Thursday, June 23, 2011

‘सिद्धार्थ’ बनाम ‘गौतम’

आज से हम एक नया स्तम्भ 'मी जौहर बोलतोय...' का शुभारम्भ कर रहे हैं। इस स्तम्भ में युवा आलोचक जितेन्द्र जौहर हिन्दी साहित्य की समकालीन कुचर्चित-सुचर्चित रचनाओं, कृतियों को समीक्षा के निकष पर कसेंगे। साथ ही, भाषा एवं सहित्य-सृजन से बावस्ता अनेकानेक पहलुओं पर प्रकाश डालेंगे। हमारा यह प्रयास 'जागो, पाठक जागो' की थीम को लेकर चल रहा है, जो इस बात को आधार देगा कि आज के 'सूटेड-बूटेड साहित्य' को बिना परख के स्वीकारना असल में साहित्य की नींव खोदना है। समीक्षा-क्षेत्र में बहुप्रचलित 'ठकुर-सुहाती' और एक-दूसरे को 'कालिदास-भवभूति' की संज्ञा प्रदान करने के इस दौर में 'मी जौहर बोलतोय...' की निष्पक्ष एवं निर्भीक प्रस्तुतियाँ कितनी प्रभावपूर्ण हैं, यह निर्णय आप पाठकजनों पर निर्भर है।

‘सिद्धार्थ’ बनाम ‘गौतम’


‘मी जौहर बोलतोय...’ : स्तम्भ-परिचय
इस स्तम्भ के अंतर्गत देश-व्यापी पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित/प्रसारित विपुल साहित्यिक सामग्री के बीच से यथाआवश्यकता/यथारुचि चुनी गयी किसी गद्य/पद्य रचना को उसके गुण-दोषपूर्ण विवेचन के साथ प्रस्तुत किया जाएगा। सामग्री-स्रोत के रूप में समीक्षार्थ प्रेषित पुस्तकों, वेब-साइट्‍स, ब्लॉग्ज़, न्यूज़पोर्टल्ज़, ई-पत्रिकाओं, आदि का विकल्प भी खुला ही है।

साथ ही, इसमें समय-समय पर भाषा एवं साहित्य-सृजन से जुड़े अनेकानेक महत्त्वपूर्ण पहलुओं, सम-सामयिक साहित्यिक विमर्शादि का भी समावेश किया जाएगा।

हमारा हर संभव प्रयास रहेगा कि ‘मी जौहर बोलतोय...’ को तथ्यों-तर्कों से परिपुष्ट प्रमाणसम्मत अभिव्यक्ति के उत्कृष्ट मानकों की अनुकरणीय परिधि में रखते हुए...विचार-प्रस्तुति की स्वस्थ, निष्पक्ष एवं निर्भीक परम्परा की एक छोटी-सी किन्तु सुन्दर कड़ी बनाया जा सके...और रचनाकार की रचनाधर्मिता पर सार्थक संवाद का मंच भी।

कहना न होगा कि ‘कौन’ पर केन्द्रित ‘व्यक्तिपरक’ दृटि में निष्पक्षता के तमाम दावों के बावजूद भी कहीं-न-कहीं राग-द्वेष के रंग उभर ही आते हैं। अतः ‘कौन’ यानी रचनाकार की जगह ‘क्या’ अर्थात्‌ रचना पर आधारित ‘वस्तुपरक’ दृष्टि ही इस स्तम्भ का मूल आधार होगी। दूसरे शब्दों में कहें, तो यहाँ ‘व्यक्ति’ नहीं, बल्कि ‘अभिव्यक्ति’ पर ध्यान केन्द्रित करना हमारा अभीष्ट होगा। तो लीजिए प्रस्तुत है... ‘मी जौहर बोलतोय....’ :
देश-देशान्तर तक फैले ग़ज़ल के सुविस्तृत परिक्षेत्र में मुनव्वर राना साहब का नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं है। उनके प्रशंसकों में एक नाम मेरा भी शामिल है। कोई भी प्रशंसक अपने प्रिय लेखक/कलाकार को उत्कृष्ट लेखन या कला-पथ से विमुख होते अथवा भटकते हुए नहीं देखना चाहता। इस संदर्भ में तथ्य, तर्क एवं प्रमाणसम्मत चर्चा आगे बढ़ाने से पहले एक नज़र उनकी निम्नांकित ग़ज़ल पर-

गौतम की तरह घर से निकलकर नहीं जाते।
हम रात में छुपकर कहीं बाहर नहीं जाते।

बचपन में किसी बात पे हम रूठ गये थे,
उस दिन से इसी शहर में हैं घर नहीं जाते।

इक उम्र यूँ ही काट दी फुटपाथ पे रहकर,
हम ऐसे परिन्दे हैं जो उड़कर नहीं जाते।

उस वक़्त भी अक्सर तुझे हम ढ़ूँढ़ने निकले,
जिस धूप में मज़दूर भी छत पर नहीं जाते।

हम वार अकेले ही सहा करते हैं ‘राना’
हम साथ में लेकर कहीं लश्कर नहीं जाते।
(‘गुफ़्तगू’/सं. मोहम्मद ग़ाज़ी, अंक मार्च-2008, पृ.09)

मैंने मुनव्वर राना साहब के साथ सहयात्री बनकर उक्त संदर्भित ग़ज़ल के भाव-लोक और विचार-व्योम में विचरण किया। इस दौरान जो भी दृश्यावली मेरे दृग्पथ से गुजरी, उसका समग्र प्रभाव ‘जैसा है, जहाँ है’ (ऐज़ इज़, व्हेअर इज़) के आधार पर यहाँ प्रस्तुत है। उक्त ग़ज़ल के इस मत्ले (उदयिका) पर पुनः एक नज़र-

गौतम की तरह घर से निकलकर नहीं जाते।
हम रात में छुपकर कहीं बाहर नहीं जाते।


यह मत्ला एक तथ्यात्मक दोष लेकर सामने आया है। ध्यातव्य है कि ‘घर’ से ‘गौतम’ नहीं निकले थे, राजकुमार सिद्धार्थ निकला था। राजसी वैभव को ठोकर मारकर निकला था। यहाँ तक कि उसने अपने ‘कंतक’ नामक श्‍वेताश्‍व, तलवार तथा राजकीय परिधान तक ‘चन्ना’ (एक सारथी) के हाथों अपने पिता राजा शुद्धोधन के पास वापस भेज दिये थे। यहीं से शुरू होता है उसकी ‘एटर्नल क्वेस्ट’ का एक अद्‌भुत मिशन...‘सत्य की खोज’ का एक सुन्दर किन्तु अत्यन्त कठिन अभियान! नगर-नगर घूमने और वन-वन भटकने के बाद अन्ततः वह बोध गया में एक वट-वृक्ष के नीचे बैठ गया...मन में ज्ञान-प्राप्ति का संकल्प लेकर। वर्षों की साधना में तपा...‘बोध’ पाया। तब जाकर बना- ‘गौतम बुद्ध’!

