Friday, December 03, 2010

आखिर, क्या करें इन बाबाओं का?

*डॉ. रवीन्द्र कुमार पाठक

देश में इस समय बाबाओं की जैसी फ़ौज उमड़ी है, वैसी पहले कभी नहीं थी। ये तिलक-त्रिपुण्डी/दढ़ियल पाखण्डी ‘धर्म’ के नाम पर बाह्याचारों का जाल फेंक कर, परलोक का भय और स्वर्ग का सपना दिखा कर, बेशुमार जनों को निरर्थक कर्मकाण्डों में लगा कर, अन्ततः उन के जीवन को नरक बना डालते हैं। पर, मज़ा यह है कि इन के सम्मोहन में पड़ी जनता को इस का भान तक नहीं होता कि किस तरह हमें नरक में धकेला जा रहा है?

लगातार ‘धर्म’ की माला जपते रहने के बावजूद उस से इन बाबाओं का असल में शायद ही कोई रिश्ता होता होगा। ‘धर्म’ का अर्थ मानवीयता की उस स्थिति से है, जिस में व्यक्ति कुछ विशेष गुणों को धारण करता है, जिस से एक इन्सान दूसरे से प्रेममय जुड़ाव महसूस करता है, आपसी समता में जीता है, दीन-दुखियों की सेवा करता है, आदि-आदि । संस्कृत शब्द ‘धर्म’ के मूल धातु ‘धृ’ का अर्थ धारण करना होता है। इस सन्दर्भ में, उन विशेष गुण-धर्मों को धारण करने की अवस्था है ‘धर्म’,जिन्हों ने किसी वस्तु-विशेष का अस्तित्व बरकरार (धारण कर) रखा है। जिस प्रकार आग का धर्म जलना-जलाना या नदी का धर्म बहना है, उसी प्रकार मनुष्य का धर्म है ‘मनुष्यता’ है, जिस के उपर्युक्त लक्षण कहे जा सकते हैं। नदी में नहाना, तिलक लगाना, पूजा-पाठ करना, प्रार्थना/जप करना, रोजा-नमाज, व्रत, तीर्थयात्रा आदि धर्म नहीं ,बल्कि उस के नाम पर किये जाने वाले बाहरी आचार भर हैं। इन्हें करने से कोई लाभ होता है कि नहीं?—यह बहस का विषय हो सकता है, पर ध्यातव्य है कि इन से अक्सर समय व धन की भारी बर्बादी के साथ कई बार हमारी जान तक चली जाती है। चाहे मक्का में हज़-यात्रियों की भीड़ में हुई भगदड़ हो या नासिक के कुम्भ मेले (२००३) में हुई धक्कामुक्की– ये ‘धर्म’ के नाम पर पोंगापन्थी बाबाओं द्वारा बेशुमार भीड़ जुटा कर जनता को कीड़े-मकोड़ों की मौत देने वाले क्रूर कर्मों के उदाहरण हैं।

ये बाबा जनता को त्याग का पाठ पढ़ाते नहीं थकते, ताकि हर घर खाली हो जाए और उन का मठ-आश्रम, मस्ज़िद या गिरजा चमक जाए। ये खुद हर प्रकार की भौतिक सुख की गंगा में दिन-रात डुबकी लगाते रहते हैं, पर आम जन को उपदेश देते रहते हैं कि भौतिक सुख मिथ्या है। खुद ए.सी.कार या हवाई जहाज में उड़ते हैं, टी.वी.-नेट-मोबाइल से आँख-कान सटाए रहते हैं, पाँचसितारा होटल की समस्त सुविधाओं से युक्त मठों में पूरे राजसी तामझाम के बीच छप्पन भोगों-छतीस व्यंजनों के तर-माल पर हाथ साफ करते हैं। पर, भौतिकवादी माइक से भौतिकवाद को गाली देते, जनता को उपभोक्तावादी जीवन से दूर रखने की ये हर सम्भव कोशिश करते हैं और पवित्र संतोष का पाठ भी पढ़ाते रहते हैं। एक तरफ जहाँ हाड़तोड़ मेहनत कर के भी देश की विशाल जनता भुखमरी की शिकार है, वहीं परिश्रम से दूर,फ़ोकट का माल उड़ाते हर बाबा की काया कैलोरी व खून की अधिकता से भरी रहती है। ये हमें आत्मा की अमरता का पाठ पढ़ाते हैं, पर स्वयं बुलेटप्रूफ़ गाड़ी या सशस्त्र पुलिस-घेरे में ही चलते हैं। लड़के-लड़की के आपस में मिलने-जुलने या प्रेम करने को पाप बताने और उस पर हिंसक फतवे देने वाले इन बाबाओं का असली चेहरा तो तब उजागर होता है,जब इन के मठों/अड्डों पर छापे मार कर उन में से यौन-शोषित बच्चे-बच्चियाँ/स्त्रियाँ मुक्त करायी जाती हैं।

