Monday, March 02, 2009

टी आर पी के युग में शो-पीस बनते बच्चे....

अभी पिछले हफ्ते ही टीवी पर एक नया विज्ञापन आया। इसमें एक बच्चे को दिखाया गया है जो बाहर जाकर अपने दोस्तों के साथ खेलना चाहता है पर उसकी माँ उसे बाहर जाने से मना कर देती है। वो दुखी हो जाता है। तभी वो अलमारी से खिलौने का फोन निकालता है और चुपचाप छत पर चला जाता है जहाँ उसे कोई देख न पाये। वो अपने खिलौने से अपने पापा को फोन करता है और कहता है कि माँ खेलने नहीं जाने दे रही तो आप डाँट लगाओ।ये बच्चे की मासूमियत दिखाई गई है। एक... उसे असली और नकली में भेद नहीं पता...दो उसको ये पता है कि फोन से बात कैसे करते हैं और वो मानता है कि पापा का कहना मम्मी मान जायेगी। थोड़ी देर बाद ही उसकी माँ आकर उसको कहती है कि वो पढ़ाई के बाद खेलने जा सकता है और वो भोला बच्चा सोचता है कि उसकी बात पापा तक पहुँच गई है। और उसके बाद उसके चेहरे पर जो खुशी होती है वो देखते ही बनती है। वो खुशी से झूम उठता है।
इसी तरह की एक मासूम कहानी पिछले सप्ताह ही बाल-उद्यान में प्रकाशित हुई। रचना श्रीवास्तव की कलम से निकली मासूम बच्ची की एक मार्मिक कहानी मेरी माँ सिर्फ़ अच्छी है ,सबसे अच्छी नही । इस कहानी को पढ़कर आप बाल-मन को पढ़ सकेंगे। जान सकेंगे कि छोटे से बच्चे के मन में जो भाव होते हैं वो कितने शुद्ध होते हैं। कोई छल कपट नहीं होता। दीन-दुनिया से दूर उनकी अपनी अलग ही दुनिया होती है। इस कहानी ने मुझे भी मन के भीतर तक झकझोर दिया और मैं सोचने लगा कि यदि ये बचपन है तो एक दूसरा बचपन भी पैदा हो रहा है जो आज की हकीकत भी है...
ये दूसरा बचपन है लॉफ्टर शो का.. ये बचपन है नाचने का...ये बचपन है गाने का...ये बचपन है करोड़पति बनने का...एक ऐसा बचपन जिसमें माँ-बाप अपनी इच्छा को बच्चों पर लादते हैं। छोटे-छोटे बच्चे कम्पीटीशन की इस निर्दयी दुनिया में समय से पहले ही पहुँच जाते हैं। कम्पीटीशन की वो दुनिया जिसमें अच्छे से अच्छा खिलाड़ी भी बाहर हो सकता है। उनके ऊपर बोझ होता है अच्छे गाने का वरना जज से डाँट पड़ेगी। उन्हें चाहिये कि वे लोगों को ज्यादा से ज्यादा हँसायें ताकि न्यूज़ चैनलों की खबर बन सकें। उन्हें अच्छा नाचना होता है ताकि सामने बैठे तीन जज ताली पीट सकें और सीटी बजा सकें। उनके आस-पास होते हैं दर्जनों कैमरे, चारों ओर होती है लाइटें, लोग, बोझ... रीयलिटी शो की एक ऐसी "अनरीयल" दुनिया जो खत्म कर देती है मासूमियत को। एक ऐसी झूठी और दिखावटी दुनिया ..जिसमें छल भी होता है... कपट भी होता है... माता-पिता द्वारा किये गये झूठे एस.एम.एस होते हैं...इंटेरनेट पर जाली वोट होते हैं...नाटक होता..ड्रामा होता है...एक ऐसी दलदल होती है जिसमें बचपन फँस जाता है..ऊँच-नीच का पापड़ा...छुपन-छुपाई..आँख-मिचौली खेलने की उम्र में उन्होंने पकड़ रखे होते हैं माइक..क्योंकि वही हैं जो दिलायेंगे माता-पिता को संट्रो कार...और बनायेंगे लखपति..।
आजकल जब ये शो-पीस बच्चे फूहड़ चुटकुले सुनाते हैं तो सचिन और राहुल महाजन उन्हें जज करते है और उन पर हँसते भी हैं। राहुल महाजन॥एक ऐसा शख्स जो शुरु से अब तक विवादास्पद रहा है। ड्रग्स लेते हुए पकड़े जाना, बिगबॉस में अजीब हरकतें करना और अब यहाँ बच्चों के सामने उसको बैठा देना... मुझे हैरानी होती है देख कर और ये सोचकर कि हमारा भविष्य क्या होने जा रहा है... बच्चे गाते हैं और फिल्मी हस्तियों से मिलते हैं तो बहुत खुश होते हैं। पर क्या ये बच्चे भारत का इतिहास और वर्तमान भी जान पाते हैं? क्या पढ़ाई अब गौण होती जा रही है? हाशिये पर फेंक दिया गया है बचपन के खेलों को? क्यों अब कोई पकड़म-पकड़ाई खेलते नहीं दिखता? क्या टी।वी. प्रोग्राम्स के अलावा नहीं हो सकता है बच्चों का मनोरंजन? क्या ये बच्चे सामान्य बचपन व्यतीत कर पायेंगे? इनका भविष्य केवल अलग अलग रीयलिटी शो में आने-जाने और स्टेज पर नाच-गाने में बीत जायेगा? भारत के लिये संगीत-नृत्य के क्षेत्र में नई प्रतिभाओं को ढूँढने के लिये शुरु किये गये इन शोज़ से ये ये नईं कोंपलें कहीं खिलने से पहले ही मुरझा न जायें? क्योंकि इन सबसे चैनल तो फायदा निकाल ले जायेंगे पर पैरों तले रौंद दिया जायेगा बचपन... कैरम, लूडो और साँप-सीढ़ी वाला बचपन...

