अयोध्या विवाद के समाधान की ओर अग्रसर होने के पूर्व मामले के दोनों पक्षों हिन्दू और मुस्लिम समुदाय के बीच एकता के किसी सूत्र को तलाशना होगा। जब तक हमें कोई ऐसा सूत्र प्राप्त नहीं होता जिस पर हिन्दू एवं मुस्लिम दोनो पक्ष कोई प्रतिकूल टिप्पणी न कर सकें तब तक दोनो समुदाय के बीच किसी समझौते की आशा रखना व्यर्थ है।
हिन्दू और मुस्लिम समुदाय के बीच वह सम्पर्क-बिन्दु है, ईश्वरीय सत्ता का तात्विक बोध, जिसे हिन्दुओं ने अद्वैतवाद के माध्यम से
निरूपित किया है और मुसलमानों द्वारा जिसे तौहीद (ऐकेश्वरवाद) के रूप में व्यक्त किया गया है। हिन्दू और मुस्लिम समुदाय के मध्य इसी साम्यता को दृष्टि में रखते हुए आगामी पंक्तियों में अयोध्या विवाद के समाधान को सुधीजनों के विचारार्थ रेखांकित किया जा रहा है। अयोध्या-विवाद के समाधान का बिन्दुवार विवरण इस प्रकार है।
1. गर्भगृह के क्षेत्र को पूर्ववत् केन्द्र सरकार की अभिरक्षा में रखते हुए ‘श्रीरामजन्मभूमि’ नाम देकर मूर्ति-विहीन क्षेत्र के रूप में
संरक्षित रखना चाहिए। इस पावन-भूमि को निराकार-ब्रह्म की प्राकट्यस्थली के अनुरूप सदैव प्रकाशित रखना चाहिए। हिन्दू मतावलम्बियों को इस बिन्दु पर कोई विरोध इसलिए नहीं होना चाहिए क्योंकि 'राम' से अधिक महत्व राम के 'नाम' का है। रामचरितमानस सहित अनेक हिन्दू ग्रंथों से यह तथ्य पुष्ट है। मुस्लिम मतावलम्बियों को इस बिन्दु पर कोई आपत्ति इसलिए नहीं होनी चाहिए क्योंकि गर्भगृह क्षेत्र का उपयोग बुतपरस्ती के लिए नहीं हो रहा होगा।
2. गर्भ-गृह क्षेत्र में स्थित 'मूर्ति-विहीन' परिसर के चारो तरफ क्षेत्र को हिन्दू बाल-संस्कारों के कर्मकाण्ड संपादन के निमित्त सुरक्षित कर दिया जाना चाहिए, जिससे 'बाल-राम' के रूप में राम की सगुणोपासना निरन्तर चलती रहे।
3. वर्तमान में गर्भगृह क्षेत्र में पूजित राम-लला विग्रह को स्थापित करने एवं उपासना करने हेतु हिन्दुओं को मन्दिर निर्माण हेतु विवादित परिसर की बाहरी परिधि प्रदान की जानी चाहिए और मुसलमानों को मस्जिद निर्माण हेतु अयोध्या के किसी मुस्लिम-बहुल क्षेत्र में उपलब्ध कोई विवाद-विहीन उपयुक्त स्थल प्रदान कराया जाना चाहिए जहाँ मुस्लिम समाज द्वारा नमाज अदा की जा सके। हिन्दू समाज को मस्जिद निर्माण पर आने वाले व्यय को सहर्ष वहन करने हेतु आगे आना चाहिए।
हिन्दू और मुस्लिम दोनों मतानुयाइयों को पूजा-उपासना को लेकर भविष्य में अपनी आगे की पीढि़यों के सामने किसी दुराव की आशंका को निर्मूल करने हेतु उपर्युक्त बिन्दुओं पर सौजन्यता से विचार करना चाहिए।
