Thursday, June 23, 2011

‘सिद्धार्थ’ बनाम ‘गौतम’

आज से हम एक नया स्तम्भ 'मी जौहर बोलतोय...' का शुभारम्भ कर रहे हैं। इस स्तम्भ में युवा आलोचक जितेन्द्र जौहर हिन्दी साहित्य की समकालीन कुचर्चित-सुचर्चित रचनाओं, कृतियों को समीक्षा के निकष पर कसेंगे। साथ ही, भाषा एवं सहित्य-सृजन से बावस्ता अनेकानेक पहलुओं पर प्रकाश डालेंगे। हमारा यह प्रयास 'जागो, पाठक जागो' की थीम को लेकर चल रहा है, जो इस बात को आधार देगा कि आज के 'सूटेड-बूटेड साहित्य' को बिना परख के स्वीकारना असल में साहित्य की नींव खोदना है। समीक्षा-क्षेत्र में बहुप्रचलित 'ठकुर-सुहाती' और एक-दूसरे को 'कालिदास-भवभूति' की संज्ञा प्रदान करने के इस दौर में 'मी जौहर बोलतोय...' की निष्पक्ष एवं निर्भीक प्रस्तुतियाँ कितनी प्रभावपूर्ण हैं, यह निर्णय आप पाठकजनों पर निर्भर है।

‘सिद्धार्थ’ बनाम ‘गौतम’


‘मी जौहर बोलतोय...’ : स्तम्भ-परिचय
इस स्तम्भ के अंतर्गत देश-व्यापी पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित/प्रसारित विपुल साहित्यिक सामग्री के बीच से यथाआवश्यकता/यथारुचि चुनी गयी किसी गद्य/पद्य रचना को उसके गुण-दोषपूर्ण विवेचन के साथ प्रस्तुत किया जाएगा। सामग्री-स्रोत के रूप में समीक्षार्थ प्रेषित पुस्तकों, वेब-साइट्‍स, ब्लॉग्ज़, न्यूज़पोर्टल्ज़, ई-पत्रिकाओं, आदि का विकल्प भी खुला ही है।

साथ ही, इसमें समय-समय पर भाषा एवं साहित्य-सृजन से जुड़े अनेकानेक महत्त्वपूर्ण पहलुओं, सम-सामयिक साहित्यिक विमर्शादि का भी समावेश किया जाएगा।

हमारा हर संभव प्रयास रहेगा कि ‘मी जौहर बोलतोय...’ को तथ्यों-तर्कों से परिपुष्ट प्रमाणसम्मत अभिव्यक्ति के उत्कृष्ट मानकों की अनुकरणीय परिधि में रखते हुए...विचार-प्रस्तुति की स्वस्थ, निष्पक्ष एवं निर्भीक परम्परा की एक छोटी-सी किन्तु सुन्दर कड़ी बनाया जा सके...और रचनाकार की रचनाधर्मिता पर सार्थक संवाद का मंच भी।

कहना न होगा कि ‘कौन’ पर केन्द्रित ‘व्यक्तिपरक’ दृटि में निष्पक्षता के तमाम दावों के बावजूद भी कहीं-न-कहीं राग-द्वेष के रंग उभर ही आते हैं। अतः ‘कौन’ यानी रचनाकार की जगह ‘क्या’ अर्थात्‌ रचना पर आधारित ‘वस्तुपरक’ दृष्टि ही इस स्तम्भ का मूल आधार होगी। दूसरे शब्दों में कहें, तो यहाँ ‘व्यक्ति’ नहीं, बल्कि ‘अभिव्यक्ति’ पर ध्यान केन्द्रित करना हमारा अभीष्ट होगा। तो लीजिए प्रस्तुत है... ‘मी जौहर बोलतोय....’ :
देश-देशान्तर तक फैले ग़ज़ल के सुविस्तृत परिक्षेत्र में मुनव्वर राना साहब का नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं है। उनके प्रशंसकों में एक नाम मेरा भी शामिल है। कोई भी प्रशंसक अपने प्रिय लेखक/कलाकार को उत्कृष्ट लेखन या कला-पथ से विमुख होते अथवा भटकते हुए नहीं देखना चाहता। इस संदर्भ में तथ्य, तर्क एवं प्रमाणसम्मत चर्चा आगे बढ़ाने से पहले एक नज़र उनकी निम्नांकित ग़ज़ल पर-

