जंगल में ट्रेन रोकी गई, ख़बर मिली, टीवी स्क्रीन रौशन हुए, 800 सौ यात्री बंधक, ड्राइवर का अपहरण, अब क्या होगा? क्या देश में एक नया देश बन गया है? कुछ दिन पहले छूटे पुलिस ऑफिसर के सीने पर ‘प्रिज़नर ऑफ वार’ का पट्टी लिखा ये संकेत फिर से उभर आया। कुल मिलाकर जो कुछ सुनाई और दिखाई पड़ रहा था वो शाम तक इस सुकून के साथ खत्म हुआ कि ड्राइवर को छोड़ दिया गया, यात्रियों को जाने दिया गया पांच घंटे बाद ट्रेन फिर से अपने गंतव्य को चल पड़ी। लेकिन ये संदेश लेकर कि जंगलों में भी एक आबादी रहती है जो मूलभूत सुविधाओं के लिये पिछले तीन दशकों से राजधानी की राह देख रही है। इस बीच माओवादियों की एक मांग भी देश की सरकार के सामने रखी गयी ‘छत्रधर महतो, कबाड़ और जेल में बंद उनके एक और समर्थक/ हिमायती को रिहा कर दिया जाए’। शाम तक टीवी चैनलों का रुख थोड़ा नरम हुआ और हजारों यात्रियों समेत ट्रेन के अपहरण की खबर माओवादी समर्थित पीसीपीए की अगुवाई में सैकड़ों गांव वालों द्वारा किये गये चक्का जाम में बदल गयी। मीडिया के कैमरे लोगों के बयान दर्ज कर रहे थे लेकिन यकीन करना मुश्किल हो रहा था कि कौन सच बोल रहा है और कौन झूठ, वो तो भला हो एक बच्चे का जिसने बताया कि उसने गाड़ी रोकने वाले लोगों को सबके साथ, अपने साथ अच्छा सुलूक करते हुए पाया, “वो हम सबको पानी भी पिला रहे थे”।
जिस तरह से ट्रेन पर बांग्ला, हिंदी और अंग्रेज़ी में उनके द्वारा लिखा दिख रहा था वो साफ़ इशारा करता है कि ये सब इसलिये किया गया ताकि देश की सरकार के साथ-साथ (उसके साथ तो वार्तालाप का सिलसिला दशकों से जारी है) देश की जनता के सामने भी नक्सली / माओवादी / जिंदा रहने की लगभग अंतिम लड़ाई लड़ रहे हजारों लोग, अपना एजेंडा पहुँचाएँ। इन इलाकों के विकास को लोकर जो जमीनी कार्यकर्ताओं की मांग है और जिस विकास कार्य का प्रयत्न सरकार के द्वारा किया जा रहा है उसमें ज़मीन आसमान का अंतर है। सवाल ये नहीं है कि उन्हें किया मिल रहा है, उनके सवाल वो हैं जो उन्हें चाहिये।
इस घटना से जुड़ा एक पहलू ये भी है कि आंदोलन ज़रूर जंगल में रहने वालों का है लेकिन उनके हक़ के लिये लड़ने वाले अकेले जंगल के नहीं हैं बल्कि देश और दुनिया में रहने वाले समाज चिंतक और मानवाधिकार संगठनों से जुड़े लोग भी हैं (सरकार ऐसे लोगों से माओ वादियों और नक्सलियों का बौद्धिक समर्थन न करने की अपील भी कर रही है)। उधर जंगल में सड़कें, अस्पताल, स्कूल और बिजली-पानी भले न हों, सूचना तंत्र बहुत विकसित है। कुछ दिन पहले ही 20 गांववासियों को छुड़वाकर जो नया रक्त संचार आंदोलन की रगों में हुआ है उसके जोर पर कुछ ऐसा करने की चाहत बलवती हो गई जो मामले को गरम रखे। इंफोटेनमेंट के सहारे 24 घंटे दर्शक सेवा में मशगूल खबरिया चैनल ऐसी घटनाओं को हाथों हाथ लेंगे, राजधानी पर हमले के पीछे ये सोच भी जरूर रही होगी। ऐसे में जंगल को ये सुनहरा मौक़ा लगा अपने एजेंडे की लोकप्रियता हासिल करने का।
अब सारा दारोमदार सरकार के कंधों पर है कि वो देश को इस चुनौती से कैसे निकाले। गृहमंत्री जितने सभ्य दिखते हैं अगर वो उसी चश्में से समस्या को देखेंगे तो शायद आने वाले दिनों में ये हो कि सरकार और माओवादी चिंतक बैठकर कुछ ऐसा करते दिखें जिसे जंगल के लोग अपनी तरफ़ बढ़ा एक क़दम मानें। कांग्रेस और कांग्रेसी दोनों ये कहते नहीं थकते कि सोनिया जी ने पिछली कई चुनौतियों में देश को संकट से निकालने का रास्ता हमवार करवाया है, देखना है कि इस समस्या से वो कैसे निपटती हैं। वो इस समय ताक़त के उस शिखर पर हैं कि मुख़ालिफ़ हवाओं का भी सामना बख़ूबी कर सकती हैं।
