पंडित सुरेश नीरव
विश्वप्रसिद्ध पिरामिडों,ममियों और विश्व सुंदरी नेफरीतीती और क्लियोपेट्रा के देश इजिप्त के लिए 11जनवरी2011 को गल्फ एअर लाइंस की फ्लाइट से हम लोग बेहरीन के लिए दिल्ली से सुबह 5.30 बजे की फ्लाइट से रवाना हुए। इजिप्त की राजधानी केरों पहुंचने के लिए बेहरीन से दूसरी फ्लाइट लेनी होती है। जोकि पूरे चार घंटे बाद मिलती है। यहां का समय भारत के समय से पूरे तीन घंटे पीछे चलता है। बेहरीन के हवाई अड्डे पर उतरे तो वहां भारतीय चेहरों की बहुतायत देखने को मिली। यूं तो फ्लाइट में ही हमारे साथ जो लोग सफर कर रहे थे उससे हमें कुछ-कुछ अंदाजा लग गया था कि बेहरीन के निर्माण में मजदूर और इंजीनियर भारत के ही हैं। और फिर वहां जब ड्यूटी फ्री शॉप्स में जाकर खरीदारी की तो वहां के सेल्समैन ये जानकर कि हम भारत से आए हैं हम से हिंदी में ही बात करने लगे। एअरपोर्ट पर उड़ानों की सूचना अरबी,इंगलिश और हिंदी भाषा में दी जा रही थी इससे सिद्ध हो गया कि शेखों के पास भले ही पेट्रोल के कुएं हों मगर बेहरीन की ज़िंदगी के धागों का संचालन हिंदुस्तानियों के ही हाथ में है। और हिंदुस्तान के दफ्तरों में भले ही हिंदी को हिंदुस्तानी अधिकारी दोयम दर्जे का मानकर अपनी टिप्पणी अंग्रेजी में देते हों मगर बेहरीन में हिंदी की ठसक पूरी है। बेहरीन में वनस्पति बहुत कम है। हरियाली के मामले में बेहरीन का दिल्ली से कोई मुकाबला नहीं। यहां के बाशिंदे भारतीयों-जैसे ही नाक-नक्श और कद-काठी के ही हैं। जब तक बोलते नहीं पता नहीं चलता कि कि ये भारतीय हैं या बेहरीनी। दो घंटे बेहरीन में गुजारकर हम लोग दूसरी उड़ान से इजिप्त की राजधानी केरो के लिए रवाना हुए। और तीन घंटे की उड़ान के बाद केरो एअरपोर्ट पर उतरे। यहां का मौसम खुशगवार था और तापक्रम 13 डिग्री सेल्सियस था। दिल्ली की ठिठुरती सर्दी से घबड़ाए लोग जितनें ऊनी कपड़े लेकर आए थे वे कुछ जरूरत से ज्यादा साबित हुए। एअरपोर्ट से 11 किमी दूर गीजा शहर की होटल होराइजन में हमें ठहराया गया। यह इजिप्त की बेहतरीन होटलों में एक है। रास्तेभर उड़ती धूल और सड़कों पर फैली पोलीथिन थैलियों और बीड़ी-सिगरेट के ठोंठों को देखकर यकीन हो गया कि मिश्र की सभ्यता पर भारतीय सभ्यता की बड़ी गहरी छाप है। और नील नदी तथा गंगा नदी के बीच पोलीथिन का कूड़ा एक सांस्कृतिक सेतु है। नेहरू और नासिर की निकटता शायद इन्हीं समानताओं के कारण उपजी होगी। और निर्गुट देशों के संगठन का विचार इसी रमणीक माहौल को देखकर ही इन महापुरुषों के दिलों में अंकुरित हुआ होगा।
दिल्ली के सरकारी क्वाटरों के उखड़े प्लास्टर और काई खाई पुताई से सबक लेकर इजिप्तवासियों ने मकान पर प्लास्टर न कराने का समझदारीपूर्ण संकल्प ले लिया है। यहां मकान के बाहर सिर्फ ईंटें होती हैं।प्लास्टर नहीं होता। पुताई नहीं होती। दिल्ली की तरह मेट्रो यहां भी चलती है।