कुछ समय पहले, चित्रकूट के भगवान् भीमानन्द उर्फ शिवमूर्त्ति द्विवेदी द्वारा राजधानी समेत देश के कई भागों में चलाये जा रहे धन्धे का जब पुलिस ने पर्दाफ़ाश किया, तब भी क्या हमारी आँखें खुलीं? इसी तरह, दक्षिण के एक शंकराचार्य पर यौन-शोषण और हत्या का मुकद्दमा चल ही रहा है। बाबावाद का विस्तार महिलाओं को भी अपने आगोश में ले चुका है। एक प्रमुख महिला बाबा साध्वी प्रज्ञा ठाकुर का किस्सा यह है कि उन्हें इस बात का मलाल रहा कि उन के बिछवाये प्राणघाती बम से इतने कम मुसलमान क्यों मरे? केरल के ६३ ईसाई धर्मगुरुओं पर आपराधिक मुकद्दमे दर्ज हैं। वहीं करोड़ों के आराध्य आसाराम बापू के आश्रम में होने वाली काली करतूतें अब उजागर होने लगी हैं। पर, बाबाओं के विराट् सरकस का यह तो एक नमूना मात्र है। कुल मिला कर कहा जा सकता है कि ये बाबा ‘धर्म’ के मूल तत्त्व से उतनी ही दूर होते हैं, जितनी दूर सूरज से अन्धेरा होता है। ‘धर्म’ इनके लिए एक करियर या प्रोफेशन की तरह होता है, कभी-कभी राजनैतिक करियर की तरह भी ; पर उस में भी वे प्रोफेशनल ईमानदारी का परिचय नहीं देते; बल्कि क्षुद्र लाभों/स्वार्थों के लिए कोई भी गुनाह करने को हर क्षण तैयार रहते हैं। इस लाइन में भी लम्बी प्रतिद्वन्द्विता है, जिस में एक बाबा दूसरे का गला काटने तक को उतारू हो जाता है। याद कीजिए, आई.एस.जौहर की ‘नास्तिक’ फ़िल्म, जिस में ठीक दूकान की तरह एक-दूसरे (को नीचा दिखाते) के अगल-बगल में साधुओं द्वारा आश्रम खोले जा रहे थे।

बाबा चाहे हिन्दू हों या मुस्लिम, सिक्ख हों या ईसाई, पुरुष हों या नारी– सब के सब प्रवचनों का अन्धविश्वासमय जाल फेंक कर जनता के मन को आधुनिक युग से हटा कर, वेद-पुराण, कुरान, बाइबिल आदि के ज़माने में ले जाने की कोशिश करते रहते हैं। हमें विवेक व वैज्ञानिक सोच से काटते हुए, तन्त्र-मन्त्र, मुहूर्त्त, हस्तरेखा, ज्योतिष, भूत-प्रेत-जिन्न-चुड़ैल आदि की मायावी दुनिया में भटकाते-भरमाते रहते हैं। टी.वी.जैसे प्रबल जनसंचार-माध्यम (जो जन-शिक्षा/जन-जागरुकता का व्यापक औजार हो सकता था) के कई चैनलों पर इन बाबाओं ने अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज कर रखी है, जिस के जरिये अपने सारे उक्त कर्म ये सहजता से सम्पादित करते हैं । वहीं कुण्डली मार कर बैठे, ये स्वयं या अपने दलालों द्वारा, ‘गाँठ के पूरे’ प्रायः शहरी जनों (जो अक्सर ‘आँख के अन्धे’ भी होते हैं) को लक्ष्य कर गण्डा-ताबीज, नज़र-सुरक्षा-कवच, कुबेर-यन्त्र, हनुमान्-यन्त्र, शनि-यन्त्र आदि के विज्ञापन करते हैं और हर विज्ञापन को अधिक पैसा-बटोरू बनाने के लिए उस में विज्ञान का छौंक भी लगाते हैं। सब से ज़्यादा तो गुस्सा और साथ ही तरस आती है इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के कर्त्ता-धर्त्ताओं पर, जो अपनी तमाम आधुनिक शिक्षा को ताक पर रख कर, स्टूडियो में किसी बाबा को विशेषज्ञ की हैसियत से बुला कर बैठाते हैं और बड़े विश्वास/श्रद्धा से राशिफल या किसी वास्तविक घटना के ज्योतिषीय-तान्त्रिक व्याख्या के बारे में पूछते हैं। (इस प्रसंग में स्मरणीय है, राजेन्द्र अवस्थी के सम्पादकत्व में हिन्दी-पत्रिका ‘कादम्बिनी’ की बेशर्म भूमिका। तब वह, अपने ‘भूत-प्रेत-तन्त्र-मन्त्र’ विशेषांकों के जरिये अन्धविश्वास फैलाने और पाखण्डियों की दलाली करने का खुला मंच बन कर रह गयी थी।) तब, क्या आम जन को यह पता चल पाता है कि वे खुद मूर्ख बनने से ज़्यादा हमें मूर्ख बना रहे हैं? मामला चैनल के टी.आर.पी. और उन के अपने पत्रकारीय करियर का होता है। सब पूँजी का खेल है,जिसे मज़े से खेल रहे होते हैं हमारे बाबा। इस पर हमें गम्भीरता से विचार करना चाहिए कि आखिर क्या कारण है कि कुछ ही सालों में गुजरात से देखते-देखते इतने बाबा पैदा हो गये? या, जहाँ भी पूँजी का केन्द्रीकरण ज़्यादा हुआ, वहीं बड़ी संख्या में बाबा-तत्त्व क्यों पैदा हो जाते हैं?

