मेरे पास रिश्वत खिलाने के लिये पैसे नहीं हैं और इस पर से अब मेरा यक़ीन उठ चुका है कि बग़ैर रिश्वत खिलाये मेरा काम हो पायेगा। दिल्ली में नेताओं के चक्कर काट रहे मेरे गांव से आये एक क़रीबी मिलने वाले ने जब मुझसे ये कहा तो मैं सोच में पड़ गया। वो देश की राजधानी में खड़ा था। एक ऐसे ज़िले से आया हुआ था जिसे फ़िलहाल बहुत असरदार ज़िला माना जा सकता है, रायबरेली। फिर भी उसका भरोसा हिला हुआ था।
अमरीकी वित्तीय संकट पर प्रेज़ीडेंट इन वेटिंग ओबामा ने पिछले दिनों एनबीसी के कार्यक्रम – मीट द प्रेस – में बोलते हुए कहा कि “अमरीकियों को एक बेहतर कल से पहले अभी और मुश्किलों से गुज़रना होगा और हमें यक़ीन है कि हम ऐसा ज़रूर कर पाएंगे क्योंकि इतिहास गवाह है कि मुश्किलों से उबरना हमारा राष्ट्रीय चरित्र रहा है, वो राष्ट्रीय चरित्र जो हमेशा आशावादी जज़्बे से भरा रहता है, जो हमेशा आगे देखना चाहता है इस यक़ीन के साथ कि बेहतर दिन ज़रूर आयेंगे।”
दरअसल कोई देश हो या व्यक्ति विशेष, भविष्य का आधार वो किसी न किसी यक़ीन पर ही रखता है और उसी के सहारे वर्तमान को भोगता है। ये एहसास तब और ज़रूरी हो जाता है जब किसी मुश्किल के दौर से गुज़रना हो। लेकिन जब हम ख़ुद यही सवाल करते हैं कि क्या भरोसा है? तो जवाब में एक न ख़त्म होने वाली ख़ामोशी से सामना करना पड़ता है और जब अपने चारों तरफ़ देखते हैं तो ये ख़ामोशी सन्नाटे में बदल जाती है। शायद हमारी सबसे बड़ी मुश्किल ही ये है कि हमारे यक़ीन की मौत हो गई है। हमें अब किसी चीज़ पर यक़ीन नहीं आता। कभी यक़ीन था, अब नहीं है। नौकरी रह पायेगी? मालूम नहीं। नौकरी मिल जायेगी? कौन जाने। वक़्त बदलेगा? किसे ख़बर। दर्द कम होगा? क्या पता।
टूट चुके भरोसे की ये मिसालें तो आम-आदमी से जुड़ी हुई हैं। अब आइये देश के दीवाने ख़ास में शिकस्ता यक़ीन का चेहरा कैसा है, ये देखते हैं। 26/11 को ताज में आतंकवादियों के घुस जाने के बाद जिस तेज़ी से कार्यवाही होनी चाहिये थी वो नहीं हो पाई जिसकी वजह से सुरक्षा व्यवस्था पर से समूह के प्रमुख रातन टाटा का भरोसा उठ चुका है और उन्होंने घोषणा कर दी है कि अब वो बाहरी विशेषज्ञों की मदद से अपनी सुरक्षा की ज़िम्मेदारी ख़ुद उठायेंगे। रतन टाटा की मजबूरियों को समझा जा सकता है क्योंकि सेवा उद्योग तो भरोसे पर ही फलता फूलता है।
दूर क्यों जाते हैं ख़ुद से पूछिये, आपको अपनी पुलिस पर भरोसा है? रिश्वत लेते बाबुओं पर भरोसा है? दुकान बन चुके अस्पतालों और दवाओं पर भरोसा है? खाने-पीने के सामानों पर भरोसा है? अपने नेताओं पर भरोसा है? धर्म के ठेकेदारों पर भरोसा है? आपको क्या जवाब मिला? अब ये हमारी आदत का हिस्सा बन चुका है कि जो कुछ हमारे सामने है उसके पीछे देखने की कोशिश हम पहले करते हैं क्योंकि हमें भरोसा नहीं है कि हम जो कुछ देख रहे हैं वो वही है जो हम देख रहे हैं। हो सकता है कि सामने जो कुछ है वो सच हो लेकिन यक़ीन के साथ ये कह पाना नामुमकिन सा हो गया है।