लाइट और सड़कों के मामले में इजिप्त दिल्ली से आगे है। पिरामिड और ममियोंवाले इस देश की राजधानी केरों में एक अदद ग्रेवसिटी भी है। यानी कि कब्रों का शहर। जहां सिर्फ मुर्दे आराम फरमाते हैं। इनकी कब्रें मकान की शक्ल में हैं। जिसमें खिड़की और दरवाजे तक हैं। छत पर पानी की टंकी भी रखी हुईं हैं। और इन कब्रीले मकानों पर प्लास्टर ही नहीं पुताई भी की हुई है। मुर्दों के रखरखाव का ऐसा जलवा किसी दूसरे देश को नसीब नहीं। कब्रों की ऐसी शान-शौकत देखकर हर शरीफ आदमी का मरने को मन ललचा जाता होगा। ऐसा मेरा मानना है। यहां का म्यूजियम भी ममीप्रधान संग्राहलय है। हजारों साल से सुरक्षित रखी ममियां दर्शकों को हतप्रभ करती हैं। मन में प्रश्न उछलता है, इन निर्जीव शरीरों को देखकर कि अपना सामान छोड़ कर कहां चले गए हैं ये लोग। क्या ये वापस आंएंगे अपना सामान लेनें। हमारे यहां के सरकारी खजाने में किसी की अगर एक लुटिया भी जमा हो जाए तो उसे छुड़ाने में उसकी लुटिया ही डूब जाए। मगर इस मामले में इजिप्त के लोग बेहद शरीफ हैं। वो बिना शिनाख्त किए ही तड़ से किसी भी रूह को उसका सामान वापस लौटा देंगे। शायद इसी डर के कारण इनके मालिक अभी तक आए भी नहीं हैं। आंएंगे भी नहीं। मगर इंतजार भी एक इम्तहान होता है। और बार-बार इस इम्तहान में फेल होने के बाद भी इस मुल्क के लोग फिर-फिर इस इम्तहान में बैठ जाते हैं। और फिर हारकर खुद उनके मालिकों के पास पहुंच जाते हैं तकाज़ा करने। कि भैया अपना माल तो उठा लाओ। सब आस्था का सवाल है। गीजा में कुछ पिरामिड हैं मगर असली पिरामिड जो दुनिया के सात आश्चर्यों में शुमार हैं वे गीजा से 19 कि.मी. दूर सकारा में बने हैं। इन पिरामिडों की तलहटी में भी शाही ताबूतों में जन्नत नशीन बादशाहों के जिस्म आराम फरमा रहे हैं। इजिप्त के सर्वाधिक चर्चित 19 वर्षीय सम्राट तूतन खातून भी शुमार हैं। तमाम खोजों के बाद पता चला कि इतना बहादुर सम्राट सिर्फ 19 साल में मलेरिया के कारण जिंदगी से हार गया। एक साला मच्छर कब से आदमी के पीछे पड़ा है। उसे ममी बनाने के लिए। ममीकरण की केमिस्ट्री भी बड़ी अजीब है। हमारे गाइड ने हमें बताया कि ममीकरण के लिए पहले मृतक शरीर को बायीं तरफ से काटकर उसके गुर्दे,जिगर और दिल को निकालकर बाहर फेंक दिया जाता है।। फिर नाक में कील घुसेड़कर खोपड़ी की हड्डी में छेद कर के दिमाग को भी खरोंचकर बाहर फेंक दिया जाता है। फिर पूरे शरीर में सुइयां घुसेड़ कर शरीर का सारा खून भी निकाल दिया जाता है। इस प्रकार सड़नेवाली सारी चीजों को शरीर से निकाल दिया जाता है। इसके बाद मृतक शरीर को नमक के घोल में 40 दिन के लिए रख दिया जाता है। चालीस दिन बाद इस शरीर को नमक के घोल से बाहर निकालकर 30 दिन के लिए धूप में रखा जाता है। तीस दिन बाद फिर इस शरीर पर लहसुन,प्याज के रस और मसालों का लेप कर के तेज इत्र से भिगो दिया जाता है ताकि सारी दुर्गंध दूर हो जाए। ममियों के बाद बात करते हैं-पिरामिडों की। पिरामिडों में सबसे पहला पिरामिड सम्राट जोसर ने बनवाया। जिसे बनाने में पूरे बीस साल लगे। इजिप्त का हर किसान साल के पांच महीने इसके बनाने में लगाता था। सम्राट जोसर की कल्पना को अंजाम दिया उनके इंजीनियर मुस्तबा ने। इस पिरामिड में छह पट्टियां हैं। कहते हैं कि खोजकर्ताओं को इसकी तलहटी में 14000 खाली जार मिले थे। जो पड़ोस के किसी राजा ने फैरो को बतौर तोहफे भेंट किए थे। इससे लगा ही एक दूसरा पिरामिड है जो सम्राट जोसर के बेटे ने बनवाया था। पिता की इज्त के कारण उसने इस पिरामिड का आकार पिताजी के पिरामिड से जानबूझकर छोटा रखा था। इसके साथ ही एक और सबसे छोटा पिरामिड बना हुआ है। यहीं कुछ दूरी पर बना है-टूंब ऑफ लवर..