हिन्दी के वरिष्ठ कवि व पत्रकार कन्हैया लाल नंदन का आज सुबह दिल्ली में निधन हो गया। वे 77 वर्ष के थे। कन्हैया लाल नंदन एक मंचीय कवि के रूप में बेहद चर्चित थे। हिन्द-युग्म परिवार इनके निधन पर भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करता है। प्रेमचंद सहजवाला अपने व्यक्तिगत अनुभव बाँट रहे हैं-
इन दिनों कोई भी पत्रकार अगर खबरें पढ़ता सुनता है तो या तो अयोध्या की या कॉमनवेल्थ की. पर किसी किसी क्षण फोन बजता है तो कोई साथी दुखद खबर दे कर मन को संतप्त सा कर देता है. आज दूरदर्शन पर समाचार देखते-देखते शैलेश भारतवासी फोन आया और उसने सूचना दी कि कन्हैयालाल नंदन नहीं रहे! सचमुच, कोई प्रभावशाली शख्सियत यूँ अचानक चली जाए तो हृदय को धक्का सा पहुंचना स्वाभाविक ही है. उनके निधन पर मुझे इसलिए भी विशेष आघात पहुंचा कि इसी 27 सितम्बर के लिये ‘परिचय साहित्य परिषद’ की ओर से उन्हें विशेष आमंत्रण था. ‘परिचय साहित्य परिषद’ ने 27 सितम्बर को ‘सत्य सृजन सम्मान’ देने का विशेष कार्यक्रम रखा था और परिषद की अध्यक्षा उर्मिल सत्यभूषण ने मुझे बताया कि उन्होंने नंदन जी को भी विशेष निमंत्रण दिया था कि वे इस कार्यक्रम में आएं व परिषद की ओर से ‘सत्यसृजन सम्मान’ स्वीकारें. नंदन जी पिछले दिनों कई बार Dyalisis पर रहे, हालांकि जब जब वे स्वस्थ होते तब वे अपनी कर्मशीलता की किसी आतंरिक प्रेरणाल शक्ति से कार्यक्रमों में निरंतर जाते रहते. जब उन्होंने उर्मिल सत्यभूषण से अपने अस्वस्थ होने के कारण असमर्थता ज़ाहिर की तब उर्मिल जी ने निर्णय लिया कि परिषद की ओर से उनके निवास स्थान पर ही कुछ ही दिनों बाद उन्हें सम्मान देने कुछ लोग जाएंगे. परन्तु नियति को कुछ और ही मंज़ूर था और वे 25 सितम्बर प्रातः लगभग पौने चार बजे अपनी जीवन यात्रा संपन्न कर के प्रस्थान कर गए.
पुस्तक-विमोचनों का कन्हैयाल लाल नंदन हिंदी पत्रकारिता में एक बेहद सशक्त हस्ताक्षर थे और उनसे जुड़ी मेरी चंद यादें भी मेरे लिये मूल्यवान धरोहर हैं. साहित्यकार के लिये साहित्य से जुड़े स्वनामधन्य हस्ताक्षरों का सामीप्य सचमुच किसी भी अन्य धरोहर से कहीं अधिक महत्वपूर्ण होता है. पर मुझे पता नहीं चल रहा कि पहले कुछ ताज़ा प्रसंग बताऊँ कि तीन चार दशक पुराने. नंदन जी को मैंने बहुत अरसे बाद 1 अक्टूबर 2009 को ‘राष्ट्रीय गाँधी संग्रहालय’ में स्व. प्रभाष जोशी के साथ देखा था. उन दिनों महात्मा गाँधी की विश्वप्रसिद्ध पुस्तक ‘हिंद स्वराज’ (जो उन्होंने 1909 में लंदन से दक्षिण अफ़्रीका लौटते हुए ‘किल्दोनन’ नाम के जहाज़ में लिखी थी) की शताब्दी जगह जगह मनाई जा रही थी. ‘राष्ट्रीय गाँधी संग्रहालय’ में भी ‘हिंद स्वराज’ से जुडी किसी पुस्तक का लोकार्पण प्रभाष जी के करकमलों द्वारा हो रहा था. संग्रहालय की निदेशक डॉ. वर्षा दास के