ये बाबा हैं, जो हमारी चेतना की आँखों पर मोतियाबिन्द की तरह छाए रहते हैं, राममन्दिर- बाबरी मस्ज़िद-डेरा सच्चा सौदा आदि के नाम पर जनता को धर्म का अफ़ीम पिला कर, आपस में क्रूरता से लड़वाते हैं और समाज-देश की शान्ति भंग कराते हैं। इन के द्वारा प्रचारित मान्यताओं में कई तो घोर जातिवादी और खासकर स्त्री-विरोधी होती हैं। जैसे- ‘पुत्र’ की महिमा गा-गा कर ये हमारे अवचेतन में कन्या-विरोधी मानसिकता मजबूत करते हैं। बाबाआदम-युगीन कथाओं द्वारा ये स्त्री को अशिक्षित व घरेलू बनाए रखने और पति के आगे उस के दब कर रहने और तमाम ज़ुल्म सहते रहने(घरेलू हिंसा) का महिमामण्डन करते हैं। कुछ नहीं, तो स्त्री के पहनावों पर इन की निगाह जरूर रहेगी और कुछ-न-कुछ नसीहत भी जरूर ये देंगे, तब भी बड़े अचरज की बात है कि हमारी दृष्टि में ये अध्यात्म के पुरोधा ही बने रहते हैं। जिन का ध्यान औरत के कपड़ों/देह से ऊपर नहीं उठ सका, जो उसे इन्सान न मान सके, वे खाक आध्यात्मिक होंगे! इन के द्वारा प्रचारित-प्रसारित मूल्य ब्राह्मणवादी भी होते हैं, चाहे पुनर्जन्म व जन्मगत श्रेष्ठता का उन का दर्शन हो (जिस के जरिये वर्तमान ठोस सामाजिक-आर्थिक विषमता/अन्याय को भी चुटकियों में जस्टिफ़ाई कर डालते हैं) या वर्ग/जाति/ज़ेण्डर-गत स्तरीकरणों को बनाए रखने की इन की सोच हो। ये शायद यही चाहते हैं कि जनता इन के चंगुल से कभी न छूटे– वह भेड़-बकरी की तरह इन के बाड़े में अशिक्षित-मूढ़, तंगहाल और हर तरह से लाचार इन पर निर्भर हो कर पड़ी रहे; इन की ‘जय’ बोलती, चारागाह बनी रहे– बाबा के ऐशो-आराम की पालकी को कन्धा देती रहे, बस! अपने भोग-विलास की दुनिया में कोई खलल पड़ते ही या अपने प्रभाव-क्षेत्र में दूसरे बाबा की दखलन्दाजी होते ही, ये अपने प्रतिद्वन्द्वी का खून तक करने/कराने से नहीं चूकते। सब मिला कर ये लोकतान्त्रिक व्यवस्था के सख्त विरोधी होते हैं, पर विसंगति देखिये कि एक-देढ़ दशक पूर्व बड़ी संख्या में ये दण्ड-कमण्डल धर कर संसद तक में जा पहुँचे हैं। परोक्ष रूप से राजनीति में तो ये बराबर ही सक्रिय रहे हैं, पर यह प्रत्यक्ष-राजनीति की कथा है। इन्हों ने ‘भारत का संविधान’ शायद ही पढ़ा हो ( क्योंकि ‘मनुस्मृति’ या ‘शरीयत’ के आगे ये संविधान की कोई हैसियत नहीं समझते होंगे ), पर अपनी (अ)धर्म-संसदों के जरिये नर-नारी के व्यवहार, औरत की पोशाक आदि ही नहीं, बल्कि देश की विदेश-नीति तक तय करने का दुस्साहस ये करते रहते हैं। इन के मठ/आश्रम अवैध कमाई और कई तरह के पापाचारों के साथ, शराब व हथियार के भी अड्डे होते हैं, जिन्हें ईश्वर/धर्म के सुनहरे लेबल से ढँके रहते हैं। इन्हें बचाने का कार्य एक तरफ जनता की अन्ध आस्था करती है, तो दूसरी तरफ इन के चेलों के रूप में मौजूद थोक वोट-बैंक के खिसकने से डर कर हमारे असली राजनेता भी इन के खिलाफ किसी कार्रवाई से अक्सर डरते हैं। (आप को याद होगा कि जामा मस्ज़िद के इमाम बुखारी पर कितनी बार आरोप लगे, पर किसी की हिम्मत हुई उन्हें छूने की भी?) वे क्या खा कर करेंगे कार्रवाई? वे तो उल्टे इन्हीं के चेले बने फिरते हैं। (वोट-बटोरू प्रवृत्ति के तहत?)। ( भला हो (स्व.) राजेश पायलट का, जिन्हों ने कुछ समय के लिए चन्द्रास्वामी को जेल की हवा खिला दी थी)।