जवाबदारी लोग भूल चुके हैं। लगाव की ज़बान उन्हें बेतुक की लगती है। चकर-मकर इस दुनिया में लोग जानते ही नहीं कि किसी चीज़ में पूरी तरह डूब जाने का अर्थ क्या होता है। और जब ऐसे हालत में किसी संकट से दो-चार होना पड़ता है तो बस जो कुछ सामने पड़ता है उसी पर इल्ज़ामों का ठीकरा फोड़ डालना ही एक अदद चारा नज़र आता है। दुनिया की बातें छोड़िये आपको अपने किये पर यक़ीन है? बड़ी संभावनाएं हैं कि आप “नहीं” कह दें। और इस नहीं पर आपको शर्मिंदा होने की भी कोई ज़रूरत नहीं है क्योंकि आप जो कुछ करते हैं उसमें आपका वो परिवेश भी हिस्सेदार है जिसके बीच आप रहते हैं, चारों तरफ़ से आपके भरोसे का अपहरण हो रहा है, ऐसे में ख़ुद पर यक़ीन कर पाना आपके बस में भी तो नहीं है।
जो कुछ दिख रहा है उसे ख़ारिज करते चलो। ख़ारिज करने के इस दौर में जब हम नेताओं को, नौकरशाही को और देश की सुरक्षा व्यवस्था को सिरे से ख़ारिज कर रहे हैं हमें ये भी देखना चाहिये कि हमारे पास विकल्प क्या है। इसलिये की ख़ारिज करना तो हमेशा बहुत आसान होता है लेकिन ख़ारिज कर देने के बाद बचे हुए शून्य में ख़ुद को खड़ा करना और भी ख़तरनाक है अगर ये महज़ लफ़्फ़ाज़ी नहीं है तो। “द सेवन हैबिट्स ऑफ़ हायली इफ़ेक्टिव पीपुल” के लेखक स्टीफ़न कवी का कहना है कि जब भरोसा ज़्यादा होता है तो रफ़्तार और उत्पादकता बढ़ जाती है। जब भरोसा कम हो तो उन्हीं चीज़ों में ख़तरनाक गिरावट आ जाती है। आपके सामने एक दान पात्र रखा है। उसपे लिखी इबारत आपसे अंशदान का अनुरोध कर रही है। इस दान से यतीम बच्चों का या रोगियों का भला होगा। आपके पास दल रुपये का नोट भी है जिसके न होने से आपका कोई नुक़सान नहीं होने वाला। लेकिन हज़ारों रुपये फूंककर शापिंग का मज़ा लेने वालों को यक़ीन ही नहीं है कि उनके मात्र दस रुपये सही काम में लगेंगे। और इस बेयक़ीनी की वजह से दानपात्र भीड़ में अकेला पड़ा रहता है। अगर यक़ीन आ जाय तो फिर एसे अनुरोधों को कहीं और भटकने की ज़रूरत ही नहीं रहेगी। यक़ीन इस अंशदान को अरबों खरबों में बदल सकता है लेकिन क्या करें कमबख़्त यक़ीन नहीं है।
समय की अक्कासी करते हुए बिहार के शहंशाह आलम की कविता ‘डराता है ये समय’ कितनी तर्कसंगत लगती है - आग का दरिया है मेरे यार, अपना यह समय, सपने में आते हैं भयानक डायनासोर , नहीं पढ़ा हमने कोई ऐसा विज्ञापन न देखा, जिसमें गारंटी दी गई हो पुरसुकून समय की… कुछ समय पहले महिला एवं बाल कल्याण मंत्री रेनुका चौधरी ने ये कहकर कि भारतीय पुरुष भरोसे के क़ाबिल नहीं हैं एक नये अविश्वास का उदधाटन कर दिया था। ज़ाहिर है कि रेनुका जी औरतों के हक़ में ये बात कह रही थीं और विषय था एचआईवी संक्रमण की रोकथाम। लेकिन बात तो उसी बे-यक़ीनी की है जिसपर हम आंसू बहा रहे हैं।