आमंत्रण पर जब वहाँ गया तो प्रभाष जी के साथ हुई अपनी संक्षिप्त भेंट की रिपोर्ट भी मैं पहले ही दे चुका हूँ. पर उस सभागार में प्रभाष जी के साथ नंदन जी को बतियाते देखा तो बेहद प्रसन्न हुआ. कई पुराने खूबसूरत लम्हे एक नॉस्टालज्या की तरह आ गए. उस दिन कार्यक्रम शुरू हुआ तो नंदन जी दर्शकगण में बैठे थे और मैंने जा कर उन्हें नमन किया. नंदन जी की बेहद आत्मीयता व प्रोत्साहन भरी आकर्षक मुस्कराहट तो मुझे ज़मानों से याद है. अधिक बोलने की गुंजाइश नहीं थी, सो मैं केवल अपना नाम ही बता पाया. वे मुस्करा कर बोले– ‘पहचानता हूँ’, बस इतना कहते ही मंच से कार्यक्रम शुरू होने की आवाज़ आई तो मुझे अपना कैमरा ले कर सक्रिय होना पड़ा. पर नंदन जी को इतने अरसे बाद इतना करीब देख मेरी स्मृति अचानक तीनेक दशक पूर्व की तरफ चली गई. ये वो दिन थे जब ‘टाईम्स ऑफ इण्डिया’ की कथा पत्रिका ‘सारिका’ मुंबई से शिफ्ट हो कर दिल्ली के 10, दरियागंज में आ गई थी. साहित्यप्रेमियों के बीच किम्वदंती यही थी कि कमलेश्वर की ‘टाईम्स ऑफ इण्डिया’ से भिड़ंत हो गई है सो टाईम्स ने ‘सारिका’ कार्यालय ही शिफ्ट कर दिया है. तब 10, दरियागंज में अच्छी रौनक सी लग गई थी. ‘पराग’ ‘दिनमान’ ‘सारिका’ व ‘वामा’ – इन चार पत्रिकाओं के कार्यालय एक ही जगह. कभी जाओ तो नंदन जी, अवधनारायण मुद्गल जी व मृणाल पांडे के दर्शन एक साथ हो जाते. नंदन जी उस से पूर्व ‘दिनमान’ के संपादक थे. अचानक ‘सारिका’ की बागडोर उन्हें सौंप दी गई तो मैं बेहद प्रसन्न था क्योंकि मैं उन दिनों कहानी लिखने पढ़ने में खूब सक्रिय था. नंदन जी की तीखी प्रखर लेखनी से मैं ‘दिनमान’ द्वारा ही परिचित था पर उनका ‘सारिका’ में आना मेरे लिये व्यक्तिगत प्रसन्नता की बात थी. मैं तब सोनीपत में था और वहाँ की ‘लिट्रेरी सोसायटी’ के प्रमुख लोगों में से था. हिंदी गीतकार शैलेन्द्र गोयल उस सोसायटी के कर्ता-धर्ता थे. सोसायटी केवल कविता पाठ या कहानी पाठ ही नहीं करती थी वरन् अनेक बड़े कार्यक्रम भी करती: जैसे विष्णु प्रभाकर के सम्मान में एक विशाल समारोह रखा गया जिसमें सोनीपत शहृ के असंख्य लोग सोनीपत के हिंदू कॉलेज प्रांगण में एक विशाल शामियाने में बड़ी उत्सुकता से एकत्रित हो गए थे. विष्णु जी के ‘आवारा मसीहा’ से संबंधित अनुभवों में साईकिलों के लिये प्रसिद्ध इस शहृ के लोगों ने खूब उत्सुकता दिखाई. उसी से अगले दिन उसी शामियाने में एक कवि सम्मलेन भी रखा गया और मेरे लिये उस क्षण प्रसन्नता की सीमा नहीं रही जब कर्ता-धर्ता शैलेन्द्र गोयल जी ने बताया कि इस कवि सम्मलेन में दिल्ली से आपके मनपसंद कन्हैयालाल नंदन भी आ रहे हैं. मुझे ऐसा लगा था जैसे उनका आगमन विशेष मेरी खुशी के लिये