आलोक सिंह साहिल हिंदयुग्म को सबसे ज़्यादा पढने वाले पाठकों में से हैं....28 दिसंबर 2008 को आयोजित हिंदयुग्म के वार्षिकोत्सव में आलोक को सम्मानित भी किया गया...आलोक इतने भावुक हुए कि हिंदयुग्म से जुड़ने की अपनी यादों भरा एक लेख बैठक पर भेज दिया...हम इसे अपने पाठकों तक पहुंचा रहे हैं....आप भी अपनी तरह-तरह की यादें हमसे बांट सकते हैं....
आज से ठीक १५ महीने पहले ढेर सारे सपनो और एक हकीकत के साथ दिल्ली आना हुआ.दिल्ली..दिल वालों की नगरी,आकाओं का बसेरा,मीडिया का गढ़...जाने क्या क्या...हाँ,सपने जो थे कि मीडिया में जाना है और बहुत कुछ करना है..ब्ला..ब्ला..ब्ला.. हकीकत जो थी वो मैं था,ख़ुद,जो ये सब कर सकता है.
अपने बारे में एक बात-शुरू से ही मैं लोगो का कीड़ा रहा हूँ,हमेशा लोगों से घिरा रहने वाला मानुस,शायद इसलिए कि कल्चरल गतिविधियों/मंच से बावस्तगी कुछ ज्यादा ही रही है.पर,दिल्ली तो बिल्कुल नई,अनजान,अपरिचित.
कहाँ जाऊं,किससे बात करूँ,किसके साथ हंसू,किससे अपनी तन्हाई शेयर करूँ...ये बात है ठीक १५ महीने पहले की.
एक नए परिवार और नए संगी साथियों की तलाश मुझे साईबर कैफे के एकांत केबिन तक ले गई.ये अलग बात है कि मैं दसवीं क्लास से ही नेट सेवी रहा हूँ,पर,इसबार मकसद कुछ और ही था..खोज...एक नए जहाँ की.
कहते हैं, ढूंढे तो भगवान् भी मिल जाता है. खैर,मेरे साथ भगवान् के मिलने वाली घटना तो नहीं हुई, पर,एक रात एक फोन काल मिला किसी निखिल आनंद गिरि का. निखिल आनंद गिरि,... किसी खूंसट-का नाम सा फील होता है न!
मुझे भी ऐसा ही फील हुआ था. जो आकृति मेरे जेहन में बनी, वो एक ऐसे खूंसट की थी, जो अपनी पहचान में कहता है 'नाम ही काफ़ी है'..
बातों-बातों में उसने मेरे हिन्दी से लगाव और नेट सेवी होने का जायज़ा लिया और बताया कि हिन्दयुग्म टाईप का कुछ है जहाँ कुछ ख़ुद को बेहद जहीन समझने वाले लोग कविता-कहानी वगैरह लिखते पढ़ते हैं (माफ़ी चाहूँगा पर पढने लिखने वाला काम तो ऐसे ही लोग करते हैं).
२-४ दिन बीते, वो जो निखिल आनंद गिरि था वो अब निखिल भइया बन चुके थे.उन्होंने मुझे जामिया मिल्लिया इस्लामिया हास्टल बुलाया जहाँ वो रहते थे (अब वहां ख़ुद की जिंदगी बसर होती है).
अपने अत्यन्त व्यस्त जीवन (ये व्यस्तता सभी मीडिया वालों के चोंचले हैं,अब ख़ुद भी अपनाना पड़ता है..) से ३-४ मिनट का वक्त निकालकर बताया कि हिन्दयुग्म है क्या, और उसमे करना क्या है...चूँकि,कुछ बेहद समझदार लोगों की फेहरिस्त में मैं ख़ुद को भी शामिल मानता हूँ, इसलिए ३-४ मिनट ही काफ़ी साबित हुए.
तो इनसब प्रक्रियायों से गुजरते हुए मैंने हिंद-युग्म पर दस्तक दी, पाठक की तरह.
पढ़ा...खूब पढ़ा...हिन्दयुग्म को पढ़ते हुए एक-सवा महीना ही बीता कि यूनिपाठक का परिणाम घोषित हुआ, उसमें तीसरे या चौथे स्थान पर मैं था. मैं परेशान,अरे! ये क्या हो गया, मैंने...इतना तो नहीं पढ़ा था, या फ़िर हो सकता है जितना पढ़ा था उतना ही काफ़ी था.उस समय तक मैं रोमन में टिप्पणी किया करता था. शुरुआत के २०-२२ दिनों बाद कहीं जाकर हिन्दी में लिखना शुरू कर पाया.
