
भ्रष्टाचार का आम तात्पर्य जो लगाया जाता है, वह बड़ा संकुचित है- आर्थिक व प्रशासनिक भ्रष्टाचार मात्र। पर, इस से भी व्यापक व गहरा है सामाजिक भ्रष्टाचार, विशेषकर स्त्रियों व दलितों के साथ हो रहीं अमानुषिक यातनाएँ। आमतौर पर आर्थिक व राजनैतिक अपराध पर चर्चा/बहस के शोर में सामाजिक व मानवीय अत्याचारों की चीख हम नहीं सुन पाते। उन से जुड़े अपराधों पर हमारी निगाह नहीं जा पाती,या कम जाती है अथवा जा कर भी ठहरती नहीं। किसी भी तर्कनिष्ठ व संवेदनशील व्यक्ति के लिए यह तय करना मुश्किल नहीं होगा कि धन की हेराफेरी(घोटाले) या संसद पर हमला करने आदि से भी बड़े अपराध हैं निठारी-काण्ड, अनुसूचित जातियों की बस्तियाँ जलाना, गोधरा आदि के दंगे, लड़कियों/स्त्रियों का बलात्कार/हत्या, उनकी ट्रैफिकिंग या उन्हें बजबजाती देहमण्डी में धकेल देना तथा और भी बहुत कुछ जो उन के साथ हो रहा है, वह! इसी सन्दर्भ में आम्बेडकर ने कहा होगा- ‘‘अगर इन्सानों के अनुरूप जीने की सुविधा कुछ लोगों तक ही सीमित है, तब जिस सुविधा को आमतौर पर स्वतन्त्रता कहा जाता है, उसे विशेषाधिकार कहना उचित है।’’
ये स्थितियाँ निरन्तर बनी हुई हैं, लेकिन इन पर प्राय: वैसा उबाल नहीं आता, जैसा अभी अन्ना के इर्द-गिर्द दिखाई दे रहा है।
सप्ताह भर पहले प्रकाशित 2011 की जनगणना की प्रारंभिक रिपोर्ट ने यह बेहद दिल-दहलाऊ तथ्य उजागर किया है:- राष्ट्रीय स्तर पर 0-6 वर्षीय लिगानुपात 13 अंक गिर कर 914 हो गया है-- यानी, पिछले 10 सालों में कन्याओं की हत्या करने में देश और शातिराना तरक्की पर आ गया है । पर, अफसोस कि अब तक इस दर्दनाक और शर्मनाक स्थिति पर कोई राष्ट्रीय क्या, प्रान्तीय या स्थानीय स्तर पर भी चर्चा नहीं हुई । इस के लिए, जिस दिन/सप्ताह को हमें राष्ट्रीय शोक मनाना चाहिए था, उस समय अपने आकाओं के साथ हम विश्वक्रिकेट में जारी भारतीय बढ़त/जीत के बेशर्म उन्माद से ग्रस्त रहे । हमारी सरकार और सम्पूर्ण मीडिया ने घरफूँक मस्ती में आपादमस्तक खुद डूब कर, एक बड़े प्रचार-अभियान के द्वारा हमें भी डुबाए रखा । वह बुखार हम पर से अब भी शायद नहीं उतरा है । एक छोटे से जमीन-खंड (पीच) पर देश के कुछ लोगों की भागदौड़ व ठकठक का कौशल हमारे लिए आधी आबादी ( के व्यक्तित्व-प्राप्ति के सवाल से बढ़ कर, उस ) को अस्तित्व /प्राण-धारण करने तक से वंचित किये जाने के सवाल से भी ज़्यादा महत्त्वपूर्ण जब हो जाए, तब कितनी घृणित-कारुणिक हो जाती है हमारी बेहोशी ! अपनी इन्सानियत का कबाड़ा निकाल दिया है हम सब ने ! स्त्री के प्रति भेदभाव और उसे अभाव-ग्रस्त रखने का चरम रूप -- ‘स्त्री का अभाव’ पैदा करते ; उसे विलुप्तप्राय प्रजाति में बदलते !
दोस्तो ! बहनो ! भाइयो ! अब शोक मनाने का समय नहीं है ! इस पर विचार-विमर्श मात्र करने का भी यह समय नहीं है, बल्कि अब कुछ करने का समय है ! ( विचार-विमर्श भी इस देश से कैसा सम्भव है ? इसी तरह का न, कि लड़कियाँ इसी तरह घटती गयीं तो मर्दों को बीवियाँ कहाँ से मिलेंगी ? ) यह समय, इस सवाल पर कई-एक अन्ना या उन के चारो ओर उमड़ रहे लोगों में से से एक-एक आन्दोलित व्यक्ति बनने का है । क्या उम्मीद की जाए कि पुत्र-मोह की सड़ाँध के आदी इस समाज द्वारा चलाये जा रहे कन्याओं के (जन्मपूर्व / जन्म-बाद के) हत्याभियान को रोकने हेतु कोई बड़ा आन्दोलन होगा ? बड़ा न सही, व्यक्तिगत स्तर पर शारीरिक, वाचिक या कम से कम मानसिक सक्रियता ही हम में दिखाई देगी ? क्या इतनी तमीज भी हम(नर-नारियों) में नहीं आएगी?
(चलते-चलते एक मासूम सवाल और ! महिला-आरक्षण-बिल को पास कराने हेतु इसी तरह कोई अन्ना/अन्नी हम में से निकल कर जन्तर-मन्तर या लालकिले पर कभी दिखाई देगा / देगी ? )
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-- रवीन्द्र कुमार पाठक
व्याख्याता, जी.एल.ए.कॉलेज,डाल्टनगंज(झारखण्ड)
ई-मेल : rkpathakaubr@gmail.com
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