ही हो रहा है, हालांकि उस संस्था में ‘ऐटलस साईकिल फैक्ट्री’ से जुड़े कई युवा साहित्यप्रेमी थे जो उस कवि सम्मलेन में उतने ही उत्साह से काम कर रहे थे जितना कि मैं. शाम छः बजे हमें आदेश हुआ कि हुल्लड़ मुरादाबादी, शैल चतुर्वेदी व नंदन जी आदि कई कवि अलग अलग रेलगाड़ियों से स्टेशन पहुँच रहे हैं. मुझे स्वाभाविक रूप से कहा गया कि आप किसी को साथ ले कर नंदन जी को लेने जाइए. पर उनकी गाड़ी शैल चतुर्वेदी आदि कवियों की गाड़ी से पहले है और शायद भिन्न प्लेटफॉर्म पर हो. मैं उस कार का इंतज़ार करने लगा जिसमें मुझे नंदन जी को लेने जाना था, हालांकि हिंदू कॉलेज से स्टेशन ज़्यादा दूर नहीं था पर इतने गणमान्य कवियों को रिक्शे में या पैदल लाने का ‘आईडिया’ किसी को पसंद नहीं था. शैल चतुर्वेदी समूह को लेने जाने वाली कार के कार्यकर्ताओं को मैंने उत्साहवश कह दिया कि तुम लोग मेरी कार के भी दस मिनट बाद आना. पर वे हँसते खिलखिलाते पहले ही निकल गए और स्टेशन पर हुआ उल्टा ही. नंदन जी वाली ट्रेन ‘लेट’ हो गई और शैल चतुर्वेदी व हुल्लड़ मुरादाबादी आदि एकदम विरोधी प्लेटफोर्म पर उतरते नज़र आए. हमारे कार्यकर्ता उन्हें हार पहना कर स्वागत कर रहे थे. इस से चंद मिनटों बाद ही नंदन जी की गाड़ी आ गई और मैं लपक कर उनके सामने गया. बड़े बड़े साहित्यकारों को अपना नाम बताने का उत्साह हर नए लेखक में होता है. मैं हांफता हुआ बोला– ‘नंदन जी मैं प्रेमचंद सहजवाला. आप को लेने आया हूँ’. और ज्यों ही मैंने हाथों में पकड़ी फूलमाला उनके गले की ओर बढ़ाई, उन्होंने मुस्करा कर हाथ थाम लिया – ‘बस, आपका स्वागत करना बहुत है भाई’. उन दिनों मुझे यह भी बखूबी अहसास होता था कि नंदन जी की शक्लो- सूरत व उस पर विराजमान मुस्कराहट सचमुच बेहद आकर्षक हैं. पर इस से भी बड़ी बात कि उनकी आवाज़ बहुत सशक्त थी जिसमें गज़ब का असर रहता था. उन्होंने कहा – ‘मैं आप के नाम से तो परिचित हूँ. आप ‘सारिका’ में भी छपे हैं शायद’. मैंने उत्साह से कहा – ‘अभी लेखन में नया नया हूँ. कमलेश्वर ने ‘सारिका’ के ‘नवलेखन अंक’ में मेरी कहानी छापी थी. अप्रैल ‘76 में’. तब तो कमलेश्वर जिसे छाप दे समझो वह लेखक चर्चित हो गया. किसी नवोदित लेखक के लिये भला इस से ज़्यादा खुशी की क्या बात कि एक इतना बड़ा पत्रकार जिसे कई सम्मान व पुरस्कार मिल चुके हैं, उस के साथ कार में घुसते घुसते पूछ रहा है – ‘आप कैसी कहानियां लिखते हैं’?
मैंने कहा – ‘मैं मध्यवर्गीय परिवारों के संघर्षों को कहानियों में वर्णित करने के लिये कुछ चर्चित हुआ हूँ. श्रीपतराय ने एक प्रकार से मुझे कहानी विधा में जन्म दिया. एक संग्रह छपा है जिसकी भूमिका श्रीपतराय ने स्वयं लिखी है’.