वस्तुतः जब कोई ‘सिद्धार्थ’ गौतम बुद्ध बनता है, तब उसे किसी ‘घर’ से निकलने की आवश्यकता ही नहीं रह जाती क्योंकि उस दुर्लभ अवस्था में समूचा संसार ही उसका ‘घर’ हो जाता है- ‘वसुधैव कुटुम्बकम्‌’! ऐसा ‘बड़ा घर’ अपनाने के लिए ‘छोटा घर’ छोड़ देना सर्वथा उचित है, महापुरुषोचित है; फिर चाहे वह घर कोई ‘पर्णकुटी’ हो अथवा ‘स्वर्णकुटी’। राजकुमार सिद्धार्थ ने भी यही किया। आख़िर उन्हें नेपाल की तराई में अवस्थित कपिलवस्तु के एक छोटे-से ‘राजमहल’ (घर) से निकलकर संसार-रूपी बड़े-से ‘महामहल’ का हृदय-सम्राट जो बनना था...बल्कि कहना चाहिए कि नियति उन्हें ऐसा बनाना ही चाहती थी।

एक बात और...! हमारे यहाँ एक नहीं, दो ‘गौतम’ हुए हैं। एक तो अपने यही महात्मा गौतम बुद्ध...और दूसरे गौतम ऋषि। शाइर ने ‘रात में छुपकर घर से निकलने’ की बात कहकर ‘गौतम’ के चेहरे पर टॉर्च का फ़ोकस-सा मार दिया है जिसके प्रकाश में ‘कौन-से गौतम?’ वाला प्रश्न सुस्पष्ट रूप से उत्तरित हो गया है। अतः यहाँ ‘गौतम’ की शिनाख़्त को लेकर कोई भ्रम/संदेह नहीं है। हाँ... यदि ‘रात में छुपकर’ का प्रयोग न किया गया होता, तो सिर्फ़ ‘घर से निकलकर’ के द्वारा ‘गौतम’ की पहचान कर पाना आसान भी नहीं था। कारण कि ‘घर’ से तो गौतम ऋषि भी निकलते थे...और अहिल्या-प्रसंग वाले दिन भी निकले ही थे! ये ‘भोर’ में निकले थे, जबकि वे (सिद्धार्थ) ‘रात’ में! कुल मिलाकर उक्त मत्ले के पहले मिसरे में ‘गौतम’ की पहचान अधूरी है जिसे दूसरे मिसरे ने पूर्णता प्रदान की। यह ग़लत भी नहीं...भाव की दृष्टि से मिसरा होता ही अधूरा है!

‘सिद्धार्थ’ बनाम ‘गौतम’ वाले बिन्दु का समाधान कुछ यूँ तलाश भी लिया जाए कि- ‘सिद्धार्थ की मानिन्द निकलकर नहीं जाते’ - तो भी बात कुछ बनती दिखायी नहीं देती! कारण कि... उक्त मत्ले की मूल भाव-भंगिमा ही यह सुस्पष्ट संकेत दे रही है कि मुनव्वर राना साहब का शाइर सिद्धार्थ के ‘गृह-निष्क्रमण’ को नकारात्मक दृष्टि से देख रहा है- ‘गौतम की तरह घर से निकलकर नहीं जाते।’ यानी गौतम (सॉरी... सिद्धार्थ) ने घर से निकलकर...घर त्यागकर ठीक नहीं किया था। इसीलिए उनकी तरह- ‘हम रात में छुपकर कहीं बाहर नहीं जाते।’ अर्थात्‌ हम ठीक कर रहे हैं। वस्तुतः यहाँ मस्तिष्क के अवचेतनीय कोष्ठ में छिपे ‘अहम्‌’ ने अभिव्यक्ति पायी है...यहाँ ‘अहम्‌’ विनम्रता के आवरण में लिपटकर सामने आया है; शाइर ने एकवचनीय प्रथम पुरुष ‘मैं’ के बजाय बहुवचनीय ‘हम’ के प्रयोग से ‘अहम्‌’ पर परदा डालने का प्रयास किया है।

यहाँ राजकुमार सिद्धार्थ के ‘गृह-त्याग’ का बहुज्ञात प्रसंग वर्णन-विस्तार की अनुमति नहीं दे रहा है, तथापि उसकी संक्षिप्त पृष्ठभूमि यही कि रोग, शोकादि से ग्रस्त और त्रस्त मानव-जीवन को देखकर राजकुमार सिद्धार्थ का समूचा अस्तित्व तरह-तरह के प्रश्नों से आक्रान्त हो उठा था; वे इनसे छुटकारा दिलाने का मार्ग खोजना चाहते थे। एक रात वे सहसा उठ खड़े हुए और गहन निद्रा में डूबी हुई पत्नी यशोधरा और पुत्र राहुल को मोहवश निहारा...क़दम कुछ ठिठके...जो कि स्वाभाविक ही था, रिश्तों का मोह ही ऐसा होता है! शीघ्र ही ‘शाश्‍वत खोज’ के प्रश्‍न ने उन्हें पुनः विकल कर दिया...अन्तर्द्वंद्व का दौर शुरू हो गया- एक ओर रिश्तों का ‘मोह’ और दूसरी ओर त्रस्त मानवता का तारणहार बनने का ‘वैकल्य’। मोह का दायरा ‘संकुचित’ था जबकि उनका ‘वैकल्य’ एक अत्यन्त ‘व्यापक’ परिधि को समेटे खड़ा था। महापुरुषों की यह भी एक पहचान होती है कि वे ‘संकुचित’ को त्यागकर ‘व्यापक’ को पकड़ते हैं। सिद्धार्थ ने भी यही किया। सारतः उनके गृह-निष्क्रमण की घटना रिश्तों का पारिवारिक बंधन तोड़कर समूची सृष्टि से प्रेम-बंधन जोड़ने की कहानी है। घर से निकलकर ही तो वे गौतम बुद्ध बने। यदि वे मोहवश घर से न निकल पाते, तो शायद यह संसार ‘गौतम बुद्ध’ से वंचित रह जाता! ऐसे में, उनका ‘गृह-त्याग’ नकारात्मक कैसे हो सकता है??? बहरहाल इस संदर्भ में मेरा यह निश्‍चित मत है...और विनम्र सुझाव भी कि यदि हम कवि या लेखक के रूप में किसी पौराणिक प्रसंग का स्पर्श करें, तो हमें उसकी गरिमा को अक्षत्‌-अनाहत्‌ बनाए रखना चाहिए।

अब एक विवेकशील सामाजिक एवं पारिवारिक प्राणी के रूप में जीवन के व्यावहारिक धरातल पर खड़े होकर पलभर के लिए निम्नांकित शे’र पर विचार करें -

बचपन में किसी बात पे हम रूठ गये थे,
उस दिन से इसी शहर में हैं घर नहीं जाते।


उपर्युक्त शे’र एक ‘अखण्ड’ क्रोध और हठधर्मिता का बोध करा रहा है। कोई भी समझदार व्यक्ति इसे ‘ज़िद्दीपन’ की संज्ञा देने में लेशमात्र भी संकोच नहीं करेगा। मानाकि (बक़ौल शाइर) ‘बचपन’ में किसी बात पर...किसी नाराज़गी पर... वे रूठ गये थे, तो स्वाभाविक रूप से मनाया भी गया होगा। मनाने पर तो मान ही जाना चाहिए था। ‘बचपन’ की नाराज़गी का यूँ ‘पचपन’ के पार तक खिंचता चला जाना....किसी भी दृष्टि से तर्कसंगत और न्यायोचित नही है। किसी भी सभ्य समाज में यह व्यवहार ‘अखण्ड’ क्रोध और हठधर्मिता का ही परिचायक कहलाएगा। यहाँ मैं अपनी सहज संवेदना को उन दो जोड़ी वृद्ध आँखों से जुड़ा महसूस कर रहा हूँ जो अपने रूठे हुए बेटे की गृह-वापसी का पथ निहारती हुई कई दशकों से आँसू बहाती रही होंगी...बल्कि कहना चाहिए, ख़ून के आँसू रोयी होंगी। आश्चर्य कि ‘माँ’ जैसे विषय पर सुन्दर-सूक्ष्म चिंतन और गहन-सुकोमल भावों से लबरेज शाइरी करने वाले रचनाकार के दिल में इतनी निष्ठुरता कैसे और कहाँ से आ गयी...!? ग़ौरतलब है कि राना साहब द्वारा ‘माँ’ पर कहे गये बहुसंख्यक शे‘र हृदय की गहराइयों में उतर जाते हैं। उनमें अनुस्यूत गहन अनुभूतियों ने उनकी ग़ज़लगोई को गगन-सी ऊँचाई दी हैं। लेकिन...उन अशआर को इस संदर्भित ग़ज़ल की समीक्षा में शामिल करना विषयांतर होगा जो कि मेरा अभीष्ट नहीं है। यहाँ मेरा अभीष्ट तो सिर्फ़ एक ग़ज़ल पर अपना अनन्तिम अभिमत प्रस्तुत करना है। अतः उसी तारतम्य में बात को आगे बढ़ाता हूँ।

रोचक संयोग तो देखिए... ‘गुफ़्तगू’ (इलाहाबाद) के उसी अंक में और उसी पृष्ठ पर (बराबर में) छपे पद्‌मश्री बेकल उत्साही साहब ने अपनी ग़ज़ल में वाजिब फ़रमाया है कि-

"हुक़्म माँ-बाप का बजा लाओ,
ये इबादत किया करो, भइए!"


