ऑस्करों की खुशी से देश दीवाना है, तो यह उचित ही है। इनमें से कई हमारे नहीं हैं। हमारे असली ऑस्कर वे हैं जो संगीत के लिए दिए गए हैं। इसके बावजूद यह कम गर्व की बात नहीं है कि दूसरी बार किसी भारतीय प्रतिभा को अंतरराष्ट्रीय फिल्म सम्मान मिला है। पहला ऑस्कर एक भारतीय को शेखर कपूर की फिल्म 'एलिजाबेथ' में कॉस्ट्यूम के लिए मिला था। इस बार संगीत के लिए तीन ऑस्कर सम्मान मिले हैं। इसके नशे में देश झूम रहा है। यह और बात है कि फिल्म 'स्लमडॉग मिलियनर' को ले कर तरह-तरह के विवाद खड़े हो गए हैं। इस विवाद में कुछ दम भी है। फिर भी ए.आर. रहमान का सम्मान भारत की प्रतिभा का सम्मान है और इससे हम सभी गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं, तो इसमें कुछ भी बेजा नहीं है। सब कुछ के बावजूद सम्मान सम्मान है।
खुशी की यह दीवानगी पहली बार नहीं देखी जा रही है। क्रिकेट में जब भारत की टीम ने विश्व कप जीता था, तब भी ऐसी दीवानगी दिखाई पड़ी थी। कपिल देव राष्ट्रीय हीरो बन गए थे। क्रिकेट का विश्व कप जीतने पर और ज्यादा दीवानगी दिखाई पड़ी, क्योंकि क्रिकेट हमारे देश के मध्य वर्ग को कुछ ज्यादा ही भाता है। गर्व की ऐसी ही लहर तब भी उठी थी, जब सुष्मिता सेन और ऐश्वर्या राय के सौंदर्य को विश्व स्तर की मान्यता मिली थी। अर्मत्य सेन को जब नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया, तो भारत का कद अचानक फिर बढ़ गया। जब 'फॉर्ब्स' पत्रिका द्वारा दुनिया के अमीरतम व्यक्तियों की सूची प्रकाशित की जाती है, तो उसमें भारतीयों की संख्या पढ़ कर हमें कुछ खुशी तो होती ही है। भारतीय सिर्फ साहित्य, खेल, सौंदर्य और अर्थशास्त्र की विद्वत्ता में आगे नहीं हैं, बल्कि दौलत कमाने में भी पीछे नहीं है, यह जान कर अच्छा लगना कहीं से भी अस्वाभाविक नहीं है।
इसके साथ ही, क्या यह भी विचारणीय नहीं है कि जो है, उसकी रोशनी में जो नहीं है, उसका गम और गाढ़ा हो जाता है? बल्कि यह भी कहा जा सकता है कि जो नहीं है, उसकी मात्रा इतनी ज्यादा और इतनी दुखदायी है कि जो थोड़ा-बहुत मिल जाता है, उस पर हम झूमने लगते हैं। दुनिया के भ्रष्टतम देशों की सूची छपती है, तो उसमें भारत का स्थान काफी ऊपर होता है। मानव विकास की कसौटी पर सभी देशों के हालात की जांच की जाती है, तो यही भारत बहुत नीचे चला जाता है। शिक्षा में, साक्षरता में, स्वास्थ्य सुविधाओं में, पौष्टिकता में, बाल मृत्यु दर में, स्त्रियों की सामाजिक हैसियत में, स्त्री विरोधी आचरण में, मानव अधिकारों के सम्मान में -- कौन-सा क्षेत्र ऐसा है, जहां हम सिर ऊंचा कर खड़े हो सकते हैं? कुल मिला कर स्थिति यह है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी स्थिति को देखते हुए हमें कई बार भारतीय होने में शर्म आने लगती है।
यह सच है कि दक्षिण एशिया में भारत का कद उसके आकार और उसकी आबादी के अनुरूप ही ऊंचा है। भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश एक साथ ही आजाद हुए थे -- तब वे एक ही देश थे। इन तीनों टुकड़ों में भारत ही राजनीतिक और आर्थिक रूप से स्थिर रहा है और जीवन के सभी क्षेत्रों में कुछ न कुछ प्रगति की है। लोकतंत्र भी यहां कमोबेश अक्षुण्ण रहा है। इस तरह भारत उपमहादेश में भारत हर तरह से अग्रणी है। दक्षिण एशिया के पूरे संदर्भ में हम दावा कर सकते हैं कि श्रीलंका, नेपाल, भूटान आदि की तुलना में हमारा रिकॉर्ड प्रशंसनीय रहा है।
लेकिन एशिया के स्तर पर ? इसी एशिया में चीन है, जापान है, कोरिया है तथा अन्य कई देश हैं जिन्होंने प्रगति की दिशा में शानदार रिकॉर्ड बनाए हैं। यहां तक कि कुछ मामलों में श्रीलंका भी हमसे आगे है। सवाल यह है कि हम अपने विकास की तुलना सिर्फ दक्षिण एशिया के परिदृश्य से क्यों करें, वरन पूरे एशियाई संदर्भ में क्यों न करें ? और एशिया में क्या रखा है? जब तुलना ही करनी है, तो विश्व स्तर पर अपनी तुलना क्यों न करें? भारत के लोग अपने को इतना हीन क्यों मानें कि दुनिया के विकसिततम देशों से प्रतिद्वंद्विता करने की सोच ही न सकें?