लेकिन यही बे-यक़ीनी ही एक नये यक़ीन की शुरूआत भी हुआ करती है। हमारे हरदिल अज़ीज़ ज़मीर भाई ने हमारे इन आसुओं को पोछते हुए कहा। कहने लगे राजस्थान के बलवंतपुरा चेलासी के लोगों की चरफ़ देखो। उन्हें जब ये यक़ीन हो गया कि उनकी कोई सुध नही लेगा तो गांववालों ने ख़ुद ही रेलवे स्टेशन बना लिया। बे-यक़ीनी ने सामुहिकता का जो जज़्बा एक गांव को दिया वो अपने देश में आ जाय तो क्या बात है।
लेकिन फ़िलहाल हालात ये हैं कि चारों तरफ़ माहौल बेयक़ीनी का है। और इंतेहा तो ये है कि आतंकवाद के इस दौर में मौत पर से भी लोगों का यक़ीन उठता जा रहा है। और अगर कभी ज़िदा दिखने वाले इंसान से पूछ बैठिये कि भाई साहब जीना तो बस इसे ही कहते हैं तो जवाब मिलता है ये भी कोई जीना है लल्लू।
---नाज़िम नक़वी
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10 बैठकबाजों का कहना है :
बहुत अच्छा लिखा है। बधाई स्वीकारें।
किसी और पर यकीन करने से पहले इंसान को ख़ुद पर यकीन करना सीखना होगा, वरना बेयकीनी तो बढती ही जानी है .
बहुत अच्छा लिखा गया है, शुभकामनाएं
पूजा अनिल
|| ख़ुद गरजी के दौर में रोशन ,
अब भी उन्हीं के किस्से है..
सब पे भरोसा कर लेते थे,
पागल जैसे लोग थे वो..||
यकीन करना इंसान की फितरत है. अगर इंसान यकीन नहीं करेगा तो जिंदगी बेमजा हो जायेगी. यह सही है कि यकीन अकसर टूटता है, पर इस कारण से इंसान यकीन करना छोड़ नहीं सकता. यह यकीन ख़ुद से शुरू होता है. पहले ख़ुद पर यकीन, फ़िर दूसरों पर यकीन. गुड्डी फ़िल्म में स्कूल में सुबह की प्रार्थना में, एक लाइन थी - "दूसरों की जय से पहले ख़ुद को जय करें".
बिल्कुल सही लिखा नकवी जी...
आलोक सिंह "साहिल"
टूट गया है सिस्टम से, रम्च-मात्र विश्वास.
आम आदमी कह रहा, बची ना कोई आस.
बची ना कोई आस, यही मृत्यु का लक्षण.
सिस्टम मरा है, राष्ट्र-अमर, समझो शुभ लक्षण.
कह साधक इस हिन्दु-राष्ट्र का चमत्कार है.
आत्मा अमर-देह नश्वर,संस्कृति-सार है.
तुम्हारे पांव के नीचे कोई ज़मीन नहीं,
कमाल ये है,फिर भी तुम्हें यक़ीन नहीं..
निखिल..
निखिल... बधाई... बहुत अच्छा शेर कहा है तुमने... इसकी दूसरी पंक्ति यूं कर लो तो वज़न में आ जाय... कमाल ये है कि फिर भी तुम्हें यक़ीन नहीं।।
नाज़िम नक़वी
मनु जी... आपका शेर पढ़कर लगा जैसे मुझसे एक क़फ़ुया छूट गया था और आपने उसे पूरा कर दिया... बधाई
नाज़िम नक़वी
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