इसे कहते हैं...सार्थक व संदेशप्रद सृजन! यह और बात है कि यहाँ बेकल उत्साही साहब एक उपदेशक-मुद्रा में दिखायी दे रहे हैं, लेकिन यह उपदेश जनोपयोगी है, ग्राह्य है। यहाँ रदीफ़ के रूप मे प्रयुक्त ‘भइए’ शब्द ने उनकी बुज़ुर्गाना समझाइश को एक आत्मीय परिवेश दे दिया है। यहाँ माँ-बाप की आज्ञा-पालन को ‘इबादत’ की गरिमा मिल गयी है। निःसंदेह ‘माँ-बाप’ भूलोक के चलते-फिरते एवं सर्व-सुलभ देवी-देवता हैं, उनके ‘हुक़्म’ की तामील...उनकी आज्ञा का पालन किसी इबादत...किसी पूजा से कम नहीं है। वस्तुतः सार्थक संदेश के बिना कोई भी रचना अधूरी होती है। स्वयं ‘रचनाकार’ भी विधाता की एक ‘रचना’ ही तो है। मनुष्य-रूपी इस रचना को भी जीवन के हर मोर्चे पर अपने ‘होने’ की सार्थकता प्रमाणित करनी ही पड़ती है! हम जहाँ कहीं भी अपनी सार्थकता को प्रमाणित करने में असफल हो जाते हैं, उस हर जगह पर हमें पृष्ठ के सम्मानित और बहुध्यानित केन्द्र से हटकर उपेक्षित हाशिए में चले जाने के लिए विवश होना पड़ता है। वस्तुतः आज तक जिस रचना ने भी कालजयी/अमर बनने का सौभाग्य पाया है, उसमें कोई-न-कोई संदेश अवश्य रहा है। फिर चाहे वह विधाता-कृत रचना हो अथवा उस विधाता-कृत रचना द्वारा रची गयी रचना। भविष्य में भी वही रचना लम्बे समय तक जीवित रह सकेगी, जो अपनी सार्थकता प्रमाणित कर पाएगी।

अब एक नज़र मुनव्वर राना साहब की उक्त संदर्भित ग़ज़ल के मक्‍ते (अस्तिका) पर :

हम वार अकेले ही सहा करते हैं ‘राना’
हम साथ में लेकर कहीं लश्कर नहीं जाते।


यहाँ ‘हम’ शब्द की आवृत्ति दो बार हुई है। शैल्पिक दृष्टि से सुगढ़ और श्रेष्ठ कविता के लक्ष्य तक पहुँचने के लिए कवि को सर्वनाम, सहायक क्रियादि स्ट्रक्चरल वर्ड्ज़ की ‘अपव्ययिता’ से बचने का हर संभव प्रयास करना चाहिए। स्पष्टतः उपर्युक्त मक्‍ता ‘हम’ शब्द की फ़िज़ूलख़र्ची का शिकार हो गया है। यक़ीनन बार-बार ‘हम-हम’ की रट से शाइर के आत्म-केन्द्रित चिंतन की अतिशयता ध्वनित हो उठी है। इससे आसानी से बचा जा सकता था। समाधान प्रस्तुत है-

हर वार अकेले ही सहा करते हैं ‘राना’
हम साथ में लेकर कहीं लश्कर नहीं जाते।


यहाँ ग़ौरतलब है कि ‘हर’ शब्द ‘हम’ की तरह स्ट्रक्चरल वर्ड ही है...लेकिन दोनों में एक मूलभूत अन्तर है- ‘हर’ एक विभागसूचक सर्वनाम है, जबकि ‘हम’ व्यक्तिवाचक सर्वनाम। यहाँ प्रश्न उठता है कि जब ‘हर’ और ‘हम’ दोनों ही शब्द मूलतः सर्वनाम हैं, तो इससे अन्तर क्या आ गया है? स्पष्टतः अन्तर आ गया है...और काफी अन्तर आ गया है! प्रथमान्तर तो यही कि यहाँ ‘हर’ शब्द ने शाइर पर हुए ‘वार’ की बारम्बारता एवं उसकी कोटियों (मानसिक-शारीरिक, आदि) की ओर संकेत कर दिया है। द्वितीय यह कि शाइर ‘हम’ शब्द की पुनरावृत्ति से बच गया है जिससे चिंतन की ‘आत्म-केन्द्रीयता’ का ग्राफ भी नीचे गिरा है।

बहुवचनीय प्रथम पुरुष में कही/लिखी गयी इस ग़ज़ल के शेष दोनों शे’रों में अवगुम्फित भाव और विचार प्रशंसनीय हैं...जो कि ग़ज़लकार को बधाई का पात्र बनाते हैं। मुझे मुनव्वर राना साहब से सदैव श्रेष्ठ चिंतन-प्रधान शाइरी की अपेक्षा रहती है- इस प्रसन्नता के साथ कि मेरी अपेक्षा एक सक्षम-समर्थ और अति उर्वर लेखनी से जुड़ी है!

चलते-चलते:
काव्य-रचना और ‘काव्य-कचरा’ के बीच एक तबील फ़ासला होता है। किसी भी रचना में से ‘कचरांश’ को छाँट-बीनकर अलग किया जा सकता है, बस थोड़ी-सी अवधानता की आवश्यकता होती है। कचरा कहीं भी पाया जा सकता है...और पाया भी जाता है; सृजन के उत्तुंग शिखरों पर भी, गहन उपत्यकाओं में भी! हाँ, इतना अवश्य है कि कचरे की मात्रा रचनाकार की समग्र सृजनात्मक योग्यता और सृजन-पलों में क्रियाशील अवधानता के अनुपात में कहीं कम तो कहीं ज़्यादा हो सकती है। कई बार तो प्रयास करने पर छाँटे गये कचरे को पुनर्चक्रित (री-साइकल) या व्यवस्थित कर देने से ‘सोना’ नहीं...तो कम-से-कम ‘पीतल’ तो बन ही जाती है...अँग्रेज़ी में कहें तो- ‘ज़िंक फ़्रॉम जंक’!


