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ये बात आपको फिल्मी स्टाइल लग सकती है या कोई तिलस्म पर ये बिल्कुल सच्ची घटना है जिस पर मुझे भी आश्चर्य है। सन 1979 की बात है हम गाइडिंग के एक कैम्प में सलोगड़ा में मिले थे। वो दिल्ली से आई थी और मैं बीकानेर से। 5 दिन की हमारी छोटी से मुलाकात दोस्ती में बदल गई। उसने मेरी पता लिया और मैने उसका। वो ज़माना चिट्ठी-पत्री का था। एक दो खत उसके आए और मैंने भी लिखे। फिर हम 1980 में बोधगया में राष्ट्रीय स्काउट-गाइड जम्बूरी में मिले। वहाँ 15 दिन के साथ ने हमारी दोस्ती को नया आयाम दिया। साथ-साथ उठना-बैठना, सोना-जागना, खाना-पीना, नाचना-कूदना और ढेर सारे रोमांचक खेलों में भाग लेना। जब लौटने का समय आया तो हमारी आँखों में आँसू थे। लौट कर आने के बाद हमारे खतों का सिलसिला बढ़ गया। फिर तो हमें इंतज़ार रहता कि कब कोई कैम्प आयोजित हो और हम उसमें आएं और गले लगकर मिलें। उसके पापा और मेरे पापा रेल्वे विभाग में थे और उस के अंतर्गत हम स्काउटिंग गाइडिंग संस्था से जुड़े हुए थे।
खतों का सिलसिला चलता रहा। ना जाने कितने खत आए और कितने खत मैंने भेजे। अंतर्देशीय पत्र, लिफाफे, ग्रीटिंग कार्ड पर कभी पोस्टकार्ड नहीं था। एक बार पापा मम्मी के साथ दिल्ली जाना हुआ तो वो मुझे मिलने मेरी ताई जी के घर आई जहाँ मैं रुकी हुई थी। मेरी शादी हुई 1985 में तो शगुन के साथ उसका प्यार भरा पत्र भी आया। मैं और मेरे पति जब पहली यात्रा पर निकले तब उसके घर गये। वो प्यार से खाना खिलाना मुझे याद है। कुछ खत और भी आए पर एक ग्रीटिंग कार्ड 1986-87 आया जो शायद अंतिम था। मैंने उसे कईं खत लिखे पर उसका कोई जवाब नहीं आया। मैं हार कर बैठ गई। कुछ दिन यह सोच कर कि उसकी नई शादी हुई होगी। नई परिस्थिति में अपने आप को ढालने की कोशिश कर रही होगी। पर पूरे 25 साल बीत गए। इधर मैं भी उसे ना भुलाते हुए भी अपने जीवन में व्यस्त हो गई। उसके द्वारा भेजे गए सारे खत सम्भाल कर रखे और समय-सम्य पर निकाल्कर पढ़ती रही। फिर एक बार हिंदयुग्म पर सितम्बर माह की युनिकविता प्रतियोगिता के अंतर्गत मेरी कविता “मैं छोटी-सी गुड़िया हूँ” प्रकाशित हुई। कविता पर आई पाठकों की टिप्प्णियाँ पढ़ रही थी कि चौंक गई। कविता में टिप्प्णी करने के बजाय लिखा था संगीता तुम्हें कहाँ-कहाँ नहीं ढूँढ़ा। जब भी तुम्हारा नाम पढ़ती सोचती तुम वही संगीता हो। राजीव का क्या हाल है। मैं बहुत खुश हूँ। “सन्ध्या गर्ग ” और अपना मेल एड्रेस था। यानी वो मेरे भाई राजीव को भी याद रखे थी। मैं एकदम पहचान गई कि ये वो ही सन्ध्या बत्रा है जिसे मैंने भी कहाँ-कहाँ नहीं ढूँढ़ा। मेरी आँखों से अश्रुधारा बह गई। मैन हर्षतिरेक से चीख पड़ी। अपने पति और बच्चों को बताने भागी। अब मेल का सिलसिला शुरू हुआ और फोन नं. की माँग की।
