ज्यादा गल्तियां सामने आ रही हैं. इसी के चलते कई बार बच्चों ने आत्महत्या की है और बाद में पता चला है कि वो बच्चे फर्स्ट क्लास पास हुए थे.
अंत में निष्कर्ष यही निकलता है कि बोर्ड परीक्षा का ना कराया जाना समस्या का हल नहीं है बल्कि इससे जुड़े कारणों में सुधार लाने की आवश्यकता है. बच्चों को मानसिक रूप से सशक्त बनाया जाये साथ ही उन्हें परीक्षाओं से डराने की बजाय परीक्षा के लिये तैयार किये जाने की जरूरत है. जीवन में पग-पग पर एक परीक्षा है वो कहाँ-कहाँ से भागेगें. इसलिए मेरा यह निवेदन है कि बच्चों के भविष्य के साथ-साथ देश के भविष्य से खिलवाड़ ना किया जाये. अगर नींव ही कमजोर होगी तो इमारत कहाँ से खड़ी होगी.
दीपाली पंत तिवारी 'दिशा'
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
10 बैठकबाजों का कहना है :
AAPKE ANUSAR TO NURSERY KA HI BOARD BANA DENA CHAHIYE.
SCHOOLO MEIN PROXY AUR KOTA DELHI MEIN COACHING CENTRO MEIN KAMAI.
JAB SCHOOL MEIN BINA PADHE PMT/IIT/AIEE/BDS MEIN ADMISSION HOTA H TO PHIR KYO ...........
kapil sibbal is very much right.
RAMESH SACHDEVA
बोर्ड खत्म करने से क्या हासिल होगा ?
अजी सवाल के नीचे ही तो आपने बतौरे-जवाब एक तस्वीर लगाई है मुस्कुराते बच्चों की।
क्या यह मुस्कुराहट हासिले-जहाँ नहीं है ?
पल भर की मुस्कराहट किस काम की जो उम्र भर रुलाये
फैसला हो किसी और का और दूसरा कोइ पछताये
कृप्या पहले लेख को ध्यान से पढिये फिर अपनी प्रतिक्रिया दें.
पहली बात तो ये कि यहाँ नर्सरी के बच्चों की बात नहीं हो रही. दूसरी बात ये कि बच्चों को शुरू से जो वातावरण दिया जाता है वही उसके भविष्य का जिम्मेदार होता है.
बच्चों में आत्मविश्वास कि कमी ही होती है जो आत्महत्या करते है..मेरे विचार से बच्चों को शुरू से वातावरण ऐसा मिले कि उनमे आत्मविश्वास कि कमी न हो..साथ कि कुछ बातें माता-पिता को भी धयान में रखनी चाहिए....बोर्ड कि परीक्षा से डर कैसा???और क्योंहो????परीक्षा बोर्ड कि हो, या जिंदगी कि हमें मज़बूत बनती है कमज़ोर नहीं.....
mai neeti sagar ji se sahamat hoon aabhaar
पहले जब दसवीं में बोर्ड की परीक्षा देनी पड़ती थी तब नवीं तब अधिकांश विद्यार्थी पास हो जाते थे और दसवीं में फेल। तब वे अपना परिचय बड़ी शान से कराते थे कि हम दसवीं फेल हैं। फिर राजस्थान में आठवीं में भी बोर्ड हो गया तब अब परिचय है आठवीं फेल। इसलिए व्यक्ति का परिचय बना रहे और वह कह सके कि बारहवीं फेल, इसलिए दसवीं का बोर्ड नहीं होना चाहिए। जो लोग जिन्दगी में परीक्षाओं से भागते हैं वे जिन्दगी भर भागते ही रहते हैं, हासिल कुछ नहीं कर पाते।
Deepali ji,
aapka article aaj ke amarujala mein aayaa hai..blog kona mein..
kripya khareed lein.. aur dekhein...
badhaayee..:)
Tapan ji soochana dene ke liye aapaka bahut bahut dhanyvad.
जी हाँ आपने एक घम्भीर मुद्दे को बयां करता हुआ एक आलेख लिखा. मैंने आपका यह आलेख अमर उजाला में भी पढ़ा. बधाई.
धन्यवाद शामिख जी
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