अगर ऐसा न हुआ तो सारा बोझ बंगाल की वाम सरकार पर आ जायेगा और वो इसके समर्थन में वही दर्दमंदी दिखायेगी जो उसने पिछले दिनों बीस जंगल निवासियों को रिहा करते हुए दिखाई थी कि “हमारे देश के संविधान और इज़्राइल के संविधान में फर्क है, दूसरे ये कि जब कंधार और रुबया सईद की रिहाई के लिये विदेशी आतंकियों को छोड़ा जा सकता है तो एक पुलिस अधिकारी जो देश वासी है और देश की कानून व्यवस्था की रक्षा करने का काम करता है, उसके लिये 20 गरीब जंगल वासियों को, जिनपर कोई इल्ज़ाम अभी साबित भी नहीं हुआ है, बेल पर क्यों नहीं छोड़ा जा सकता?”। इसके बाद जो बातें इस घटनाक्रम के मद्देनजर सामने हैं वो खिचड़ी जैसी हैं, मसलन घटना की जिम्मेदार पीसीपीए, वही है जिसका समर्थन ममता बैनर्जी एंड पार्टी करती है, तृणमूल का मानना है कि ये सब कुछ वाम सरकार वोट के लिये कर रही है। वाम मंथी इसे ममता की सियायत मानते हैं, “इसे कैसे ढूँढ़ लिया, जो दो साल से लापता हैं वो कहां हैं?”, “आपकी गल्ती ये है कि आपने कभी पीसीपीए जैसे संगठनों की सोच को खारिज नहीं किया, वो आपके पार्टी सहयोगी हैं” वगैरह वगैरह।
इसी बीच ये भी संयोग ही है कि पिछले सप्ताह नक्सली हकों के लिए काफी मुखर अरूंधति राय अचानक टीवी चैनल पर ये कहती हुई दिखाई पड़ी हैं कि छत्तीसगढ़ जैसी जगहों पर पिछले 30 साल से नक्सली रह रहे हैं लेकिन अभी ही क्यों युद्ध जैसे हालात बनाये जा रहे हैं? वो मानती हैं कि सरकार युद्ध चाहती है ताकि छत्तीसगढ़ और झारखंड के उन इलाकों को खाली कराया जा सके जिन्हें एमओयू के जरिये बंधित किया जा चुका है लेकिन वहां बसने वालों के आंदोलन/विरोध की वजह से उसपर खनन का काम नहीं शुरू किया जा सका है।” यानी सरकार को कभी न कभी इस इल्जाम का जवाब देना ही पड़ेगा कि क्या वो खनन माफियाओं के लिये सरकारी संगीने मुहय्या कर रही है? सूचना तंत्र और आर टीआई जैसे साधन जनता के पास मौजूद हैं इसलिए उसे सरकार के जवाब का इंतेजार रहेगा।
26/11 को छोड़ दें तो देश ने एक अर्से से अपने अंदरूनी हालात पर कोई बड़ी बहस नहीं की है। उससे ज़्यादा तो हम पाकिस्तान के अंदरूनी हालात पर बहस कर डालते हैं। और हमारी अंदरूनी हालत ये है कि हमारी चिंता आतंक, चीन, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, श्री लंका, गोते खाते शेयर मार्केट और दुनिया की अर्थव्यवस्था, सस्ते चीनी सामान की घुसपैठ से बच बचा कर जब घर लौटती है तो म्यूनिस्पिल कार्पोरेशन से लेकर अरुणाचल प्रदेश के रंगहीन चुनावी माहौल में रंग भरने में जुट जाती है, कुछ बहाने बनाकर देश-विदेश घूमने की व्यस्तताओं में ख़ुद को फंसा लेते हैं। विपक्ष के अपने मुद्दे इतने टर्मिनल स्टेज पर हैं कि सर्जरी और कीमियोथ्रेपी की सलाहें दी जा रही हैं। ऐसे में या तो राजधानी को जंगल में रोका जायेगा या फिर वीराने में बैठकर निदा फाजली के ये ताजातरीन शेर (ये भी एक तरीका है) गुनगुनाएगा-
तीन चौथाई से ज़ायद हैं जो आबादी में
उनके ही वास्ते हर भूख है, मंहगाई है
कोई हिंदू कोई मुस्लिम कोई ईसाई है
सबने इंसान न बनने की कसम खाई है
सिंर्फ मंसूबों में मौसम के बदलते हैं मिजाज
सिर्फ तकरीरें बताती हैं बहार आई है
--नाज़िम नक़वी
बी-1/924 टॉवर न. 16
सिल्वर सिटी अपार्टमेंट
सेक्टर 93ए
नोएडा, गौतम बुद्ध नगर
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3 बैठकबाजों का कहना है :
good article....now, the people at the grassroots have found their own way of resistance....is this enough to open the deaf ears??
वो आबादी सुविधाओं की राह तो आज़ादी के बाद से ही देख रही है, लेकिन सुविधा पहुँचना तो दूर सुविधाओं से संपन्न गाड़ियाँ भी वहाँ नहीं ठहरतीं कि जंगलवाले कभी उनका मुँह भी देख सकें।
और आपकी यह बात भी सही है कि बहसकारों की रुचि इंटरनेशनल अफेयर में ज्यादा है। और नाज़िम भाई, वैसे भी हम भारतीय पड़ौसियों में ज्यादा रुचि लेते हैं। लेकिन वक्त रहते नहीं सम्हले तो घर तो बिखरेगा ही। और मेरा मानना है कि बिखर ही चुका है, बस पर्दे गिरे हैं। अभी उड़ीसा में पर्दा उठा है, कल बिहार में उठेगा, बंगाल में उठेगा, झारखंड-छत्तीसगढ़ में उठेगा।
बहुत अच्छा और विश्लेषण करता आलेख। बस ये ही कहना चाहूगा
आज ताले पड़े हैं सबकी जुबां पे ख़ौफ़ के,
एक ख़ामोशी घुटन की हर तरफ छायी हुई।
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