आगामी अंकों में:

चार पंक्तियाँ, चौदह ग़लतियाँ।
ऊँची दुकान, फीका पकवान।
‘सकलांग’ लेखकों की ‘विकलांग’ भाषा।
‘कवि सम्मेलन’ बनाम ‘कपि सम्मेलन’
...जौहर तेरे अन्दाज़े-बयानी पे फ़िदा है!
प्लेजरिज़्म का प्लेजर।
साहित्यकारों का डॉक्टरीकरण।
आदि-आदि।


जितेन्द्र ‘जौहर’
अंग्रेज़ी विभाग,
एबीआई कॉलेज, रेणुसागर, सोनभद्र (उप्र).
आई आर-13/6, रेणुसागर, सोनभद्र (उप्र) 231218.
मोबा. नं 9450320472
ईमेल jjauharpoet@gmail.com
वेब-पता http://jitendrajauhar.blogspot.com

Thursday, June 16, 2011

हिन्दयुग्म ने मिलवाया दो पुरानी सहेलियों को

27 साल पहले बोधगया के एक गाँव में गये स्काउट गाइड में संध्या (बायें) और संगीता (दायें)

ये बात आपको फिल्मी स्टाइल लग सकती है या कोई तिलस्म पर ये बिल्कुल सच्ची घटना है जिस पर मुझे भी आश्चर्य है। सन 1979 की बात है हम गाइडिंग के एक कैम्प में सलोगड़ा में मिले थे। वो दिल्ली से आई थी और मैं बीकानेर से। 5 दिन की हमारी छोटी से मुलाकात दोस्ती में बदल गई। उसने मेरी पता लिया और मैने उसका। वो ज़माना चिट्ठी-पत्री का था। एक दो खत उसके आए और मैंने भी लिखे। फिर हम 1980 में बोधगया में राष्ट्रीय स्काउट-गाइड जम्बूरी में मिले। वहाँ 15 दिन के साथ ने हमारी दोस्ती को नया आयाम दिया। साथ-साथ उठना-बैठना, सोना-जागना, खाना-पीना, नाचना-कूदना और ढेर सारे रोमांचक खेलों में भाग लेना। जब लौटने का समय आया तो हमारी आँखों में आँसू थे। लौट कर आने के बाद हमारे खतों का सिलसिला बढ़ गया। फिर तो हमें इंतज़ार रहता कि कब कोई कैम्प आयोजित हो और हम उसमें आएं और गले लगकर मिलें। उसके पापा और मेरे पापा रेल्वे विभाग में थे और उस के अंतर्गत हम स्काउटिंग गाइडिंग संस्था से जुड़े हुए थे।

खतों का सिलसिला चलता रहा। ना जाने कितने खत आए और कितने खत मैंने भेजे। अंतर्देशीय पत्र, लिफाफे, ग्रीटिंग कार्ड पर कभी पोस्टकार्ड नहीं था। एक बार पापा मम्मी के साथ दिल्ली जाना हुआ तो वो मुझे मिलने मेरी ताई जी के घर आई जहाँ मैं रुकी हुई थी। मेरी शादी हुई 1985 में तो शगुन के साथ उसका प्यार भरा पत्र भी आया। मैं और मेरे पति जब पहली यात्रा पर निकले तब उसके घर गये। वो प्यार से खाना खिलाना मुझे याद है। कुछ खत और भी आए पर एक ग्रीटिंग कार्ड 1986-87 आया जो शायद अंतिम था। मैंने उसे कईं खत लिखे पर उसका कोई जवाब नहीं आया। मैं हार कर बैठ गई। कुछ दिन यह सोच कर कि उसकी नई शादी हुई होगी। नई परिस्थिति में अपने आप को ढालने की कोशिश कर रही होगी। पर पूरे 25 साल बीत गए। इधर मैं भी उसे ना भुलाते हुए भी अपने जीवन में व्यस्त हो गई। उसके द्वारा भेजे गए सारे खत सम्भाल कर रखे और समय-सम्य पर निकाल्कर पढ़ती रही। फिर एक बार हिंदयुग्म पर सितम्बर माह की युनिकविता प्रतियोगिता के अंतर्गत मेरी कविता “मैं छोटी-सी गुड़िया हूँ” प्रकाशित हुई। कविता पर आई पाठकों की टिप्प्णियाँ पढ़ रही थी कि चौंक गई। कविता में टिप्प्णी करने के बजाय लिखा था संगीता तुम्हें कहाँ-कहाँ नहीं ढूँढ़ा। जब भी तुम्हारा नाम पढ़ती सोचती तुम वही संगीता हो। राजीव का क्या हाल है। मैं बहुत खुश हूँ। “सन्ध्या गर्ग ” और अपना मेल एड्रेस था। यानी वो मेरे भाई राजीव को भी याद रखे थी। मैं एकदम पहचान गई कि ये वो ही सन्ध्या बत्रा है जिसे मैंने भी कहाँ-कहाँ नहीं ढूँढ़ा। मेरी आँखों से अश्रुधारा बह गई। मैन हर्षतिरेक से चीख पड़ी। अपने पति और बच्चों को बताने भागी। अब मेल का सिलसिला शुरू हुआ और फोन नं. की माँग की।

मेल पर वो सारी बातें कर ली और समय निर्धारित कर लिया ताकि जब फोन पर इतने बरसों की बात करें तो हमारी दिनचर्या का कोई काम आड़े ना आए। फिर एक दिन फोन पर बात की और सारे गिले-शिकवे कर डाले। वो भी खुशी से पागल थी और मैं भी। उसने मुझे बताया कि वो दिल्ली के जानकी देवी कॉलेज में हिन्दी की व्याख्याता है। उसई के एक विद्यार्थी की कविता हिंदयुग्म पर प्रकाशित हुई थी और उसके आग्रह पर वो हिन्दयुग्म की साइट पर गई थी। सुखद आश्चर्य था मेरे लिए कि बचपन की दोनों सहेलियाँ जीवन-स्तर की एक ही प्रोफाइल में जी रही थी। सोचिए अगर हममें से एक भी कम पढ़ी-लिखी होती या पढ़े-लिखे होने से क्या होता है? हममें से एक भी कम्प्यूटर ज्ञान वाली ना होती। पर कम्प्य़ूटर ज्ञान से भी क्या होता है? हममें से कोई एक भी नेट सर्च करने वाली ना होती। नेट सर्च करने से क्या होता है जी? हममें से एक भी साहित्य में दखल देने वाली ना होती तो क्या हम मिल पाते? बचपन में बिछड़े दोस्तों का बड़े होकर समान क्षेत्र हो ये आश्चर्य नहीं तो और क्या है। भला हो इस कम्प्यूटर युग का और शुक्रिया हिन्द युग्म का कि जिसने बरसों से बिछड़ी सहेलियों को मिलवाया। आज मैंने सन्ध्या को फेस्बुक पर भी एड कर लिया है।

संगीता सेठी
1/242 मुक्त प्रसाद नगर
बीकानेर (राज)


मंच पर डॉ. संध्या

मंच पर संगीता

मुस्कुराती संध्या

मुस्कुराती संगीता

27 साल पहले की संध्या (मध्य में)

टूर पर बिंदास संध्या (नैनीताल)

टूर पर बिंदास संगीता (बंगलूरू)

लिखे जो खत तुझे- 1

लिखे जो खत तुझे- 2

लिखे जो खत तुझे- 3

लिखे जो खत तुझे- 4

Sunday, May 08, 2011

मेरी माँ

मनोज भावुक

ए बबुआ.. ए बेटा पहुँच गए ।
'हाँ माँ ' .............
' अरे मेरे बाबू ' ...........
कह कर रोने लगी थी माँ । मुझसे कुछ बोला नहीं गया ...........