यानीकि प्रेमी का मकबरा। जोकि साढ़े बासठ मीटर ऊंचा और अठ्ठाइस मीटर गहरा है। फैरो यहां के सम्राट की पदवी हुआ करती थी। इन्हीं मे एक फैरो था-एकीनातो। विश्वसुंदरी नेफरीतीती इसी फैरो की पत्नी थी। नेफरीतीती का इजिप्तियन में भाषा में मतलब होता है-सुंदर स्त्री आ रही है। सुराहीदार लंबी गर्दनवाली नेफरीतीती इजिप्त की पहचान और शान है। तमाम ऐतकिहासिक धरोहरों को संजोए केरो में दिल्ली की तरह मेट्रो भी चलती है। गीजा से एलेक्जेंड्रीया जाते हुए बीच में एक इंडियन लेडी पैलेस भी बना है। कौन थी वह भारतीय महिला इसका पता किसी को नहीं है। पर महल पूरी आन-बान शान के साथ आज भी मौजूद है।
ईसा से 300 साल पहले इजिप्त में ग्रीक आए। अलेक्जेंडर ने आकर फैरों की सल्तनत खत्म कर दी। और बसाया एलेक्जेंड्रिया। एक नया राज्य। लुक्सर को बनाया अपनी राजधानी। गीजा से एलेक्जेंड्रिया 290 किमी दूर है। बस से यहां तक आने में हमें पूरे चार घंटे लगे। रास्तेभर केले,अंगूर,आम,खजूर,आलू,बेंगन और ब्रोकली के खेत मन को लुभाते रहे। भूमध्यसागर की बांहों में तैरता एलेक्जेंड्रिया ग्रीक शिल्प से बना खूबसूरत शहर है। समुद्रतल इतना ऊंचा है लगता है अभी अभी किनारों को तोड़करप समुद्र सारे शहर को अपनी जद में ले लेगा। सन 1414 मे एलेक्जेंडर ने यहां अपना किला बनवाया था। और समुद्र किनारे ही बनाए थे अपने लाइट हाउस। इस शहर की खासियत यह है कि यहां जब चाहे बारिश हो जाती है। इसलिए यहां की सड़कें हमेशा पानी में में डूबी रहती हैं। गीली तो हमेशा ही रहती हैं। यह शहर मछली के आकृति का है। इसलिए इसे राबूदा भी कहा जाता रहा है। राबूदा का अर्थ है-मछलीनुमा स्थान। इस शहर के भीतर होरीजेंटल और वर्टिकल गलियां हैं। जो शहर के जिस्म में नाड़ियों की तरह फैली हुई हैं। इस शहर में बना है एक मकबरा-कैटैकौब मकबरा। इस टूंब में 92 सीढ़ियां हैं। दिलचस्प बात ये कि इस मकबरे की खोज सन 1900 में एक बंदर ने की थी। होता क्या था कि वहां जो भी बंदर जाकर उछलता उसकी टांग जमीन में फंस जाती। लोगों को ताज्जुब हुआ। वहां खुदाई की गई और उसका नतीजा रहा ये मकबरा। इतना विशाल मकबरा जमीन के दामन में छिपा मिला। इस मकबरे में भी सौंकड़ों जारों का जखीरा मिला था। कहा जाता है कि ग्रीक लोग जार में ही खाना खाते थे और एक बार जिस जार में वो खाना खा लेते थे उसे दुबारा उपयोग में नहीं लाते थे। इसलिए इतने जार यहां इकट्ठा हो गए। ग्रीक लोग इस मकबरे में रहते भी थे। इन ग्रीक लोगों ने इस भूमिगत मकबरे की दीवारों में सुरंगें बना रखी थीं, जिसमें कि वे शव दफनाया करते थे। इस तरह यह एक किस्म का सामुदायिक मकबरा है। एक बात बहुत महत्वपूर्ण है कि ग्रीक और रोमन में कभी युद्ध नहीं हुए क्योंकि ग्रीकों ने इजिप्शियन भगवानों का कभी अपमान नहीं किया। उस वक्त इजिप्त में 300 भगवान थे। रोमनों ने जब यहां कब्जा किया तो उन्होंने इन भगवानों को