अब, अहम सवाल यह है कि मानवता के नाम पर कलंक, लोक-विरोधी इन बाबाओं पर लगाम कैसे लगायी जाए?
बहुत विचार करने पर यह समझ में आता है कि इन की कुत्सित ताकत का मूल स्रोत है इन के पास इकट्ठा हुआ अथाह काला धन तथा जनता में इन के प्रति मौजूद प्रचण्ड अन्धास्था है। बिना इन का मूलोच्छेदन किए ये अपराधी ठिकाने नहीं लगाये जा सकेंगे। सब से पहले इन के मठ/आश्रम को कानूनी दायरे में लाया जाए। समय-समय पर उन की सरकारी जाँच हो। इन की आमदनी के स्रोतों पर कड़ी निगाह रखी जाए तथा इन की आय को टैक्स के दायरे में लाया जाए। इन की काली कमाई पर रोक लगाने का पुख्ता इन्तजाम होना चाहिए। इस के साथ, जनता को इन की करतूतों के प्रति जागरुक करते रहने की जिम्मेदारी स्वीकार कर मीडिया को भी अपना भटकाव रोकना होगा। ऐसा कर पाने में नाकामयाब होने अथवा किसी प्रकार के पाखण्ड का प्रचार करने पर किसी चैनल या पत्र-पत्रिका के संचालक/सम्पादक पर कठोर दण्ड का प्रावधान लागू किया जाना चाहिए। बाबाओं के संविधान/लोकतन्त्र या मानवीय समता के विरोधी प्रवचनों और कार्यों के उजागर होते ही इन पर ‘भारतीय दण्ड-विधान-संहिता’ कड़ाई से लागू होनी चाहिए। साथ ही, राजनीति को बाबाकरण से बचाने के लिए भी ‘निर्वाचन-आयोग’ को मुस्तैद रहना होगा। इस तरह के ढोंगी-पाखण्डी पैदा ही न हों, इस के लिए समाज में शिक्षा द्वारा वैज्ञानिक दृष्टि व इहलौकिक(सेक्यूलर) चेतना की रचना का पुख्ता इन्तजाम भी होना चाहिए। इस के साथ,आम जन का भी कर्त्तव्य है कि इन के पकड़े जाने पर वह भड़के नहीं,बल्कि ऐसे दुष्टों को पकड़वा कर सजा दिलवाने में सरकार की मदद करे । हमें सोचना होगा कि ऐसे क्रूर कर्म वाले,हर तरह के अन्धकार के दूत,इन नराधमों-बाबाओं के प्रति यदि किसी तरह की आस्था रखते हैं, तो जनता को अशिक्षित, भाग्यवादी, फटेहाल और साम्प्रदायिक उन्माद से ग्रस्त रखने के इन के नंगे नाच में साथ दे कर समाज को पीछे धकेलने के हम भी कम अपराधी नहीं हैं ।
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(लेखक जी.एल.ए.कॉलेज, मेदिनीनगर/डाल्टनगंज, पलामू, झारखण्ड में व्याख्याता हैं। उनसे उनके ईमेल-पते rkpathakaubr@gmail.com और मोबाइल- 09801091682 पर संपर्क किया जा सकता है)

Thursday, December 02, 2010

फेसबुक या फिर...फसबुक ( Fuss Book )?