सोनीपत के उस कवि सम्मलेन में नंदन जी की शख्सियत का यह पहलू भी उजागर हुआ कि कवि रूप में वे एक बेहद खुद्दार व्यक्ति थे और उन्हें लगता था कि साहित्यकार कहीं भी निवेदन कर के नहीं जाता, वरन साहित्यकार ज़रूरत समाज को होती है. वह प्रसंग तो छोटा सा था पर फिर भी यहाँ उसे अलग से देने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा. उस कवि सम्मलेन में सोनीपत के डी.सी मुख्य अतिथि थे पर उन्हें किसी कारणवश कार्यक्रम शुरू होने के कुछ ही देर बाद जाना था जब कि अभी केवल एक दो स्थानीय कवि ही अपने कविता प्रस्तुत कर चुके थे. डी.सी. को इसीलिए निवेदन कर के मुख्या अतिथीय भाषण के लिये बुलाया गया. डी.सी ने बहुत रोचक भाषण दिया व कवियों के प्रति बेहद सम्मान भी व्यक्त किया. पर डी.सी ने अपने भाषण में प्रहसन के तौर पर यह कह दिया कि एक बार एक व्यक्ति दूसरे के पीछे भाग रहा था. पूछे जाने पर वह बोला कि वह व्यक्ति मुझे अपनी कविता सुना गया मेरी नहीं सुन रहा. इसे सभागार ने तो प्रहसन के तौर पर लिया पर डी.सी साहब के मंच छोड़ कर नीचे जाते ही नंदन जी मंच पर अपने स्थान से खड़े हो कर माईक तक आए. वे मुस्करा कर बोले कि माननीय मुख्य अतिथि से मैं कहना चाहता हूँ कि हम सब कवियों को यहाँ बुलाया गया है, और हम यहाँ ज़बरदस्ती कविता सुनाने नहीं आए. कुछ क्षण सब लोग हक्के बक्के रह गए कि अब हमें कैसा महसूस करना चाहिए. पर डी.सी साहब भी उतने ही दिलदार व्यक्ति थे. वे मुस्कराते हुए मंच पर आए और क्षमा मांगते हुए बोले कि मेरा उद्देश्य केवल एक रोचक बात कहना था. अपने समस्त भाषण और जीवन में मैंने कवियों का आदर करना ही सीखा है. पर नंदन जी ने भी तुरंत उनका मूड ठीक करते हुए मुस्करा कर यही कहा कि वे तो आम धारणा को ठीक कर रहे थे और कि उनका उद्देश्य व्यक्तिगत रूप से आपत्ति करना नहीं था .
-प्रेमचंद सहजवाला
नंदन जी मृदुभाषी व गूढ़ गंभीर साहित्यकार पत्रकार की तरह कार में मेरे साथ बैठे रहे पर उन्होंने प्रोत्साहनवश अपनी नज़रें मुझ पर फोकस सी रखी थी व उनके चेहरे पर वही सौम्य मुस्कराहट ज्यों की त्यों स्थापित थी जैसे छोटों के लिये वह सुरक्षित हो. हिंदू कॉलेज जल्दी आ गया और शैलेन्द्र गोयल अन्य कई कवियों के बीच खड़े नंदन जी का इंतज़ार कर रहे थे. कुछ उत्साही बालिकाओं ने बढ़ कर स्वागत करते हुए उनके माथे पर तिलक लगाया. एक के हाथ में आरती थी. जब सब लोग एक स्वागत कक्ष में पहुंचे तो मैं शेष कवियों से भी मिल लिया. शैल चतुर्वेदी इतने गंभीर क्यों बैठे हैं भला? कहकहा क्यों नहीं लगा रहे? पर सोचा कहकहा तो वे मंच पर लगाएंगे. अभी कार्यकर्ताओं के बीच तो वे सौम्य से बैठे शैलेन्द्र जी को यात्रा-वात्रा की तकलीफें बता रहे थे. शैलेन्द्र जी एक एक का परिचय करवा रहे थे. मेरे विषय में सब से बोले – ‘इन्होने हिंदी साहित्य को ‘सदमा’ दिया है (यानी मेरे पहले संग्रह का नाम ‘सदमा’ है). इस पर सब लोग खूब हंस पड़े और नंदन जी बोले – ‘साहित्यकार का का काम ही होता है ‘शॉक’ देना, यानी सदमा देना. इस के कुछ देर बाद नंदन जी से सब की एक गंभीर बातचीत आनन् फानन शुरू हो गई. मैं ने पूछा – ‘साहित्यकार व्यवस्था का विरोधी माना जाता है, पर इतने सारे साहित्य के बाद व्यवस्था तो ज्यों की त्यों है, ऐसा क्यों भला’?