गौतम की तरह घर से निकलकर नहीं जाते।
हम रात में छुपकर कहीं बाहर नहीं जाते।

बचपन में किसी बात पे हम रूठ गये थे,
उस दिन से इसी शहर में हैं घर नहीं जाते।

इक उम्र यूँ ही काट दी फुटपाथ पे रहकर,
हम ऐसे परिन्दे हैं जो उड़कर नहीं जाते।

उस वक़्त भी अक्सर तुझे हम ढ़ूँढ़ने निकले,
जिस धूप में मज़दूर भी छत पर नहीं जाते।

हम वार अकेले ही सहा करते हैं ‘राना’
हम साथ में लेकर कहीं लश्कर नहीं जाते।
(‘गुफ़्तगू’/सं. मोहम्मद ग़ाज़ी, अंक मार्च-2008, पृ.09)

मैंने मुनव्वर राना साहब के साथ सहयात्री बनकर उक्त संदर्भित ग़ज़ल के भाव-लोक और विचार-व्योम में विचरण किया। इस दौरान जो भी दृश्यावली मेरे दृग्पथ से गुजरी, उसका समग्र प्रभाव ‘जैसा है, जहाँ है’ (ऐज़ इज़, व्हेअर इज़) के आधार पर यहाँ प्रस्तुत है। उक्त ग़ज़ल के इस मत्ले (उदयिका) पर पुनः एक नज़र-

गौतम की तरह घर से निकलकर नहीं जाते।
हम रात में छुपकर कहीं बाहर नहीं जाते।


यह मत्ला एक तथ्यात्मक दोष लेकर सामने आया है। ध्यातव्य है कि ‘घर’ से ‘गौतम’ नहीं निकले थे, राजकुमार सिद्धार्थ निकला था। राजसी वैभव को ठोकर मारकर निकला था। यहाँ तक कि उसने अपने ‘कंतक’ नामक श्‍वेताश्‍व, तलवार तथा राजकीय परिधान तक ‘चन्ना’ (एक सारथी) के हाथों अपने पिता राजा शुद्धोधन के पास वापस भेज दिये थे। यहीं से शुरू होता है उसकी ‘एटर्नल क्वेस्ट’ का एक अद्‌भुत मिशन...‘सत्य की खोज’ का एक सुन्दर किन्तु अत्यन्त कठिन अभियान! नगर-नगर घूमने और वन-वन भटकने के बाद अन्ततः वह बोध गया में एक वट-वृक्ष के नीचे बैठ गया...मन में ज्ञान-प्राप्ति का संकल्प लेकर। वर्षों की साधना में तपा...‘बोध’ पाया। तब जाकर बना- ‘गौतम बुद्ध’!

वस्तुतः जब कोई ‘सिद्धार्थ’ गौतम बुद्ध बनता है, तब उसे किसी ‘घर’ से निकलने की आवश्यकता ही नहीं रह जाती क्योंकि उस दुर्लभ अवस्था में समूचा संसार ही उसका ‘घर’ हो जाता है- ‘वसुधैव कुटुम्बकम्‌’! ऐसा ‘बड़ा घर’ अपनाने के लिए ‘छोटा घर’ छोड़ देना सर्वथा उचित है, महापुरुषोचित है; फिर चाहे वह घर कोई ‘पर्णकुटी’ हो अथवा ‘स्वर्णकुटी’। राजकुमार सिद्धार्थ ने भी यही किया। आख़िर उन्हें नेपाल की तराई में अवस्थित कपिलवस्तु के एक छोटे-से ‘राजमहल’ (घर) से निकलकर संसार-रूपी बड़े-से ‘महामहल’ का हृदय-सम्राट जो बनना था...बल्कि कहना चाहिए कि नियति उन्हें ऐसा बनाना ही चाहती थी।