एक राज की बात बताऊँ (चूँकि,अब सब अपने हैं तो अब छिपाने का कोई मतलब नहीं बनता), तब तक मैं घंटे भर में २० टिप्पणी देने वाला हुआ करता था. पर,उस परिणाम का एक सकारात्मक असर हुआ. मैंने सोंचा,यार..अगर हवाबाजी ने इस मुकाम तक पहुँचा दिया तो क्यों न सलीके से और सिलसिलेवार पढ़ा लिखा जाए. हँसना नहीं जी....हा हा हा..(यूप! सॉरी..) उस समय के बाद मैंने सही मायनों में पढ़ना शुरू किया,हिन्दी में लिखना तो शुरू हो ही चुका था,अब अन्दर से फील गुड होने लगा. इसी बीच कुछ एक दफे कविता लिखने का पुराना शौक जवान हुआ,३-४ बार १३वें ,१४वें,१८वें पायदान पर कवितायें पहुँची और प्रकाशित भी हुयीं.(तब,यूनिकवि प्रतियोगिता की २०-२५ कवितायें प्रकाशित होती थीं,तो मेरा नंबर भी आ ही जाता था,हालांकि लगभग हर बार भारतवासी भाई,मुझे कोसते मेरी कविता के लिए. हाहाहा..दुहस्वप्न!).
पर,यह एक फेज भर था,जिनसे मैंने जल्द ही छुटकारा पा लिया (अरे,अरे,.. मैंने अच्छी कवितायें लिखना नहीं शुरू किया बल्कि कविता लिखना ही बंद कर दिया,कमबख्त,इस अकविता के चोंचले ने मेरे जैसे न जाने कितने 'बेचारे' कवियों की पुंगी बजा दी).
तब तक हिन्दयुग्म पर मेरे सवा दो-ढाई महीने बीत गए थे (मैं दिल से पूरी तरह युग्मी हो चुका था,हूँ भी.) और साथ ही बीतने को था वह साल २००७ कि फ़िर एक घोषणा प्रकाशित हुई-आलोक सिंह "साहिल" को हिंद युग्म पाठक सम्मान-२००७ से नवाजा जायेगा....
क्रमश :
आलोक सिंह साहिल
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8 बैठकबाजों का कहना है :
:) यूँ याद करके लिखना भी अच्छा होता है कभी कभी ...बधाई
निखिल भाई.. "खूंसट".. :-)
मुझे भी कुछ याद आ गया...
जुलाई २००७ की बात है शायद.. जब निखिल आनंद गिरी नाम का शख्स यूनिकवि बना था... उसका नम्बर भी पोस्ट पर था... मैं तब तक हिन्दयुग्म का नियमित पाठक बन चुका था..
मैंने निखिल की कविता अपने मित्र को पढ़ाई.. उसे बहुत अच्छी लगी... फोन नम्बर पढ़ा और मेरे मित्र ने तुरंत निखिल को फोन लगाया.. पता नहीं निखिल भाई को याद है या नहीं..
पर बात खत्म करने पर मेरे दोस्त ने कहा... "यार पता नहीं कौन है.. हिन्दी और हिन्दयुग्म ही कहे जा रहा है बस...कि बहुत अच्छा काम कर रहा है युग्म..वगैरह वगैरह...बात शुरु हुई तो बोलता ही गया...."
कुछ ऐसा कहा था मेरे दोस्त ने... मैं केवल मुस्कुरा कर रह गया.. :-)
आगे का लेख भी लिखो... देखें और कितने खूसट हैं? :-)
हा हा हा...मज़ा आ गया....तपन भाई, मुझे सचमुच याद नहीं...कौन थे आपके दोस्त...
ये "खूंसट" पहली बार अच्छा लगा....
निखिल
रंजना जी,
आपका बैठक में स्वागत है....
निखिल
alok bhai,aapko yahan padhna achha laga
Well, that person was me :)
I too have a pleasant smile while reading this post and ofcourse reading tapan's comment. Old things come again.
I read the poem shown by tapan and liked a lot. While calling the person, I want to appreciate him on his work. But when I called and, after "hello" custom, just say "I like the poem you have written and posted on blog 'hindyugm'."; he replied "Thanks. From where you are talking?
And then after, he started like a pre-recorded message on the Hindyugm. Well, I was not prepared at that time to tackle this bombardment. At that time, I internally feel and compare him with a sales person who come to your house and starts his speech to promote his product (and you have no option other than just to quietly listen). I feel that "Oh! God, with whom I am taking ... he is not ready to listen. I wasted my call and the enthusiasm to congrats him."
And I too use the words "या तो पागल है या खूंसट है" ... :)
But now, I know Hindyugm and usually browse it as a silent user. I know it better because Tapan started to discuss it with me. And at present scenario, I feel the Nikhil was not the person that I thought, ... :)
Regards,
Prabhat
निखिल भाई... प्रभात के साथ मैं पिछली कम्पनी में काम करता था और उससे हिन्दयुग्म के बारे में बाते ं करता था...
आज मैंने उसको ये पोस्ट दिखाई.. और फिर उसने भी कमेंट कर दिया...
खैर... शायद हम केवल फोन पर बात करके या चैट करके किसी को पहचान नहीं पाते....(एक और वाकया याद आ गया..पर वो बाद में..)
मिलना जरूरी होता है... ये मिलना और मीटिंग करना हममें आपस में भाईचारा बढ़ाता है.. एक दूसरे की बातें समझ पाते हैं.. और भी बहुत कुछ....
खूंसट ही तो है ग़लत क्या कहा....हा हा हा पर प्यारा भी है बहुत ....
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