Monday, July 20, 2009

मदरसों में कुरान के साथ कंप्यूटर भी ज़रूरी है

मुसलमानों पर बहस ज़रूरी है...



किसी भी मुद्दे पर होने वाले सम्मलेन समस्याओं का निदान तो नहीं कर सकते लेकिन लोगों में जागरूकता लाने का काम ज़रूर कर सकते हैं, इसीलिए ज़रूरी है कि बतौर वक्ता हिस्सा ले रहे विद्वान समस्याओं पर फोकस करें ना कि खोखली भाषणबाज़ी...बरेली सम्मलेन हालांकि समस्याओं पर ही केन्द्रित था....बतौर वक्ता पहुंचे पत्रकार निखिल आनंद गिरि ने जिस तरह लीडरशिप को आईना दिखाया वो काबिले तारीफ़ था उनके मुताबिक एक कोशिश ऐसी हो जैसी कभी सर सैय्यद अहमद खान ने की थी जहाँ कुछ देने का जज्बा था, जहाँ सिर्फ सेवा भाव था... निखिल ने बताया कि आप खाली नकारात्मक भाव न रखें... आप जामिया को ख़याल में रखें, आप अलीगढ को ध्यान में लायें.... उन्होंने मुसलमानों से हौसला रखने की अपील की जो आज वाकई ज़रूरी है....हिंदयुग्म के प्रयासों के बारे में बताते हुए निखिल ने ज़ोर देकर कहा अब वक्त आ गया है कि मदरसों में कुरान के साथ कंप्यूटर अनिवार्य कर देना चाहिए....हिंदयुग्म इस वहीं दूसरे पत्रकार रशीद अली ने बताया की कभी मुस्लिम ताकतें अपने इक्तिदार(पद की लालसा) के लिए दूसरो से लड़ती थीं... उनका मतलब गलत नहीं था लेकिन मेरी एक गुजारिश है कि वो पहले मुस्लिम की पहचान ठीक से कर लें वर्ना यही भ्रम की स्थिति रहेगी.... मैं यहाँ बताना चाहता हूँ कि मुसलमानों के नबी मुहम्मद साहब (स०,अo) ने वर्चस्व की कोई जंग नहीं की...
अब बात उनके घराने की आती है जहाँ इसलाम की हिफाज़त हो रही थी तो इतिहास गवाह है की सुल्हे हसनी (इस्लामी तारीख की एक मशहूर सुलह) इसलिए हुई कि तख्तो-ताज की ज़रुरत बनी हाशिम(मोहम्मद साहब के वंशज) को नहीं थी... इसके बाद कर्बला में मुस्लिम ताकतों पर क्या गुज़री उससे तो सब ही वाकिफ हैं.... ये ताक़त का मुज़ाहिरा था या अपनी कुर्बानी.... इस्लाम मारना नहीं सिखाता, हाँ अपनी कुर्बानी दे देने का नाम ही इस्लाम है.. अब रशीद साहब आप किन मुसलमान ताकतों की बात कर रहे थे नहीं मालूम.... इसके अलावा भी एक बात सम्मलेन में उठी कि उर्दू ज़बान को बचाना है... मैं पूछना चाहता हूँ कि उर्दू पर कौन सा हमला हो रहा है... उर्दू की पैरवी करने वालों को शायद नहीं पता कि उत्तर प्रदेश के हर दफ्तर में उर्दू अनुवादक उर्दू दरख्वास्तों के अभाव में मक्खी मार रहे हैं या दूसरे काम कर रहे हैं....... ये गलती किसकी है....... दूसरी तरफ देश के मीडिया संस्थान उर्दू ज़बान को फरोग(बढ़ावा) दे रहे हैं.....फिल्म उद्योग ने उर्दू को हमेशा फरोग दिया ऐसे में आप की बेचैनी समझ के बाहर है