एक बात और...! हमारे यहाँ एक नहीं, दो ‘गौतम’ हुए हैं। एक तो अपने यही महात्मा गौतम बुद्ध...और दूसरे गौतम ऋषि। शाइर ने ‘रात में छुपकर घर से निकलने’ की बात कहकर ‘गौतम’ के चेहरे पर टॉर्च का फ़ोकस-सा मार दिया है जिसके प्रकाश में ‘कौन-से गौतम?’ वाला प्रश्न सुस्पष्ट रूप से उत्तरित हो गया है। अतः यहाँ ‘गौतम’ की शिनाख़्त को लेकर कोई भ्रम/संदेह नहीं है। हाँ... यदि ‘रात में छुपकर’ का प्रयोग न किया गया होता, तो सिर्फ़ ‘घर से निकलकर’ के द्वारा ‘गौतम’ की पहचान कर पाना आसान भी नहीं था। कारण कि ‘घर’ से तो गौतम ऋषि भी निकलते थे...और अहिल्या-प्रसंग वाले दिन भी निकले ही थे! ये ‘भोर’ में निकले थे, जबकि वे (सिद्धार्थ) ‘रात’ में! कुल मिलाकर उक्त मत्ले के पहले मिसरे में ‘गौतम’ की पहचान अधूरी है जिसे दूसरे मिसरे ने पूर्णता प्रदान की। यह ग़लत भी नहीं...भाव की दृष्टि से मिसरा होता ही अधूरा है!

‘सिद्धार्थ’ बनाम ‘गौतम’ वाले बिन्दु का समाधान कुछ यूँ तलाश भी लिया जाए कि- ‘सिद्धार्थ की मानिन्द निकलकर नहीं जाते’ - तो भी बात कुछ बनती दिखायी नहीं देती! कारण कि... उक्त मत्ले की मूल भाव-भंगिमा ही यह सुस्पष्ट संकेत दे रही है कि मुनव्वर राना साहब का शाइर सिद्धार्थ के ‘गृह-निष्क्रमण’ को नकारात्मक दृष्टि से देख रहा है- ‘गौतम की तरह घर से निकलकर नहीं जाते।’ यानी गौतम (सॉरी... सिद्धार्थ) ने घर से निकलकर...घर त्यागकर ठीक नहीं किया था। इसीलिए उनकी तरह- ‘हम रात में छुपकर कहीं बाहर नहीं जाते।’ अर्थात्‌ हम ठीक कर रहे हैं। वस्तुतः यहाँ मस्तिष्क के अवचेतनीय कोष्ठ में छिपे ‘अहम्‌’ ने अभिव्यक्ति पायी है...यहाँ ‘अहम्‌’ विनम्रता के आवरण में लिपटकर सामने आया है; शाइर ने एकवचनीय प्रथम पुरुष ‘मैं’ के बजाय बहुवचनीय ‘हम’ के प्रयोग से ‘अहम्‌’ पर परदा डालने का प्रयास किया है।

यहाँ राजकुमार सिद्धार्थ के ‘गृह-त्याग’ का बहुज्ञात प्रसंग वर्णन-विस्तार की अनुमति नहीं दे रहा है, तथापि उसकी संक्षिप्त पृष्ठभूमि यही कि रोग, शोकादि से ग्रस्त और त्रस्त मानव-जीवन को देखकर राजकुमार सिद्धार्थ का समूचा अस्तित्व तरह-तरह के प्रश्नों से आक्रान्त हो उठा था; वे इनसे छुटकारा दिलाने का मार्ग खोजना चाहते थे। एक रात वे सहसा उठ खड़े हुए और गहन निद्रा में डूबी हुई पत्नी यशोधरा और पुत्र राहुल को मोहवश निहारा...क़दम कुछ ठिठके...जो कि स्वाभाविक ही था, रिश्तों का मोह ही ऐसा होता है! शीघ्र ही ‘शाश्‍वत खोज’ के प्रश्‍न ने उन्हें पुनः विकल कर दिया...अन्तर्द्वंद्व का दौर शुरू हो गया- एक ओर रिश्तों का ‘मोह’ और दूसरी ओर त्रस्त मानवता का तारणहार बनने का ‘वैकल्य’। मोह का दायरा ‘संकुचित’ था जबकि उनका ‘वैकल्य’ एक अत्यन्त ‘व्यापक’ परिधि को समेटे खड़ा था। महापुरुषों की यह भी एक पहचान होती है कि वे ‘संकुचित’ को त्यागकर ‘व्यापक’ को पकड़ते हैं। सिद्धार्थ ने भी यही किया। सारतः उनके गृह-निष्क्रमण की घटना रिश्तों का पारिवारिक बंधन तोड़कर समूची सृष्टि से प्रेम-बंधन जोड़ने की कहानी है। घर से निकलकर ही तो वे गौतम बुद्ध बने। यदि वे मोहवश घर से न निकल पाते, तो शायद यह संसार ‘गौतम बुद्ध’ से वंचित रह जाता! ऐसे में, उनका ‘गृह-त्याग’ नकारात्मक कैसे हो सकता है??? बहरहाल इस संदर्भ में मेरा यह निश्‍चित मत है...और विनम्र सुझाव भी कि यदि हम कवि या लेखक के रूप में किसी पौराणिक प्रसंग का स्पर्श करें, तो हमें उसकी गरिमा को अक्षत्‌-अनाहत्‌ बनाए रखना चाहिए।

