Wednesday, February 09, 2011

शमशेर सहज मित्र थे



अचानक जनसत्ता में यह खबर देखकर मुझे यकीन ही नहीं हुआ कि शमशेर जी नहीं रहे। 14 दिसंबर को उनसे बात हुयी थी तब उन्होंने बताया कि स्वास्थ्य ख़राब है लेकिन मुझे न इतनी गम्भीर बीमारी की उम्मीद थी और न ही उन्होंने कोई संकेत दिया। वे मेरे परिचित और लगभग मित्र तभी हो गए थे जब मैं दिल्ली 1997 में आया। इसकी एक दिलचस्प कहानी यह है कि उन दिनों नफीस अफरीदी हिंद पॉकेट बुक्स में संपादक थे और उन्होंने मेरे और शमशेर सहित 3-4 और लोगों को एक पुस्तक श्रृंखला के लेखक के रूप में नामित किया था। लेकिन चूँकि वह योजना और सदिच्छा अफरीदी साहब की ही थी इसलिए उसे प्रकाशक दीनानाथ मल्होत्रा ने स्वीकृत नहीं किया। उनका कहना था कि यह योजना बनाने से पहले उनसे एक बार पूछ लेना चाहिए था। लेकिन अफरीदी साहब ने हमारी ख़ुशी का ज्यादा ख्याल किया और पहले हमें ही नियुक्त कर लिया। भले ही यह योजना सफल न रही हो लेकिन मैं तो फूल कर कुप्पा हो गया कि अच्छा, चलो किसी ने तो मुझे योग्य समझा। यह देखकर मुझे और ख़ुशी हुयी कि मेरे ही साथ एक और सज्जन इस कदर फूले हुए हैं हैं कि बस छलक छलक पड़ रहे हैं। वे शमशेर अहमद खान थे।

धीरे-धीरे हमारा बात-विचार-व्यव्हार आगे बढ़ने लगा। शमशेर अत्यंत मिलनसार, सहज, महत्वाकांक्षी, योजनावीर लेकिन मेहनती व्यक्ति थे। वे अक्सर अपना समय और पैसा खर्च करके संस्कृति और साहित्य के लिए अनेक काम करते। अनेक पत्रिकाओं के लिए उन्होंने गृहमंत्रालय के केन्द्रीय हिंदी संसथान में खरीदे जाने की स्वीकृति दिलवाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। वे अपने चित्रों और लेखों को व्यापक पाठक वर्ग तक पहुँचाना चाहते थे।

जो सबसे महत्वपूर्ण बात गौर करने की है कि वे बच्चों के लिए वृत्तचित्र और फिल्मे बनाना चाहते थे और पर्यावरण पर उनकी कई पुस्तकें बच्चों के लिए ही छपीं। वे संभवतः एक सहज पाठक वर्ग तक पहुँचना चाहते थे और इसीलिए लगातार सक्रीय रहते थे।
उन्होंने एक मित्र से से मुझे मिलवाया जो इग्नू में हैं और चाहते थे कि जो वृत्तचित्र मैंने बनाया है वह वहाँ से प्रसारित हो। वह मित्र दलजीत सिंह सचदेवा यारबाश और सच्चा जाट जरूर है लेकिन फिल्मों के मामले में उसकी किसी से तुलना नहीं है। बिलकुल अपने ढंग का है। लिहाज़ा मेरी फ़िल्में क्या प्रसारित होतीं लेकिन वह साला दोस्त जरूर बढ़िया बन गया। शमशेर जब भी मिलते पूछते क्या उसने कोई काम कराया और उनके जीते जी जवाब नहीं ही था।

विगत दिनों अंदमान यात्रा से लौटकर शमशेर कुछ फूटेज लाये जिसपर वे एक डॉक्यूड्रामा बनाना चाहते थे। इसलिए उन्होंने मुझे घर बुलाया। हैंडी कैम से लिया गया वह फूटेज इतना ख़राब और नाकाफी था कि उसपर कुछ भी बनाना संभव नहीं था। इस बात से वे बहुत दुखी थे। वे किसी ऐसे काम के माध्यम से लोगों के सामने आना चाहते थे जिससे लोग उन्हें लम्बे समय तक याद रखें।
अचानक बीमार होना और इस तरह चले जाना मुझे इसलिए भी अखर रहा है क्योंकि वे अपने ऑर्थराइटिस से पीड़ित बेटे को स्वस्थ देखना चाहते थे। एक बार उसके बारे में बहुत भावुक होकर वे बोले- "यह भी एक ख़राब फूटेज है यादवजी, मैं इसे एक अच्छी फिल्म कि तरह शानदार देखना चाहता हूँ।"

---रामजी यादव

Tuesday, February 08, 2011

शमशेर अहमद खान एक साधारण लेखक से कहीं अधिक थे



अभी थोड़ी देर पहले ही मित्र रामजी यादव ने बताया कि जनसत्ता में खबर छपी है कि शमशेर अहमद खान नहीं रहे। मेरे लिए यह विश्वास करने वाली सूचना नहीं थी। रामजी ने बताया कि आज के जनसत्ता में खबर छपी है कि लम्बी बीमारी के बाद 7 फरवरी 2011 को उनका निधन हो गया। मुझे यक़ीन इसलिए भी नहीं हुआ क्योंकि नवम्बर तक उनसे लगातार बात हुई थी। उन्होंने अंतिम बार यह ज़रूर कहा था कि आजकल छुट्टी पर हूँ। चेहरा और शरीर के कई अन्य भाग बुरी तरह से फूल गये हैं। इस स्थिति में कहीं आ-जा नहीं सकता। लेकिन उन्होंने यह कभी नहीं बताया कि उन्हें ब्लड-कैंसर हैं। अभी कुछ देर पहले ज़ाकिर भाई को फोन किया तब पता चला कि दिसम्बर में उन्हें पता चला कि ब्लड-कैंसर है और वे उसी का इलाज करवा रहे थे।