बरेली सम्मलेन मुसलमानों की समस्याओं से रू-ब-रू कराने वाली एक बेहतरीन पहल थी.... काबिले तारीफ़ हैं वह लोग जिन्होंने यह साहसी पहल की और एक समुदाय को सच्ची तस्वीर दिखाई... समस्याओं के आंकलन में वक्ताओं ने जो नज़रिए पेश किये वह बरेली शहर की दीवारों में ज्यादा दिन क़ैद नहीं रहेंगे.. एक नयी सुबह आने वाली है बशर्ते आपको इन्तिखाब का इरफान (चुनने का सलीका) हो.... हर मुसलमान अपने हक की मांग अपने मुंह से करना सीखे... घरों से निकलिये... मुख्य-धारा का बहाव बहुत ही सुखदाई है और इस एहसास के साथ कि अगर आप समाधान का हिस्सा नहीं हैं तो आप ही समस्या हैं.......

हाशम अब्बास नक़वी 'बज़्मी'
(बरेली सम्मेलन हिंदयुग्म के लिए एक अलग तरह का अनुभव था....मुसलमानों की समस्याओं पर बहस जारी रहेगी....पाठक इस विषय पर अपने विचार भी भेज सकते हैं...फिलहाल, हाशम के लेख की ये आखिरी कड़ी थी)

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4 बैठकबाजों का कहना है :

Manju Gupta का कहना है कि -

गिरी जी का सकारात्मक वक्तव्य पढ़ा .कंप्यूटर की सोच सराहनीय है .सम्प्रदाय सदभाव और जागरूकता का संदेश मिलता है . बधाई

Disha का कहना है कि -

हमें लगता है मुसलमानों को कट्टरपंथी रवैया छोड़ सकारात्मक और प्रगतिशील सोच अपनानी चाहिये.तभी मुसलमान समाज का विकास संभव है.वो कहते है ना कि ईश्वर/खुदा भी उन्ही की मदद करता है जो स्वयं अपने लिये कदम बढ़ाते है.शिक्षा के सभी मंदिरों में आधुनिक साधन होने चाहिये इस बात का हम भी समर्थन करते हैं..

तपन शर्मा Tapan Sharma का कहना है कि -

कम्प्यूटर सीख लें तो बेहतर है... मैं केवल इतना जानता हूँ.. मुसलमानों में अशिक्षा और गरीबी के मुसलमान खुद जिम्मेवार हैं...

Shamikh Faraz का कहना है कि -

बेशक हाशमी और गिरि जी मैं आपसे पूरी तरह से इत्तेफाक रखता हूँ कि मदरसों में कुरआन के साथ कंप्यूटर भी ज़रूरी हो क्योंकि मज़हबी तालीम के साथ दुनयावी तालीम भी बहुत ज़रूरी है. और ऐसा करना कोई गलत करना नहीं है या यह इस्लाम में कोई बिदत (कोई नई बात शामिल करना जो कि पैगम्बर साहब ने न बताई हो) नहीं है. बल्कि ऐसा तो खुद पैगम्बर मुहम्मद साहब (स० अ0) ने कहा है "इल्म हासिल करो इस के लिए चाहे तुम्हें चीन तक जाना पड़े." इस बात से साफ़ ज़ाहिर होता है कि यह बात दुनयावी इल्म के बारे में कही गई है न कि इस्लामी या मज़हबी इल्म के बारे में क्योंकि चीन में कोई इस्लामी इल्म नहीं दिया जाता था और उस वक़्त चीन का रास्ता अरब से बहुत मुश्किल माना जाता था. देखिए इस्लाम में दुनयावी इल्म को कितना ज़रूरी बताया गया और सामाजिक पहलु से भी modern तालीम ज़रूरी है. चाहे किसी नज़रिए से देख लें मुसलमानों को अब अपनी तालीम पर ज़रूर ध्यान देना चाहिए. हालाँकि अब कुछ फर्क ज़रूर आया है पहले के मुकाबले लेकिन अब भी ज़रुरत है कुछ और जागरूकता लाने की.

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