अब एक विवेकशील सामाजिक एवं पारिवारिक प्राणी के रूप में जीवन के व्यावहारिक धरातल पर खड़े होकर पलभर के लिए निम्नांकित शे’र पर विचार करें -

बचपन में किसी बात पे हम रूठ गये थे,
उस दिन से इसी शहर में हैं घर नहीं जाते।


उपर्युक्त शे’र एक ‘अखण्ड’ क्रोध और हठधर्मिता का बोध करा रहा है। कोई भी समझदार व्यक्ति इसे ‘ज़िद्दीपन’ की संज्ञा देने में लेशमात्र भी संकोच नहीं करेगा। मानाकि (बक़ौल शाइर) ‘बचपन’ में किसी बात पर...किसी नाराज़गी पर... वे रूठ गये थे, तो स्वाभाविक रूप से मनाया भी गया होगा। मनाने पर तो मान ही जाना चाहिए था। ‘बचपन’ की नाराज़गी का यूँ ‘पचपन’ के पार तक खिंचता चला जाना....किसी भी दृष्टि से तर्कसंगत और न्यायोचित नही है। किसी भी सभ्य समाज में यह व्यवहार ‘अखण्ड’ क्रोध और हठधर्मिता का ही परिचायक कहलाएगा। यहाँ मैं अपनी सहज संवेदना को उन दो जोड़ी वृद्ध आँखों से जुड़ा महसूस कर रहा हूँ जो अपने रूठे हुए बेटे की गृह-वापसी का पथ निहारती हुई कई दशकों से आँसू बहाती रही होंगी...बल्कि कहना चाहिए, ख़ून के आँसू रोयी होंगी। आश्चर्य कि ‘माँ’ जैसे विषय पर सुन्दर-सूक्ष्म चिंतन और गहन-सुकोमल भावों से लबरेज शाइरी करने वाले रचनाकार के दिल में इतनी निष्ठुरता कैसे और कहाँ से आ गयी...!? ग़ौरतलब है कि राना साहब द्वारा ‘माँ’ पर कहे गये बहुसंख्यक शे‘र हृदय की गहराइयों में उतर जाते हैं। उनमें अनुस्यूत गहन अनुभूतियों ने उनकी ग़ज़लगोई को गगन-सी ऊँचाई दी हैं। लेकिन...उन अशआर को इस संदर्भित ग़ज़ल की समीक्षा में शामिल करना विषयांतर होगा जो कि मेरा अभीष्ट नहीं है। यहाँ मेरा अभीष्ट तो सिर्फ़ एक ग़ज़ल पर अपना अनन्तिम अभिमत प्रस्तुत करना है। अतः उसी तारतम्य में बात को आगे बढ़ाता हूँ।

रोचक संयोग तो देखिए... ‘गुफ़्तगू’ (इलाहाबाद) के उसी अंक में और उसी पृष्ठ पर (बराबर में) छपे पद्‌मश्री बेकल उत्साही साहब ने अपनी ग़ज़ल में वाजिब फ़रमाया है कि-

"हुक़्म माँ-बाप का बजा लाओ,
ये इबादत किया करो, भइए!"