अंतिम बार मैं उनसे तब मिला था जब पीपुल्स विजन्स के साथ मिलकर हिन्द-युग्म ने वरिष्ठ कथाकार अब्दुल बिस्मिल्लाह का कहानीपाठ आयोजित किया था। (दर्भाग्य से यह कार्यक्रम प्रस्तावित रूप में नहीं हो पाया था)। हमलोग जब कभी भी कोई कार्यक्रम करते थे, चाहे वो बड़ा हो या छोटा, शमशेर जी को फोन करके यह निवेदन करते थे कि वे अपना कैमरा वगैरह लेकर आ जायें। शमशेर जी को साहित्यिक-सांस्कृतिक कार्यक्रमों की रिपोर्टिंग का बेहद शौक था। हिन्द-युग्म को उन्होंने पिछले 2 सालों में कम से कम 100 रिपोर्ट बनाकर दिये होंगे। खुद का संसाधन और समय लगाकर किसी कार्यक्रम की वीडियोग्राफी करना, फोटोग्राफी करना, उसकी रिपोर्ट बनाना और बहुत से प्रिंट और इंटरनेटीय पत्र-पत्रिकाओं को भेजना, एक श्रमसाध्य कार्य है। लेकिन इसमें वे कभी थके नहीं। मुझे याद है कि जब वे दिल्ली के बाहर कहीं भी जाते, तो वहाँ की रिपोर्ट इंटरनेट के माध्यम से वहीं से भेज देतें। मैं उनकी रिपोर्टों को छापने में उतना तेज़ नहीं था, जितनी तीव्रता से वे उन्हें भेजते थे।

हिन्द-युग्म के स्थाई पाठक ज़रूर इस नाम से परिचित होंगे। लगभग 2 साल पहले ज़ाकिर अली रजनीश जब दिल्ली आये थे, तक उन्होंने शमशेर जी से मुझे मिलवाया था। उसके बाद महीने में कम से कम 15 दिन उनका फोन ज़रूर आता था। इंटरनेट पर हिन्दी की दुनिया की सजीव उपस्थिति देखकर वे बहुत उत्साहित थे। इंटरनेट विधा की त्वरितता और इसकी जन-पहुँचता उन्हें बहुत लुभाती थी। वे कम्प्यूटर के पक्षधर थे और बहुत जल्दी ही उन्होंने इसका इस्तेमाल सीख लिया था। वे इस बात के लिए हमेशा दुखी रहते थे कि उनके सहकर्मी कम्प्यूटर पर हिन्दी का इस्तेमाल क्यों नहीं कर पाते। उन्होंने अपने प्रशिक्षण संस्थान में मुझे दो बार अपने सहकर्मियों को ब्लॉगिंग और यूनिकोड-प्रयोग का प्रशिक्षण देने के लिए बुलाया था। लेकिन अभी तक वे अपने सहकर्मियों को यूनिकोड-फ्रेंडली नहीं बना पाये थे, इसका उन्हें बेहद अफसोस था।

उन्होंने मुझे सांसदों द्वारा राजभाषा हिन्दी के उत्थान के लिए किये जा रहे हास्यास्पद प्रयासों के बारे में बताया था और मुझे लगातार इस बार के लिए प्रोत्साहित करते थे कि जरा एक RTI डालकर देखिए कि कितनी चुटकुलेदार उक्तियाँ मिलेंगी। उन्होंने पिछले साल 'सूचना का अधिकार' कानून का इस्तेमाल कर यह जानकारी ली थी कि भारतीय नोटों पर सभी भारतीय भाषाओं में मुद्रा का मान क्यों नहीं लिखा जाता और यह भी कि इंडिया गेट पर शहीदों का नाम देवनागरी लिपि में क्यों नहीं है और क्या उन्हें कभी देवनागरी लिखे जाने की कोई योजना बनाई गई?

उन्हें पशु-पक्षियों से बेहद लगाव था। जब मैं पहली बार और इक मात्र बार उनके घर गया था तो उन्होंने अपने बागीचे के बहुत से छोटे-छोटे जीवों से मेरा परिचय करवाया था और अपने लैपटॉप पर उन्होंने उनके प्रेम करने की, प्रजनन, शिकार करने तथा खाने का वीडियो भी दिखाया, जिसको वे बहुत शांति से शूट कर लिया करते थे। पिछले ही साल उन्होंने एक सैकंड-हैंड वीडियो कैमरा लिया था, जिसकी मदद से वे लघुफिल्में बनाना चाहते थे। उन्होंने एक शॉर्ट फिल्म बनाई भी थी, जिसे वे अपने हर परिचित को दिखाते भी थे।

खाना बनाने का भी शौक रखते थे। नवम्बर 2011 में ही उन्होंने कई बार कहा कि अगर आप किसी शाम खाली हो तो आइए मछली बनाता हूँ। बाकी वे एक वरिष्ठ लेखक और बालसाहित्यकार थे, यह तो सभी जानते हैं। लेकिन मैं तो उन्हें एक रिपोर्टर, फोटोग्राफर और वीडियोग्राफर के तौर पर अधिक जानता था। हमदोनों एक साथ बाल साहित्य के कई कार्यक्रमों में गये, लेकिन मेरी हमेशा उनसे बातचीत हिन्दी और इससे जुड़ी तकनीक पर ही होती थी। मेरे विचार से शमशेर अहमद खान का जाना हिन्दी भाषा की क्षति है।




शमशेर जी का ब्लॉग
शमशेर जी द्वारा हिन्द-युग्म को भेजी गईं रिपोर्टें