माँ की आवाज काँप रही थी। माँ बहुत घबरायी हुयी थी। लोगों ने कह दिया था युगांडा बहुत खतरनाक देश है। दिन दहाड़े लूट लेते हैं। आदमी को मार कर खाने वाले आदमी वहां रहते हैं। बहुत मना की थी माँ । मत जाओ। जान से बढकर पैसा नहीं हैं। जिंदा रहोगे तो बहुत कमाओगे।

माँ को इतना घबराये कभी नहीं देखा था.।

........... ज़िन्दगी भटकते, संघर्ष करते बीती । बंजारे की तरह.....। घर छूटा तो छूटा ही रह गया। घर ( गाँव) में रहा कहाँ। घर ही परदेस हो गया। कभी पढने के लिये, कभी नौकरी के लिये, कभी ज्ञान के लिये, कभी पेट के लिये................। पेट, पैर में चरखा लगा कर रखता हैं और आदमी चलता रहता हैं, भागता रहता हैं । जब पढने के लिये पटना रह रहा था तो याद नहीं कि कितनी बार भाग- भाग कर गाँव गया था। पर्व त्यौहार गाँव जाने का बहाना होता था । लेकिन छुटियाँ कब बीत जातीं, पता ही नहीं चलता। उस समय घर भी दो टुकड़े में बंट गया था. कौसड़ (सीवान) और रेनुकूट ( सोनभद्र) ।

अब जहाँ माँ रहती वहीं घर था। घर क्या पिकनिक स्पोट था । जल्दी ही घर से पटना लौटने का समय हो जाता। सुबह-सुबह टीका लगाकर, तुलसी चौरा और शोखा बाबा( गृह देवता) के आगे मस्तक झुका के, दही-पूड़ी खाकर और झोले में लिट्ठी, ठेकुआ , खजूर, चिवडा, गुड और घी अंचार लेकर.......... सभी के पैर छूकर जब घर से निकलता तब माँ मुझे निहारती रह जाती। उसे लगता घर में ही कॉलेज रहता तो कितना बढ़िया होता। मेरे गाँव कौसड़ (सीवान) से पंजुवार का रोड दिखाई देता हैं। माँ छत पर खड़ी होकर जितनी दूर हो सके देखती रहती । मुझसे पीछे मुड़कर देखा नहीं जाता था। रेनुकूट से पटना जाने के क्रम में कई बार ऐसा हुआ कि जाने के लिये घर से निकलता और स्टेशन से टिकट लौटा कर घर वापस आ जाता । भाभी मुस्कुराते हुए झोले की ओर हीं देखती,....कल फिर भुजिया चीरनी और लिट्टी, पूड़ी छाननी होगी। केहुनिया कर पूछ देती......." पटना में कोई ऐसी नहीं है जो उधर खींचे" ।

अब मै भाभी को क्या समझाऊँ कि मेरी ज़िन्दगी में कितनी खीचतान हुई हैं। तंग आकर एक बार मेरी पत्नी ने कह दिया कि "आपका दिल तो भगवान का प्रसाद है ।'' ..... तब मैंने उनसे कहा कि सब प्रसाद तो तुम ही खा गई । अब दिमाग मत खाओ । वह पिनक कर फायर । कहा बुकुनिया बचा है, उसी को बांटिये । ............. पिनकाना , चिढ़ाना, रिगाना. कउंचाना मेरी आदत थी । मै माँ को भी चिढ़ाता था। आखिर तू ने मेरे लिए किया क्या है। ” .....” बडका के घर-दुआर, छोटका के माई-बाप, गइले पूता मझिलू । ”.... मै मझिला हूँ । मुझसे तुम्हारा मतलब ही क्या रहा है। उधर कैकयी ने बनवास दिया राम को और इधर तूने मनोज को । बचपन से हीं दरअसल पढाई -लिखाई और नौकरी के सिलसिले में सबसे ज्यादा घर से बाहर मै हीं रहा । बड़े भैया, छोटा भाई या दीदी ............. ये लोग ज्यादा माँ के पास रहे।

लेकिन युगांडा (अफ्रीका) आने पर और माँ से फोन पर बात करने पर मुझे ये अहसास हुआ कि ...... नहीं. पास में रहने से नहीं........ दूर जाने पर..............अनजान जगह जाने पर.......... शायद प्रेम और बढ़ जाता है, चिंता फिकर और गहरी हो जाती है । माँ हज़ारों किलोमीटर की दूरी से मुझे आपनी बाहों में ऐसे क़स कर पकडे थी जैसे कोई मुझे उसकी गोद से छीन कर ले जा रहा हो. ..........।

माँ मेरी कविता के केंद्र में थी । माँ मेरी प्रेरणा स्त्रोत रही । उसकी याद से मेरी कविता की शुरुआत हुई । मेरी पहली कविता हैं ..........माई (माँ) जो 1997 में भोजपुरी सम्मेलन पत्रिका के जून अंक में प्रकाशित हुई थी । उस कविता में माँ के प्रति मेरे जो भाव रहे उसकी कुछ झलकियाँ और साथ ही मेरे रचना संसार में माँ ........ इस पर हम इस आलेख के अंत में अलग से चर्चा करेंगे । अभी तो एक शेर के माध्यम से अपनी बात आगे बढ़ा रहा हूँ .......

मझधार से हम बांच के अइनी किनार पर
देवास पर भगवान से भखले होई माई

मझधार से मै बच कर आया किनारा पर
देवास पर भगवान से मनौती की होगी माँ

माँ मेरे दुःख-सुख में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से हमेशा मेरे साथ रही । वह मेरे लिये कितनी बार मनौती की है... यह तो याद नहीं है लेकिन बचपन की कुछ बातें अभी भी याद हैं...........

याद है कि पढता मै था और जागती माँ थी......... क्योंकि उसे चाय बनाकर देना होता था। सोता मै था और जागती माँ थी क्योंकि उसे मुझे सुबह जगाना होता था । तो आखिर कब सोती थी माँ ?....... माँ बहुत कम सोती । अंगना से दुअरा चलती रहती थी माँ । काम ना रहने पर काम खोजती रहती थी । काम उसके डर से छिपता फिरता । सुबह पांच बजे से महावीर जी, दुर्गा जी और तुलसी जी की पूजा से जो दिनचर्या शुरू होती वह रात के नौ बजे तक चलती । घर के काम के अलावा पिताजी की नेतागिरी के चलते जो मेहमानों की खातिरदारी होती उसमे माँ दिन भर चाय के साथ उबलती रहती । हमेशा एक- दो आदमी नौकरी के लिये घर में पड़े रहते थे । पिताजी के अपनेपन का दायरा विशाल था और उस अपनेपन में पिसती रहती थी माँ। माँ बहुत सहनशील थी । इस कारन पिताजी की नेतागिरी घर में भी चलती। पिताजी मजदूर यूनियन के नेता थे । उनका सारा ध्यान समाज और यूनियन पर था। इस से घर परिवार की अधिकांश जिम्मेदारी माँ पर आ गई थी । इतना ही नहीं माँ कई टुकडो में बँट गयी थी। वह रेनुकूट में रहती और सोचती कौसड़ की । गाँव में धान कट गई होगी, गेहूं पक गया होगा, भुट्टा पिट गया होगा......... अनाज बर्बाद हो रहा होगा। हर तीन चार महीने के अंतराल पर माँ गाँव चली जाती थी सहेजने- संभालने ।

उस समय मै सोचता कि मेरी बढ़िया नौकरी लग जाए तो मै माँ को इस माया से मुक्त कर दूंगा । नौकरी लगी पर्ल पेट, महाड़, महाराष्ट्र में ट्रेनी इंजिनियर के रूप में........... और ट्रेनिंग कंप्लीट होने पर अफ्रीका और फिर इंग्लैंड चला गया। इंग्लैंड से लौटने के बाद जब मीडिया से जुड़ा और नौयडा में रहने लगा तो माँ को नौयडा ले आया लेकिन नौयडा माँ को रास नहीं आयी । " ए बबुआ यहाँ तो जेल की तरह लगता है । " हालांकि माँ का मन लगाने के लिये अनिता ( मेरी पत्नी) रोज शाम को उनको मंदिर अथवा पार्क कहीं ना कहीं ले जाती थी। लेकिन यहाँ माँ चार महीने से अधिक नहीं टिकी। कैसे टिकती ? माँ पीछले तीस- पैतीस साल से जिस रेनुकूट में रह रही थी वह तो गाँव की तरह ही था। पिताजी ने अपनी चलती में सैकड़ों लोगो की हिंडाल्को में नौकरी लगायी थी। गाँव -जवार, हीत-मित्र और नाते रिश्तेदारों के कई परिवार एक ही मोहल्ले में बस गए थे.।........ माँ उनमे सबसे वरिष्ट, सबसे सीनियर थी । किसी की मामी, किसी की मौसी, किसी की चाची, किसी की दादी । अब किसी को कुछ भी हो या तीज -त्यौहार से सम्बंधित कोई सलाह लेनी हो तो माँ के पास आते । सच पूछिए तो मेरी माँ सबकी माँ हो गई थी ।............ तो भला उसका मन एक बेटा- एक बहू के पास कैसे लगता । ...... माँ नौयडा से रेनुकूट चली गयी ।