इसे कहते हैं...सार्थक व संदेशप्रद सृजन! यह और बात है कि यहाँ बेकल उत्साही साहब एक उपदेशक-मुद्रा में दिखायी दे रहे हैं, लेकिन यह उपदेश जनोपयोगी है, ग्राह्य है। यहाँ रदीफ़ के रूप मे प्रयुक्त ‘भइए’ शब्द ने उनकी बुज़ुर्गाना समझाइश को एक आत्मीय परिवेश दे दिया है। यहाँ माँ-बाप की आज्ञा-पालन को ‘इबादत’ की गरिमा मिल गयी है। निःसंदेह ‘माँ-बाप’ भूलोक के चलते-फिरते एवं सर्व-सुलभ देवी-देवता हैं, उनके ‘हुक़्म’ की तामील...उनकी आज्ञा का पालन किसी इबादत...किसी पूजा से कम नहीं है। वस्तुतः सार्थक संदेश के बिना कोई भी रचना अधूरी होती है। स्वयं ‘रचनाकार’ भी विधाता की एक ‘रचना’ ही तो है। मनुष्य-रूपी इस रचना को भी जीवन के हर मोर्चे पर अपने ‘होने’ की सार्थकता प्रमाणित करनी ही पड़ती है! हम जहाँ कहीं भी अपनी सार्थकता को प्रमाणित करने में असफल हो जाते हैं, उस हर जगह पर हमें पृष्ठ के सम्मानित और बहुध्यानित केन्द्र से हटकर उपेक्षित हाशिए में चले जाने के लिए विवश होना पड़ता है। वस्तुतः आज तक जिस रचना ने भी कालजयी/अमर बनने का सौभाग्य पाया है, उसमें कोई-न-कोई संदेश अवश्य रहा है। फिर चाहे वह विधाता-कृत रचना हो अथवा उस विधाता-कृत रचना द्वारा रची गयी रचना। भविष्य में भी वही रचना लम्बे समय तक जीवित रह सकेगी, जो अपनी सार्थकता प्रमाणित कर पाएगी।

अब एक नज़र मुनव्वर राना साहब की उक्त संदर्भित ग़ज़ल के मक्‍ते (अस्तिका) पर :

हम वार अकेले ही सहा करते हैं ‘राना’
हम साथ में लेकर कहीं लश्कर नहीं जाते।


यहाँ ‘हम’ शब्द की आवृत्ति दो बार हुई है। शैल्पिक दृष्टि से सुगढ़ और श्रेष्ठ कविता के लक्ष्य तक पहुँचने के लिए कवि को सर्वनाम, सहायक क्रियादि स्ट्रक्चरल वर्ड्ज़ की ‘अपव्ययिता’ से बचने का हर संभव प्रयास करना चाहिए। स्पष्टतः उपर्युक्त मक्‍ता ‘हम’ शब्द की फ़िज़ूलख़र्ची का शिकार हो गया है। यक़ीनन बार-बार ‘हम-हम’ की रट से शाइर के आत्म-केन्द्रित चिंतन की अतिशयता ध्वनित हो उठी है। इससे आसानी से बचा जा सकता था। समाधान प्रस्तुत है-

हर वार अकेले ही सहा करते हैं ‘राना’
हम साथ में लेकर कहीं लश्कर नहीं जाते।


यहाँ ग़ौरतलब है कि ‘हर’ शब्द ‘हम’ की तरह स्ट्रक्चरल वर्ड ही है...लेकिन दोनों में एक मूलभूत अन्तर है- ‘हर’ एक विभागसूचक सर्वनाम है, जबकि ‘हम’ व्यक्तिवाचक सर्वनाम। यहाँ प्रश्न उठता है कि जब ‘हर’ और ‘हम’ दोनों ही शब्द मूलतः सर्वनाम हैं, तो इससे अन्तर क्या आ गया है? स्पष्टतः अन्तर आ गया है...और काफी अन्तर आ गया है! प्रथमान्तर तो यही कि यहाँ ‘हर’ शब्द ने शाइर पर हुए ‘वार’ की बारम्बारता एवं उसकी कोटियों (मानसिक-शारीरिक, आदि) की ओर संकेत कर दिया है। द्वितीय यह कि शाइर ‘हम’ शब्द की पुनरावृत्ति से बच गया है जिससे चिंतन की ‘आत्म-केन्द्रीयता’ का ग्राफ भी नीचे गिरा है।

बहुवचनीय प्रथम पुरुष में कही/लिखी गयी इस ग़ज़ल के शेष दोनों शे’रों में अवगुम्फित भाव और विचार प्रशंसनीय हैं...जो कि ग़ज़लकार को बधाई का पात्र बनाते हैं। मुझे मुनव्वर राना साहब से सदैव श्रेष्ठ चिंतन-प्रधान शाइरी की अपेक्षा रहती है- इस प्रसन्नता के साथ कि मेरी अपेक्षा एक सक्षम-समर्थ और अति उर्वर लेखनी से जुड़ी है!