नंदन जी ने कहा – ‘इस का कारण सिर्फ यही है कि आप के पास चिंता है पर समाधान नहीं और जिन के पास समाधान है उनके पास चिंता नहीं है.’ नंदन जी के इस उत्तर पर आसपास के पूरे मौऔल को एक रोशनी सी मिल गई मानो, जैसे देश के एक विख्यात पत्रकार ने सब को दो टूक सच्चाई बता दी.
व्यक्तित्व के तौर पर यह श्रद्धांजलि लेख लिखते लिखते मुझे कवयित्री अर्चना त्रिपाठी की बात याद आ रही है जिन्होंने फोन पर बताया कि नंदन जी की आत्मकथा ‘गुज़रा कहाँ कहाँ’ से वे बेहद प्रभावित हुई. अपने इलाहाबाद से ले कर मुंबई तक के बहुत सुन्दर संस्मरण व धर्मवीर भारती की प्रशंसा और आलोचना एक साथ लिखी उनहोंने. इसलिए कुछ बातें विवादस्पद हो गई. कुछ लोगों ने नंदन जी की ही आलोचना की कि डॉ. धर्मवीर भारती के जीते जी अगर वे उनके विषय में यह सब लिखते तो बेहतर था. पर कुछ अन्य लोगों का मत रहा कि कई बार शालीनतावश व्यक्ति सामने कुछ नहीं कह पाता, इसलिए धर्मवीर भारती के साथ अपने खट्टे मीठे अनुभव उन्होंने उनके के जाने के बाद कहे. अर्चना त्रिपाठी को इस बात की भी प्रसन्नता थी कि उनके पिता श्री ब्रजकिशोर त्रिपाठी कानपुर में कन्हैयालाल नंदन के अध्यापकों में से रहे तथा एक बार त्रिपाठी जी स्टेशन पर खड़े थे तो एक नौजवान ने आ कर उन्हें सैल्यूट किया. त्रिपाठी जी के पूछने पर उस नौजवान ने अपना परिचय दे कर कहा कि ‘मैं कन्हैयालाल नंदन हूँ. मैं आप का ही एक विद्यार्थी हूँ’.
साहित्यकार पत्रकार के रूप में उनकी लेखनी बेबाक रही हमेशा. मुझे याद है कि उनका एक लेख छपा था जिसमें उन्होंने बहुत तीखे स्वर में लिखा था कि साहित्य में कुछ लोग ऐसे भी आ गए हैं जो सोचते हैं कि साहित्य केवल उनकी बदौलत है. हमें चाहिए कि ऐसे दादागीर लोगों को साहित्य से निकाल बाहर करें. उनके विषय में सुप्रसिद्ध कवि लक्ष्मीशंकर बाजपेयी ने बताया कि वे पत्रकारिता के महान स्तंभ थे. मुक्तछंद कविता के कवि होते हुए भी वे मंचों पर जाते रहे छंदबद्ध कविता को भी सम्मान देते रहे. देश के अनेक प्रतिष्ठित रचनाकार उनके ऋणी रहेंगे क्योंकि नंदन जी ने उन्हें राष्ट्रीय पहचान दिलाई’. लक्ष्मीशंकर बाजपाई जी की बात पर मेरी एक हाल ही की स्मृति भी ताज़ा हो गई. दिल्ली के मॉडर्न स्कूल में ‘श्रीराम मिल्स द्वारा आयोजित एक कवि सम्मलेन में मैंने 2009 में ही नंदन जी से बहुत प्यारी आवाज़ में एक गीत व एक छंदमुक्त कविता सुनी थी. मंच पर गोपालदास नीरज जैसी हस्तियाँ भी उपस्थित थी.