माँ मुझे टीवी पर देखकर खुश होती हैं । .......मंच पर भी एक दो बार सुनी हैं । भोजपुरी-मैथिली अकादमी (2008 ) के गणतंत्र दिवस कविता उत्सव में माँ ने दूसरी बार मुझे लाइव सुना था। इसके पहले कोलकाता में 2006 में जब मेरे ग़ज़ल- संग्रह पर "भारतीय भाषा परिषद सम्मान" मिला था और मै वह सम्मान लेने लन्दन से इंडिया आया था .......तो समयभाव के कारण माँ को कोलकाता बुला लिया था । माँ ने पहली बार वहां मुझे मंच पर बोलते देखा था । सम्मान मिलने के बाद मंच से नीचे उतरकर माँ का चरण स्पर्श किया और जो शाल मिला था उसके कंधे पर रख दिया था। माँ को अच्छा लगा था। उसे लगा था कि उसका रात-रात भर जागना काम आया ......क्योंकि माँ अब यह समझ गयी थी कि वह रात भर जागती थी कि बेटा पढ़े ............... और मै पढता कम ....कविता -कहानी अधिक लिखता था। आज उस कविता ने मुझे सम्मान दिलाया तो माँ खुश थी । धीरे-धीरे वक़्त गुजरने पर माँ को भी मंच की सच्चाई समझ में आने लगी। एक बार उसने मुझसे कहा था " ए बबुआ खाली ताली ही कमाओगे ?" यह जगह-जगह घूम -घूम शाल -चद्दर और शील्ड बटोरने से क्या होगा? तुम्हारे जैसे लोग क्या से क्या कर लेते हैं और तू लन्दन-अफ्रीका में रहकर भी फक्कड़ ही रह गया ।. ..... ना घर, ना गाडी, ना स्थिर ठौर ठिकाना । .....किसी जगह कहीं स्थिर रहोगे नहीं. ।.... किसी एक काम में मन नहीं लगावोगे .....ज़िन्दगी भर ऐसे हीं बिखरे रहोगे , भटकते रहोगे । अपने लिये नहीं तो अपने बेटे के लिये सोचो ।........ परिवार के लिये सोचो । ...........माँ ने मुझे नंगा कर दिया था । ऐसे भी माँ के सामने बेटा हमेशा नंगा होता है। माँ बेटे की हर सच्चाई जानती है..।...............कहे या ना कहे ।

मै माँ की कसक .......... माँ की टीस समझ रहा था । मेरा प्रोग्रेस उसकी दृष्टि में संतोषजनक नहीं था। मेरा ही नहीं पिताजी का प्रोग्रेस भी माँ की दृष्टि में संतोषजनक नहीं था। पिताजी भी ज़िन्दगी भर फक्कड़ हीं रहे । ............... माँ ताना मारती "बाक़ी नेता कहाँ से कहाँ पहुंच गए और आप ?.......आपके रिटायर होते हीं बच्चों की पढ़ाई तक का पैसा घटने लगा । दरअसल माँ ने घोर तंगी और अभाव को नजदीक से देखा और भोगा था............... और वह तंगी जो अमीरी के बाद आती है वह तो और भी कष्टदायक होती है। ..........यह तंगी बाबा की जमीन्दारी और ऐशो- आराम के बाद आई थी । माँ नहीं चाहती कि मेरी ज़िन्दगी में भी और मेरे औलाद की ज़िन्दगी में भी वैसा ही हो। जीवन में अर्थ के महत्व को नकारा नहीं जा सकता। इसी से माँ ने सच बोल दिया था।
उसकी बात थोड़ी तीखी लगी थी लेकिन इतनी समझ तो है हीं .....कि ज़िन्दगी के हर कडवाहट में अमृत का प्याला बनकर खड़ी रहने वाली माँ कड़वा क्यों बोल रही थी । कभी- कभी गार्जियन को कड़वा बनना ही चाहिए ।. .............. लेकिन मुझ पर असर?......... चिकने घडे पर क्या असर होगा जी..............
दरअसल माँ ने पिताजी के राज में राजशाही देखी थी । अच्छे - अच्छे लोगों को दरवाज़े पर पानी भरते देखा था। पिताजी की धमक, दबंगई और चलती देखी थी। वे सुख के दिन थे । सुख में सपना कुछ अधिक उड़ान भरने लगता है । उस समय माँ ने जो उम्मीदें की थीं उनमे से आज एक भी साकार नहीं है। माँ अंदर से खुश नहीं है । लेदेकर मुझसे सबसे अधिक उम्मीद थी लेकिन मैंने भी उसे निराश ही किया । .................... भैया को लेकर वह सबसे ज्यादा चिंतिंत रहती है। छोटे बेटे के आवाज़ की तारीफ और शोर सुनी तो लगा कि वह बड़ा गायक बनेगा लेकिन वहाँ भी दिल्ली अभी दूर दिखाई देती है । कुल मिलाकर कोई बेटा माँ का कर्ज उतार नहीं सका।

मेरे बाबा की तीन शादी। बाबूजी नौ भाई। नौ भाई से हम पच्चीस भाई । एक लम्बा चौड़ा परिवार । लेकिन माँ सबकी फेवरेट । ..........माँ की सबसे बड़ी ताक़त थी...........उसकी चुप्पी......उसकी ख़ामोशी। सबके लिये वह हेल्पफुल थी । जरूरत पड़ने पर वह कर्ज लेकर भी मदद करती। .......... माँ ससुराल में ही नहीं अपने नैहर में भी सबकी फेवरेट थी । माँ की चार बहनें और दो भाई थे। बड़े मामा प्रोफेसर राजगृह सिंह की वह लाडली थी। जब कभी माँ की बात होती तो मामा यह बात जरुर कहते कि उस लम्बे चौड़े परिवार (ससुराल का परिवार) को एक सूत्र में बाँध कर रखने में हमारी सुनयना की बहुत बड़ी भूमिका रही है........और इतना हीं नहीं सुनयना के जाने के बाद वह परिवार बहुत आगे बढ़ा है ।

मेरी माँ पढ़ी- लिखी नहीं है , लेकिन अपने नेक स्वभाव के कारण परिवार में और सम्बन्धियों के बीच सबके लिए आदर्श बन गयी है।...... तो मुझे लगता है कि भले ही उसे अक्षर ज्ञान नहीं है लेकिन उसने जिंदगी को खूब पढ़ा है । ..... माँ देवी- देवता पूजती है लेकिन भाग्यवादी नहीं है। उसका विश्वास कर्म में है । काम करते ही उसकी जिंदगी बीती । इसी कारण वह निरोग रही । मोटापा उसके पास कभी नहीं फटक सका । माँ का खान- पान भी बहुत संयमित है । माँ शुद्ध शाकाहारी है । भाभी अभी भी मीट- मछली पर चोट मारती हैं। पिताजी को रोज मिले तब भी कोई बात नहीं। एक ज़माने में पिताजी ने मुर्गा -मुर्गियों के लिए एक अलग घर बना रखा था , जिसमें हमेशा सौ- डेढ़ सौ मुर्गा-मुर्गियां रहा करती थी । मजमा लगता और मुर्गा-भात चलता । माँ तब भी शाकाहारी ही रही । हाँ; ......बनाकर खिलाने में उसे कोई परहेज नहीं था । यही हाल मेरी पत्नी की भी है । वो भी नहीं खातीं पर बनाती हैं और पिताजी की तरह ही मुझे रोज मिले तब भी कोई हर्ज नहीं।