- शन्नो अग्रवाल

हे भगवान ! फेसबुक पर झंझटों का जमघट..अब ये सब कुछ कहते भी नहीं बनता और सहते भी नहीं बनता.
जो कुछ मैं कहने जा रही हूँ फेसबुक के बारे में वो सभी फेसबुकियों के बारे में सही है या नहीं ये तो नहीं कह सकती पर कुछ फेसबुकियों को जरूर हजम नहीं हो रही हैं ये बातें. और इतना तो क्लियर है ही कि चाहें हर कोई मुँह से ना बताये कि कितना पेन होता है उन्हें ( इन्क्लूडिंग मी ) कुछ लोगों की टैक्टिक से कि अब फेसबुक एक फसबुक यानि झंझट, या कहो कि सरदर्द लगने लगा है. फेसबुक पर भ्रष्टाचार उपज रहा है...कहानियाँ सुनी जा रही हैं..घटनायें होती रहती हैं जिनका उपाय समझ में नहीं आता...ना ही निगलना हो पाता है ना ही उगलना...यानि उन बातों के बारे में साफ-साफ कहने में तकलीफ होती है सबको और पचाने में भी तकलीफ...ये सब फेसबुक देवता की मेहरबानी है...दिमाग में बड़ी उथल पुथल मचती है..कुछ फेसबुकियों को बहुत सरदर्द हो रहा है जो इसमें काफी फँस चुके हैं...अब कश्ती मँझदार में फंसी है और किनारा मिल नहीं रहा है...

फेसबुक पर आना शुरू-शुरू में तो बड़ा ट्रेंडी और खुशगवार लगता है..लेकिन नये-नये होने पर नर्वसनेस भी जरूर होती है..फिर हर इंसान धीरे-धीरे उसमे रमकर जम जाता है. और फिर जैसे-जैसे इसमें धंसते जाओ..मतलब ये कि लोगों से और उनकी रचनाओं से मुलाक़ात करते जाओ तो अक्सर क्या अधिकतर ही बहुत बोझ बढ़ जाता है जिससे एक तरह का प्रेशर भी जिंदगी पे पड़ने लगता है..कुछ लोग फ्रेंड बनते ही पेज पर आकर सबके साथ नहीं बल्कि केवल इनबाक्स में ही अलग-अलग आकर वही एक से पर्सनल लाइफ के बारे में सवाल पूछते हैं और समझाने पर बुरा मान जाते हैं..इनबाक्स में कभी-कभार जरूरत पड़ने पर ही बाते होती हैं..ये नहीं कि किसी को साँस लेने की फुर्सत ना दो..सवाल के बाद सवाल करते हैं व्यक्तिगत जीवन के बारे में उसी समय तुरंत ही मित्र बनने के बाद. कितनी अजीब सी बात है कि पेज पर आकर खुलकर सबके सामने बात नहीं करते..और दूसरी टाइप के वो हैं जो बहुत सारी वाल फोटो लगाकर दुखी करते रहते हैं..पहले बड़ा मजा आता था किन्तु अब उन वाल फोटो की संख्या बढ़ती जाती है..और अगर धोखे से भी ( या कभी-कभी जानबूझ कर भी अपनी सुविधा के लिये ) डिलीट हो जाती हैं तो फिर दुविधा में फँस जाने के चांसेज रहते हैं..वो टैगिंग करने वाला इंसान अपने तीसरे नेत्र से पूरा हाल लेता रहता है..और पूछने की हिम्मत भी रखता है कि...'' क्या आपने हमें अपनी फ्रेंड लिस्ट से निकाल दिया है '' या '' क्या आप मुझसे नाराज हैं '' या फिर अपने स्टेटस में कोई सज्जन लिखते हैं कि '' अगर कोई मेरी रचनाओं पर टैगिंग नहीं चाहता तो साफ-साफ क्यों नहीं बताता मुझे ताकि आगे से उनको टैग ना करें हम '' अब आप ये बताइये कि समझदार के लिये इशारा वाली कहावत का फिर क्या मतलब रह गया...अरे भाई, कभी तो हिंट भी लेना चाहिये ना, कि नहीं ? और साथ में धकाधक भजन के वीडियो भी एक इंसान की वाल पर आ रहे हैं कई-कई लोगों के एक ही दिन में और साथ में उन्हीं की दो-दो रचनायें भी..और बाकी अन्य लोग भी टैग कर रहे हैं तो पढ़ने वाले का दिमाग पगला जाता है सोचकर कि इतना समय कहाँ से लाये सबको खुश करने को..कुछ और अपने भी तो पर्सनल काम होते हैं आखिरकार. एक रचना कुछ दिन तो चलने दें ताकि आराम से सभी की रचनाओं को पढ़ा जा सके और अपना भी काम किया जा सके. पर इस अन्याय / अत्याचार के बारे में कैसे समझाया जाये किसी को. हर किसी को अपनी पड़ी है यहाँ...चाहें किसी के पास टाइम हो या न हो. और ऊपर से मजेदार बात ये कि वो इंसान तुरंत कमेन्ट लेना चाहता है. कुछ लोग तो लगान वसूल करने जैसा हिसाब रखते हैं कि एक भी इंसान छूट ना जाये कमेन्ट देने से. उस बेचारे की मजबूरियों का ध्यान नहीं रखा जाता...शेक्सपिअर के ' मर्चेंट आफ वेनिस ' जैसे उन्हें भी बदले में फ्लेश जैसी चीज चाहिये अगर जल्दी कमेन्ट ना दे पाओ तो पूछताछ चालू कर देते हैं...बस अपने से ही मतलब. और कुछ लोग बड़े-बड़े आलेख लगाते हैं और वो भी एक दिन में दो-दो जैसे कि लोगों को केवल उनका ही लेख पढ़ना है...ये नहीं सोचते कि अन्य लोगों ने भी किसी को अपनी रचनाओं में टैग कर रखा है...एक आफिस के काम से भी ज्यादा समय लग जाता है अब फेसबुक पर. मेल बाक्स के कमेन्ट पढ़ने, लिखने और मिटाने में ही कितना टाइम लग जाता है. खैर...