शुरू में हमने जिन उदाहरणों का हवाला दिया है, उनसे पता चलता है कि व्यक्तिगत स्तर पर भारत में प्रतिभा की कोई कमी नहीं है। ज्ञान-विज्ञान और कला का कोई ऐसा क्षेत्र नहीं है, जिसमें कोई न कोई भारतीय सितारा न जगमगा रहा हो। लेकिन ये सभी क्षेत्र ऐसे हैं, जहां व्यक्तिगत प्रतिभा और साधना से खास-खास व्यक्तियों ने शिखर की ऊंचाई छू ली है। हुसैन और ए.आर. रहमान बनने में परिस्थितियों का योगदान अवश्य है, पर मुख्य योगदान इन कलाकारों का अपना ही है। ध्यान देने की बात यह भी है कि इन दोनों कलाकारों का बचपन अत्यंत प्रतिकूल परिस्थितियों में बीता था, लेकिन इन्होंने लगातार तपस्या कर अपने को बनाया और नाम हासिल किया। हम फेल वहां होते हैं, जहां सामाजिक नियोजन और सामूहिक कर्म की चुनौती आती है। तो क्या हमारी सामाजिक दृष्टि और सामाजिकता में कोई भारी कमी है जिसकी वजह से हम समूह के तौर पर उल्लेखनीय विकास नहीं कर पा रहे हैं? व्यक्ति के स्तर पर उत्कर्ष हासिल करना हमारे लिए आसान रहता है, पर राष्ट्र के स्तर पर विकास करने में हम अपने महादेश एशिया के ही अनेक देशों से पिछड़ जाते हैं। इस सवाल पर गहराई से विचार नहीं किया गया और हमने अपनी आदतें नहीं बदलीं, तो हमारे चमकते हुए सितारों की छवि भी धूमिल होने को बाध्य है।
इसके अलावा, सामूहिक विकास का संबंध व्यक्तिगत विकास से भी है। इतने बड़े फिल्म उद्योग में अभी तक सिर्फ चार ही ऑस्कर क्यों ? नोबेल पुरस्कारों की बारी आती है, तो हम मुंह देखने लगते हैं। इतने विशाल देश में कुछ ही चित्रकार, कुछ ही संगीतकार, कुछ ही खिलाड़ी, कुछ ही अभिनेता, कुछ ही विद्वान और कुछ ही वैज्ञानिक क्यों चर्चित हो कर रह जाते हैं? पश्चिमी जगत का कोई भी देश, रूस को छोड़ कर, आबादी में हमसे बड़ा नहीं है। किसी भी देश की सभ्यता-संस्कृति हमसे ज्यादा पुरानी नहीं है। अगर हम सामूहिक रूप से विकास करने में सफल होते हैं, तो इनसे सौ गुना ज्यादा कलाकार और ज्ञानी-विज्ञानी हम पैदा कर सकते हैं। जो है, उसकी मात्रा बताती है कि जो नहीं है, उसमें कितनी बड़ी संभावनाएं छिपी हुई हैं। इसलिए निवेदन यह है कि जो है, उस पर उत्सव मनाते समय उसे न भुलाया जाए जो नहीं है पर हो सकता है।
राजकिशोर
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2 बैठकबाजों का कहना है :
आपके विचार पड़े,बहुत कुछ आपके विचारों से सहमत हूँ!की ...हम फेल वहां होते है,जहाँ सामाजिक नियोजन और सामूहिक कर्म की चुनौती आती है!तो क्या हमारी सामाजिक द्रष्टि और सामाजिकता में कोई भारी कमी है?जिसकी वजह से हम समूह के तौर पर उल्लेखनीय विकास नहीं कर पा रहे है?.........मैं इस बैठक में पहली बार आई हूँ!इसलिए मुझे यहाँ के नियम भी नहीं पता बस जो अच्छा लगा कह दिया!
पहली बात तो की नीति जी आपका हमारे बैठक में स्वागत है........
आप आते रहे और अपने विचारों से अवगत कराते रहे........
रही बात आलेख की तो राजकिशोर जी की बात से व्यक्तिगत तौर पर मैं सहमत हूँ........
नीति जी,कहीं न कहीं हमारी सामाजिक दृष्टि में कमी है ही........अन्यथा ऐसी स्थिति में हम नहीं होते ........
आलोक सिंह "साहिल"
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