अप्रैल 2009 ............ बहुत मना किया.. माँ नहीं मानी। नौयडा से चली ही गयी और कुछ दिन बाद गाँव में किसी शादी में गयी तो कहीं गिर गई। कूल्हे की हड्डी टूट गयी। बनारस में आपरेशन करके आर्टिफिशियल कूल्हा लगा। चार- पांच महीने बिस्तर पर रहने के बाद धीरे-धीरे चलना शुरू किया। अब चलती हैं । कूल्हा आर्टिफिशियल है लेकिन माँ का चलना पहले जैसा हीं है । ...आदत पीछा नहीं छोड़ती । काम खोजती रहती है । हालांकि अब उसे काम करने की कोई जरुरत नही है । दो बहुएं मौजूद हीं थीं । 17 नवम्बर 2010 को तीसरे बेटे धर्मेन्द्र की शादी हो गई। अब जिसकी तीन-तीन बहुएं हैं । उसे क्या जरुरत है कुछ करने की ...... लेकिन माँ काम में तीनों बहुओं से बीस पड़ती है । खिसियाने पर अपने काम के पैरामीटर से तीनों जनों को नापती और उन्हें निकम्मा घोषित कर देती है ........और खुश होती तो उसके बेटा-बहू की बराबरी दुनिया में कोई नहीं कर सकता । उनके तारीफों के पूल बाँध देती है ।

घर के पास (तुर्रा,पिपरी में ) बहुत ऊंचाई पर हनुमान जी की एक प्रतिमा है। अब तो मंदिर का निर्माण हो रहा है। पिताजी इस पुण्य कार्य में जोर-शोर से लगे हैं । मंदिर इतनी ऊंचाई पर है कि वहाँ से पूरा शहर और रिहंद डेम दिखाई देता है ........रास्ता सीधे खडा है । ......माँ उस पर नहीं चढ़ पाती । लेकिन रोज़ वहाँ जाती है । कभी अकेले और कभी उत्कर्ष और हिमांशु को लेकर । ......माँ नीचे खड़े रहकर उस ऊंचाई पर बैठे हनुमान जी को देखती है । ऊपर जाने के लिए उसका मन बेचैन हो उठता है । रोज़ भोर में वहीं तो दीप जलाने आती थी । .... माँ वहाँ खडी होकर बहुत देर तक देखती है । ........रोज़ देखती है । ........शायद भगवान से पूछती होगी ......" हे भगवान, तूने ऐसा क्यों किया ?"

माँ भगवान को याद करती है और मै माँ को । मै याद क्या करता हूँ .....जब भी परेशान होता हूँ , दुखी होता हूँ , मुसीबत में होता हूँ तो वह खुद- ब- खुद याद आ जाती है भगवान की तरह।


मनोज भावुक

Sunday, April 10, 2011

अन्ना, अनुपम और आन्दोलन के सबक

सर्वप्रथम अन्ना के साहस को प्रणाम, भारतीय ’जन’ के चरणों में नमन, गण को धिक्कार और भारतीय मन को कोटिशः साधुवाद। अन्ना। आप हमारे लिए प्रखर राष्ट्रवाद के प्रतीक हैं जो अपने प्रतिनिधियों को शर्मनाक कार्य करते हुए देखता है तो साइबर पानी में डूबकर मर जाना चाहता है। (क्योंकि वास्तविक पानी तो इन नेताओं ने गरीब की आँखों और भ्रष्टाचार की नदी के अलावा छोड़ा ही कहाँ है!) अन्ना आपने नागरिकों का सिर गर्व से ऊँचा कर दिया है। अन्ना ’वन्दे मातरम्’ ’भारत माता की जय’ इन उद्घोषों से आपका स्वागत है।

अनुपम खेर ने एक बयान दिया और शुरू हो गई अन्ना की जूती से मार खाए नेताओं की अपनी खाल बचाने की चिकचिक। अभी वही चीख रहे हैं जिन्हें जूती सीधी पड़ी है किंतु चीखेंगे सभी जरा धीरे-धीरे थम-थम के। बस देखते जाइये।

अनुपम के बहाने कुछ प्रश्न हवा में है। अनुपम का कथित बयान जो मीडिया के माध्यम से जानकारी में आया है, वह है - यदि संविधान में बदलाव जरूरी है तो किया जाना चाहिए। ’’मैं समझता हूँ इस बहस को आगे बढ़ाना चाहिए।’’ मैं इसे आगे बढ़ाते हुए कुछ प्रश्न रख रहा हूँ: आप अवश्य सहभाग करेंगे:-

1- संविधान की प्रस्तावना पढ़िए ’’हम’’ भारत के लोग - - - एतद्द्वारा संविधान को आत्मर्पित, अध्यर्पित एवं समर्पित करते हैं।’’

बड़ा कौन ? हम भारत के लोग अर्थात् जनता ? या संविधान ?

2- क्या संविधान स्वयं को बदल डालने का अधिकार जनता को नही देता? यदि नहीं तो संविधान संशोधन क्यों? यह भी तो संविधान का बदलाव ही है? एक खास बात कहना चाहूँगा कि संविधान परिवर्तन न होता तो इन शुतुरमुर्गी सेकुलर नेताओं का क्या होता क्योंकि ’’धर्म निरपेक्ष’’ शब्द संविधान परिवर्तन की देन है।

3- यदि अनुपम खेर का बयान संविधान का अपमान है तो इस पर विचार करने का अधिकार किसका होना चाहिए?

4- संविधान अथवा संवैधानिक विधि की समीक्षा का अधिकार मा. सर्वोच्च न्यायालय को है जबकि विधायिकाओं का गठन संविधान द्वारा प्रदत्त व्यवस्थाओं के अन्तर्गत होता है तो ’’संविधान के अपमान’’ के प्रश्न पर विचार करने का अधिकार किसका होना चाहिए विधायिका का अथवा सर्वोच्च न्यायालय का?

5- याद करिए कि हिटलर एक चुना हुआ प्रतिनिधि था और पाकिस्तान के तमाम तानाशाहों ने सत्ता हथियाने के बाद जनतांत्रिक माध्यम का उपयोग करते हुए अपने चयन को वैध ठहराया। तो कहीं महाराष्ट्र विधानसभा द्वारा अनुपम खैर के खिलाफ विशेषाधिकार हनन का मामला बनाना इस बात का संकेत तो नहीं कि भारतीय राजनीति व्यक्तिगत/संस्थागत तानाशाही की तरफ बढ़ रही है।

6- भारत में कौन सा तंत्र है? लोकतंत्र, जनतंत्र अथवा प्रजातंत्र। मेरी समझ में तो नेता जिसे जनता कहते हैं वह तो प्रजातंत्र का हिस्सा है। किसी पार्टी अथवा नेता की ’’परजा’’ दलित है तो कहीं यादव, कहीं सेकुलर तो कहीं हिन्दू। इसी के दम पर आपस में सांठ-गांठ करके (गठबंधन बनाकर) कहते हैं हमें तो जनता ने चुना है अतः हम पर उँगली नहीं उठा सकते। क्या यह ठीक है?