कुछ लोग कितने स्मार्ट होते हैं कमेन्ट लेने के बारे में इस पर जरा देखिये:

फ्रेंड: नमस्ते शन्नो जी, मुझसे कुछ नाराज हैं क्या ? मैं अपनी खता समझ नहीं पा रहा हूँ...

मैं: अरे आप ये कैसी बातें कर रहे हैं..मैं भला आपसे क्यों नाराज़ होने लगी. इधर काफी दिनों से मुझे समय अधिक नहीं मिल पाता है फेसबुक पर एक्टिव होने के लिये...इसीलिए शायद आपको ऐसा लगा होगा. मैं किसी से भी नाराज नहीं हूँ..बस समय और थकान से मात खा जाती हूँ. इसी वजह से कुछ अधिक लिख भी नहीं पाती हूँ इन दिनों.

फ्रेंड: मेरे कई फोटोग्राफ से बिना कोई प्रतिक्रिया के आपने अपने आप को अनटैग कर लिया. तभी मुझे ऐसा महसूस हुआ था.

मैं: जी, टैगिंग तो इसलिये हटानी पड़ी कि वहाँ पर कमेन्ट बाक्स नही सूझता था मुझे...शायद कोई फाल्ट होने से. और बहुत लोग अब वाल पिक्चर ही लगाते हैं तो बहुत इकट्ठी हो गयी थीं इसलिये एक फ्रेंड ने सलाह दी तो कुछ को छोड़कर बहुत सी हटानी पड़ीं.

( ये अपनी टैगिंग का ध्यान रखते हुये हर किसी से कमेन्ट ऐसे वसूल करते हैं जैसे कि कर वसूली कर रहे हों..किसी को भी छोड़ना नहीं चाहते खासतौर से उन लोगों को जो उनसे शिकायत करने में कमजोर हैं..या झिझकते हैं )

मैं: जब मैं आपको अपनी रचनाओं में टैग करती थी..तो आप कमेन्ट नहीं देते थे तो फिर मैंने आपको टैग करना बंद कर दिया...किन्तु कभी शिकायत करने की हिम्मत नहीं कर पायी फेसबुक पर किसी दोस्त से कि कोई बुरा न मान जाये इसलिये.