चलते-चलते:
काव्य-रचना और ‘काव्य-कचरा’ के बीच एक तबील फ़ासला होता है। किसी भी रचना में से ‘कचरांश’ को छाँट-बीनकर अलग किया जा सकता है, बस थोड़ी-सी अवधानता की आवश्यकता होती है। कचरा कहीं भी पाया जा सकता है...और पाया भी जाता है; सृजन के उत्तुंग शिखरों पर भी, गहन उपत्यकाओं में भी! हाँ, इतना अवश्य है कि कचरे की मात्रा रचनाकार की समग्र सृजनात्मक योग्यता और सृजन-पलों में क्रियाशील अवधानता के अनुपात में कहीं कम तो कहीं ज़्यादा हो सकती है। कई बार तो प्रयास करने पर छाँटे गये कचरे को पुनर्चक्रित (री-साइकल) या व्यवस्थित कर देने से ‘सोना’ नहीं...तो कम-से-कम ‘पीतल’ तो बन ही जाती है...अँग्रेज़ी में कहें तो- ‘ज़िंक फ़्रॉम जंक’!


आगामी अंकों में:

चार पंक्तियाँ, चौदह ग़लतियाँ।
ऊँची दुकान, फीका पकवान।
‘सकलांग’ लेखकों की ‘विकलांग’ भाषा।
‘कवि सम्मेलन’ बनाम ‘कपि सम्मेलन’
...जौहर तेरे अन्दाज़े-बयानी पे फ़िदा है!
प्लेजरिज़्म का प्लेजर।
साहित्यकारों का डॉक्टरीकरण।
आदि-आदि।


जितेन्द्र ‘जौहर’
अंग्रेज़ी विभाग,
एबीआई कॉलेज, रेणुसागर, सोनभद्र (उप्र).
आई आर-13/6, रेणुसागर, सोनभद्र (उप्र) 231218.
मोबा. नं 9450320472
ईमेल jjauharpoet@gmail.com
वेब-पता http://jitendrajauhar.blogspot.com

Thursday, June 16, 2011

हिन्दयुग्म ने मिलवाया दो पुरानी सहेलियों को

27 साल पहले बोधगया के एक गाँव में गये स्काउट गाइड में संध्या (बायें) और संगीता (दायें)

ये बात आपको फिल्मी स्टाइल लग सकती है या कोई तिलस्म पर ये बिल्कुल सच्ची घटना है जिस पर मुझे भी आश्चर्य है। सन 1979 की बात है हम गाइडिंग के एक कैम्प में सलोगड़ा में मिले थे। वो दिल्ली से आई थी और मैं बीकानेर से। 5 दिन की हमारी छोटी से मुलाकात दोस्ती में बदल गई। उसने मेरी पता लिया और मैने उसका। वो ज़माना चिट्ठी-पत्री का था। एक दो खत उसके आए और मैंने भी लिखे। फिर हम 1980 में बोधगया में राष्ट्रीय स्काउट-गाइड जम्बूरी में मिले। वहाँ 15 दिन के साथ ने हमारी दोस्ती को नया आयाम दिया। साथ-साथ उठना-बैठना, सोना-जागना, खाना-पीना, नाचना-कूदना और ढेर सारे रोमांचक खेलों में भाग लेना। जब लौटने का समय आया तो हमारी आँखों में आँसू थे। लौट कर आने के बाद हमारे खतों का सिलसिला बढ़ गया। फिर तो हमें इंतज़ार रहता कि कब कोई कैम्प आयोजित हो और हम उसमें आएं और गले लगकर मिलें। उसके पापा और मेरे पापा रेल्वे विभाग में थे और उस के अंतर्गत हम स्काउटिंग गाइडिंग संस्था से जुड़े हुए थे।