7- क्या उपरोक्त ’’जन’’ अर्थात ’’परजा’’ को तंत्र को समझने की समझ है। मैं कहता हूँ बिल्कुल नहीं शायद इसी को अरस्तू ने कहा था ’’जनता तो भेड़ है।’’ जनतंत्र अथवा लोकतंत्र का जन अथवा लोक तो अन्ना हजारे के साथ हैं, गांधी, एनीबेसेन्ट और तिलक के साथ था। विवेकानन्द के साथ था। किंतु इन्हें तो ’’परजा’’ ने किसी संसद अथवा विधानसभा के लिए नहीं चुना तो क्या विधायक जी अथवा सांसद जी कानून की बाध्यता पैदा कर नाम के आगे ’’माननीय’’ लगवा लेंने से गांधी या अन्ना हजारे से बड़े हो गए।

कृपया इन प्रश्नों पर बहस छेड़कर इसे आगे बढ़ाए।


शिवेन्द्र कुमार मिश्र, बरेली (तृषा'कान्त')

Saturday, April 09, 2011

जरूरत है कन्याओं की हत्या के विरुद्ध खड़े एक अन्ना की

भ्रष्टाचार के समूल नाश के उद्देश्य से, जिन तर्कों और तेवरों के साथ अन्ना हजारे आमरण अनशन पर डटे हुए हैं, वह स्तुत्य और रोमांचकारी है। उन्हें नयी लड़ाई का गाँधी कहा जा रहा है। इस की सच्चाई में किसी को कोई सन्देह नहीं हो सकता। उन का अभियान सफल हो- यह शुभकामना भर व्यक्त कर देना काफी नहीं है, बल्कि पूरी कृतज्ञता से अधिकाधिक संख्या में हमें उन के साथ उठ खड़ा होना चाहिए, क्योंकि इतनी अवस्था के हो कर भी, वे हमारे लिए ही यह कष्ट उठा रहे हैं। किन्तु, प्रसंग ऐसा आ पड़ा है कि अक्सर सोचने लगता हूँ- काश! कुछ अन्य दाहक सवालों पर भी ऐसे ही कुछ अन्ना और होते!

भ्रष्टाचार का आम तात्पर्य जो लगाया जाता है, वह बड़ा संकुचित है- आर्थिक व प्रशासनिक भ्रष्टाचार मात्र। पर, इस से भी व्यापक व गहरा है सामाजिक भ्रष्टाचार, विशेषकर स्त्रियों व दलितों के साथ हो रहीं अमानुषिक यातनाएँ। आमतौर पर आर्थिक व राजनैतिक अपराध पर चर्चा/बहस के शोर में सामाजिक व मानवीय अत्याचारों की चीख हम नहीं सुन पाते। उन से जुड़े अपराधों पर हमारी निगाह नहीं जा पाती,या कम जाती है अथवा जा कर भी ठहरती नहीं। किसी भी तर्कनिष्ठ व संवेदनशील व्यक्ति के लिए यह तय करना मुश्किल नहीं होगा कि धन की हेराफेरी(घोटाले) या संसद पर हमला करने आदि से भी बड़े अपराध हैं निठारी-काण्ड, अनुसूचित जातियों की बस्तियाँ जलाना, गोधरा आदि के दंगे, लड़कियों/स्त्रियों का बलात्कार/हत्या, उनकी ट्रैफिकिंग या उन्हें बजबजाती देहमण्डी में धकेल देना तथा और भी बहुत कुछ जो उन के साथ हो रहा है, वह! इसी सन्दर्भ में आम्बेडकर ने कहा होगा- ‘‘अगर इन्सानों के अनुरूप जीने की सुविधा कुछ लोगों तक ही सीमित है, तब जिस सुविधा को आमतौर पर स्वतन्त्रता कहा जाता है, उसे विशेषाधिकार कहना उचित है।’’

ये स्थितियाँ निरन्तर बनी हुई हैं, लेकिन इन पर प्राय: वैसा उबाल नहीं आता, जैसा अभी अन्ना के इर्द-गिर्द दिखाई दे रहा है।

सप्ताह भर पहले प्रकाशित 2011 की जनगणना की प्रारंभिक रिपोर्ट ने यह बेहद दिल-दहलाऊ तथ्य उजागर किया है:- राष्ट्रीय स्तर पर 0-6 वर्षीय लिगानुपात 13 अंक गिर कर 914 हो गया है-- यानी, पिछले 10 सालों में कन्याओं की हत्या करने में देश और शातिराना तरक्की पर आ गया है । पर, अफसोस कि अब तक इस दर्दनाक और शर्मनाक स्थिति पर कोई राष्ट्रीय क्या, प्रान्तीय या स्थानीय स्तर पर भी चर्चा नहीं हुई । इस के लिए, जिस दिन/सप्ताह को हमें राष्ट्रीय शोक मनाना चाहिए था, उस समय अपने आकाओं के साथ हम विश्वक्रिकेट में जारी भारतीय बढ़त/जीत के बेशर्म उन्माद से ग्रस्त रहे । हमारी सरकार और सम्पूर्ण मीडिया ने घरफूँक मस्ती में आपादमस्तक खुद डूब कर, एक बड़े प्रचार-अभियान के द्वारा हमें भी डुबाए रखा । वह बुखार हम पर से अब भी शायद नहीं उतरा है । एक छोटे से जमीन-खंड (पीच) पर देश के कुछ लोगों की भागदौड़ व ठकठक का कौशल हमारे लिए आधी आबादी ( के व्यक्तित्व-प्राप्ति के सवाल से बढ़ कर, उस ) को अस्तित्व /प्राण-धारण करने तक से वंचित किये जाने के सवाल से भी ज़्यादा महत्त्वपूर्ण जब हो जाए, तब कितनी घृणित-कारुणिक हो जाती है हमारी बेहोशी ! अपनी इन्सानियत का कबाड़ा निकाल दिया है हम सब ने ! स्त्री के प्रति भेदभाव और उसे अभाव-ग्रस्त रखने का चरम रूप -- ‘स्त्री का अभाव’ पैदा करते ; उसे विलुप्तप्राय प्रजाति में बदलते !

दोस्तो ! बहनो ! भाइयो ! अब शोक मनाने का समय नहीं है ! इस पर विचार-विमर्श मात्र करने का भी यह समय नहीं है, बल्कि अब कुछ करने का समय है ! ( विचार-विमर्श भी इस देश से कैसा सम्भव है ? इसी तरह का न, कि लड़कियाँ इसी तरह घटती गयीं तो मर्दों को बीवियाँ कहाँ से मिलेंगी ? ) यह समय, इस सवाल पर कई-एक अन्ना या उन के चारो ओर उमड़ रहे लोगों में से से एक-एक आन्दोलित व्यक्ति बनने का है । क्या उम्मीद की जाए कि पुत्र-मोह की सड़ाँध के आदी इस समाज द्वारा चलाये जा रहे कन्याओं के (जन्मपूर्व / जन्म-बाद के) हत्याभियान को रोकने हेतु कोई बड़ा आन्दोलन होगा ? बड़ा न सही, व्यक्तिगत स्तर पर शारीरिक, वाचिक या कम से कम मानसिक सक्रियता ही हम में दिखाई देगी ? क्या इतनी तमीज भी हम(नर-नारियों) में नहीं आएगी?

(चलते-चलते एक मासूम सवाल और ! महिला-आरक्षण-बिल को पास कराने हेतु इसी तरह कोई अन्ना/अन्नी हम में से निकल कर जन्तर-मन्तर या लालकिले पर कभी दिखाई देगा / देगी ? )
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-- रवीन्द्र कुमार पाठक
व्याख्याता, जी.एल.ए.कॉलेज,डाल्टनगंज(झारखण्ड)
ई-मेल : rkpathakaubr@gmail.com