( इतना कहते ही मुझे लगा कि वो मेरी जुर्रत से खिसिया गये )

फ्रेंड: क्षमा कीजियेगा मेरे इन्टरनेट अकाउंट की लिमिट प्रतिमाह १ जी बी तक ही है और वह आमतौर पर महीने की २३-से २४ तारीख तक पूरी हो जाती है इसी लिए कमेन्ट कम कर पाता हूँ. यदि आपको कमेन्ट बॉक्स ना मिले तो मेरी फोटो के ऊपर मेरी Profile को क्लिक करियेगा जिससे मेरा पेज खुल जायेगा फिर पेज के साइड में ऊपर की ओर बने हुए "Like" बटन को क्लिक कर दीजियेगा तब कमेन्ट बॉक्स दिखने लगेगा.

मैं: हर किसी की अपनी मजबूरियाँ होती हैं...मैं समझती हूँ..औरतों को तो घर के भी काम करने पड़ते हैं..मैं तो कई बार सारे दिन के बाद फेसबुक पर आ पाती हूँ तो सबकी रचनाओं पर लोगों के कमेन्ट से मेलबाक्स भरा होता है और निपटाते हुये घंटों लग जाते हैं..बड़े-बड़े लेख पढ़ने का तो समय ही नहीं मिलता...इसलिये बहुत कुछ छूट जाता है. जब मैं टैगिंग करती हूँ तो बहुत से लोग जबाब नहीं देते तो मैं समझ जाती हूँ कि उनकी भी कुछ मजबूरियाँ होंगी. और कुछ लोग अपनी रचनायें एक के बाद एक लगाते हैं और तब मुश्किल हो जाती है एक ही दिन में कमेन्ट देने में..वो बस अपनी ही रचनाओं के कमेन्ट पर ध्यान देते हैं....फिर मेरी रचनाओं पर कमेन्ट के समय गायब हो जाते हैं..इस तरह के कई लोग हैं...

( अब उन्हें लगने लगा कि मेरे भी मुँह में जबान है तो...)

फ्रेंड: बिलकुल सही कहा आपने .......सबकी अपनी मजबूरियाँ....... आपका बहुत-बहुत धन्यवाद ......शुभ रात्रि.

मैं: देखिये, मैंने आपको अपनी तरफ से हर बात शत-प्रतिशत ईमानदारी से सही-सही बताई हैं...पर आप बुरा ना मानियेगा...नो हार्ड फीलिंग्स..ओ के ?...शुभ रात्रि !

Wednesday, December 01, 2010

एक सपना

कल ही मुझे एक सपना आया। बड़ा विचित्र सपना कि विश्व हिन्दू परिषद ने राम-मन्दिर पर उच्च-न्यायालय का फैसला इसलिये खारिज कर दिया कि यह आस्था का मामला है और आस्था के मामले में न्यायालय को फ़ैसला सुनाने का कोई अधिकार नहीं है।
तब एक वामपंथी-सेक्युलरवादी नेता आये और वे अपना पुराना बयान दोहरा कर कह रहे थे कि जेरूसलम में व ब्रिटीश शासन में वर्तमान- पाकिस्तान के गुरूद्वारों पर न्यायालय ने आस्था के मामले में फैसले दिये थे तो भारतीय न्यायालय फैसला क्यों नहीं सुना सकती । उन्हे उच्च-न्यायालय का फैसला पूरी तरह से मान्य है; बल्कि इसी न्यायालय के फैसले के आधार पर वे राम के ईश्वररूप को और राम की जन्मभूमी अयोध्या होने की बात को स्वीकार करते हैं। उन्होने यह भी कहा कि वे शास्त्र-पुराण की बात तो नहीं मानते पर पुरातत्व-विभाग की खुदाई के आधार पर परीक्षण द्वारा सत्य को प्रतिपादित करते है। कोई उन्हें कान में बाबरी मस्जिद के नीचे खुदाई में कुछ भी न मिलने की बात कह गया था और जैन-मन्दिर की तरफ बात को मोड़ देने की सलाह दे गया था पर अब जब अदालत ने स्पष्टरूप से हिन्दू-मन्दिर होने की बात कही है तो वे अपने इतिहास के ज्ञान पर भी फिर से विश्लेषण करने के लिये राजी हो गये हैं।
सपना तो सपना ही है! नरेन्द मोदी अपनी दाढ़ी खुजलाते हुये कह रहे थे कि जब वे मुसलमान भाइयों से बातचीत और समझौते की बात करते हैं तो उनका अर्थ वक्फ़-बोर्ड को दी गई एक तिहाई ज़मीन वापस लेना नहीं है; वे तो राम-मन्दिर को मिले हिस्से में से मस्ज़िद को कुछ भाग दे कर भी शांति और भाईचारा बनाये रखने की बात कर रहे है।
वक्फ़-बोर्ड ने कहा है कि पहली बार पता चला कि यह मस्जिद मन्दिर के अवशेष पर बनी है अत: वे तीन में से एक न्यायाधिश की बात का अनुमोदन करते हैं कि यह वास्तव में मस्जिद है ही नहीं । उन्होने एक तिहाई भाग राम-मन्दिर के लिये सहर्ष दे देने का प्रस्ताव रखा इस पर उच्च न्यायालय के जजों ने कहा हमसे गलती हो गई कि राम-लला की मूर्ति चोरी से रखी जाने की बात मानते हुये भी हमने उसी जगह पर राम-मन्दिर बनाने की इज़ाजत दे दी।