खतों का सिलसिला चलता रहा। ना जाने कितने खत आए और कितने खत मैंने भेजे। अंतर्देशीय पत्र, लिफाफे, ग्रीटिंग कार्ड पर कभी पोस्टकार्ड नहीं था। एक बार पापा मम्मी के साथ दिल्ली जाना हुआ तो वो मुझे मिलने मेरी ताई जी के घर आई जहाँ मैं रुकी हुई थी। मेरी शादी हुई 1985 में तो शगुन के साथ उसका प्यार भरा पत्र भी आया। मैं और मेरे पति जब पहली यात्रा पर निकले तब उसके घर गये। वो प्यार से खाना खिलाना मुझे याद है। कुछ खत और भी आए पर एक ग्रीटिंग कार्ड 1986-87 आया जो शायद अंतिम था। मैंने उसे कईं खत लिखे पर उसका कोई जवाब नहीं आया। मैं हार कर बैठ गई। कुछ दिन यह सोच कर कि उसकी नई शादी हुई होगी। नई परिस्थिति में अपने आप को ढालने की कोशिश कर रही होगी। पर पूरे 25 साल बीत गए। इधर मैं भी उसे ना भुलाते हुए भी अपने जीवन में व्यस्त हो गई। उसके द्वारा भेजे गए सारे खत सम्भाल कर रखे और समय-सम्य पर निकाल्कर पढ़ती रही। फिर एक बार हिंदयुग्म पर सितम्बर माह की युनिकविता प्रतियोगिता के अंतर्गत मेरी कविता “मैं छोटी-सी गुड़िया हूँ” प्रकाशित हुई। कविता पर आई पाठकों की टिप्प्णियाँ पढ़ रही थी कि चौंक गई। कविता में टिप्प्णी करने के बजाय लिखा था संगीता तुम्हें कहाँ-कहाँ नहीं ढूँढ़ा। जब भी तुम्हारा नाम पढ़ती सोचती तुम वही संगीता हो। राजीव का क्या हाल है। मैं बहुत खुश हूँ। “सन्ध्या गर्ग ” और अपना मेल एड्रेस था। यानी वो मेरे भाई राजीव को भी याद रखे थी। मैं एकदम पहचान गई कि ये वो ही सन्ध्या बत्रा है जिसे मैंने भी कहाँ-कहाँ नहीं ढूँढ़ा। मेरी आँखों से अश्रुधारा बह गई। मैन हर्षतिरेक से चीख पड़ी। अपने पति और बच्चों को बताने भागी। अब मेल का सिलसिला शुरू हुआ और फोन नं. की माँग की।

मेल पर वो सारी बातें कर ली और समय निर्धारित कर लिया ताकि जब फोन पर इतने बरसों की बात करें तो हमारी दिनचर्या का कोई काम आड़े ना आए। फिर एक दिन फोन पर बात की और सारे गिले-शिकवे कर डाले। वो भी खुशी से पागल थी और मैं भी। उसने मुझे बताया कि वो दिल्ली के जानकी देवी कॉलेज में हिन्दी की व्याख्याता है। उसई के एक विद्यार्थी की कविता हिंदयुग्म पर प्रकाशित हुई थी और उसके आग्रह पर वो हिन्दयुग्म की साइट पर गई थी। सुखद आश्चर्य था मेरे लिए कि बचपन की दोनों सहेलियाँ जीवन-स्तर की एक ही प्रोफाइल में जी रही थी। सोचिए अगर हममें से एक भी कम पढ़ी-लिखी होती या पढ़े-लिखे होने से क्या होता है? हममें से एक भी कम्प्यूटर ज्ञान वाली ना होती। पर कम्प्य़ूटर ज्ञान से भी क्या होता है? हममें से कोई एक भी नेट सर्च करने वाली ना होती। नेट सर्च करने से क्या होता है जी? हममें से एक भी साहित्य में दखल देने वाली ना होती तो क्या हम मिल पाते? बचपन में बिछड़े दोस्तों का बड़े होकर समान क्षेत्र हो ये आश्चर्य नहीं तो और क्या है। भला हो इस कम्प्यूटर युग का और शुक्रिया हिन्द युग्म का कि जिसने बरसों से बिछड़ी सहेलियों को मिलवाया। आज मैंने सन्ध्या को फेस्बुक पर भी एड कर लिया है।

संगीता सेठी
1/242 मुक्त प्रसाद नगर
बीकानेर (राज)


मंच पर डॉ. संध्या

मंच पर संगीता

मुस्कुराती संध्या

मुस्कुराती संगीता

27 साल पहले की संध्या (मध्य में)

टूर पर बिंदास संध्या (नैनीताल)

टूर पर बिंदास संगीता (बंगलूरू)

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