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अचानक जनसत्ता में यह खबर देखकर मुझे यकीन ही नहीं हुआ कि शमशेर जी नहीं रहे। 14 दिसंबर को उनसे बात हुयी थी तब उन्होंने बताया कि स्वास्थ्य ख़राब है लेकिन मुझे न इतनी गम्भीर बीमारी की उम्मीद थी और न ही उन्होंने कोई संकेत दिया। वे मेरे परिचित और लगभग मित्र तभी हो गए थे जब मैं दिल्ली 1997 में आया। इसकी एक दिलचस्प कहानी यह है कि उन दिनों नफीस अफरीदी हिंद पॉकेट बुक्स में संपादक थे और उन्होंने मेरे और शमशेर सहित 3-4 और लोगों को एक पुस्तक श्रृंखला के लेखक के रूप में नामित किया था। लेकिन चूँकि वह योजना और सदिच्छा अफरीदी साहब की ही थी इसलिए उसे प्रकाशक दीनानाथ मल्होत्रा ने स्वीकृत नहीं किया। उनका कहना था कि यह योजना बनाने से पहले उनसे एक बार पूछ लेना चाहिए था। लेकिन अफरीदी साहब ने हमारी ख़ुशी का ज्यादा ख्याल किया और पहले हमें ही नियुक्त कर लिया। भले ही यह योजना सफल न रही हो लेकिन मैं तो फूल कर कुप्पा हो गया कि अच्छा, चलो किसी ने तो मुझे योग्य समझा। यह देखकर मुझे और ख़ुशी हुयी कि मेरे ही साथ एक और सज्जन इस कदर फूले हुए हैं हैं कि बस छलक छलक पड़ रहे हैं। वे शमशेर अहमद खान थे।
धीरे-धीरे हमारा बात-विचार-व्यव्हार आगे बढ़ने लगा। शमशेर अत्यंत मिलनसार, सहज, महत्वाकांक्षी, योजनावीर लेकिन मेहनती व्यक्ति थे। वे अक्सर अपना समय और पैसा खर्च करके संस्कृति और साहित्य के लिए अनेक काम करते। अनेक पत्रिकाओं के लिए उन्होंने गृहमंत्रालय के केन्द्रीय हिंदी संसथान में खरीदे जाने की स्वीकृति दिलवाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। वे अपने चित्रों और लेखों को व्यापक पाठक वर्ग तक पहुँचाना चाहते थे।
जो सबसे महत्वपूर्ण बात गौर करने की है कि वे बच्चों के लिए वृत्तचित्र और फिल्मे बनाना चाहते थे और पर्यावरण पर उनकी कई पुस्तकें बच्चों के लिए ही छपीं। वे संभवतः एक सहज पाठक वर्ग तक पहुँचना चाहते थे और इसीलिए लगातार सक्रीय रहते थे।
उन्होंने एक मित्र से से मुझे मिलवाया जो इग्नू में हैं और चाहते थे कि जो वृत्तचित्र मैंने बनाया है वह वहाँ से प्रसारित हो। वह मित्र दलजीत सिंह सचदेवा यारबाश और सच्चा जाट जरूर है लेकिन फिल्मों के मामले में उसकी किसी से तुलना नहीं है। बिलकुल अपने ढंग का है। लिहाज़ा मेरी फ़िल्में क्या प्रसारित होतीं लेकिन वह साला दोस्त जरूर बढ़िया बन गया। शमशेर जब भी मिलते पूछते क्या उसने कोई काम कराया और उनके जीते जी जवाब नहीं ही था।
विगत दिनों अंदमान यात्रा से लौटकर शमशेर कुछ फूटेज लाये जिसपर वे एक डॉक्यूड्रामा बनाना चाहते थे। इसलिए उन्होंने मुझे घर बुलाया। हैंडी कैम से लिया गया वह फूटेज इतना ख़राब और नाकाफी था कि उसपर कुछ भी बनाना संभव नहीं था। इस बात से वे बहुत दुखी थे। वे किसी ऐसे काम के माध्यम से लोगों के सामने आना चाहते थे जिससे लोग उन्हें लम्बे समय तक याद रखें।
अचानक बीमार होना और इस तरह चले जाना मुझे इसलिए भी अखर रहा है क्योंकि वे अपने ऑर्थराइटिस से पीड़ित बेटे को स्वस्थ देखना चाहते थे। एक बार उसके बारे में बहुत भावुक होकर वे बोले- "यह भी एक ख़राब फूटेज है यादवजी, मैं इसे एक अच्छी फिल्म कि तरह शानदार देखना चाहता हूँ।"
---रामजी यादव