एक मार्क्सवादी इतिहासकार ने कहा कि जब उन्हें पता चला था कि मस्ज़िद के नीचे मन्दिर के अवशेष मिल रहे हैं तो मैंने बिना देखे और बिना सोंचे समझे आरोप लगा दिया कि ये साक्ष्य भगवा-ग्रुप वालों ने गुंडागर्दी करके रख दिये हैं । क्या करता ! मेरे इतिहास-ज्ञान की नीव ढहती जा रही थी ! मैं तो औरंगजेब को सेक्यूलर और शिवाजी को साम्प्रदायिक सिद्ध करने पर तुला हुआ हूँ और इस विषय पर Ph. D. भी प्राप्त कर चुका हूँ । सभी तथ्य मेरे ज्ञान के सांचे में ढलने चाहियें । तथ्यों के कारण मैं अपने ज्ञान की कुर्बानी नहीं दे सकता।
तब आये करुणानिधि ! अरे सपना तो अजीब होने लगा ! कहने लगे क्या करूं यह झगड़ा मेरे क्षेत्र का नहीं है पर आश्चर्य है फैसला सुन कर हिन्दु-मुसलमान आपस में झगड़ते नहीं, दंगा-फ़साद भी नहीं करते ऐसा क्यों? इसलिये मैं मेरा वही पुराना आर्य और द्रविण सभ्यता का झगड़ा उठाता हूँ। अरे! बिना इस प्रकार के झगड़ों के पोलिटिक्स भारत में चल सकती है क्या?
मैं सुन कर दंग रह गया । क्या करता? सपने पर मेरा कुछ बस नहीं था। कुछ भी हो सकता था ! पता नहीं उस समय बाबर ने क्यों कब्र से अंगड़ाई ले कर मीर बाँकी को गालियाँ सुनाई “उल्लू के पठ्ठे ! तुझे मस्ज़िद ही बनानी थी तो मेरे नाम पर क्यों बनाई? क्या इसलिये मैने तुझे इतने हक दिये थे कि तू मेरा ही नाम बदनाम करे? देख तेरी हरकत के कारण मैं गुनाह के बोझ से दबा जा रहा हूँ।“ इस पर राजीव गांधी ने उन्हे ढाढस बंधाई और बोले कि गलती मेरी है मैने मुस्लिम-तुष्टिकरण के तुरत बाद हिन्दू-तुष्टिकरण की नीति अपना कर मन्दिर के द्वार खोल दिये और इस तरह सोये भूत को जगा दिया। इस पर दिवंगत और जीवित एक साथ देखने की बारी आई। उनका पुत्र राहुल गांधी बोल पड़ा “पापा, यह तो राजनीति है। इसमें सब चलता है। मैंने भी आर.एस. एस. और सीमी को समद्रष्टि से देखकर बोलना शुरू कर दिया है”
तभी क्या देखता हूँ साक्षात भगवान राम प्रकट हुये। उन्होंने आंखों से आंसू बहाते हुये कहा कि यदि मुझे मालुम होता कि मेरे जन्मस्थल को लेकर इतना विवाद होने वाला है तो मैं जन्म ही न लेता। तो न सीता मेरे साथ वनप्रस्थान करती और न ही सीताहरण होता; कम से कम रावण मुफ़्त में न मारा जाता। इस पर सभी छुटभइये नेता शर्म से पानी पानी हो गये। आ आकर क्षमा मांगने लगे कि माफ़ करो हमने जनता की भावनाओं को भड़का कर राजनीति की रोटी सैंकी है। इसके बाद तो काफी धर्मान्ध समझे जाने वाले लोग भी इकठ्ठे हो गये। वे कह रह थे कि नहीं चाहिये हमें मन्दिर या मस्ज़िद ! क्यों नहीं वहाँ कोई अस्पताल या पुस्तकालय खोल देते ! यह सब हम इसलिये कह रहे हैं कि अब खुल गई हैं हमारी आँखे ! पर इसके साथ ही मेरी आँखे भी खुल गई।
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-हरिहर झा