तपन शर्मा

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4 बैठकबाजों का कहना है :

अवनीश एस तिवारी का कहना है कि -

कला और हुनर को सही ढंग से प्रदर्शित करना जरुरी है |
लेकिन जो शो का दौर आया है वह केवल व्यावसायिकीकरण (commercialisation) का रूप लिए रहता है |
राहुल महाजन और राखी सावंत क्या किसी का मूल्यांकन करेंगे | कला और हुनर इनके बस की बात ही नही है |

तपन, आप की बातों से सहमत हूँ |
लेख के लिए धन्यवाद |

अवनीश तिवारी

manu का कहना है कि -

जी तपन जी,
और तिवारी जी से भी पूरी तरह सहमत हूँ,,,वाकई ये लोग क्या किसी को जज कर सकेंगे,,,,??
कला से इनका खुद का दूर दूर तक कोई वास्ता नहीं लगता,,,,
हाँ जुगाड़ बाजी जरूर सीखा सकते हैं,,,,,,जो के आज कला पर पूरी तरह से हावी हो चुकी है,,,,,
अगर रचना श्रीवास्तव वाले बाल किरदार को ध्यान से समझा जाए तो,,,,यही कहा जायेगा के बचपने पर जुल्म हो रहा है,,,,,,, साधन सम्प्पन बच्चा,किसी और तरह से परेशान है,साधन हीन किसी और वजह से,,,,

किस तरफ बसता है कहिये तो चहकता बचपन ?
हमने हर सिम्त ही तो ग़मज़दा देखा है उसे ,,

Divya Narmada का कहना है कि -

बचपन-यौवन बेचिए,
बिन बिक्री जग सून.
देश बना बाज़ार है,
क्रेता अफलातून.
बचपन को कैसे सहन,
हो बाजारू बात.
तपन कैमरे की करे,
शैशव पर आघात.
भोलेपन को बेचते,
पालक जा बाज़ार.
सत्य यही मान-बाप से,
बच्चे हैं बेजार.
गिल्ली-डंडा भूलकर,
बने तमाशा आज.
धन-लोलुप मान-बाप को
तनिक न आती लाज.
तपन बधाई लीजिये,
करी उजागर पीर.
बचपन अब धर सकेगा,
अपने मन में धीर.
नन्द बेचते कृष्ण की,
मधुर-मधुर मुस्कान.
सजी हुई दूकान पर,
राधा रस की खान.
'सलिल' काश फिर जी सके,
बचपन के दिन रैन.
तन-मन मनु के साथ मिल,
पाएंगे सुख-चैन

Unknown का कहना है कि -

मुझे ये समझ नही आता जो बच्चे इन शो मे जाते है, उनके मा बाप को सिर्फ पैसा ही क्यो दिख रहा है वो बच्चो के भविष्य के बारे मे क्यो नही सोचते, उन बच्चो मे से कितने बडे होकर फिल्म इंडस्टरी मे टिक पाएगे और यदि नही टिक पाए तो उनके बच्चो का क्या होगा ?, क्या वो depression का का शिकार नही हो जाइगे?
वो सिर्फ उनका बचपन ही नही उनकी पूरी जिन्दगी खराब कर रहे है।

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