उन्हें ले कर हाल ही की एक ताज़ा स्मृति यह भी कि दिल्ली के प्रसिद्ध ‘हिंदी भवन’ में एक कविता पुस्तक ‘बूमरैंग’ का लोकार्पण हो रहा था जिसमें ऑस्ट्रेलिया में रहने वाले कुछ भारतीय कवियों की कविताएं संकलित थी और संकलन का संपादन ऑस्ट्रेलिया की ही रेखा राजवंश ने किया था. प्रायः लोकार्पण में संबंधित पुस्तक के रचनाकारों को बधाई दी जाती है तथा पुस्तक की भी भरपूर प्रशंसा की जाती है. लेकिन मंच पर उपस्थित नंदन जी को यह गवारा नहीं था कि रचनाकारों को उनकी सीमाएं बताए बिना ही लोकार्पण कार्यक्रम समाप्त किया जाए. उन्होंने अपने भाषण में बेहद दृढ़ तरीके से कहा कि इस संकलन में जो भारतीय ऑस्ट्रेलिया में रहते हैं, उन्हें अपना वतन हिंदुस्तान बहुत याद आता है, सो उन्होंने ये तमाम कविताएं लिखी हैं. पर मैं पूछता हूँ क्या अपने वतन की याद आना भर काफी है, क्या केवल याद आने भर से ही कविता हो गई? क्या कविता में शिल्प नाम की कोई चीज़ नहीं होती. क्या उदगारों को मांजना संवारना ज़रूरी नहीं है?’ उस सभागार में उपस्थित होते हुए मुझे लगा कि आज का रचनाकार केवल अपनी प्रशंसा सुनने का लोलुप है. कई तो चलते फिरते चेखव या मोपांसा वोपंसा भी यहाँ मिल जाते हैं. ज़रा सी भी आलोचना करने वालों की खैर नहीं. संबंधित लेखक आपका नाम सहज ही अनाड़ियों में शामिल कर देगा. लेकिन नंदन जी की दो टूक कटु बातों ने स्पष्ट कर दिया कि रचनाकार को प्रोत्साहित करने का एक तरीका यः भी है कि उसके प्रति सच्ची सद्भावना रखते हुए उसे उसकी सीमाओं से परिचित करवाया जाए. इतनी बेबाकी केवल नंदन जैसों में ही सम्भव है.
साहित्यकार डॉ. वीरेंद्र सक्सेना ने बताया कि दिल्ली में रह कर हर कोई उनके संपर्क में रहता था तथा किसी दुर्घटना के बाद छड़ी ले कर चलने के बावजूद और यहाँ तक कि बेहद अस्वस्थ होने के बावजूद वे कई कार्यक्रमों में देखे गए थे जो उनकी कर्मठता का ही प्रतीक है. लेकिन नंदन जी के विषय में जो कुछ चित्रा मुद्गल ने फोन पर कहा, वही इस कर्मठ साहित्यकार का असली परिचय है. चित्रा जी ने कहा कि वे अभी अभी दिल्ली से बाहर से लौटी तो उन्हें यह दुखद समाचार मिला. उन्होंने कहा कि ‘नंदन जी अपने जीवन का एक एक पल (उन्होंने ‘एक एक पल’ खूब ज़ोर दिया) पूरी सक्रियता से जीते रहे. ऐसा प्रेरणास्पद व्यक्ति हमें भी अपने जीवन का ‘एक एक पल’ सार्थक तरीके से जीने की प्रेरणा दे गया है. चित्रा ने कहा कि ऐसा व्यक्ति जीते जी तो प्रेरणा देता ही रहता है पर वह स्वर्गीय होते हुए भी स्वर्गीय नहीं रहता, क्यों कि जा कर भी हमें वह उसी सक्रियता व सार्थकता की प्रेरणा देता रहता है.
साहित्य व पत्रकारिता जगत के इस प्रेरणा स्रोत को मेरा शत शत प्रणाम.
मॉडर्न स्कूल, नई दिल्ली के कार्यक्रम में काव्यपाठ करते कन्हैया लाल नंदन
(जब मैंने उन्हें आखिरी बार काव्यपाठ करते हुए देखा)।