मेल पर वो सारी बातें कर ली और समय निर्धारित कर लिया ताकि जब फोन पर इतने बरसों की बात करें तो हमारी दिनचर्या का कोई काम आड़े ना आए। फिर एक दिन फोन पर बात की और सारे गिले-शिकवे कर डाले। वो भी खुशी से पागल थी और मैं भी। उसने मुझे बताया कि वो दिल्ली के जानकी देवी कॉलेज में हिन्दी की व्याख्याता है। उसई के एक विद्यार्थी की कविता हिंदयुग्म पर प्रकाशित हुई थी और उसके आग्रह पर वो हिन्दयुग्म की साइट पर गई थी। सुखद आश्चर्य था मेरे लिए कि बचपन की दोनों सहेलियाँ जीवन-स्तर की एक ही प्रोफाइल में जी रही थी। सोचिए अगर हममें से एक भी कम पढ़ी-लिखी होती या पढ़े-लिखे होने से क्या होता है? हममें से एक भी कम्प्यूटर ज्ञान वाली ना होती। पर कम्प्य़ूटर ज्ञान से भी क्या होता है? हममें से कोई एक भी नेट सर्च करने वाली ना होती। नेट सर्च करने से क्या होता है जी? हममें से एक भी साहित्य में दखल देने वाली ना होती तो क्या हम मिल पाते? बचपन में बिछड़े दोस्तों का बड़े होकर समान क्षेत्र हो ये आश्चर्य नहीं तो और क्या है। भला हो इस कम्प्यूटर युग का और शुक्रिया हिन्द युग्म का कि जिसने बरसों से बिछड़ी सहेलियों को मिलवाया। आज मैंने सन्ध्या को फेस्बुक पर भी एड कर लिया है।
संगीता सेठी
1/242 मुक्त प्रसाद नगर
बीकानेर (राज)
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9 बैठकबाजों का कहना है :
नमस्ते! इन्टरनेट ने आपकी सहेली संध्या जी को मिला दिया पढ़ कर बहुत खुशी हुई।मैँ भी साहित्य मेँ रुचि रखता हूँ और पत्र-पत्रिकाओँ मेँ,रेडियोँ स्टेशन विविध भारती मेँ पत्र लिखता रहता हूँ और अपने बचपन के मित्रोँ को खोज रहा हूँ जो नानपारा(उत्तरप्रदेश) की सिँचाई कालोनी न0-2 मेँ 1980से1990तक रहते थे,पिता जी का ट्रान्सफर हो जाने से मैँ 1986 मेँ वहाँ से चला आया था मैँ फेसबुक पर भी सबको खोज रहा हूँ पर अभी तक कोई नहीँ मिला मैने अपने फेसबुक info मेँ भी सबके बारे मेँ लिखा है शायद आपकी तरह कभी मेरे भी बिछड़े दोस्त मिल जायेँ एक क्लास 5 मेँ मेरे साथ पढ़ने वाली ममता दूबे D/Oश्री सुरेश नारायण दूबे इस समय कानपुर मेँ रहती हैँ पता चला है पर पता या मोबाइल नम्बर नहीँ मिल सका है शायद आपकी तरह कभी मुझे भी सफलता मिल जाये (प्रभाकर शर्मा कालोनी न0 2-नानपारा जिला-बहराइच उत्तरप्रदेश) मो0- 09559908060और09455285351और08896968727ईमेलps50236@gmail.comआरकुट और फेसबुक पर भी हूँ किसी के पास जानकारी हो तो प्लीज अवश्य बताये
यह एक बहुत सुखद संयोग रहा कि दो घनिष्ठ सहेलियों का इतनी अवधि के बाद फिर मेल हो गया.
शायद ऐसी कहानी हम में से बहुत लोगों की होगी कि बचपन या किशोर अवस्था के पुराने कुछ मित्रों से अरसे से संपर्क न हुआ हो और सूत्र टूट गया हो.समय के साथ बहुत कुछ बदल जाता है - निवास, गांव/शहर आदि.
अब उत्कट इच्छा के बावजूद उनके पते के अभाव में अक्सर मेलजोल लगभग असंभव हो जाता है. संध्या जी और संगीता जी की कहानी अवश्य अपवाद है.
उनकीं अटूट मित्रता और अन्य बिछुड़े मित्रों के लिए ढेर सारी शुभकामनायें.
अवध लाल
क्या संयोग है! वाकई कमाल है। हिन्द्युग्म दो बिछडी सखियों के पुनर्मिलन का माध्यम बना, जानकर अच्छा लगा।
मैंने तो आवाज के अलावा कभी दूसरे भागों पर ध्यान ही नहीं दिया. आज खोल बैठा तो क्या जबरदस्त पढ़ने को मिला. हम सभी को शायद अपने पुराने दोस्तों की तलाश रहती है. किसकी कब पूरी हो जाये क्या पता.
इसे हम भाग्य का नाम दे सकते है |बाक़ी सब तो माध्यम भर हैं | बहुत ही अच्छा लगा पढ़ कर|
विचार व्यक्त करने का बहुत ही अच्छा माध्यम है, बचपन और स्कूल के दिनों के मित्रों को जो साहित्य में रूचि रखते है एक मंच पर लाने का साधन बन सकता है....
पवन सक्सेना
मुंबई
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