अस्वीकृत कर दिया और क्रिश्चियन धर्म का प्रचार करने लगे। इस कारण लोगों में असंतोष व्याप्त हो गया जिसके परिणामस्वरूप यहां इस्लाम धर्म अस्तित्त्व में आ गया। जो अभी तक है। वैसे रोमन राज्य की निशानी के बतौर यहां आज भी विशाल रोमन थिएटर मौजूद है। इस प्रेक्षाग्रह में एक साथ पांच हजार दर्शक बैठ सकते थे। और खासियत यह कि ईको सिस्सटम ऐसा कि बिना माइक के सारे लोग भाषण सुन सकें। आगे चलकर एक और स्मारक है-मौंबनी स्तंभ। अब वक्त बदलता है। जिसकी ताकीद करती है-मुहम्मद फरीद की प्रतिमा। इस बहादुर आदमी ने तुर्क और रोमनों से इजिप्त को आजाद कराया था। थोड़ा और आगे चलकर है- सम्राट इब्राहिम की मूर्ति। जो इजिप्तवासियों के शौर्य का प्रतीक हैं। दिल्ली के इंडिया गेट की ही तरह यहां भी इजराय़ल-इजिप्त युद्ध के दौरान शहीद सैनिकों की स्मृति में एक स्मारक बना हुआ है। नालंदा और तक्षशिला की टक्कर पर यहां भी है -एलक्जैंड्रिया लाइब्रेरी। जहां रखीं हैं लाखों दुर्लभ पुस्तकें। आगे है रेड सी। इस लाल सागर और भूमध्यसागर को जोड़ने का बीड़ा उठाया था-फ्रांस के नेपोलियन बोनापार्ट नें। जो बाद में स्वेज नहर के रूप में आज भी हमारे सामने है। एलेक्जेंड्रिया में ट्रामें भी चलती हैं। एक उल्लेखनीय बात और...पूरे इजिप्ट में ट्रैफिक भारत से उलट दांयीं और चलता है।
हमारी संस्कृति में भोजपत्र बहुत महत्वपूर्ण है। इजिप्ट में वैसे ही महत्वपूर्ण है- पपाइरस। इसमें सुंदर कलात्मक कृतियां उकेरकर यहां पर्यटकों को रिझाया जाता है। पपाइरस केले के तने-जैसा रेशेदार-गूदेदार स्तंभ होता है। जिसमेंकि पिरामनिड की आकृति कुदरतन बनी होती है। इसलिए इजिप्शयन इसे भोजपत्र की तरह पवित्र मानते हैं। ये इसके रेशों को पीट-पीटकर कमरे की दीवार तक बड़ा कर लेते हैं और उस पर कलाकृतियां बनाते हैं। कुछ कलाकृतियां मैं भी खरीद कर लाया हूं। तन्नूरा और वेली नृत्य पर थिरकता इजिप्ट सूती कपड़ों और मलमल के लिए मशहूर है। खलीली स्ट्रीट और मुबेको मॉल यहां खरीदारी के मशहूर ठिकानें हैं। भारत की हिंदी फिल्में यहां खूब लगाव से देखी जाती हैं। इसलिए यहां के व्यापारी भारतीयों को देखकर..इंडिया...इंडिया.. अमिताभ बच्चन...शाहरुख खान और करिश्माकपूर के जुमले उछालने लगते हैं। इजिप्त में भारत के राजदूत के. स्वामीनाथन ने हमें अपनी मुलाकात में बताया कि यहां 4000 हिंदुस्तानी वैद्य रूप से रह रहे हैं। और भारत का यहां की अर्थव्यवस्था में 2.5 मिलियन डॉलर का निवेश है। पेट्रोकेमिकल,,डाबर, एशिया पेंट्स, और आदित्य बिड़ला ग्रुप ने यहां के बाजार पर अपने दस्तखत कर दिये हैं। भारतीय भोजनों से लैस यहां तमाम शाकाहारी होटलें भी हैं। शाकाहारी खाने को यहां जैन-मील्स कहा जाता है। इजिप्ट मे बिना प्याज-लहसुन के भी शाकाहारी भोजन मिल सकता है यह विचित्र किंतु सत्य किस्म की एक सुखद हकीकत है। इन सारे अदभुत अनुभवों को दिल में समेटे जब भी कोई भारतीय इजिप्ट से भारत लौटता है तो उसकी यादों की किताब में एक पन्ने का इजाफा और हो जाता है जिस पर लिखा होता है-इजिप्ट। पिरामिडों की तरह स्थाई यादों का प्रतीक- इजिप्ट।
*आई-204,गोविंदपुरम,ग़ज़ियाबाद-201001